साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका
'अपनी माटी'
(ISSN 2322-0724 Apni Maati)
इस अप्रैल-2014 अंक से दूसरे वर्ष में प्रवेश
दिन बहुत अच्छा गुज़रा । काफ़ी व्यापारियों के यहाँ
से वसूली हो गई । पचास हज़ार के चेक भी हैं । भुगतान हो जाएँगे, कैश जैसे ही हैं। मैंने
संभाल कर सब नोट एक बड़े लिफ़ाफे में डाले और ऊपर से पिन लगा दी । इतनी बड़ी रक़म और पैकेट
कितना छोटा लग रहा है । सरकार ने बड़े नोट छापकर अत्यन्त सुविधा कर दी है । पैकेट सैंम्पल्स
के बड़े थैले में डालकर, अन्दर पड़ा नैपकिन निकालकर चेहरे से पसीना
पोंछता हूँ, बहुत गर्मी है । नैपकिन थैली में वापस रखकर ज़िप बंद
करता हूँ । अब दादा को विश्वास आएगा, मैं क्या कर सकता हूँ ।
ज़्यादा पढ़ न सका, दिल ही नहीं लगता था । दादा का एक ही वाक्य
- ‘बेटा पेट में इल्म के दो अक्षर रहेंगे तो कभी पैसे की कमी न रहेगी,
भूखे न मरोगे, इल्म राह रौशन करता है ।’
'अपनी माटी'
(ISSN 2322-0724 Apni Maati)
इस अप्रैल-2014 अंक से दूसरे वर्ष में प्रवेश
अनुवाद:सिन्धी
कहानी 'लाटरी' /मूल:वासुदेव
मोही/अनुवाद:देवी नागरानी
चित्रांकन:रोहित रूसिया,छिन्दवाड़ा |
मेरी ज़िद, मैं धंधा करूँगा । मुझे किसी की ग़ुलामी नहीं करनी है
। पर धंधे के लिये पैसा चाहिए, हमारे पास पैसा कहाँ है
?
‘बस आप फ़क़त तीन लाख कहीं से दिलवा दें, बाक़ी मैं संभाल
लूँगा ।’
दादा ने ता-उम्र कपड़े की दुकान चलाकर किसी तरह घर चलाया ।
लाख कहाँ से लायें ? मैं भी ज़िद पर अटल, करूँगा तो धंधा, नहीं तो दो रोटी खाता रहूँगा । भाभी
अपने इकलौते बेटे का ख़याल रखती है, रोटी पर कुछ ज़्यादा ही चिकनाई
लगाती है।
पता नहीं दादा को क्या सूझा, किसी पुराने दोस्त से बात
की । दोस्त ने कम ब्याज पर दो लाख देने का वादा किया और निभाया ।
‘पर दादा दो लाख में धंधा न होगा ।’
भाभी ने ज़ेवर निकाले । मैं कुछ डर-सा गया । धंधे में नुक़सान
भी तो हो सकता है । पर दादा ने हिम्मत देते हुए कहा - ‘बेटा अब
प्रयास किया है तो आगे बढ़ो । झूलेलाल की कृपा से बरकत पड़ेगी ।’ ज़ेवरों से चौंसठ हज़ार हासिल हुए ।
किराये पर अच्छी दुकान मिल गयी । मामूली ज़रूरत
के मुताबिक़ फिटिंग करवाई, कपड़ा कुछ नक़द कुछ उधारी पर आराम से मिल गया और बस दुकान शुरू हो गई ।
शर्ट का व्यापार भी कमाल का है, सिर्फ़ उधार पर चलता है
और बस कारीगरों से माथा-पच्ची करनी पड़ती है । पैकिंग वाले भी
कम हैरान नहीं करते । आज पहली वसूली पर ही अच्छी कामयाबी मिली है । ऑर्डर भी उम्मीद
से ज़्यादा मिला। गेस्ट हाउस की ओर रुख़ किया। बरौदा में होटल बहुत महंगी हैं,
पर एक दिन आएगा, जब मैं फ़ाइवस्टार होटल में आकर
रहूँगा, वसूली के लिये नहीं, वह तो मेरे
नौकर करेंगे, मैं सिर्फ़ ग्राहकों से मिलने आऊँगा । मेरी आरंभ
की हुई ब्रांड के माल की डिज़ाइन कैसी लगती हैं, कपड़ा कैसा लगता
है, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में... हाँ,
मार्केट सर्वे । सारी उम्र सिर्फ़ ये आलतू-फालतू
सस्ते किस्म की शर्ट्स थोड़े ही बनाता रहूँगा, बड़ा मैन्युफ़ैक्चरिंग
(Manufacturing), वो क्या कहते हैं... सच कहते
हैं दादा, इल्म ज़रूरी है... हाँ बड़ी गार्मेंट
फैक्ट्री लगाऊँगा । भाभी बहुत ख़ुश होंगी, उसके लिये बीस-बीस हज़ारों की बनारसी साड़ियाँ खरीदूँगा ।
भूख लगी है । गेस्ट हाउस के पास रिक्शे से उतरता
हूँ । एक जवान लड़की ग्राहकों को आमलेट बनाकर देते हुए देखी । साथ में चाय भी बनाकर
दे रही है । कमाल की फुर्ती है उसमें । नक़्श तीखे, काली-काली बड़ी आँखें,
रंग बिलकुल साफ़, उज्वल-उज्वल
! यहीं कुछ खा लूँ । गेस्ट हाउस में तो लूटमार है, फ़क़त चाय के ही बीस रुपये ले लिये । ग्राहक उस लड़की के छोटे ‘रेस्टारेंट’ को घेरे हुए हैं । एक छोटा चबूतरा है जिस
पर उसने स्टोव रखा है, स्टोव पर गर्म तवा है, जिसपर वह चम्मच से तेल डालकर, अंडा फोड़कर, घोलकर, थोड़ा नमक-मिर्च मिलाकर
तवे पर फैला देती है । फुर्ती से वह आमलेट बनाते-बनाते तवे के
बाजू में ब्रेड के स्लाईस भी सेंकने रख देती है । बीच-बीच में
वह तवा उतारकर चाय की केटली स्टोव पर रख देती । उसका फुर्तीलापन मोह लेता है । मैं
चुपचाप खड़ा हो जाता हूँ कि वह मुझसे पहले आए ग्राहकों को निबट ले । लड़की के पीछे दीवार
पर छोटे से बोर्ड पर दाम लिखे हुए थे जो अंधेरा होने के बावजूद भी साफ़ नज़र आ रहे थे
। सिंगल अंडे का आमलेट दो स्लाइस के साथ, डबल अंडे का आमलेट दो
स्लाइस के साथ, टोस्ट तेल में, टोस्ट मक्खन
में, चाय, मैं समूरी लिस्ट नहीं पढ़ता
! बेवकूफ़ हूँ जो गेस्ट हाउस में चाय पी ।
‘करम जली, ओ करम जली ।’
‘आई अम्मी’ लड़की ने ज़ोर से आवाज़ को आवाज दी । जैसे करम
जली उसका नाम हो। वह स्टोव की लौ बिलकुल धीमी करके, आँखों आँखों
में ग्राहकों से छुट्टी लेकर चबूतरे के साथ वाली संकरी गली में चली जाती है । जल्द
ही लौट आती है, शायद अम्मी की कोई ज़रूरत पूरी करके । उसने घासलेट
का दीपक जलाया पर अंधेरा बरक़रार रहा । ग्राहक काफ़ी कम हो गए हैं । मैं चबूतरे के पास
वाले भाकड़े पर बैठता हूँ । गिरते-गिरते दीवार की ओट के कारण बच
गया, एक ग्राहक बैठा है और मैं थैला संभालकर गोद में रखता हूँ
। अब लड़की का रुख़ मेरी ओर है ।
‘सिंगल अंडा, दो स्लाइस, चाय ।’
चार ग्राहक जो साथ खड़े थे, पैसे देकर चल दिये । गर्मी
है । मैं थैला भाकड़े पर रखकर ज़िप खोलकर नैपकिन निकालता हूँ । थैला गिरते-गिरते बचा । मैंने पसीना पोंछा, नैपकिन वापस थैले में
रखते हुए ज़िप बंद की । लड़की ने तवे पर अंडा फैलाकर, चबूतरे पर
पड़ी प्लेटें उठाकर पानी से भरे टब में डाल देती है ।
मग़रब (शाम की नमाज़) का वक़्त हुआ है,
मैं उठकर चल पड़ता हूँ । गली में से ज़ोर की आवाज़ आती है ।‘एक दिन नमाज़ नहीं पढ़ोगे तो तुम्हारी जन्नत ख़तरे में नहीं पड़ेगी । इससे बेहतर
है तुम मेरी गोलियाँ ले आओ, मैं मर रही हूँ ।’ पहले से ज़ोरदार आवाज़ थीं, ‘करम जली’ वाली आवाज़ से भी।
सफ़ेद दाढ़ी
वाला एक बुज़ुर्ग लड़की के पास आता है । उसकी पेशानी पर गहरा निशान है । लड़की अंडा उलटती
है ।
‘जमीला, सौ रुपये दे । नमाज़ से लौटते अम्मी की गोलियाँ
लेता आऊँगा ।’ लड़की लौ कम करके गोल डब्बे से छोटे बड़े नोट निकालकर
गिनती है ।
‘लो अब्बू !’
जल्दबाज़ी में अंडा तवे से उतारती है, स्लाइस रखना भूल गई थी,
वही रखती है । सेककर मुझे अंडे के साथ प्लेट में देती है । इस बीच भाकड़े
पर बैठा दूसरा ग्राहक बिना कुछ खाए-पिए ही चला जाता है । मैं
थैले को देखता हूँ, ज़िप बंद है ।
‘आपा, सौ रुपये दो, पिक्चर जाना
है, आईसक्रीम भी लेनी है ।’
‘पिक्चर जाना है, ऐसे कह रहे हो जैसे किसी बड़ी नौकरी
पर जा रहे हो । कमाना नहीं है, पर आँख से ऐश का ज़ायका भी लेना
है ।’ ‘करम जली। क्यो इन गंदे पैसों की ख़ातिर अपने भाई के साथ बहस करती है । उस बुड्ढे
को तो जल्दी पैसा निकाल कर देती हो ? वो क्या कमाता है,
सारा दिन दाढ़ी मैली करता रहता है । फजर, ज़ुहर,
असर, मग़रब, ईशा (दिन की पांच नमाजे) के सिवाय और कुछ याद ही नहीं है ।
यहाँ भले ही दोज़ख़ हो पर वहाँ उसे जन्नत चाहिए, हूर जमाल चाहिए
।’ लड़की ने मुझे चाय दी ।
‘आपा ! एक दिन देखना, अपने सब कनस्तर
छोड़कर तुम मेरी सेवन स्टार होटल की चिकन बिरयानी खाओगी ।’
‘हवा में बातें करना छोड़ दो । दिम तमाम जी-जान से काम
करके कमाती हूँ, हर रोज़ कोई लाटरी नहीं खुलती है जो यूँ लुटाते
फिरते हो !
गली में से ज़ोर से कोसने की आवाज़ आती है - ‘हाय अल्ला, यह कैसा जीना है, यह करम जली तो भाई की दुश्मन बन बैठी
है । यह सब देखने से तो अल्ला सांई मुझे बुला लो, ताकि इस दोज़ख़
से आज़ाद हो जाऊँ ।’
‘आपा जल्दी कर, देर हो रही है’ वह
गोल ड़ब्बे की तरफ़ हाथ बढ़ाता है ।
जमीला बीच में ही उसका हाथ रोकती है, पर वह ज़ोर से जमीला का
हाथ झटककर डब्बा लेकर नोट निकाल लेता है और बिना गिने ही जेब के हवाले कर देता है।
‘देख खोजा ! जजा भुगतनी पड़ेगी । मेरी तो सारी मेहनत ही पानी में नमक की मानिंद घुल जाती
है। ’ दुखभरे लहज़े में वह सिसक उठी ।
घासलेट की
बत्ती फक-फक करके बुझ जाती
है । मैं पैसे देकर थैला उठाए गेस्ट हाउस की तरफ़ बढ़ता हूँ । कमरे में थैला रखकर,
भीतर से लॉक करके ख़ुद को पलंग पर लुढ़काता हूँ, आँख लग जाती है ।
आँख खुली, नौ बजे हैं । उठूँ, व्यापारियों
की दी हुई रक़म का हिसाब करूँ । हाथ मुँह धोकर मैं थैला खोलता हूँ । बिल् बुक,
रसीद बुक, सैंपल्स निकालता हूँ । अचानक मैं चौंकता
हूँ, लिफ़ाफ़ा कहाँ है ?
मैं थैले से निकाली चीज़ें फिर से देखता हूँ ।
लिफ़ाफ़ा नहीं है । मेरे कान लाल हो जाते हैं, ख़ून नसों में बह नहीं रहा है, उछल
रहा है । मैंने थैले का कोना-कोना देखा पर लिफ़ाफ़ा नहीं मिला ।
मेरे सामने भाभी की लाल आँखें घूमने लगीं । दादा का भी चेहरा ज़र्द लगा । शायद मेरा
भी चेहरा वैसा ही होगा, बुझे हुए बल्ब की तरह । मैंने एक बार
फिर सैंपल्स झटक कर देखे । रसीद बुक झटकी, यह जानते हुए भी कि
लिफ़ाफ़ा उनमें छिपने की चीज़ नहीं । मैं उठा पर फिर बेजान-सा होकर
पलंग पर लुढ़क गया । लिफ़ाफ़ा नहीं है, बिलकुल नहीं है । मैं अपने
आपको रोने से रोक नहीं पा रहा हूँ, सामने आइना है, मैं जैसे ख़ुद को पहचान नहीं पा रहा हूँ । आँखें, भौंहे,
बाल सभी बेगाने-बेगाने लग रहे हैं।
बदहवासी में बाहर निकलता हूँ, निश्चित ही भाकड़े पर बैठे
उस शख़्स का ही यह काम होगा । उसने ही लिफ़ाफ़ा हथियाया होगा, इसीलिए
ही तो वह बिना कुछ खाए पिए जल्दी वहाँ से निकल गया । पुलिस में जाऊँ, क्या हासिल होगा ? याद करने का प्रयास करता हूँ,
आ़खिरी बार मैंने लिफ़ाफ़ा कब देखा - सब याद हैं,
सँभालकर वह थैले में ही डाला था और थैला तमाम वक़्त हाथ में ही था,
कहीं भी मैंने उसे छोड़ा न था । वह क़ातिल आदमी पॉकेटमार होगा,
पैसे ले गया, मुझे ख़बर तक न हुई । रास्ते पर यहाँ-वहाँ देखते हुए आगे बढ़ रहा हूँ, जैसे वो लाखों ले जाने
के बाद यहाँ इसी इलाके में घूम रहा होगा । मैं चाय के ठेले की ओर जाता हूँ,
शायद वह लड़की उस शख़्स को जानती हो, वह उसका हर
रोज़ का ग्राहक हो और चाय पीने आता हो । भाकड़ा तन्हा-तन्हा जैसे
नींद में हो, शांत । चारों तरफ़ अंधेरा था । चबूतरा ख़ाली था ।
मैं संकरी गली में घुसता हूँ। लड़की के अब्बू-अम्मी ठहाका मारकर
हँस रहे थे । लड़की नज़र नहीं आई । बूढ़े ने मेरी तरफ़ घूर कर देखा ।
‘क्या चाहिए ?’
‘जी माफ़ करना, वह आपकी बेटी कहाँ है ?’
‘कौन-सा काम है ?’ उसकी बात का लहजा
डरावना था ।
‘मुझे उसके किसी ग्राहक के बाबत पूछताछ करनी है ।’
‘ख़ामोश, ख़बीश ! कौन ग्राहक,
कैसा ग्राहक ? भाग यहाँ से ।’ उसके लफ़्ज बदहवास थे । मुझे लगा अगर मैं एक पल भी वहाँ खड़ा रहा तो,
वह वहीं पर मेरी क़ब्र बना देगा । मैं गली से बाहर आया ।
‘ख़त्म, सब ख़त्म हो गया । कर्ज़, कर्ज़,
सिर्फ़ कर्ज़ । उम्र गुज़र जाएगी उतारते उतारते । दादा की तरह मुझे भी किसी
कपड़े की दुकान पर घिसटना पड़ेगा । क़ुदरत का क़ानून तोड़ने चला था । भूल गया था कि औलाद
माँ-बाप के नक़्शे-पा पर चलती है।
‘बाबूजी’ चाय वाली लड़की ने आवाज़ दी।
‘मुझे आपका ही इन्तज़ार था ।’ उसने थैली में से लिफ़ाफ़ा
निकाल कर मुझे दिया। मुझे लगा मैं हवा में उड़ा हूँ । नहीं, मेरे
पांव ज़मीन पर थे । शायद मेरे मन ने लम्बी उड़ान भरी थी । लिफ़ाफ़े को पिन लगी हुई थी
। मैंने लिफ़ाफ़ा हाथ में लेकर जैसे उसे तोला - ‘आप जैसे ही पैसे
देकर लौटे, मुझे यह भाकड़े के नीचे से मिला । विश्वास था कि यह
आपका ही है और कोई तो वहाँ था नहीं । मैं आपके पीछे भी आई, पर
आप नज़र नहीं आए । मैं लौट आई यह सोचकर कि आप ज़रूर पूछने आएँगे । आख़िर रक़म भी तो छोटी
नहीं है ना । वह भीतर गई ही थी कि उसके अब्बू की दहाड़ सुनी ।
मैं उसे देखता रहा, सिर्फ़ देखता रहा,
कुछ कह न पाया । जैसे मैं जनम से गूंगा था। वह मुस्करा रही थी । अंधेरे
में भी उसकी काली आँखों की चमक साफ़ नज़र आ रही थी।
देवी नागरानी
जन्म:1941 कराची, सिन्ध (पाकिस्तान), 8 ग़ज़ल-व काव्य-संग्रह, एक अंग्रेज़ी, 2 भजन-संग्रह, 2 अनुदित कहानी-संग्रह प्रकाशित।सिन्धी, हिन्दी, तथा अंग्रेज़ी में समान अधिकार लेखन, हिन्दी-सिन्धी में परस्पर अनुवाद। महाराष्ट्र साहित्य अकादमी से सम्मानित/ राष्ट्रीय सिन्धी विकास परिषद से पुरस्कृत.संपर्क 9-डी, कार्नर व्यू सोसाइटी, 15/33 रोड, बांद्रा, मुम्बई 400050, फोन:9987928358
वासुदेव मोही
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