एकलव्य: पुनर्पाठ (वक्तव्य और कविता) /हरिराम मीणा

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'अपनी माटी' 
(ISSN 2322-0724 Apni Maati
इस अप्रैल-2014 अंक से दूसरे वर्ष में प्रवेश
एकलव्य: पुनर्पाठ (वक्तव्य और कविता) /हरिराम मीणा

चित्रांकन:रोहित रूसिया,छिन्दवाड़ा
महाभारत का एकलव्य एक ऐसा चर्चित पात्र है जिसे आमजन ‘‘आदर्श शिष्य‘‘ के रूप में जानता आया है। वह एक ऐसा शिष्य था जिसे द्रोणाचार्य ने शिक्षा-दीक्षा देने से मना कर दिया फिर भी एकलव्य नेे द्रोण को गुरू मान लिया। आचार्य द्रोण की मृणमूर्ति बनाकर उससे प्रेरणा ली। धनुर्विद्या की सतत साधना की एवं लाघव प्राप्त कर लिया। जब गुरू द्रोण को इसका पता चला तो उसने एकलव्य से दक्षिणा मांगी। एकलव्य ने गुरू की इच्छानुसार अपने दाहिने हाथ का वह अंगूठा दक्षिणा में दे दिया जो उसकी धनुर्निपुणता का बड़ा सम्बल था। लोकप्रियता के स्तर पर एकलव्य का यह प्रसंग यहीं तक सीमित है।

मैं बड़े अरसे से इस बात पर सोचता रहा हूँ कि आचार्य द्रोण ने कौरव-पांडव राजपुत्रों को भीष्म के आग्रह पर धनुर्विद्या सिखायी थी। वह भी सवेतनिक। एकलव्य अनार्य निषाद था, इसलिए द्रोणाचार्य ने उसे दीक्षित करने से मना किया। उसने यह स्पष्ट कहा कि ‘‘मैं केवल क्षत्रिय एवं ब्राह्मणों को ही दी़क्षा देता हूँ।‘‘ एकलव्य को निश्चित रूप से इस तथ्य का पता होगा। वह स्वयं साधारण निषाद नहीं था। निषादों के राजा (प्रमुख) हिरण्यधनु का पुत्र था अर्थात् वह भी राजपुत्र था। शायद वह राजपुत्र के रूप में ही गुरू द्रोण के पास पहुंचा होगा। लेकिन गुरू ने उसे अनार्य मानकर शिष्य बनाने से इनकार कर दिया। आर्य-अनार्य संघर्ष की लम्बी परंपरा इस घटना के बहुत पहले से चली आ रही थी। इसका भी ज्ञान एकलव्य को निःसंदेह रहा ही होगा। इस पृष्ठभूमि में यह प्रश्न उठता है कि इन हालात में भी क्या एकलव्य ने स्वेच्छा से अपना प्रिय अंगूठा काट कर बतौर दक्षिणा दे दिया होगा ?

मैंने श्री रामकुमार वर्मा की कृति ‘‘एकलव्य‘‘ (महाकाव्य) को पढ़ा। उसकी भूमिका एवं परिशिष्ट ‘‘ख‘‘ में उन्होंने एकलव्य से संबंधित महाभारत के कुल अड़तीस श्लोक ज्यों के त्यों उद्धृत किए हैं। इसका सत्यापन मैंने मूल महाभारत से किया और कुछ विद्वानों से चर्चा भी की जिनमें संस्कृत के प्रकाण्ड मनीषी श्री कलानाथ शास्त्री भी शामिल हैं। इन सबके आधार पर पूर्वोक्त मत और पुख्ता हुआ।एकलव्य के विषय में तीन निष्कर्ष सामने आते हैं - प्रथम, एकलव्य ने स्वेच्छा से अंगूठा दक्षिणा में नहीं दिया। द्रोण पर्व के एक सौ इक्यासीवें अध्याय का सतरहवां श्लोक है-

‘‘त्वहितार्थे  च  नैषदिरऽगुष्ठेन  वियोजितः।
द्रोणआचार्यकं कृत्वा छद्मना सत्य विक्रमः।।‘‘

अर्थात् श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, ‘‘तुम्हारे हित के लिए ही द्रोण ने आचार्य बनकर सत्य-विक्रम एकलव्य का छल से अंगुठा कटवा दिया था।‘‘ घटना की जो पृष्ठभूमि ऊपर बतायी गयी, उस समस्त को ध्यान में रखें तो स्पष्ट संकेत मिलते हैं कि अंगूठा जबरदस्ती काटा होगा। इसके लिए गुरू और शिष्य सब उत्तरदायी होने चाहिए। गुरू का ध्येय था कि कौरव व पाण्डव राजपुत्र महान यौद्धा और शस्त्रास्त्रों में पारंगत बनें और अर्जुन सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर।
अंगूठा कटने से पहले एकलव्य इन सबके लिए चुनौती बन चुका था। इस अध्याय का उन्नीसवां श्लोक इसका प्रमाण है-

‘‘एकलव्यं  हि  साण्गुष्ठम्षक्ता  देव दानवाः।
स राक्षसोरगाः पार्थ विजेतुं युधि कर्हिचित्।।‘‘

अर्थात् श्री कृष्ण अर्जुन से फिर कहते हैं, ‘‘हे पार्थ! यदि एकलव्य अंगुष्ठ सहित होता तो देवता, दानव, राक्षस और नाग - ये सब मिलकर भी युद्ध में उसे जीत नहीं सकते थे।‘‘

द्वितीय, अंगूठा कट जाने के बाद भी एकलव्य खतरनाक था। खतरनाक इस अर्थ में कि अर्जुन के सामने युद्ध में भयंकर सिद्ध होता। इसी पर्व के इसी अध्याय के दूसरे श्लोक में श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं -

‘‘जरासंधष्चेदिराजो  नैषदिष्च  महाबलः।
यदि स्युर्न हताः पूर्वमिदानीं स्युर्भयंकराः।।‘‘

अर्थात् ‘‘हे अर्जुन! जरासंध, शिशुपाल और महाबली एकलव्य यदि ये सब पहले ही न मारे गये होते तो इस समय बहुत भयंकर सिद्ध होते।‘‘ ध्यातव्य है कि जब श्री कृष्ण ने अर्जुन को यह बात कही तब तक महाभारत युद्ध छिड़ चुका था। अर्थात् अंगूठाविहीन एकलव्य भी खतरा था।

तृतीय, इस खतरे को टालने का सीधा उपाय अर्थात् युद्ध को नहीं माना गया। एकलव्य महाभारत में दुर्याेधन के दल में था, चूंकि उसका शत्रु आचार्य द्रोण से बढ़कर अर्जुन था जिसे सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाने के लिए ही एकलव्य को अंगुठा खोना पड़ा था। अर्जुन उसे हरा न पाता। इसीलिए सब सौगंध तोड़ कर स्वयं श्री कृष्ण ने लड़ने से पहले ही एकलव्य का वध कर डाला।

इसी अध्याय के इक्कीसवें श्लोक की प्रथम पंक्ति है -

‘‘त्वहितार्थे तु स मया हतः संग्राम मूर्धनि।‘‘

श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, ‘‘तुम्हारे हित के लिए ही मैंने उसे (एकलव्य को) युद्ध के अग्रभाग में ही मार डाला था।‘‘

महाभारत की एक रोचक बात है जिसका गहन अर्थ होना चाहिए। वह यह कि अधिकांश अनार्य  पात्र दुर्योधन की तरफ थे। युद्ध से पहले जरासंध, शिशुपाल, युद्धातुर एकलव्य, सूतपुत्र कर्ण यहां तक कि हिडम्बा-भीम पुत्र घटोत्कच का किशोर बेटा बर्बरीक भी। ये सब महान यौद्धा थे। कर्ण के वध में कृष्ण की प्रेरणा थी। बर्बरीक को बहकाकर उसका शीष कटवाने का काम श्री कृष्ण ने किया। एकलव्य की भांति युद्ध से पहले उसे मार दिया। शिशुपाल और जरासंध के वध की बात को स्पष्ट है ही।

जारा शबर नामक भील के हाथों श्री कृष्ण का वध होता है। हरिण की आँख समझकर वधिक का बाण भूलवश श्री कृष्ण के पैर (चमकता पद्माक्ष) में लगने से उनकी मृत्यु की बात पचती नहीं। अगर आखेट था तो बाण जहरीला नहीं होगा। विषविहीन बाण पांव में लगे तो तत्काल मृत्यु सम्भव नहीं। एकलव्य के वध से उस घटना का कोई संबंध होना चाहिए।एकलव्य के जीवन से संबंधित इस प्रसंग पर अच्छा उपन्यास बन सकता है, अच्छा नाटक भी लिखा जा सकता है और अच्छी काव्य-कृति भी। महाकाव्य तो रामकुमार वर्मा जी ने लिखा ही है। लेकिन उन्होंने एकलव्य के साथ न्याय नहीं किया। आमुख में उन्होंने अपना दृष्टिकोण स्पष्ट कर दिया, यह कह कर कि ‘‘इतने बड़े आचार्य की प्रवृत्ति क्या इतनी क्षुद्र  होगी ? ‘‘ और ‘आचार्य‘ शब्द लांछित न हो, यही ‘‘विधेय‘‘ था उनका। 

मैंने कविता के माध्यम से अपनी बात कहने का प्रयास किया है। यह मेरी बात मुझ तक सीमित, फिर भी इस सारे प्रसंग को देखते हुए एकलव्य पर पुनर्विचार तो होना ही चाहिए। 
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एकलव्यः

(1)

कान पक गये
सुनते सुनते - गुरू की महिमा 
             आज्ञाकारी शिष्य 
     दक्षिणा में अंगूठा

‘‘मैं भी राजा का बेटा1
अधिकारी विद्या का‘‘
एकलव्य,
क्या ऐसा ही कुछ कहा नहीं तुमने आचार्य द्रोण कोे

भोले तुम,
आदिम-परंपरा में पला हुआ निर्मल मन
गुरू था ‘‘अनुबंधित‘‘
समझाता
हठ तो नहीं, विनय ही की थी
घोर निरादरसने टके सा
सुन जवाब
उम्मीदों का ढूह ढहा
छाती में जैसे तीर चुभा

घर न लौट
वस्तुतः गये गणचिह्न2 वृक्ष तक 
जहाँ-
निकट नाले की गीली माटी से 
आचार्य द्रोण की मूर्त्ति बनायी
जिसके चेहरे के भावों में 
- गुरूता नहीं,
पक्षधरता की लघुता झलकी 

उस प्रतिमा को देख
     
‘‘तू अनार्य
तू निषाद
तू शूद्र, नीच
दीक्षा लेगा हमसे ?‘‘

हाँ, यही शब्द
टकराये होंगे कनपटियों से बार बार
गूँजे होंगे मस्तिष्क कंदराओं के भीतर
हृदय-सिंधु में उमड़ा होगा ज्वार घृणा का
भोली आँखों के पर्दों पर खून सिमट आया होगा
घनीभूत प्रतिषोशोध-तरंगें दौड़ी होंगी अंग-अंग में
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1. एकलव्य निषादों के राजा (प्रमुख) हिरण्यधनु का पुत्र था।
2. एकलव्य के आदिवासी कुल का गणचिह्न ‘महुवा‘ का पेड़ रहा है। 

दृष्टि टिक गयी होगी प्रतिमा के चहरे पर
और स्वतः ही -
बायां हाथ उठा आगे 
मुट्ठी में पकड़ा कसकर
   - धनुर्दण्ड के मध्यभाग को
दाहिना हाथ गया तरकस पर 
बाण चढाया
साधा
खींची प्रत्यंचा कंधे तक
( परंपरा के आंगन में सीखा था सबकुछ
चूक कहाँ, कैसे, क्यूं होती )
पहला तीर - बिंधा मस्तक
‘‘ लो,
 प्रणाम किया गुरू‘‘
- कहा और कर दी बाणों की वर्षा
थमी न होगी तब तक 
जब तक 
क्षत-विक्षत न हुई वह प्रतिमा

यह ‘‘दुस्साहस‘‘ देख
गुरू की आज्ञा से शिष्यों ने छोड़ा होगा कुत्ता
किंतु झपटने से पहले 
मुख बाणों से भर दिया 
बिन प्राण लिये भेजा वापस

देखा - गुरू ने, शिष्यों ने
‘‘प्रिय श्वान !
बाण भरे तरकस सा जबड़ा लहूलुहान
यह हाल !!‘‘
(अद्भुत कौशल लेकिन दुस्साहस)

एकलव्य,
उस वक्त अकेले थे तुम वन में
गुरू की अगुवाई में सब शिष्यों ने घेरा
पकड़ा, पटका तुम्हें धरा पर
और अंगूठा.........................

बर्बरता नाची होगी इर्द-गिर्द
चहुँदिशी में  गूँजा क्रूर अट्टहास.........

आदिम कुल-कौशल का प्रतीक
वह कटा अंगूठा
धरती पर जब तड़पा कुछ पल
उस वक्त
बताओ एकलव्य,
धोखे से घायल बाघ समान नहीं थे तुम
चीखे-चिल्लाये नहीं
दहाड़े ही होंगे

सुनकर दहाड़
बिन मौसम कड़का आसमान
कांपे थे सिंहों के अयाल
बांसों में अंकुर फूटे थे
थर्रायी खूनसनी धरती
वन में आँधी
भीतर भीतर दहले पर्वत, कुछ शिखर ढहे होंगे
 - अवश्य 
वह पेड़ हिला होगा जड़ तक
मासूम परिंदे भौंचक्के उड़ भागे होंगे इधर उधर
कोहराम मचा नभमंडल में
ज्यों गाज गिरी हो अंचल में

वह कटा अंगूठा
एकलव्य,
था मात्र देह का अंग नहीं
कुछ था उसके पीछे
जैसे -
कौशल की आदि-नदी
अविरत श्रम का गहरा सागर
संकल्पों का ऊँचा पर्वत
स्वप्नों का अनन्त आसमान
जन-संस्कृति की फलवती धरा
उस सबको
- हरने का प्रयास था छुपा हुआ
   उस घटना में

(2)

फिर भी 
तुमने हार न मानी
साधते रहे अपनी विद्या
बिन अंगूठे का पंजा देखा बार बार
घूमे वन में
बदले की आग लिए मन में
जैसे हो घायल बब्बर शेर
सोचा,
‘‘गुरू द्रोण नहीं दोषी
प्रतिद्वंद्वी तो मेरा अर्जुन‘‘

अनवरत काल का यात्रा पथ
आ धमका अटल ‘‘महाभारत‘‘
देखा तुमको
- दुर्योधन के दल में
चौंके श्री कृष्ण
खडे़ तुम अग्रभाग में 
‘‘हे अर्जुन,
यह निषाद है खतरनाक
धनुर्निपुण तुमसे बढ़कर अब भी‘‘


सुन अर्जुन दंग, अवाक्
आभा ललाट की क्षीण 
ज्यों,
सूरज का तेज ढँका काले बादल ने 
एकाग्र दृष्टि तुम पर
जिसको मछली की आँख दिखी
उसको
पूरे तुम दिखे काल जैसे
दिल दहला, काँपा सारा तन
आभास हुआ -
चीते के आगे निरीह मृग
‘‘दुर्भेद्य लक्ष्य 
कंपायमान है धनुर्दण्ड
प्रत्यंचा खिंचती नहीं
न ही सधते नाराच
निस्तेज हुए दैवीय शस्त्र
हे सखा-सारथी, बनों ईश कुछ करो‘‘
- कहा धीरे से गर्दन नीची कर

‘‘मेैंने ली सौगंध - रहूँगा शस्त्रहीन
यह भी कि लड़ूँगा नहीं
अदृश्य शक्ति छोडूँगा तो
-ईश्वर की छवि का क्या होगा?
पर, 
प्रण यह भी -
वर्चस्व तुम्हारा बना रहे‘‘

वह -
चौंसठ कला प्रवीण ‘‘ईश‘‘
योगी
चमत्कारी 
था बहुत अनुभवी जन्मों से 
साधन से बढ़कर
सदा साध्य का था साधक
समझा
सोचा
सूझा विकल्प

लीला अवतारी
थाली से सूरज को ढंक सकता था
उसके समक्ष
छल का संबल ही था विकल्प
रण-विधि विरूद्ध का कूट कृत्य
वह गुप्त सुदर्शन चक्र बना
  जिसका माध्यम

कितने भी महान धनुर्वीर
आखिर में थे भोले निषाद
सपनों में भी न देख पाये
क्या होती है छल की माया
ईश्वर अर्जुन
अर्जुन ईश्वर
मानव-अवतारी मायावी
थी शक्ति, निपुणता कई गुणी
पर
पुनः कपट की जीत हुई।

(3)

संघर्षों का क्रम लंबा था 
सतयुग से लेकर द्वापर तक 
आगे भी..................

द्वापर का वह महाभारत
उस एक युद्ध की अल्पावधि में
जाने कितने युद्ध छिड़े
द्रोपदी, शिखंडी 
कर्ण, द्रोण, अश्वत्थामा 
अभिमन्यु, पितामह
पांडुपुत्र, कौरव
उनके साथी-संगी
सबके-
अपने अपने प्रण, प्रतिबद्धता, विवशता 
सब लड़े लड़ाई निजी निजी

तुम बिना लड़े
सिद्ध हुए एक महा-यौद्धा
अर्जुन न लड़ सका तुमसे
किस धर्मयुद्ध के लिए तुम्हें ‘‘ईश्वर‘‘ ने मारा ?
यह प्रष्न
काल के झोले में कब तक अनसुलझा ?

मरते हैं व्यक्ति, न परंपरा
प्रतिरोध - नदी बहती रहती
घाटियां पार करतीं
चट्टान तोड़ बढती - आगे चलती........

हाँ, एकलव्य -
वह ईश्वर था
(अच्छा है अमर रहे, खुश रहे स्वर्ग में)
पर, 
मृत्युलोक का धर्म निभाना होता है
उस महायुद्ध में जो हारे वे खत्म हुए
जो जीते, 
वे चल दिये नियति की राहों पर

(4)

अब रहा अकेला ईश्वर 
कितना भटका था यहाँ-वहाँ
(यह अलग बात -
स्मृतियों में था पूर्वजन्म
     - बाली
      वरदान
                   बैकुण्ठ - धाम)

वह-
अजर, अमर
विभु, पूर्ण, शांत , स्पृहाहीन
- सच्चिदानंद
अब -
गहरा अंतर्द्वंद्व
मकड़जाल
स्वयं का बुना हुआ

‘‘अरे सखा अर्जुन, 
एकलव्य-वध के प्रेरक,
यह गहन ‘‘द्वंद्व‘‘
असफल ‘‘गीता‘‘
निस्वन यह वन
बूढा पीपल
जिसकी छाया में बैठा मैं
अभ्यंतर पश्चाताप सघन
किस विधि प्राश्यचित करूँ आज
-सौगंध तोड़ अमलिन निषाद को क्यों मारा ?

सब चले गये
-कौरव-पांडव, उनका दल-बल
वसुदेव-देवकी
नंद-यशोदा 
रानियां नहीं हैं आसपास
बलराम समाया सागर में
यदुवंशी  ‘‘मूसल‘‘ ने मारे
बच गया अकेला मैं
एवं यह प्रश्न ठूँठ सा - 
उस एकलव्य को कपट नीति से क्यों मारा ?‘‘

निर्जन
एकांत
पवन स्थिर
वन-प्राणी चुप
वृक्षों में नहीं सरसराहट
चहुँ ओर निपट नीरवरता
जड़-चेतन सब शांत 
किंतु ईश्वर अशांत (!)
जिसके -
कानों के पर्दों से टकराता जाता वही प्रश्न 
‘‘बिन लड़े लड़ाई अपनी उस यौद्धा को 
     मैंने क्यों मारा ???‘‘

अंततः-
जीवन की कठोर धरती पर
जंगल में जंगल का बदला
मूर्त्तरूप जारा शबर भील
कुछ था तुमसे उसका रिश्ता 
-गुदड़ी के धागों सा
पदमाक्ष चमकता
या कि हरिण की आँख दिखी 
मौत का बहाना
भ्रमित हुआ आखेटक
या प्रतिशोधातुर ?
हत्या
   हंता
प्रतिशोध-बाण एवं 
  अनंत का अंत (!)

हरिराम मीणा
ऐतिहासिक उपन्यास धूणी तपे तीर 
से लोकप्रिय 
सेवानिवृत प्रशासनिक अधिकारी,
विश्वविद्यालयों में 
विजिटिंग प्रोफ़ेसर 
और राजस्थान विश्वविद्यालय
में शिक्षा दीक्षा
ब्लॉग-http://harirammeena.blogspot.in
31, शिवशक्ति नगर,
किंग्स रोड़, अजमेर हाई-वे,
जयपुर-302019
दूरभाष- 94141-24101
ईमेल - hrmbms@yahoo.co.in
फेसबुकी-संपर्क 





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4 टिप्पणियाँ

  1. यक्ष-प्रश्न सदियों से मानस पटल पर भटक रहा है..मीणा जी ने इन पंक्तियों को जिया हो जैसे...अद्भुत.;..

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  2. वाह वाह क्या कहूँ भइया जी आपने सबकुछ कह दिया

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