साहित्य-संस्कृति की त्रैमासिक ई-पत्रिका
'अपनी माटी'
वर्ष-2 ,अंक-14 ,अप्रैल-जून,2014
एक बात साफ़-साफ़ सुन लीजिए; ये गंगाजल वाला शीर्षक पढ़कर ये न समझ लीजिएगा कि मैं कोई सियासत वाली बकवास का मन बनाकर जले पर नमक छिड़कना चाहता हूँ। माणिक ने शुद्ध हिन्दी में कह दिया है कि सियासी झुनझुना बहुत बज चुका है और जिस बच्चे को जिस गोदी में बैठना था वो वहां जाकर 'अले ले ले' का मज़ा ले रहा है और नेताओं को तो आप जानते ही हैं कि वो कितने होशियार होते हैं। झुनझुना बजाकर बच्चों को गोद में तो बिठाया है और 'अले ले ले' भी कर रहे हैं लेकिन सब बच्चों को नैप्पी भी पहना दी है और कहा है कि तुम थोड़ी देर अपनी गंदगी में भिड़े रहो तो हम भी ज़रा अपनी पंचवर्षीय ममता लुटा लें; फिर तुम अपने घर जाना, हम हमारे महल में जायेंगे, पांच साल बाद आएंगे तो नया झुनझुना लाएंगे। नेताओं की गोद में बच्चे खुश हैं उन्हें देखकर मम्मियाँ भी खुश हैं, ऐसे में पापाओं को तो झक मारकर खुश होना ही पड़ेगा।नेता अपनी इस सदाशयता पर गदगद हैं और गदगदाहट में ऐसे-ऐसे वादे कर रहे हैं कि ख़ाकसार को भी यही लग रहा है कि जब सबके दिन बदलेंगे तो अपने भी बदलेंगे और सवा सौ करोड़ बंदे अचानक साहित्य अनुरागी हो जाएंगे। न जाने कितने ख़ाकसार गुमनामी के भव सागर से गोपद इव पार हो जाएंगे। तो बस इसी मुग़ालते को सबब बनाकर कुछ आखर-वाखर जोड़ रहा हूँ हमेशा की तरह झेल लीजिएगा।
तो सवाल है कि जो सचमुच चाहते हैं कि अशुभ का स्थान शुभ ले, वे क्या तैयार हैं ? अकर्मण्य सामर्थ्य की गंगाजलियां क्या अपना पानी वाला गंगाजल लेकर अपना हक़ पाने के लिए पूजाघरों से बाहर आकर मुक़ाबला करेंगी इन हुक्मरानों , माफियाओं ,मठाधीशों और जुगाड़ुओं का ? यदि हाँ तो फ़िर चाहे जो हो जाए विजय तो पानी वाले गंगाजल की ही होगी। अब ये मत कहियेगा कि साहित्यकार जैसे सर्वस्व त्यागियों को कुछ पाने के लिए लड़ना शोभा नहीं देता। ठीक कहा पर यह भी याद रहे कि यह संघर्ष केवल अपने हक़ के लिए नहीं है बल्कि उन करोड़ों पाठकों लिए है जो अपने जीवन को गंगाजल से तृप्त करना चाहते हैं .... पानी वाले गंगाजल से ……।
चित्रांकन :शिरीष देशपांडे,बेलगाँव |
हाँ तो बात हो रही है कि कौन के लोटा गंगाजल पानी ? अब पहला सवाल यह है कि जब गंगाजल कह दिया तो पानी क्यों जोड़ा ? साहित्य में जो मास्साब क़िस्म के लोग हैं वे कहेंगे कि पुनरुक्ति दोष है। तो बात समझ लीजिये कि ये एक लोक गीत का हिस्सा है और लोक गीत गढ़ता है - लोक मन। अब कॉलेजों के मास्साबों से बहुत अधिक बुद्धि है इस लोक के पास। जल के साथ पानी इसलिए जोड़ा है क्योंकि पानी यहाँ अभिधा नहीं लक्षणा है और पानी है रहीम वाला जिसके गए न ऊबरे …। तो समझे कि सवाल एक नहीं दो हैं कि कौन के लोटा गंगाजल पानी ? और दूसरा कि गंगाजल में पानी है या नहीं ? तो यही सवाल लेकर मुद्दे पर लौटते हैं कि जब सबके दिन बदलेंगे तो बेचारे साहित्यकारों का भी भला होगा या नहीं ? होगा क्यों नहीं ? अरे हम हिन्दुस्तानियों का मन तो आशावाद का ऐसा केंद्र है कि घूरे के दिन बदलने तक की कहावत गढ़ चुका है फ़िर साहित्यकार क्या घूरे से भी गए गुज़रे हैं कि उनके दिन नहीं फिरेंगे। फिरेंगे ज़रूर फिरेंगे बस सवाल यही है कि कौन के लोटा गंगाजल पानी ? आख़िर वे कौन हैं जो साहित्य में बहुत बेहतर काम कर रहे हैं पर आज भी गुमनामी से बाहर नहीं आ पाए हैं और उनका लिखा आज भी पाठकों का रास्ता देख रहा है ।
तो हुकम, वैसे तो इन दिनों इत्ता लिखा जा रहा है, इत्ता लिखा जा रहा है कि क्या बताएं कित्ता लिखा जा रहा है। पर जो लिखा जा रहा है उसमें है क्या ? सवाल तो लाख टके का है पर जवाब है दो कौड़ी का। क्योंकि जो लिखा जा रहा है उसमें से अधिकांश न गंगाजल है और न उसमें पानी है। हाँ कुछ साहित्यिक मठाधीश हैं, कुछ साहित्यिक हुक्मरान हैं, कुछ साहित्यिक माफ़िया हैं और कुछ साहित्यिक जुगाड़ु हैं जो अपनी गटर वाहिनी जलधारा को पवित्र घोषित करवाने में ऐसी दक्षता हासिल कर चुके हैं कि देश में जहाँ कहीं जो पानी वाला गंगाजल बचा भी है तो वो अपनी सामर्थ्य पर स्वयं ही शंकित हो उठा है। वैसे भी सच्चा लेखक बस रचना करना ही जानता है रचना को लोगों तक पहुंचाना उसे आता ही नहीं है और न वो ये करना चाहता है। कितनी अज़ीब बात है कि जब दिन बदलने की बात हो रही हैं तो सच्चे हक़दार हक़ मांगने भी नहीं जाना चाहते ऐसे में वही हुक्मरान, माफिया, मठाधीश, जुगाड़ु दो कि जगह दस पा जाएंगे और सच्चे साहित्यकार अपनी रचनाओं को गुमनामी का अंधेरा इसलिए देते रहेंगे क्योंकि उन्हें लगता है कि बाज़ार का नाम भी ले लिया तो बहुत बड़ा पाप हो जाएगा। तो क्या पानी वाला गंगाजल पूजा घरों की गंगाजलियों में सहेजा जायेगा ताकि मरणासन्न मुखों में तुलसीदल के साथ टपकाया जा सके। और वही किया जायेगा जो हम करते रहे हैं कि जीवन की दुर्गति करके मृत्यु में सद्गति सहेजेंगे ? या फ़िर सच्चे लेखक भी इस दौर में अपने लेखन को लोगों तक पहुंचाने के लिए अपना निर्जीव संकोच छोड़कर सामने आएंगे और मिथ्या विरोध छोड़कर बाज़ार का सदुपयोग भी करेंगे। ताकि पाठकों को वो मिल सके जिसके वे हक़दार हैं।
सम्पादक अशोक जमनानी |
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