साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका
'अपनी माटी'
(ISSN 2322-0724 Apni Maati)
इस अप्रैल-2014 अंक से दूसरे वर्ष में प्रवेश
आलेख:गांधीवाद की परख और संभावना की तलाश वाया गोडसे@गांधी.कॉम/डॉ.मोहसिन ख़ान
महात्मा गांधी आधुनिक भारत के सबसे अधिक प्रसिद्ध
व्यक्तित्त्व ही नहीं बल्कि वे एक प्रेरणा स्रोत के रूप में पहचाने जाने वाले
वैश्विक धरातल पर प्रतिष्ठित दार्शनिक भी हैं। हजारों की संख्या में उन पर पुस्तकें
केन्द्रित हैं और निरंतर पूरे विश्व में शोध का विषय बने हुए हैं। गांधी जी की
विचारधारा को लेकर देश ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी ऐसा विशिष्ट आकर्षण है कि प्रत्येक
वर्ष दुनिया के अलग-अलग कोनों से उनके जीवन और राजनीति को समझने और व्याख्या हेतु
पुस्तकों का निरंतर प्रकाशन होता चला जाता है। गांधी जी पर केन्द्रित पुस्तकें गांधी के जीवन, दर्शन और गांधी के
नेतृत्व में हुए राजनीतिक आंदोलनों के इर्द-गिर्द ही रची जाती रही हैं, उनके द्वारा किए गए
आंदोलन पर या उनके व्यक्तित्त्व को केंद्र में रखकर जो पुस्तकें उभर कर आई हैं वे
सब की सब गांधी जी के व्यक्तित्त्व, कर्म, प्रयोग और सिद्धांतों की तलाश करती हैं। पिछले
वर्षों में गांधी जी पर केन्द्रित फ़िल्मों का फिर से निर्माण हुआ और कई दृश्यों
में तो उनकी छवि को तोड़ा-मरोड़ा गया,धुँधला किया गया। विदेशी निर्देशकों के साथ-साथ भारतीय
निर्देशकों ने भी उनकी छवि और व्यक्तित्त्व को निरंतर खंगाला है। उन पर कई
महत्त्वपूर्ण डाक्यूमेंटरी फ़िल्मों का भी निर्माण समय रहते हुआ। फ़िल्मों के
माध्यम से आमजन तक गांधी विचारधारा को पहुंचाने का जो प्रयत्न हुआ है, वह कितना सकारात्मक या
नकारात्मक है, यह बहस का विषय नहीं बल्कि इस बात की यहाँ पड़ताल आवश्यक है कि कलात्मक स्तर पर
यह प्रयास कितने तौर पर हुए हैं और कहाँ तक सफलता मिली है।
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'अपनी माटी'
(ISSN 2322-0724 Apni Maati)
इस अप्रैल-2014 अंक से दूसरे वर्ष में प्रवेश
आलेख:गांधीवाद की परख और संभावना की तलाश वाया गोडसे@गांधी.कॉम/डॉ.मोहसिन ख़ान
चित्रांकन:रोहित रूसिया,छिन्दवाड़ा |
इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण प्रयास हिन्दी के
वरिष्ठ उपन्यासकार, कहानीकार और नाटककार असग़र वजाहत द्वारा किया गया है, वर्तमान में उनके द्वारा रचित
महत्वपूर्ण नाटक (सन-2012) गोडसे@गांधी.कॉम फंतासी में रचित बेहद ही प्रयोगात्मक नाटक सिद्ध
हो रहा है। नाटककार ने कई स्तरों पर प्रयोग किए हैं, उसका सबसे बड़ा प्रयोग तो यह है
कि नाटक में गांधी जी को पुनर्जीवित किया गया है और उनके माध्यम से कई प्रश्नों को
हमारे सम्मुख उपस्थित किया गया है कि यदि आज गांधी जी जीवित होते तो क्या करते तथा
उनके साथ आज क्या व्यवहार होता ? कई संभावनाओं से युक्त और कई प्रश्नो से युक्त यह नाटक आज
के संदर्भों में व्यंग्य ही प्रस्तुत नहीं करता बल्कि आज की राजनीतिक व्यवस्था का
मुखौटा और दुश्चरित्र उखाड़ कर फेंक देता है और वर्तमान में उनके जीवन-दर्शन को
परखने की नई दृष्टि का निर्माण कर कई संदर्भों में नए सिरे से सोचने की नए आयामों की तलाश करता है।
यह नाटक गांधी जी के मूल्यों को कलात्मक स्तर पर
ले जाकर एक टकराव हमारे सम्मुख रखता है। आज के संदर्भों में यह टकराव उनके दर्शन,
राजनीतिक
विचारधारा, प्रयोगात्मकता, स्वाधीनता, संवादात्मकता, ग्रामस्वराज, नैतिकता, सांप्रदायिकता, मानवीयता-अमानवीयता, हिंसा-अहिंसा, ब्रह्मचर्य-वैवाहिक जीवन, शांति आदि कितनी ही स्थितियों को
दर्शा देता है। यह नाटक हमारे आज के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य में गांधी और
गांधीवाद की प्रासंगिकता पर नये सिरे से जिरह और संवाद की संभावना के द्वार खोलता
है साथ ही वर्तमान संदर्भों के अनुरूपदेश की विडंबनात्मक स्थितियों के बीच गांधीवादी रास्तों और मूल्यों की संभावनाओं और
सीमाओं की पड़ताल करता नज़र आता है।
नाटककार का प्रश्न हम सब के सम्मुख यह है कि ‘अगर आज गांधी ज़िंदा होते
तो क्या करते या उनके साथ क्या होता?’ इसी का उत्तर का खोजने की कोशिश में असग़र वजाहत जी
ने एक प्रयोगात्मक और अपने तरह की नाटकीय प्रविधि का उपयोग करते हुए नाटक को रचा है
। यह नई प्रविधि मंच पर घटित है, नाटक की शुरुआत रेडियो की इस उद्घोषणा से होती है - 'ये ऑल इंडिया रेडियो
है।अब आप देवकी नंदन पांडेय से ख़बरें सुनिए। समाचार मिला है कि ऑपरेशन के बाद
महात्मा गांधी की हालत में तेजी से सुधार हो रहा है। उन पर गोली चलाने वाले
नाथूराम गोडसे को अदालत ने 15 दिन की पुलिस हिरासत में दे दिया है। देश के कोने-कोने से
हजारों लोग महात्मा गांधी के दर्शन करने दिल्ली पहुँच रहे हैं।'1 रेडियो द्वारा किया गया
पूर्व सूचनात्मक संवाद एक तो परिस्थितियों के अनुरूप नज़र आता है दूसरा मंच से
नट-नटी, सूत्रधार
अथवा विदूषक संवाद की पुरानी परम्परा को मुक्ति मिलती है, जिनके द्वारा नाटक की भूमिका
बाँधी जाती है, पूर्व-सूचना को दर्शकों तक पहुंचाया जाता है या प्रारम्भ में कथा की
प्रस्तावना प्रस्तुत की जाती है। उनके द्वारा किया गया यह प्रयोग अत्यंत सार्थक
होने के साथ तर्कसंगत और नाटक के अनुरूप ढलता है। वह इसलिए कि उस समय में रेडियो
ही जनसंचार का सबसे अधिक तीव्र माध्यम था और यहाँ इस पृष्ठभूमि में वह उचित ही जान
पड़ता है। उनका यह प्रयोग नाटक की नींव को आरम्भ में ही दृढ़ता प्रदान करता है।
असगर वजाहत साहेब |
प्रारम्भ में ही गांधी जी की अहिंसा की नीति का
उजागर होता है गांधी जी गोडसे को क्षमा कर देते हैं और उससे मिलने की इच्छा जताते
हैं। गांधी जी अपने मत पर अडिग हैं, वे समस्त विरोधों और परामर्श के बाद भी नाथूराम
गोडसे से जेल में जाकर मिलते हैं। उनका सत्याग्रह पर अमिट विश्वास है, वे इस मत के समर्थक हैं
कि संवाद जटिल से जटिल स्थितियों को सुलझा सकते हैं। नाटककार ने गांधी जी और
गोडसे के मध्य संवाद कराया है और यही संवाद इस नाटक का प्राण भी कहा जा सकता है।
वजाहत जी ने दो स्थलों पर इस संवाद को दर्शाया है, नाटक के प्रारम्भिक दृश्य में और
फिर अन्तिम दृश्यों में। यह सीन क्रिएट करने की कलाकारी उनमें अभूतपूर्व नाटककार
की संभावना को प्रदर्शित भी करती है। इन दो स्थलों पर होने वाले गांधी-गोडसे
संवाद को दो विचारधाराओं के बीच की टकराहट को बौद्धिक स्तर पर समझने की कोशिश कहा
जा सकता है। गांधी जी गोडसे से कहते हैं-
“मैं घृणा और प्रेम के बीच से नया रास्ता, संवाद का रास्ता ‘डॉयलॉग का रास्ता
निकालना चाहता हूं।”2
गांधी जी के माध्यम से चरमपंथियों की शक्तियों पर प्रश्न करने के साथ उनके
प्रति अनुचितता और संकुचित दृष्टिकोण को गहरे रूप में रूपायित किया गया है। गांधी
जी का गोडसे से प्रश्न यहाँ समस्त चरमपंथियों की शक्तियों को चुनौती है-
गांधी : गोडसे तुम 'हिंदूस्थान' से प्रेम करते हो।
गोडसे : प्राणों से अधिक।
गांधी : क्या मतलब?
गांधी : तुमने सिंधु से लेकर असम
और कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक का इलाका देखा है?
गोडसे : तुम कहना क्या चाहते हो
गांधी...।
गांधी : (प्यारेलाल से) ...
चर्खा इधर उठा दो... मेरे हाथ काम माँग रहे हैं।
(प्यारेलाल और बावनदास चर्खा
उठा कर गांधी के सामने रख देते हैं। वे चर्खा चलाने लगते हैं।)
गांधी : (गोडसे से) मैं 1915 में जब भारत आया था और यहाँ सेवाभाव से काम
करना चाहता था तो मेरे गुरु महामना गोखले ने मुझसे कहा था कि गांधी हिंदुस्तान में
कुछ करने से पहले इस देश को देख लो। और मैंने एक साल तक देश को देखा था। और उसका
इतना प्रभाव पड़ा कि मैं चकित रह गया।
गोडसे : कैसे?
गांधी : जिसे हम 'हिंदुस्थान' या 'हिंदुस्तान'
कहते हैं वह एक पूरा संसार है गोडसे... और उस संसार में जो कुछ
है... जो रहता है... जो काम करता है... उससे हिंदुस्तान बनता है...
गोडसे : ये गलत है 'हिंदुस्थान' केवल हिंदुओं का देश है...
गांधी : तुम हिंदुस्तान को छोटा कर
रहे हो गोडसे... हिंदुस्तान तुम्हारी कल्पना से कहीं अधिक बड़ा है... परमेश्वर
की विशेष कृपा रही है इस देश पर...
गोडसे : सैकड़ों साल की गुलामी को
तुम कृपा मान रहे हो?
गांधी : गोडसे, असली आज़ादी मन और विचार की आज़ादी होती है... हिंदूमत कभी पराजित नहीं हुआ,
राम ने अपना विस्तार ही किया है...
गोडसे: तुम्हें राम से क्या
लेना-देना... गांधी... तुमने तो राम और रहीम को मिला दिया। ईश्वर अल्लाह को तुम
एक मानते हो...
गांधी : हाँ, गोडसे मैं वही कर रहा हूँ जो यह देश हजारों साल से करता आया है... समझे?
समन्वय और एकता।
गोडसे : समन्वय... यह शब्द...
मैं इससे घृणा करता हूँ... हम विशुद्ध हैं... हमें हिंदू होने पर गर्व है... हम
सर्वश्रेष्ठ हैं... सर्वोत्तम हैं...3
जिस तरह से गोडसे ने यह बात उस समय नहीं समझी थी और
यही वर्तमान में भी चरमपंथी शक्तियाँ इस बात को नहीं समझ पा रही हैं। नाटककार
बहुलतावाद के बजाए सार्वभौमिकता का समर्थक है,गांधी-गोडसे संवाद की आवश्यकता
वर्तमान में अधिक कारगर सिद्ध होती है । उन दोनों के संवादों के माध्यम से ही
वास्तविक सच्चाई का उद्घाटन हो पाता है । नाटककार ने इसे अपने समय में दोहराकर
वर्तमान संदर्भों को तथा अपने समय को बेहतर बनाने के लिए आवश्यक माना है ।
नाटक में हिंसा-अहिंसा के प्रश्नों को भी सम्मिलित
किया है, हिंसा
क्या है और कहाँ उचित रूप ले लेती है इस पर भी गोडसे और गांधी में संवादात्मक बहस
है। कोई धार्मिक ग्रंथ किस प्रकार किसी के लिए क्या रूप ले लेता है और किसी के
लिए क्या रूप लेता है, यह समझने वाले पर निर्भर है कि ग्रन्थों में प्रेरणा और
सकारात्मकता है उसे किस रूप में ग्रहण कर किस दिशा में बढ़ा जाए। गांधी जी के लिए
गीता सकारात्मकता का संदेश प्रसारित करती है वहीं गोडसे के लिए गीता सकारात्मक
होते हुए अपनी दृष्टि की नकारात्मकता के कारण अनर्थ ग्रहण करता है।
गोडसे : गीता मेरा जीवन दर्शन है।
गांधी : गीता मेरा भी दर्शन है।...
कितनी अजीब बात है गोडसे।... गीता ने तुम्हें मेरी हत्या करने की प्रेरणा दी और
मुझे तुम्हें क्षमा कर देने की प्रेरणा दी... ये कैसा रहस्य है?
गोडसे : तुमने गीता को तोड़-मरोड़
कर अहिंसा से जोड़ दिया है, जबकि गीता निष्फल कर्म का दर्शन
है। युद्ध के क्षेत्र में निष्फल कर्म से प्रेरित अर्जुन अपने प्रियजनों तक की
हत्या कर देते हैं।
गांधी : लड़ाई के मैदान में हत्या
करने और प्रार्थना सभा में फर्क है गोडसे।
गोडसे : कर्म के प्रति सच्ची निष्ठा
ही काफी है । स्थान का कोई महत्व नहीं है। महाभारत तो जीवन के हर क्षेत्र में हो
रहा है।
गांधी : गोडसे... मैंने पूरे जीवन
जितनी मेहनत गीता को समझने में की है... उतनी कहीं और नहीं की है... गीता कर्म की
व्याख्या भी करती है... गीता के अनुसार यज्ञ कर्म मतलब, दूसरों
की भलाई के लिए किया जाने वाला काम ही है। हत्या किसी की भलाई में किया जाने वाला
काम नहीं हो सकती।
गोडसे : मुद्दा यह है कि हत्या क्यों
की जा रही है? उद्देश्य क्या है? कितना
महान है, कितना पवित्र है?
गांधी : गोडसे... तुमसे शिकायत
है... तुमने मेरी आत्मा को मारने का प्रयास क्यों नहीं किया?
गोडसे : आत्मा? वो तो अजर औरअमर है...
गांधी : और शरीर का कोई महत्व
नहीं है। तुमने कम महत्व के शरीर पर हमला किया... और आत्मा को भूल गए।
गोडसे : तुम्हारा वध हिंदुत्व की
रक्षा के लिए जरूरी था।
गांधी : इसका निर्णय किसने किया था?
गोडसे : देश की हिंदू जनता ने...
गांधी : कौन सी हिंदू जनता?...
जिसमें मेरे अलावा सभी हिंदू शामिल थे...
गोडसे : वे सब जो सच्चे हिंदू
हैं... तुम तो हिंदुओं के शत्रु हो...
गांधी : तुम मुझे शत्रु मानते हो?
गोडसे : बहुत बड़ा, सबसे बड़ा शत्रु...
गांधी : गीता शत्रु और मित्र के
लिए एक ही भाव रखने की बात करती है... यदि मैं तुम्हारा शत्रु था भी तो तुमने
शत्रु भाव क्यों रखा?...गोडसे, गीता
सुख-दुख, सफलता-असफलता, सोने और मिट्टी,
मित्र और शत्रु में भेद नहीं करती... समानता, बराबरी
का भाव है गीता में...
गोडसे : मैं महात्मा नहीं हूँ...
उद्देश्य की पूर्ति...
गांधी : अच्छे काम भी गलत तरीके
और भावना से करोगे तो नतीजा अच्छा नहीं निकलेगा... सब खराब हो जाएगा।
गोडसे : मैं नहीं मानता।4
केवल दृष्टि-भेद किस प्रकार व्यक्ति के लिए घातक
सिद्ध हो सकता है इस बात की पुष्टि नाटक में बख़ूबी प्रस्तुत की गई है। धार्मिक
ग्रन्थों का सभी के जीवन में महत्व है परंतु उसके वास्तविक अर्थ और संदेश को कोई
कैसे ग्रहण करे यह बात महनीय है। नाटक जहाँ एक तरफ़ गांधी-गोडसे संवाद
सांप्रदायिकता के सवालों को उठाता है ,वहीं वह वर्तमान संदर्भों में अनेक प्रश्नों को खड़ा
करते हुए मुद्दों को उठाता है। गोडसे अखण्ड भारत हिन्दू भारत की स्थापना को उचित
मानता है और दावा करता है कि यहाँ केवल हिन्दू ही रहेंगे। उसकी संकुचित दृष्टि,
सांप्रदायिक
वैमनस्यता और गांधी जी की समभाव तथा सांप्रदायिक एकता को रेखांकित कराते हुए
वर्तमान में हिंदुत्ववादी शक्तियों की आँखें खोली गई हैं। यह नाटक केवल
गाँधी-गोडसे का संवाद नहीं बल्कि उनके माध्यम से देश की वर्तमान विडंबनाओं की मंच
पर साकार रूप में सार्थक प्रस्तुति है।
गोडसे : नहीं... उसने जो कहा वह
सत्य ही कहा है। देश के बहुत से भोलेभाले लोगों को यह नहीं मालूम कि तुम हिंदू
विरोधी हो।
गांधी : कैसे गोडसे?
गोडसे : एक-दो नहीं सैकड़ों उदाहरण
दिए जा सकते हैं... सबसे बड़ा तो यह है कि तुमने कहा था न कि पाकिस्तान तुम्हारी
लाश पर बनेगा... उसके बाद तुमने पाकिस्तान बनाने के लिए अपनी सहमति दे दी।
गांधी : गोडसे... मैंने जो कहा
था... वह सत्य है... सावरकर ने कहा था कि वे खून की अंतिम बूँद तक पाकिस्तान के
विचार का विरोध करेंगे... लेकिन देखो आज मैं जीवित हूँ... सावरकर के शरीर में
पर्याप्त खून है... पर एक बात है गोडसे...।
गोडसे : क्या?
गांधी : मैं पाकिस्तान बनाने का
विरोध कर रहा था और करता हूँ... तो ये बात समझ में आती है... पर मुझे समझा दो कि
सावरकर पाकिस्तान का विरोध क्यों करते है?
गोडसे : क्या मतलब... मातृभूमि के
टुकड़े...।
गांधी : (बात काट कर) ...
सावरकर तो यह मानते हैं... लिखा है उन्होंने कि मुसलमान और हिंदू
दो अलग-अलग राष्ट्रीयताएँ हैं... इस विचार के अंतर्गत तो उन्हें पाकिस्तान का स्वागत
करना चाहिए...
गोडसे : यह असंभव है... गुरुजी...
पर आरोप है...
गांधी : सावरकर की पुस्तक 'हिंदू राष्ट्र दर्शन'... मैंने पुणे जेल में सुनी
थी... कृपलानी ने सुनाई थी देखो... अगर तुम किसी को अपने से बाहर का मानोगे और वो
बाहर चला जाता है तो इसमें एतराज कैसा? हाँ, भारत विभाजन का पूरा दुख तो मुझे है क्योंकि मैं इस सिद्धांत को मानता ही
नहीं कि हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग राष्ट्र हैं।
गोडसे : अगर तुम पाकिस्तान के
इतने ही विरोधी हो तो तुमने 55 करोड़ रुपए दिए जाने के लिए
आमरण अनशन क्यों किया था?
गांधी : रघुकुल रीति सदा चलि आई।
प्राण जाय पर वचन न जाई। पाकिस्तान-हिंदुस्तान का कोई सवाल ही न था... सवाल था
अपने वचन से मुकर जाने का... समझे...
गोडसे : तुमने अपने सिद्धांतों की
आड़ में सदा मुसलमानों का तुष्टीकरण किया है।
गांधी : दक्षिण अफ्रीका में मैंने
जो किया, क्या वह केवल मुसलमानों के लिए था? चंपारण, अहमदाबाद के आंदोलन क्या केवल मुसलमानों के
लिए थे? असहयोग आंदोलन में क्या केवल मुसलमान थे? हरिजन उद्धार और स्वराज का केंद्र क्या मुसलमान थे? हाँ, जब मुसलमान ब्रिटिश साम्रज्यवाद के विरूद्ध खिलाफत
आंदोलन में उठ खड़े हुए तो मैंने उनका साथ दिया था... और इस पर मुझे गर्व है।
गोडसे : खिलाफत आंदोलन से प्रेम
और अखंड भारत से घृणा यही तुम्हारा जीवन दर्शन रहा है... हिंदू राष्ट्र के प्रति
तुम्हारे मन में कोई सहानुभूति नहीं है।
गांधी : हिंदू राष्ट्र क्या है
गोडसे?
गोडसे : वो देखो सामने मानचित्र
लगा है... अखंड भारत...
(गांधी उठ कर नक्शा देखते हैं।)
गांधी : गोडसे... यही अखंड भारत का
नक्शा है?
गोडसे : हाँ... यह हमारा है...
भगवा लहराएगा... इस क्षेत्र में...
गांधी : गोडसे... तुम्हारा अखंड
भारत तो सम्राट अशोक के साम्राज्य के बराबर भी नहीं है... तुमने अफगानिस्तान को
छोड़ दिया है... वे क्षेत्र छोड़ दिए हैं जो आर्यो के मूल स्थान थे... तुमने तो
ब्रिटिश इंडिया का नक्शा टाँग रखा है... इसमें न तो कैलाश पर्वत है और न मान
सरोवर है...
गोडसे : ठीक कहते हो गांधी... वह
सब हमारा है...
गांधी : गोडसे... तुमसे बहुत पहले
हमारे पूर्वजों ने कहा था, वसुधैव कुटुंबकम... मतलब सारा
संसार एक परिवार है... परिवार... परिवार की मर्यादाओं का ध्यान रखना पड़ता है।5
नाटककार गांधी जी के माध्यम से वर्तमान देश में पनप
रही हिन्दू वादी शक्तियों को चुनौती भी देता है और स्पष्ट करता है कि यह देश किसी
एक जाति या जातिगत समूह अथवा शक्ति का देश नहीं है बल्कि हर किसी को यहाँ सब
प्रकार की स्वतन्त्रता और समानता का अधिकार है । गांधी-गोडसे के संवाद वर्तमान
संदर्भों में अधिक कारगर सिद्ध हो सकते हैं ।
गांधीवादी दर्शन के संदर्भों की पड़ताल नाटककार
द्वारा आज के संदर्भों में खुलकर की है । यहाँ ग्राम-स्वराज और सत्ता अर्थात सरकार
की मदोन्नमत शक्ति की परतों को उधेड़ा गया है, वर्तमान संदर्भों में उसके धागों
को भी देखा गया है कि वह आज कितने कमज़ोर हो गए हैं। ग्राम-स्वराज के तहत
आत्मनिर्भर गांव गांधी का एक परिकल्पना एक दर्शन हैऔर नाटक वर्तमान प्रजातन्त्र
में उनकी इस परिकल्पना को उठाता है और दर्शाता है कि ग्राम-स्वराज वर्तमान
संदर्भों में सत्ता के लिए कितना घातक और ख़तरनाक है। सत्ता का विकेन्द्रीकरण इस
जनतंत्र का केवल एक दिखावा ही है और कुछ नहीं ।गांधी जी ने जब ‘प्रयोग आश्रम’ नींव डाली और बिहार में
ग्राम-स्वराज की स्थापना की तो प्रजातांत्रिक सरकार को कितना भय हो आया अपनी सत्ता
के केन्द्रीकरण की टूटती स्थिति को लेकर। जब सरकार को पता चलता है ग्राम-स्वराज
का तो वह गांधी जी को गिरफ्तार कराती है-
रिपोर्टर-1 : महात्मा क्या आप नहीं मानते कि जो
आप कर रहे हैं, वो देशद्रोह है?
गांधी : लोग कभी अपने देश में
विद्रोह नहीं करते।
रिपोर्टर-2 : आप देश के कानून को क्यों
नहीं मान रहे हैं?
गांधी : कानून लोगों के लिए होता
है, लोग कानून के लिए नहीं होते।
रिपोर्टर-3 : क्या आपका ये कहना हे
कि कानून जनहित में नहीं है?
रिपोर्टर-4 : राजधानी में यह अफवाह
है कि शायद, आपको गिरफ्तार कर लिया जाएगा... आपका क्या
सोचना है?
गांधी : मैंने इस पर कभी नहीं
सोचा... क्योंकि कभी किसी को गिरफ्तार किया ही नहीं जा सकता।
रिपोर्टर-1 : आपने कहा कि जल,
जंगल, जमीन पर जनता का उतना ही अधिकार है,
जितना अपनी जीभ पर है, इसका क्या मतलब है?
गांधी : हाँ... जैसे जीभ सबकी अपनी
होती है... उस पर और किसी का अधिकार नहीं होता... वैसे ही जल, जंगल, जमीन पर भी लोगों का अधिकार है। इतना ही...
सोचने की बात है ज्यादा-कम नहीं।
रिपोर्टर-1 : महात्मा जी कुल मिला कर
आप कहना क्या चाहते हैं?
गांधी : मेरे कहने का निचोड़ यह है
कि मनुष्य-जीवन के लिए जितनी जरूरत की चीजें हैं, उस पर
निजी काबू रहना ही चाहिए... अगर न रहे तो आदमी बच ही नहीं सकता... आखिर तो संसार
आदमियों से ही बना है... बूँद न रहेगी तो समुद्र भी न रहेगा... धन्यवाद... आप लोग
जा सकते हैं।6
नाटक में गांधी के इसी दर्शन और परिकल्पना को आज के
समय में उठाया गया है। यह एक तथ्य है कि गांधी के अधिकतर सिद्धांतों को नेहरूवादी
विकास के मॉडल ने तिलांजलि दे दी थी। इस
नाटक में लेखक ने कल्पना की है कि अगर गांधी जीवित रह जाते और अपने सिद्धांतों को
अमल में लाने की कोशिश करते तो, तत्कालीन या मौजूदा शासन-व्यवस्था से उनका टकराव निश्चित था। केंद्रीकरण पर ज़ोर देने वाली सत्ता, जो कि शासन से लेकर, वित्त और घोटालों तक पर अपना
एकाधिकार मानती है, सत्ता को आम लोगों में बाँटने और उनके सशक्तिकरण को ख़तरनाक मानती है, नाटककार ने प्रजातन्त्र
में चल रही सरकार को चुनौती देने के साथ उसकी लोलुपता, लिप्सा को दर्शा दिया है। आज के
संदर्भों में यदि पड़ताल की जाए तो स्पष्ट
होता है कि गांधी जी की सब राजनेताओं को सलाह थी कि यदि देश-सेवा या देश का उद्धार
करना चाहते हो तो दूर-दराज़ के क्षेत्रों में जाकर सेवा करो। परंतु ऐसा न हुआ और
आज उग्रवाद इसी कमी का परिणाम है। आदिवासियों के विकास के बजाए सरकार ने उनकी
संपत्ति को छीना है और उनकी दुर्दशा की है। नाटक में गांधी झारखंड के एक आदिवासी
गांव में जाकर अपना आश्रम बनाते हैं और वहां ग्राम स्वराज के सपने को साकार करते
हैं। नाटककार ने यह दिखाया है कि अगर गांधी जी जीवित होते और अपने आदर्शो को ज़मीन
पर उतारने की कोशिश करते तो उसे एक किस्म का देशद्रोह माना जाता। ग्राम स्वराज को
समानांतर सरकार स्थापित करने की कोशिश माना जाता । अपने जंगल और ज़मीन पर अपने हक़
का दावा करने वाले आदिवासी को आज की सरकार विद्रोही ही तो मानती है, सरकार यह भी भूल जाती है
कि अपनी ज़मीन से बेदखल किये जाने की सूरत में बंदूक उठाने वाले लोग देश के ही
नागरिक हैं। नागरिकों को ही देश का शत्रु मानकर उनके खिलाफ़ ऑपरेशन ग्रीनहंट की
शुरुआत की जाती है। इन लोगों पर देश के कानून को तोड़ने का आरोप लगाया जाता है,
तभी तो नाटक में
गांधी कहते हैं-
“सरकार हुकूमत करती है जवाहर.. सेवा नहीं करती..
सरकारें सत्ता की प्रतीक होती है और सत्ता सिर्फ़ अपनी सेवा करती है.. इस लिए सत्ता
से जितनी दूरी बनेगी उतना ही अच्छा होगा।”7
नाटककार ने गांधी जी की उस राजनीतिक दृष्टि को भी
उकेरा है जिसमें वे समस्त राजनेताओं से सहमत और संतुष्ट नहीं हैं कि कांग्रेस को
एक राजनीतिक पार्टी या मंच बनाया जाए। वे उनका खुलकर विरोध करते है । वजाहत जी ने
गांधी जी कि उस समय की शंका को वर्तमान में सच सिद्ध कने का सफल प्रयास कर दिखाया
है । वर्तमान संदर्भों में स्पष्ट ही है कि कांग्रेस सरकार किस प्रकार का व्यवहार
आदिवासियों के साथ कर रही है और कार्पोरेट जगत को समर्थन देते हुए भ्रष्टाचार के
दलदल में आकण्ठ डूबी हुई है।
गांधी जी व्यक्ति के साथ परिवार,समाजऔर देश का विकास
चाहते थे। उनका विकास-दर्शन नेहरू जी की विकास परिकल्पना से अलग विकेन्द्रीकरण का
विकास सिद्धान्त और दर्शन रहा है। स्वावलंबन व्यक्ति के विकास की प्रथम और
बुनियादी आवश्यकता है, वे सदैव इसी मत पर ज़ोर देते रहे। लेकिन नेहरू मानते थे कि
देश का उद्धार प्लानिंग कमीशन, फ़ाइव इयर प्लान से होगा,पॉलिसीज से होगा, उन्हें लागू करने से
होगा, लेकिन
इस विचार का जवाब गांधीवादी मॉडल कुछ इस तरह से देता है। नाटक में गांधी नेहरू से कहते हैं-
नेहरू : बापू, देश को बचाने के लिए अब हमें 'पॉलिसीज़' बनानी पड़ेंगी... उन्हें
लागू करना पड़ेगा। 'प्लानिंग कमीशन' बनेगा। फ़ाइव इयर प्लान बनेंगे.. तब देश में गरीबी और जहालत दूर होगी... यह दो
हमारी बड़ी प्रॉब्लम्स हैं। मैं तो यही सोचता हूँ और ये करने के लिए एक 'कमीटेड' सरकार बनाना जरूरी है।
गांधी : जवाहर तुम पत्तों से जड़ की तरफ जाते हो और
मैं जड़ से पत्तों की तरफ आने की बात करता हूँ। तुम समझते हो कि सरकारी नीतियाँ
बना कर, उन्हें
सरकारी तौर पर लागू करने से देश की भलाई होगी.. मैं ऐसा नहीं मानता... मैं कहता
हूँ लोगों को ताकत दो, ताकि वे अपने लिए वह सब करें जो जरूरी समझते हैं... चिराग
के नीचे अँधेरा होता है, लेकिन सूरज के नीचे अँधेरा नहीं होता।8
गांधी जी के विकास-दर्शन और सिद्धान्त की आज गहरे
रूप में आवश्यकता महसूस की जारही है, नाटक इसी मत का समर्थन करता हुआ नज़र आता है। आज
विकास के तौर पर केवल बाज़ार का विकास किया जा रहा है और राजनीतिक पार्टियाँ अधिक
से अधिक कमीशन निकाल कर अपने परिवार की पीढ़ियों की जीवन सुरक्षा में लगी हुई हैं।
आज हर राजनेता करोड़ों वह भी कई सौहज़ार करोड़ों का मालिक बन बैठा है, वह कैसे ?बस इन ही मार्गों से।
विकास की जो रूपरेखा गांधी जी ने राखी थी और नाटक के माध्यम से जो प्रस्तुत की गई
है उसकी आज गहन आवश्यकता बनी हुई है बस ज़रूरत है कि उसे लागू किया जाए पर कैसे यह
प्रश्न नाटक हमारे सम्मुख छोड़ जाता है।
असग़र वजाहत जी ने यह नाटक बेशक बहुत खूबियों के साथ
रचा है और कई प्रश्नों की जटिलताओं का निवारण प्रस्तुत कराते हुए कई जटिल प्रश्न
हमारे सम्मुख खड़े भी कर दिए हैं । नाटक में जिस नाटकीय प्रविधि का प्रयोग वे करते
हैं वह कहीं भी अनुचित नहीं लगती । बस अनुचितता का भाव आता है तो सुषमा और नवीन की
पात्र योजना को लेकर आता है। यदि नाटककार उन पात्रों को न भी अपने नाटक में लेता
तो कोई हानि न होती, गांधी जी के ब्रह्मचर्य-दर्शन को प्रस्तुत करने में यह लंबी पात्र योजना कुछ
आवश्यक और गंभीर काम न करती हुई असंगत सी ही नज़र आती है । नाटक के अंत में उनका
विवाह करा दिया जाता है उससे कोई ऐसी बात उभरकर नहीं आती जो कि वर्तमान संदर्भों
को रेखांकित कराते हुए ज्वलंत प्रश्नों की ज्वलंतता को कम करदे। इसी दर्शन की
बघार में नाटककार ने कस्तूर बा को छाया के रूप में भी पुनर्जीवित कर दिया है,
यह कमी नाटक की
अवश्य काही जाएगी कि कस्तूर बा की भूमिका भी कुछ असंगत ही है । इसी के साथ दृश्य 14 कुछ अटपटे ढंग से
प्रारम्भ होता है ऐसा लगता है कि दृश्य 13 बीच में ही काट दिया गया हो, इससे संवाद की तारतम्यता समाप्त
हो जाती है और संवाद में एक अधूरापन लगने लगता है। दृश्य 15 भी ऐसे ही बीच में प्रारम्भ सा
दिखाई देता है। यदि गीतों का प्रयोग नाटक में न भी हुआ होता तो नाटक को कोई प्रभाव
नहीं पड़ता। जेल में जो गीत प्रस्तुत होता है वह बहुत अधिक प्रभावकारी प्रस्तुति
नहीं देता। नाटककार किस रूप में नाटकों में गीतों से प्रभावित हैं मुझे नहीं पता
लेकिन गीत शैली अब नाटक से निकाल दी जानी चाहिए अब नाटक को सीधे संवादों को
आवश्यकता है न कि गीतों की असंगत शैली की। मेरी दृष्टि में नाटक में गीत प्रस्तुत
करने की शैली अब पुरानी पड़ चुकी है, अब नाटक में गद्यात्मकता, गंभीरता, संवादात्मकता, प्रश्नात्मकता की कहीं
अधिक आवश्यकता है जो कि दर्शकों को मनोरंजन नहीं बल्कि उनमें परिवेशगत चेतना जिलाए।
निष्कर्षत: गोडसे@गांधी.कॉम’ के केंद्रमें गांधी
समन्वयात्मकता की नीति और गोडसे की विरोधी विचारधारा तथा गांधीवाद के दर्शन होते
हैं । नाटक में महात्मा गांधी के कई दृष्टिकोणों को पुन: हमारे समक्ष उकेरा गया है
और एक सार्थक कोशिश की गयी है कि वर्तमान में गांधीवादी विचारधारा हमारे लिए कितनी
उपयोगी और हितकर है। यह जो नाटक के माध्यम से कोशिश की गई है वह हमारे परिवेशगत
सत्य को उद्घाटित करने के साथ सरकार का वास्तविक चेहारा भी उघाड़ देती है । ज़ाहिर
है कि गांधी के जिन आदर्शों और मूल्यों को लेकर नाटक रचा गया है वह काम आसान नहीं है,
क्योंकि गांधी का
जीवन-दर्शन काफ़ी फैला हुआ है। असग़र वजाहत इसका ख़ुलासानाटक की भूमिका में करते भी
हैं। भूमिका में उन्होंने लिखा है कि-“विषय इतना फैला और जटिल लगा कि उसे नाटक में समेटना
सरल न था।” वे यह भी साफ़ करते हैं कि वे गांधी के भक्त नहीं हैं, इसके बावजूद उन्होंने सलीक़े से
कथा को बुना है। यों भी गांधी या इन जैसे दूसरे महापुरुषों पर लिखना किसी जोखिम से
कम नहीं है। थोड़ी सी असावधानी या चूक पूरी रचना पर सवाल खड़े करने के लिए काफ़ी है।
मोहसिन 'तन्हा'
स्नातकोत्तर हिन्दी विभागाध्यक्ष
एवं शोध निर्देशक
जे. एस. एम्. महाविद्यालय,
अलीबाग- 402201
ज़िला - रायगढ़ (महाराष्ट्र)
ई-मेल khanhind01@gmail.com
मो-09860657970
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आज के संदर्भों में यह गांधी जी के दर्शन, राजनीतिक विचारधारा,
प्रयोगात्मकता,
स्वाधीनता,
संवादात्मकता,
ग्रामस्वराज,
नैतिकता, सांप्रदायिकता, मानवीयता-अमानवीयता,
हिंसा-हिंसा,
ब्रह्मचर्य-वैवाहिक
जीवन, शांति
आदि कितनी ही स्थितियों को गांधी के विचारों को फिर से उठाने की पहल करने वाले इस
नाटक को निश्चित तौर पर अपने समय और समाज
में एक सजग रचनाकार की ओर से की गई पहल और हस्तक्षेप कहा जा सकता है ।यहाँ गांधी
के प्रति अंधभक्ति से परे हटकर हमारे समय की संगति गांधी के विचारों से बिठाने की
कोशिश की गयी है । इसे वर्तमान संदर्भों में गांधीवाद की परख और संभावना की तलाश
करने का एक गंभीर प्रयत्न कहा जा सकता है।
सन्दर्भ –
1. असग़र
वजाहत -गोडसे@गांधी.कॉम,भारतीय ज्ञानपीठ,18, इंस्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड,नई दिल्ली,दूसरा संस्कारण 2013,पृष्ठ-13
2. वही पृष्ठ-60
3. वही 61,62,63
4. वही पृष्ठ- 76,77
5. वही पृष्ठ- 65,66,67
6. वही ,पृष्ठ- 49,50
7. वही ,पृष्ठ- 24
8. वही , पृष्ठ- 24,25
Waah waah .....dr saaheb zindaavaad ....behtreen shodh se ot prot aalekh ...badhaai
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ! विजेंद्र जी, ज़र्रानवाज़ी का शुकरिया !!!
हटाएंशोध परख आलेख.. हार्दिक-हार्दिक शुभकामनाएं सर...
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें