साहित्य-संस्कृति की त्रैमासिक ई-पत्रिका
'अपनी माटी'
वर्ष-2 ,अंक-14 ,अप्रैल-जून,2014
यानी कुल मिलाकर 'मिथक' आदिकालीन मानव की सृष्टि है।
आदिकालीन मनुष्य जोकि, जिज्ञासाओं और आश्चर्य से प्रकृति को देख रहा था, वह जिन शक्तियों को नहीं
समझ पाया, जो उसके संज्ञान से परे हुई, उन्हें वह अतिमानवीय/अतिप्राकर्तिक या दैवी शक्ति मानने
लगा। इस 'मानने'
और 'होने' के बीच के अंतर से ही
कल्पनाओं ने जन्म लिया। मनुष्य ने अपनी कल्पनाओं के असीम विस्तार से किस तरह
प्रकृति और अपने बीच सम्बन्ध बनाये, अभावों से आगे जाकर अपने संसार को पूरा किया - ये
सारे प्रश्न सुलझे जब आधुनिक युग में पश्चिम के विचारकों ने वैज्ञानिक दृष्टिकोण
से मिथकों की रचना, उनके अर्थ और सन्दर्भ को जानने के
प्रयास किये। प्रोफ़ेसर सी. एस. लेविस ने
माना कि, मिथक
उस पर्वत के सामान है जिसकी कई शाखाएं
होती हैं और जिसे वास्तविकता का रूप पाने के लिए ज़मीन की ज़रुरत होती है। ('Myth
Became Fact'- The Grand Miracle, P-40-41.)
चित्रांकन :शिरीष देशपांडे,बेलगाँव |
इतिहास अपने आप को दोहराता है। यह दोहराव केवल स्थितियों या चरित्रों का नहीं,
बल्कि विचारों की
वापसी है। जो अपने अनुकूल घटित होते हुए स्थितियों और चरित्रों को ढालते हैं।
वर्तमान चुनावी परिप्रेक्ष्य में लगातार साम्प्रदायिकता का मुद्दा उठाया जा रहा
है। ध्रुवीकरण की राजनीति अपने चरम पर है, जिसमें सन 1992 की घटना की गूँज अब भी रह-रह कर
सुनाई पड़ रही है। ऐसे में साहित्यिक
रचनाओं के पुनर्पाठ की आवश्यकता भी बढ़ जाती है। ताकि हम अपने समाज के सच से साबका
रख सकें। बाबरी विध्वंस की पूरी
डाक्यूमेंट्री के रूप में मौजूद दूधनाथ सिंह का अद्भुत आख्यान है - "आख़िरी
कलाम ".
यह उपन्यास अपने भीतर कई यात्राएँ लगातार पूरी करता
है। शिल्प के स्तर पर, कथा के स्तर पर और एक यात्रा है समाज में उस कथा की
वास्तविकता के स्तर पर। भारतीय संस्कृति धर्म बहुल और बहुतः मिथकों में जीने वाली
सभ्यता है। इस उपन्यास के आधार पर और इसकी कथा के माध्यम से यह जानने का प्रयास है
कि-मिथक पीढ़ियों का संचित अनुभव और संस्कृति का हिस्सा होने के कारण महत्वपूर्ण तो
हैं और रहेंगे,लेकिन क्या इन्हें ही जीवन-शैली का आधार बना लिया जाए? मिथक-कथाओं के भीतर से गूंजता 'सत्य' आज लोक में अपना स्थान
रखता है या नहीं? जनसामान्य में आज मिथकों का व्यवहार किस तरह किया जा रहा है?-इन सभी प्रश्नों के
उत्तर पाने के इस प्रयास में सबसे पहले हमें संक्षिप्त रूप से जान लेना चाहिए कि 'मिथक' क्या हैं?
1.) मिथक आलोचक डॉ रमेशकुंतल मेघ
ने मिथकों की मूल्यवत्ता को स्थापित करते हुए लिखा है-' मिथक किसी भी समाज की
संस्कृति के आधार गठन या सरंचना को प्रकट करते हैं, जिसके ऊपर उसके उपरूपों के कला,
धर्म, विज्ञान, क़ानून, नैतिकता, के विपुल ऐश्वर्यों वाले
स्वर्णयुगीन महान प्रसाद खड़े किये हैं।' ( मिथक और भाषा: सं-शंभुनाथ, में संकलित निबन्ध-मिथक और
मनोविश्लेषण, पृ-45-46)
2.) मिथक शब्द अंग्रेजी के Myth
का पर्याय है। Myth
को The New
Encyclopaedia Britannica (vol-8, P-470-471) में परिभाषित किया गया है की, " Myth-a
story, usually of unknown origin..& that is especially associated with
religious rites & beliefs."
इस तरह विद्वानों ने यह माना कि पौराणिक मिथकों के
रूप में जो पर्वत हमारे सामने है उसे अर्थ ग्रहण करने के लिए एक ज़मीन की ज़रुरत है।
ज़मीन से यहाँ किसी भौगोलिक सीमा की बजाये सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के रूप
में अर्थ लिया जाना चाहिए। इसलिए ज़मीन से
जुडे लोगों की ज़रुरत है और यहाँ से 'मिथक और लोक' का सम्बन्ध शुरू हुआ। 'लोक' शब्द को परिभाषित करते
हुए हिंदी साहित्य कोष ( भाग-1, सं-धीरेन्द्र वर्मा, पृ-747) में लिखा है- " लोक का अर्थ
है-जनसामान्य। 'लोक' मनुष्य
समाज का वह वर्ग है, जो अभिजात्य संस्कार, शास्त्रीयता और पांडित्य की चेतना और अहंकार से शुन्य है और
जो एक परम्परा के प्रवाह में जीवित रहता है।"
परंपरा के इस प्रवाह में आरंभिक मनुष्य
ने जिन मिथकों को जन्म दिया, हर पीढ़ी ने उन्हें अपनी भावी पीढ़ी को सौंप दिया। जिन्हें न
तो कोई एक व्यक्ति गढ़ता है और न ही एक दिन में गढ़ा जा सकता है। ये परम्पराएं जब
समय के साथ आगे बढती हैं तो अपने विशेष
समाज में टूटते-टूटते या तो रुढियों के
रूप में अपना स्थान बना लेती हैं या नए सन्दर्भों में उन्हें नए अर्थ दिए जाते
हैं। इस दृष्टि से 'मिथक' आख्यान होते हुए भी साहित्यिक रचनाओं से अलग हो जाते हैं। 'मिथकों' के निर्माण में एक
व्यापक जनसमुदाय की भागीदारी और विश्वास सक्रिय होते हैं, जबकि कला या साहित्य इससे अलग
है।कला की शक्ति इस बात में निहित है
कि वह किसी रूढी या अंधविश्वास पर टिकी
हुई नहीं होती। बल्कि, सड़े-गले धार्मिक विश्वासों और रुढियों को तोड़ने की
प्रक्रिया में ही उसका विकास होता है और इस तरह पुराने मिथक को भी कलाकार अपने युग
के लिए संदर्भवान बना देता है। हिंदी साहित्य में ऐसी कई रचनाओं से हम परिचित भी
हैं। लेकिन, यहाँ जिस कृति की चर्चा हम कर रहे हैं यानी कथाकार 'दूधनाथ सिंह' का उपन्यास 'आखिरी कलाम', इस रचना में किसी पुराने
मिथक में कोई नया अर्थ भरने का प्रयास नहीं है। बल्कि किवदंतियों के कथा, कथा के मिथक और मिथक के
इतिहास बन जाने की प्रक्रिया को पाठकों के सामने रखने की "पवित्र और निहत्थी
छटपटाहट है।" (फ्लैप) "इस उपन्यास में मिथक को इतिहास में बदलने की
कोशिशों का पर्दाफाश है। (फ्लैप)
उपन्यास की कथाभूमि अयोध्या में रामजन्मभूमि की
कल्पना और ढहाई गयी मस्जिद के मलबे रुपी यथार्थ के आस-पास खड़ी है। रचना में धर्म, समाज और राजनीति से जुडी जो
समस्याएं दर्शाई गई है, वो न केवल दृश्य में उपस्थित हैं बल्कि हमारे अस्तित्व पर
भी भारी हैं। यहाँ कुछ प्रमुख चरित्र हैं जैसे- प्रो तत्सत पाण्डेय, सर्वात्मन, बिल्लेश्वर आदि। लेकिन
इन प्रमुख चरित्रों से भी ज्यादा जो प्रमुख है वो है, एक मिले-जुले समाज की भीतरी
अकुलाहट। इतिहास के उन सूत्रों को खोजने की कोशिश है, जिनसे इस अकुलाते समाज के बिखराव
को समझा जा सके। समाज को जानने की शुरुआत हर व्यक्ति पहले अपने परिवार से करता है।
इसलिए अधिक उपयुक्त रहेगा अगर मिथकों के लोक व्यवहार को हम पारिवारिक स्तर से
देखना शुरू करें। प्रो. तत्सत पाण्डेय जोकि उपन्यास में एक तरह से केंद्रीय पात्र
हैं, हमेशा
तर्क के माध्यम से विचारों को अपनाने वाले व्यक्ति हैं। उनके पिताजी एक पुरोहित थे
और उनकी बहु गायत्री भी ऐसे ब्राह्मण परिवार से आती है, जहाँ पूजा-पाठ व कर्मकाण्डों को
नियमित स्थान दिया जाता है। फलस्वरूप गायत्री अपने बेटे को भी वही संस्कार देती
है। यानी प्रो. पाण्डेय की अगली और पिछली दोनों पीढियां पूरी तरह धर्म में विश्वास
करती हैं। आस्था और धर्म से ही अधिकाँश मिथकों का जन्म हुआ है। यहाँ इस उपन्यास के
प्रारंभ से ही आस्था और धर्म के प्रश्नों को शंका से देखते हुए दूधनाथ सिंह अपने
पात्र से कहलवाते हैं कि-
" ' पूजाघर कहाँ है माताजी?' दुल्हन बन के आने के
दुसरे ही दिन सुबह-सुबह गायत्री ने पूछा था।"
'पूजाघर?' माताजी की भोहें टेढ़ी हुईं।
...कुछ गलत हुआ शायद। इस घर में और
पूजाघर?
...यहाँ सिर्फ'सत्य' निवास करता है। देखा
नहीं, फाटक
पर लिखा है-'सत्यधाम'." (पृ-20)
- यानी, जहाँ पूजाघर है, धार्मिक कर्मकांड हैं, धार्मिक ग्रन्थ हैं-क्या
उनके साथ 'सत्य' वास नहीं करता? इस प्रश्न का उत्तर भी उपन्यास में दिया गया है। प्रो. पाण्डेय कहते हैं -
" मैं यह कहना चाहता हूँ कि भारतीय धर्मशास्त्र और
लगभग सारे धर्मशास्त्र और बहुत हद तक भारतीय दार्शनीक प्रणालियाँ भी तर्कातीत पर
आधारित हैं। वे अमूर्तन की सृष्टि करती हैं। फिर उस अमूर्तन के लिए तर्क। जो है ही
नहीं, जो न
कुछ है उसके लिए तर्क। और वह भी पूर्व-नियत। अँधा। बस यह की विश्वास करना है। जब
विश्वास ही करना है तो तर्क के लिए जगह कहाँ है?" (पृ-33)
लोक स्तर पर हमारे यहाँ मिथकों के बारे में दो धारणाएं प्रचलित है। एक ओर
वे लोग हैं जो मिथकों के संसार में जीते हैं और अपनी श्रद्धा-भक्ति के कारण इन्हें किसी भूले हुए अतीत की स्मृति समझते
हैं. मानो मिथक की अलौकिक और तर्केत्तर घटनाएं कभी सचमुच घटित हुई थीं। दूसरी तरफ
ऐसे लोग हैं जो मिथक को काल्पनिक कथाएँ कहते हैं। दोनों ही धारणाओं के समर्थक इस
उपन्यास में मिलते हैं। एक ओर गायत्री है, जिसे विश्वास है कि, अमेरिका में हनुमान जी की 'थापना' करने से पूरा अमेरिका
शुद्ध हो जायेगा, बजरंगबली की मूर्ति को जिस मलेच्छ ( कस्टम ऑफिसर )ने उलटकर देखा था, उसका सर्वनाश होजायेगा।
(पृ-71) वहीँ
प्रो. तत्सत पाण्डेय जैसे चरित्र भी हैं जिन्हें किसी अदृश्य शक्ति की भक्ति करने
से ज्यादा साक्ष्य रूप में सामने समाज की समस्याएं नज़र आती हैं। वो कहते
हैं-"मनुष्य की बेचारगी का कोई जवाब नहीं। वह एक जाने हुए छल से छला जाता है।
हर जगह पैगम्बरों और मसीहाओं और तरह-तरह के भगवानो के असंख्य छल ! और फिर भी भूख
है, महामारी
है, दुःख
है।" (पृ-113)
आगे चलकर उपन्यास में
गायत्री जैसी विचारधारा के लोगों की एक पूरी एक्सप्रेस 'कारसेवक एक्सप्रेस' कथाभूमि पर दौड़ती हुई
मिलती है!निश्चीत रूप से आज समाज में बाहुल्य ऐसे ही लोगों का है जो पौराणिक
मिथकों के अवतार चरित्रों की लीलाओं का गायन और अनुकरण करते हैं। बल्कि इस स्तर तक
करते हैं कि, आराध्य का अनुकरण करते-करते अपने अनुरूप उसे प्रस्तुत भी कर लेते हैं और इसी
आधार पर एक ही मिथक कथा के कई रूप समाज में व्यवहार में लाये जाते हैं। समाज की इस परंपरा के पीछे, कथाओं के रूप परिवर्तन
के पीछे कारण क्या हैं? अगर हम इस प्रश्न का उत्तर खोजें तो पाते हैं कि, मिथक कथाएँ अपने भीतर कई
अर्थ छवियाँ लिए रहती हैं। 'रचनात्मक उपयोग के पीछे युगीन यथार्थ की आवश्यकता और
रचनाकार की जीवनदृष्टि सक्रिय होती है।' (चारुमित्र, आधुनिक रचना शीलता, पृ-47.) युगीन सन्दर्भों के वाहक बनकर
मिथक अपने में नवीन संभावनाओं को जन्म देते हैं। इसीलिए अभिव्यक्ति की नवीन व अमिट
संभावनायों से संपृक्त मिथक कथा में ऐतिहासिक घटनाक्रमों एवं तथ्यों का उतना
महत्त्व नहीं होता जितना उनके माध्यम से व्यंजित होने वाला सत्य महवपूर्ण होता है।
मिथकों के भीतर से गूंजता सत्य ऐतिहासिक साक्ष्य की दृष्टि से भले ही मान्य न हो,
लेकिन जनमानस का
मिथक में अटूट विश्वास होता है। उपन्यास में भी कथाभूमि के भीतर बहती
मिथकीय-संस्कृति की ऐतिहासिकता की पड़ताल है-
1.) "अपने वर्तमान रूप में अयोध्या के
बसने का इतिहास तीन-चार सौ वर्षों से पुराना नहीं है। सबकुछ इसी के भीतर हुआ। किसी
भी भवन के वास्तु-कला सम्बन्धी परिक्षण से यह तथ्य आसानी से सिद्ध किया जा सकता
है। लेकिन, तथ्यों से आज कसी को क्या लेना-देना! मिथकों की धुंध में डूबी अयोध्या की सांस
घुट रही है।"(पृ-247.)
2.) सभी इतिहासकारों फ़्युहरह,
ए.के.नारायण,
कनिंघम और
बी.बी.लाल के मिले जुले निष्कर्ष रूप में बताया गया है कि-" वर्तमान अयोध्या
ही रामायणकालीन अयोध्या है। यह 'रामायणकालीन' शब्द ही अनर्थ की जड़ है। 'रामायणकालीन' का अर्थ है कि, जिस सदी के इधर-उधर
रामायण की रचना हुयी, न कि वह समय जब राम अयोध्या में पैदा हुए, बनवास गए और लौटकर राजसूय यज्ञ
किया।" (पृ-247.)
इस प्रकार तथ्यों से अलग जाकर लोगों में और विशेष रूप से
भारतीय जनमानस में मिथकीय चेतना से गहरा सम्बन्ध देखा जाता रहा है। यही विचार इस
उपन्यास के भीतर भी हर घटना-क्रम में लगातार सुगबुगाते रहते हैं कि, क्यों और कैसे लोक में
भीतर ही भीतर अपना एक अलग इतिहास बनता जाता है। किस तरह अपने व्यक्तिगत हितों की
लिए सुरक्षित और संपन्न लोग नई-नई किवदंतियां जनता की ओर फेंकते हैं, फिर वे फैलते-फैलते मिथक
कथाओं का और अंततः इतिहास का रूप ले लेते हैं : " भारतीय मानस में मिथक और
इतिहास में घाल-मेल करने की एक ऐसी संस्कारिक लत है कि, उसने बिना किसी साक्ष्य की परवाह
किये टीले पर स्थित मस्जिद के नीचे-ऊपर 'जन्भूमि' की कल्पना को साकार किया और नौरंगशाह की मस्जिदों के
खंडहरों में ' त्रेता के ठाकुर' ( राजसूय यज्ञ का स्थान) और ' स्वर्गद्वार ' की कल्पना को रूप
दिया।" (पृ-247.)
प्रश्न एक यह भी है कि मिथकों में अतीत की स्मृतियों
को स्वीकार करते हुए भी 'इतिहास' की तरह उन्हें प्रमाणिक नहीं माना जाता, फिर भी मिथकों पर लोगों
के विश्वास का कारण क्या है? डॉ रमेश गौतम यह मानते हैं कि, 'मिथक का इतिहास लोकमन से बंधा इतिहास
मन है, जिसमें
मानवीय स्वभाव का अंतर्सार उपलब्ध होता है।' ( हिंदी नाटक:मिथक और यथार्थ,
पृ-50) इसका कारण यह है की इतिहास में सिर्फ राजनितिक
सत्ता-परिवर्तन, युद्ध और शासकों के जीवन से जुड़े कुछ अंश ब्योरे की शैली में मिलते हैं। जबकि
मिथक में इतिहास की प्रमाणिक घटनाओं से अधिक गंभीर सत्य छिपा रहता है। ' मिथक द्वारा लोक-जीवन की
सांस्कृतिक अभिव्यक्ति व्यापक पैमाने पर संभव होती है।' (वही) पर, मिथकों की यह मूल्यवत्ता आज खोती जा रही है। मनगढ़ंत तरीकों से उन्हें अपनी-अपनी
ओर घुमाया जा रहा है और इस खींच-तान में
मिथकों के भीतर से न तो कोई मानव-मूल्य का सत्य मिलता है और न ही मानव विवेक का
निचोड़, जो
मिथकों की अमूल्य संपत्ति है। लेखक ने ऐसी एक नहीं कई घटनाओं के नमूने कृति में
दिए हैं, जैसे
वह प्रसंग जहाँ एक भजन-गायक ने 'विनयपत्रिका' की निर्मिती के सन्दर्भ में जो कथा भीड़ को सुनाई,
वो और उस जैसी
कथाएँ समय-समय पर हर शहर-कस्बे में असंख्य भजन गायकों द्वारा सुनाई जाती हैं,
जिन्हें भीड़ पूरी
श्रद्धा से सुनती और स्वीकारती है। ये एक तरह से 'लोक' में बनते-बुनते हुए विचार हैं।
इन विचारों
का जन्म मनुष्य के जन्म के साथ ही हुआ और तब इन्हें लगभग पूरे समाज का विश्वास
प्राप्त होता था। लेकिन आज इन्हें प्रश्न के दायरे में लाने वालों की संख्या बढती
जा रही है। फिर भी मिथकों का अस्तित्व समाज में बना हुआ है। जहाँ हम इसका एक कारण
अपनी सांस्कृतिक अस्मिता से जुड़ा हुआ पाते हैं, वहीँ इसका दूसरा कारण त्रिलोचन
पाण्डेय ने किसी समाज की आर्थिक तथा औद्योगिक परिस्थितियों से प्रभावित माना है। (
लोक साहित्य का अध्यन - त्रिलोचन पाण्डेय, पृ- 47) मंदिरों के आसपास लगी दुकानें जहाँ पूजा-हवन सामग्री
और इस से सम्बंधित सामान उपलब्ध है, ये एक दिनों-दिन बढ़ता नया व्यापार-विकल्प है जो
सुरक्षित भी है और सदाबहार भी। यह संभव है कि उपन्यास के गौण पात्र शिवगोपाल पंडित
या स्वामी अचेतानंद जैसे चरित्र हमारे समाज के भीतर से उपजे हैं। शिवगोपाल पंडित
जो चोरी और बदनीयती के कारण गाँव से बाहर निकाल दिया जाता है। वह गाँव के बाहर
सूअरों के लोटने की जगह पर मिटटी लीप-पोत
कर हनुमान लला ली मूर्ति गढ़ता है, उस पर पहले एक चौकी, फिर मंदिर, मंदिर के बाहर अहाता और
अंत में एक पूरा मठ वहां तैयार हो जाता है। ( पृ - 271) अयोध्या की इस परम्परा को भी
लेखक ने दिखाया है। उपन्यास में इसे 'धर्म की मंडी' की संज्ञा दी गयी है। (249)
धर्म की यह मंडी
संभवतः आज कई स्थानों पर सज चुकी है। 'अयोध्या' की चर्चा को तो केवल इस उपन्यास में एक प्रतीक की
तरह प्रयोग किया गया है। लोगों में धार्मिक विश्वासों के प्रति गहरा ही नहीं बल्कि
एक प्रकार का अँधा विश्वास बन चुका है। जब विश्वास अँधा हो, उसमें पुनः सोचने या प्रश्न करने
की कोई गुंजाईश ही न हो तो 'रहस्य' का एक झीना-सा आवरण बातों को अँधेरे में ढकने लगता है। यह
वो अँधेरा है, जो धर्म से लोगों को डराना सीखाता है। यहाँ समकालीन कविता के प्रमुख कवि राजेश
जोशी की एक कविता याद आती है, शीर्षक है- 'यह धर्म के विरूद्ध है'. कुछ पंक्तियाँ-
" यह धर्म के विरूद्ध है
मकान मालिक परेशान है
और आँगन में टहल रहा है, देख रहा है
दाहिनी ओर की दीवार पर
भीत फोड़कर
एक पीपल उग आया है
दीवार में दूर तक पड़ गयी है दरार
पर पीपल को
न तो उखाड़ा जा सकता है
न काटा जा
सकता है
क्योंकि यह
धर्म के विरूद्ध है।
- - -
पीपल और बड़ा होगया है
पूजा के लिए उसके आसपास
इकट्ठे होने लगे हैं
मोहल्ले के लोग
मकान एक सार्वजनिक स्थल
बनता जा रहा है
- - -
अपनी ही ज़मीन से निर्वासित होता जा रहा है वह
वह मन ही मन बडबडा रहा है ऐसी की तैसी, इस......
पर असंभव है इसके आगे कुछ भी कहना
क्योंकि यह धर्म के विरूद्ध है।" ( काव्य
संग्रह- मिटटी का चेहरा)
प्रो. तत्सत
पाण्डेय का 'धर्म के विरूद्ध' दोहरा संघर्ष ही 'आखिरी कलाम' की पूरी कथा है। वह व्यक्ति एक ओर
पारिवारिक स्तर पर और दूसरी ओर सामाजिक स्तर पर लगातार जूझता है
मानव-मूल्यों के लिए, उस विवेक के लिए जो अंधी आस्था और तर्कपूर्ण विश्वास में अंतर सीखाता हो। पर
यह संघर्ष जीवनभर केवल उन्हें तोड़ता है, उनके व्यक्तित्व को निचोड़ता और चूसता रहता है। यही
त्रासद अवस्था उनकी बडबडाहटों में संवेदनात्मक स्तर पर नज़र आती है। वांग्मय पत्रिका में रघुवंश मणि द्वारा लिए गए
अपने एक साक्षात्कार में दूधनाथ जी ने कहा
है कि, " तत्सत पाण्डेय की जो बडबड़ाहट है, वही मूल कथ्य है।" ( वांग्मय:साहित्य और
संस्कृति, wangmaya.blogspot.in, date-14-09-07, नोट करने की तिथि और समय -19-01-13,
2:04 am) इसके
आलावा अपनी ज़मीन से निर्वासित हुए अयोध्या के लोगों की ओर भी इशारा किया गया है।
राजेश जोशी जी की कविता के उस मकान मालिक को याद करें, जो 'धर्म के विरुद्ध' न जाते हुए अपने ही घर
से बेघर हो जा रहा है। पर सच यह भी है कि, आज लोग अपने धार्मिक मिथकों के साथ इतने आक्रामक व
अराजक रूप से जुड़ रहे हैं कि, एक का जुड़ना, दूसरे के बिखरने को निश्चित कर रहा है। आमतौर पर ये
"मिथक एक तरफ किसी भी संस्कृति या जाति
की अस्मिता का आधार होते हैं, दूसरी तरफ वह उसको किसी दूसरी संस्कृति से अलग और
विशिष्ट रखने का भी एक साधन होते हैं।" ( अज्ञेय-मिथक और साहित्य, सं-शम्भुनाथ-मिथक और
भाषा, पृ-35)
लेकिन यह 'अलग' और 'विशिष्ट' होने की ललक अपने
हित-साधनों से मिलकर जब आगे बढती है तो
इसका एक विकृत रूप हम समाज में पाते हैं। ये वो रूप है जो साम्प्रदायिकता को बढ़ावा
देता है।
कुंवर
नारायण की कविता 'अयोध्या 1992' की कुछ पंक्तियाँ -
" हे राम,
- - -
तुम्हारे बस की नहीं
उस अविवेक पर विजय
जिसके अब लाखों सर-लाखों हाथ हैं।"
-ये लाखों सर
और हाथ उन्ही लोगों के हैं, जिनमें अब मिथकों के मूल सन्देश को या उनके मूल्य को
पहचानने का विवेक लगभग समाप्त होता जा रहा है।
नीतू तिवारी
शोधार्थी हिंदी विभाग ,
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली.
मो - 9999054384
ई-मेल:neeroop@hotmail.com
|
मिथक संभावनाओं
से पूर्ण हैं। समय के साथ इन संभावनाओं की मिट्टी पर पड़े कल्पना बीज आस्था
और विश्वास के रूप में फलने लगते हैं। आज आवश्यकता है कि हम अपना विश्वास उन्ही
विचारों/मिथकों पर बनाएं जिनके विश्लेषण में ऐतिहासिकता का पुट हो, साथ-ही-साथ जो संकुचित
अर्थ में किसी धर्म से जुड़ने के बजाए अपने
विस्तार में इस ज़मीन के, 'लोक' के अनुभवों का निचोड़ हों। स्वयं रचनाकार के शब्दों में -'मैंने अपने समाज को
ऐतिहासिक परिवर्तनों के भीतर से देखना शुरू किया। इस तरह मैंने एक दुसरे छोर से
अपने समाज को ढूँढना और जानना शुरू किया।' ( वांग्मय:साहित्य और संस्कृति,
wangmaya.blogspot.in, date-14-09-07, नोट करने की तिथि और समय -19-01-13, 2:04 am) इस सम्बन्ध में राजेंद्र
माथुर के एक निबन्ध को भी देखा जा सकता है , शीर्षक है-'गहरी नींद के सपनो में
बनता हुआ देश'. राजेंद्र माथुर के उस निबन्ध और दूधनाथ सिंह के इस उपन्यास- दोनों ही में
मिथक-संचय की प्रक्रिया को सचेत होकर अपनाने की बात पर जोर है।
'आखिरी कलाम' में भारतीय समाज के भीतर
मिथकों के महत्त्व और उनके व्यवहार को विस्तार से दर्शाया गया है। इसमें किसी एक
मिथक को केंद्र बनाने की बजाए पूरी मिथकीय संस्कृति पर बात की गयी है। यह उपन्यास
व्यापक सामजिक-राजनितिक मुद्दों, जैसे-सामंतवाद,अन्याय, हिंसा, सत्ता की राजनीती और सामजिक भेदभाव पर तो सवाल खड़े
करता ही है, पर इसके अलावा भारतीय लोक-समाज में मिथकों के व्यवहार की भी इसमें पर्याप्त
चर्चा है। इसलिए लगता है कि, 'आखिरी कलाम' उपन्यास को मिथकों के
महत्त्व और लोक-व्यवहार की दृष्टि से भी पढ़ा जा सकता है।इतिहास अपने आप को दोहराता है। यह दोहराव केवल स्थितियों या चरित्रों का नहीं, बल्कि विचारों की वापसी है। जो अपने अनुकूल घटित होते हुए स्थितियों और चरित्रों को ढालते हैं। वर्तमान चुनावी परिप्रेक्ष्य में लगातार साम्प्रदायिकता का मुद्दा उठाया जा रहा है। ध्रुवीकरण की राजनीति अपने चरम पर है, जिसमें सन
1992 की घटना की गूँज अब भी रह-रह कर सुनाई पड़ रही है। ऐसे में साहित्यिक रचनाओं के पुनर्पाठ की आवश्यकता भी बढ़ जाती है। ताकि हम अपने समाज के सच से साबका रख सकें। बाबरी विध्वंस की पूरी डाक्यूमेंट्री के रूप में मौजूद दूधनाथ सिंह का अद्भुत आख्यान है -
"आख़िरी कलाम ".
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंदूधनाथ जी भले कहते हों की तत्सत पांडे की बकबक ही उपन्यास का कथ्य है , लेकिन वह उपन्यास किस काम का जिसके कथ्य को इस तरह सार रूप में निरूपित किया जा सके . उनके ऐसा कहने में ही यह निहित है कि उन्होंने धर्म , मिथक और इतिहास की अपनी खास तरह की समझदारी को उपन्यास का जामा पहनाया है . लेकिन क्या अयोध्या आन्दोलन और हिंदूवादी फासीवाद के उभार की व्याख्या मिथक के इतिहास में बदलने के सरल सूत्र से की जा सकती है ? मिथक का इतिहास केरूप में प्रचार इस आंदोलन के द्वारा आजमाई गयी एक प्रविधि जरूर है. ऐसा सभी फासीवादी अभियानों और धर्मयुद्धों में में देखा जा सकता है . शायद इसी चीज को तुमने मिथकीय संस्कृति कहा है .लेकिन फासीवादी अभियान उससे भी ज़्यादा नए मिथकों की रचना और खुद इतिहास को मिथक में बदलने के उपायों पर निर्भर करते हैं .बाबरी मस्जिद के निर्माण की प्रचारित कथा खुद एक नए बनाए गए मिथक का उदाहरण है , जबकि मस्जिद के विध्वंस के किसी वस्तुनिष्ठ वृत्तांत को उभरने न देना, उसे एक रहस्यकथा में ढल जाने देना इतिहास को मिथक में बदलने का . इतिहासदृष्टि- संपन्न उपन्यासकार का काम है इतिहास के मिथीकरण को चुनौती देना और उसके मानवीय सारतत्व को प्रकाशित करना . क्या यह उपन्यास ऐसा कर पाने में कामयाब हुआ है ? या केवल धर्म -मिथक -इतिहास की वैचारिक बहसों में उलझ कर रह गया है ? आख़िरी कलाम की मिथकीयता पर विचार करते समय इन पहलुओं को टटोलने की जरूरत भी है ..
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