साहित्य-संस्कृति की त्रैमासिक ई-पत्रिका
'अपनी माटी'
वर्ष-2 ,अंक-14 ,अप्रैल-जून,2014
और वह चला गया ! दिल के हज़ार बार कहने पर भी मैं उसे
आवाज़ न दे पाई। दिल और दिमाग की जंग में जीत दिमाग़ की हुई। अब तक हैरान हूँ कि जिस
समीर को अपने साँसों में सँजोया, कल तक जीवन से ज़्यादा
प्यार किया, वह आज इतना पराया कैसे बन गया? मैं चाहते हुए भी उसे रोक न पाई। अगर वह रुक भी जाता तो
क्या होता? जो न होना था वह हो चुका। अब तो बस सभी तमाशाई बनकर देख रहे है, घर के सदस्य, रिश्तेदार, आस पड़ोस के लोग। लोग है,
वे तो देखेंगे,
बोलेंगे। जिसे
देखे बिना मेरी सुबह का सूरज नहीं निकलता था, दिन ढलने के पहले कई बार बात किए
बिन वक़्त काटे नहीं कटता था, उसे जाते हुए देख भीतर तक एक खालीपन भर गया।
चित्रांकन :शिरीष देशपांडे,बेलगाँव |
और उस दिन उसीने
तो फोन पर बताया कि वह किसी निजी काम से दस दिन के लिए बाहर जा रहा है।
‘दस
दिन, एक
नहीं दो नहीं, दस दिन के लिए....!’
फोन पर रूठने वाले अंदाज़
में मैंने कहा था।
“अरे
मेरी बात तो सुनो पूर्वी, अभी कल शाम को ही तो हम मिले थे, तुमसे मिलकर घर लौटा तो ऑफिस से
इंटरव्यू के लिए प्रविष्टि पत्र मिला। कल ही समय निर्धारित हुआ है, और मुझे आज ही रवाना
होना होगा ...! तुमसे बात करके तुरंत
निकलूँगा, सात घंटे का सफ़र भी तो है।’
“कहाँ जा
रहे हो?”
“आगरा.....वहीं हेड ऑफिस है!”
‘तो तुम मुझसे मिलोगे नहीं,
यूं ही चले जाओगे?’
‘मिलूंगा, ज़रूर मिलूँगा, दस दिन बाद जब लौटूँगा।
भगवान ने चाहा तो लौटकर ख़ुशख़बरी भी दूँगा।’
‘समीर, दस दिन बिना तुम्हें देखे कैसे गुज़रेंगे? मैं तो....!’
‘पूर्वी अब कुछ मत कहो प्लीज़। ज़िंदगी आवाज़ देकर बुला रही है,
मैं यह मौका कैसे
छोड़ सकता हूँ? शायद हमारे भविष्य की उसको हमसे
ज़्यादा फ़िक्र है। और हाँ, तुम दिल लगाकर पढ़ना। अब समय ही कितना बचा है तुम्हारी
परीक्षा में। तुम्हारा बी॰ ए॰ हो जाए, फिर फ़ुर्सत से बैठकर हम अपने बारे में भी सोचेंगे।
कुछ न कुछ तो करना होगा!’
‘समीर मैं भी तो बस दिन, महीने गिनती रहती हूँ। एक महीने
पश्चात परीक्षा, फिर पढ़ाई के बंधन से मुक्त होकर तुम्हारे स्नेह भरे बंधन में उम्र भर के लिए
बंध जाना चाहती हूँ।‘
वह बोलते जाती, अगर समीर ने उसे रोका न
होता। “क्या
ले आओगे मेरे लिए?”
“प्रेम का प्रतीक, सलोना सा एक ताजमहल!”
उसे जाना था, वह चला गया , वहाँ जहां मंज़िल उसका
इन्तज़ार कर रही थी। उसे अपने आप पर तो भरोसा था, पर वह आने वाले कल की नहीं जनता
था। जानता था तो बस एक बात, कि पूर्वी के पिता यह
क़तई नहीं चाहते थे कि वे दोनों आपस में मिलें, स्नेह बढ़ाएँ। शादी के बारे में
सोचना तो बहुत दूर की बात थी। कारण क्या हो सकता है, समीर सोचता ही रह जाता? वह एम॰ ए॰ पास है,
अच्छी फ़र्म में
स्थाई नौकरी है, एक अपना घर, भले ही वह छोटा है, और अब यह प्रमोशन का प्रविष्ठि पत्र, जिस के लिए उसे इंटरव्यू देने
जाना था। और अगर कामयाब हुआ तो दस दिन की ट्रेनिंग और फिर.....!
वह आगे सोचना नहीं चाहता था,
सब निरर्थक होगा,
जब तक पूर्वी के
पिता को यह रिश्ता मंजूर न होगा। सब कुछ तो था जो उसके पास, पर फिर भी न जाने क्यों, किस बात को लेकर पूर्वी
के पिता रामलाल प्रसाद उसे अपनी बेटी के लिए योग्य नहीं समझते... या...?
‘अब तो
तुम्हें अपनी जात की कोई भली सी लड़की देखकर शादी कर लेनी चाहिए। अच्छा खासा कमा
लेते हो, घर भी है, बस जाओगे!’ एक दिन घर के बाहर निकलते ही रामलाल जी ने समीर को सामने
आते देखकर सलाह देते हुए एक संकेतात्मक संदेश दे दिया।
‘जी
अंकल, करूंगा,
ज़रूर करूंगा यह तो
तय है, पर
कुछ समय लगेगा। जाने भाग्य की रेखाएँ किस के साथ जुड़ेंगी, यह तो राम ही जाने?’
‘यह तो है, अगर माता –पिता या सगे-संबंधी होते
तो एक ठिकाना मिल जाता। पर अब जो भी है, तुम्हें एक जीवन संगिनी की ज़रूरत है, ताकि तुम्हारा ग्रहस्त
जीवन भी बस जाए।‘ ‘मतलब...?’ अब समीर सटपटा गया। उसे
अपने भीतर कहीं कुछ टूटता हुआ लगा।
पिछले चार सालों से
पूर्वी और वह एक ही कॉलेज में पढ़ते रहे, मिलते रहे, बतियाते रहे और कब स्नेह की रेशमी डोर उन्हें प्यार
के बंधन में बांधती रही उन्हें पता ही न चला। और देखते ही देखते समीर बी॰ ए॰ के
बाद ए॰म॰ समाप्त करके इल्म और हुनर के बलबूते पर ज़िंदगी के मैदान में अपना एक खेमा
बना पाया।
बस्ती में उसके धरम-पिता दीनानाथ अगम का भी
बहुत नाम रहा। सारे कस्बे में दीनानाथ अगम एक चर्चित जानी मानी हैसियत ही नहीं एक
हस्ताक्षर रहे । वे मैट्रिक पास थे, और उन दिनों मैट्रिक तक शिक्षा पाने वालों का बड़ा
नाम और सम्मान होता था। तमाम उम्र एक पाठशाला में शिक्षक रहे, इज्ज़त से अपनी पत्नी के
साथ संतुष्ट जीवन गुज़ारा। अपनी तो कोई औलाद थी नहीं, जितना हो सका दीन-दुखियों की मदद
की, और एक
सामाजिक जवाबदारी को निभाते हुए अपने हर कार्य से निवृत होकर बस्ती के बच्चों में
ज्ञान की रोशनी फैलाने का कार्य में लग गए।
अपनी बस्ती में, अपने ही घर के खुले आँगन में जब
दीनानाथ अगम ने ‘अगम बाल भवन’ की नींव रखी तो उसका स्वरूप देखते-देखते बाल-पाठशाला जैसा स्थापित हो गया।
मीरा उनकी पत्नी भी इस भवन में सहयोगिनी तो थी ही, अब सहकारिणी बनकर कार्य में हाथा
बँटाती रही। दोनों पति-पत्नी आस-पास की बस्तियों के उन ग़रीब बच्चों को पढ़ाया करते,
जिनके माँ-बाप
घरों में, बागों में, दफ़्तरों में काम किया करते थे। काम क्या था एक ग़ुलामी थी, जहां अपनी मर्ज़ी के
खिलाफ रोज़ी-रोटी के नाम पर एक वक़्त के खाने का जुगाड़ हो जाता था। इसमें दोष उनका
भी कहाँ था, दाल रोटी का जुगाड़ करें, या बच्चों को पढ़ाएँ?
‘अगम बाल भवन’ में दोनों पति-पत्नी ने नियमित
रूप से निःशुल्क, सुविधाजनक समय पर बच्चों को पढ़ाने के सेवाएँ देनी शुरू की, तो सारा माहौल ही बदल
गया। काम करने वाले माँ-बाप भी अब समय की
कुछ पाबंदी पर अमल करने लगे। अपने बच्चों के भविष्य के निर्माण के लिए ‘अगम बाल भवन’ को शिक्षा का भव्य भवन
समझने लगे।
‘अरे मीरु काका अपने नाती समीर को भी यहाँ दो तीन
घंटे भेज दिया करो। बिन माँ बाप का बच्चा है, सारा दिन खेतों में आपके आगे
पीछे फिरता रहता है। आपका जीवन तो कुछ बीता है कुछ बीत जाएगा। उसे भी तो अपना जीवन
बनाने दो। मैं और तुम्हारी भाभी अब बच्चों के जीवन में रोशनी लाने के प्रयास में
मन को लगाए रखते हैं। कुछ बच्चे हमसे सीख जाते हैं कुछ हम बच्चों से।‘ कहते हुए दीनानाथ जी ने
मीरु काका के मन में एक आशा भर दी। नेक सोच अपना मार्ग ख़ुद तराशती है। दो दिन
बाद मीरु काका समीर को साथ ले आए और ‘अगम बाल भवन’ में शरीक करा कर निश्चिंत हो गए।
एक तरह से उन्होने अपने दुर्बल हाथों की बागडोर दीनानाथ के हाथों सौंप दी।
“मीरु काका समीर बहुत ही मेधावी लड़का है। देखना एक
दिन पढ़ लिखकर वह इस कस्बे का नाम रौशन करेगा।“
“मालिक पढ़ना लिखना तो वैसे भी जीवन को रौशन करता है, पर निस्वार्थ भावना से
वही धन बांटने का परम कार्य जो आप कर रहे, उसके लिए इन बच्चों के माँ बाप आप दोनों के कृतज्ञ
रहेंगे। अज्ञान ग़रीबी को विरासत में मिला है, पर पढ़कर ये बच्चे हमेशा आपके
कर्ज़दार रहेंगे। अब ये हमारे नहीं, आप ही के बच्चे हैं।“
कहते हुए वह अपने आँसू
धोती के छोर से पोंछने लगा। कुछ
अरसे के बाद मीरु काका समीर की आँखों में आंसुओं का सैलाब भरकर इस दुनिया से विदा
हो गए। अब बाल भवन के सिवा समीर का कोई न
ठौर था न ठिकाना। दीनानाथ ने उसे बेसहारा होने नहीं दिया, अपनी देख रेख में कुछ यूं तराश
कि वह कंकर से हीरा हो गया। संस्कारों की सुगंध लिए वह जहां से गुज़रता,
सभी का मन मोह लेता।
बाल भवन के बगल वाली कोठी रामलाल प्रसाद की थी।
उन्होने और आस पास के लोगों ने विरोध किया।
“यह
क्या कोई चौपाल है, जो हर रोज़ शाम को कोई न कोई चर्चा लेकर सभी इकाट्ठे हो जाते हैं?
“अगर पढ़ने पढ़ाने का इतना ही शौक़ है, तो एक पाठशाला खोलिए और
यह ज्ञान वहीं बांटें !” यह आवाज़ सेठ रामलाल प्रसाद की थी जो उसी बस्ती के रईस माने
जाते थे। उन्हें लगा कि पढ़ने के लिए छोटे लोगों का बस्ती में आना जाना उनकी शान,
मान मर्याद को
ग्रहण न लगा दे।
ज्ञान और आज्ञान का आपस में वही तालमेल होता है जो
रोशनी और अंधेरे के दरमियान होता है। दीनानाथ अगम को सच में एक दिशा मिली और
उन्होने वहाँ के स्थानीय मंदिर के पुजारी से इस नेक काम के लिए सहयोग मांगा। पुजारी ने शाम की आरती के पहले दो घंटे मंदिर का
चबूतरा इस कार्य के लिए इस्तेमाल करने की स्वीकृति दे दी।
इन्सान का मन भी अजीब है। जिसके पास सब कुछ है वह
कुछ बांटना नहीं चाहता, जिसके पास कुछ नहीं वह बहुत कुछ निछावर करने की तमन्ना रखता
है। पुजारी में अभी भी आदमीयत का जज़्बा बाक़ी था, और वह इस नेक काम में अपना सहयोग
देने में पीछे नहीं हटा। हफ़्ते में तीन दिन तय हुआ। अनपढ़ गंवार आस-पास की बस्ती से
आने लगे। संस्कारों पर, दया भावना पर, सहकार व अन्य विषयों पर रोज़ चर्चा होती। प्राय: इन
विषयों पर दीननांठ जी एवं पुजारी बातचीत करते। अब लोगों के मन से हीनता विलूप होने
लगी और आत्मविश्वास उजास होने लगा।
उस
बैठक में दीनानाथ अगम का चहेता समीर भी आकर बैठता, चर्चा में भाग लेता। वक़्त ऐसा
आया कि आस पास के मकानों और बंगलों के
बच्चे भी आकर बैठने लगे। एक दिन पूर्वी, सेठ रामलाल प्रसाद की बेटी भी आन बिरजी।
पिता ने बहुत विरोध किया, पूर्वी को समझाया, डराया, धमकाया, पर उसे घर की चौखट से बांध न
पाये।
अंधेरा रोशनी में घुलने लगा था, भेद भाव की दीवारें
कमज़ोर पड़ने लगीं, मानवता के नए कोंपल दिल- दिल में तुलसी की मानिंद अंकुरित हुए और पाक दिलों के
बीच सरल स्वछ सोच बतियाने लगी। देखते ही देखते आठ साल बीत गए, बच्चे अब बड़े हुए,
कस्बे में पढ़ते
हुए अब शहर की ओर रुख करते हुए आगे पढ़ने लगे। समीर कालेज गया तो दो साल बाद पूर्वी
ने भी वहीं दाखिला ले लिया। स्नेह का नाता कब प्यार में बदला पता नहीं। पर एक
निष्ठा थी, जो सब कुछ अनकहे मुखरित मौन के रूप में दोनों की दिलों में पनपती रही।
‘पूर्वी मेरी ग़ैरहाज़िरी में यहाँ तुम्हें बाबा का हाथ बँटाना
है, एक
घंटा नियमानुसार यहाँ आकर बालभवन के कार्यक्रमानुसार किसी विषय पर बातचीत करना !
और हाँ! सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि अगले महीने तुम्हारी फ़ाइनल परीक्षा है। अपनी
पढ़ाई मन लगाकर रोज़ करोगी, यह वादा करो।“
“मेरा वादा है समीर,
मैं भी उस पल का
इंतज़ार है, जब.....!”
“बस बस अब कुछ और न कहना, बस मेरे आने का इंतज़ार करना।“
कहते हुए समीर ने
अपना हाथ उसके बालों कि लटों में उलझा लिया।
आज
समीर अपने ओहदे की एक और सीढ़ी पर अपनी कामयाब मुहब्बत और ज़िंदगी का परचम फहराने जा
रहा था. बालभवन से जुडते ही पूर्वी समीर से कुछ ऐसे जुड़ गई कि वह अपना समस्त जीवन
उसके साथ बिताने के सपने सँजोने लगी। इस विषय पर आधी अधूरी बात कई बार उनकी बातचीत
का विषय रही।
“समीर मैं बी॰ ए॰ के पश्चात तुम्हारे हर कार्य में
सहभागिनी बनना चाहती हूँ।“ एक दिन उसने समीर के सामने अपने मन कि गांठ खोली थी।
“अरी पगली, अभी तो तुम अपनी परीक्षा की तैयारी में मन लगाओ और
फिर मैं भी समयानुसार तुम्हारे पिताजी से बात करूंगा। उन्होने अपने मन की बात तो
एक दो बार मेरे सामने रखी है- ‘कि मुझे अपनी जात की किसी भली सी लड़की देखकर शादी कर लेनी
चाहिए, अच्छा
खासा कमा लेता हूँ। मेरे घर बस जाने में उनकी कौन सी मुराद हो सकती है, पता नहीं?”
“तुमने उन्हें बताया नहीं कि हम जीवन साथी बनकर अपना
जीवन गुज़ारना चाहते हैं?”
“मैं नहीं कह सका, तुम प्रयास करके देखना!”
कहते हुए समीर ने
उसके गाल पर हकली थपकी देते हुए उसके अहसासों को छू लिया।
“समीर मैं जानती हूँ पिता जी कट्टर हैं, जिद्दी है, और तो और वे इस शिक्षा
प्रणाली को मलेरिया की तरह फैलाने के कारण भी बहुत उखड़े हुए हैं। फिर भी मैं उनसे
बात करने की कोशिश करूंगी”
और समीर चला गया, एक आस, एक प्यास दिल में लेकर! और मैं
फिर भी उसे रोकने में असमर्थ रही!
दिल में भड़कती हुई आग को बुझाने के प्रयास सेठ
रामलाल प्रसाद ने अपनी बेटी पूर्वी की ज़िंदगी को शोलों में झोंकने का प्रयास किया।
एक पिता की दस्तावेज़ी के नाते , बिना उससे पूछे उसकी
शादी एक रईस व्यापारी घराने में तय कर दी और महूरत निकलवा कर बात का ऐलान किया।
पूर्वी की जैसे सांसें रुक गईं।
“पिताजी.....!”
“कुछ कहने सुनने का समय नहीं है। बात बन आई है तो उसे खुशी
राज़ी सम्पूर्ण होने दो। ज़िंदगी सिर्फ़ शब्दों का खेल नहीं है, उसे घारने के लिए और
चीजों की भी ज़रूरत होती हैं। मैंने तुम्हारा भला सोचा है, और इसीमें तुम्हारा भला है।”
“पर मेरी परीक्षा.....!” अधूरे एहसास अल्फ़ाज़ बनकर गले में
घुट कर रह गए।
वह कुछ कहती उससे पहले फोन की
घंटी बजी, जिसे उठाते हुए रामलाल प्रसाद उस ओर से आती आवाज़ पहचानते हुए संजीदा स्वर में
कहा “समीर,
पूर्वी अभी तुमसे
बात न कर पाएगी। घर में मेहमान आए हैं, और शादी के शगुन भी शुरू होने को है।“
“अंकल किसकी शादी है?”
उस ओर से सवाल उठा।
“पूर्वी की, और किसकी? क्या तुम्हें यह भी नहीं मालूम? तुम तो पूर्वी के अच्छे
दोस्त हो और मैं भी तुमसे बहुत उम्मीद लगाए बैठा था, कि तुम्हारी बहुत मदद मिलेगी। पर
पता चला कि तुम बाहर गए हुए हो, अच्छा रखाता हूँ ...”
“पर अंकल यह सब इतना जल्दी कैसे हो गया? पूर्वी ने तो मुझे इस
बारे में कुछ नहीं कहा”
“नहीं कहा, ताज्जुब की बात है। ख़ैर
अब मैं फोन रखता हूँ... काम बहुत बाक़ी है... तुम शादी में ज़रूर आना”
“शादी कब है?”
समीर को अपनी आवाज़ जैसे कोसों दूर से आती हुई
लगी।
“आज
शुक्रवार है, इतिवार को शादी है! और सोमवार को रात की गाड़ी से बाराती कानपुर के लिए रवाना
होंगे। आसरा राम का, सब ठीक हो जाएगा....!”
संदेश क्या था, पिघला हुआ शीशा था, जो पूर्वी के कानों में
रिसने लगा। दिल को सदमा इतना गहरा पहुंचा, कि उसे अपने वजूद के होने और न होने में कोई अंतर
दिखाई नहीं दे रहा था। वह तो फ़क़त एक बुत बनके रह गई, जिसकी न कोई इच्छा थी, न कोई उमंग। बस दो दिन
पश्चात गुड़िया की तरह सज-धज कर वह मंडप में बिठा दी जाएगी, ब्याही जाएगी उसके साथ जिसे उसने
कभी देखा तक नहीं है। हाँ यह ज़रूर जानती थी कि शादी के बाद उस पति की धर्म-पत्नी
बनकर जीवन घारेगी। जिसके साथ जीने के सपने
देखे, उन
सपनों को ख़ुद अपने हाथों तोड़ना होगा, उसे समीर को भूलना होगा। पर भुला पाना भी क्या किसी
के बस में होता है? जो पल पल याद में बसा हो उसे
कैसे कोई भुलाए? पिता ने पूछे बग़ैर फ़ैसला किया, और सिर्फ़ हुक्म की पैरवी करने की इजाज़ात दी। गुनाह नहीं बताया सिर्फ सज़ा सुना दी!
“पूर्वी.............!” धड़कती साँसों में एक हलचल
हुई।
“समीर.............!
”
“बधाई हो..! .”
“........”
“अरे समीर तुम वक़्त पर आ गए, चलो अच्छा हुआ। चलो अब कुछ हाथ
बंटाओ। बाहर मेहमानों के आने की तैयारी
में कोई कमी न रह पाये, ज़रा देख लेना।“ कहते हुए सेठ रामलाल प्रसाद धोती का छोर पकड़ते हुए
किसी और काम के लिए लपके। समीर ने हारे हुए सिपाही की तरह अपने सभी शस्त्र समर्पित
करते हुए एक पैकेट पूर्वी की ओर बढ़ाया। मौन में सिर्फ़ सवाली आंखें उठीं, जैसे पूछ रही हों - “ये क्या है,,,,?”
“यह प्यार का प्रतीक-सलोना सा ताजमहल....!’ समीर सिर्फ़ इतना ही कहा
पाया।
दोनों के बढ़ते हुए हाथ कंपकंपा रहे थे, जैसे कोई ज़िलज़िला अभी
अभी करवट लेकर दोनों के दिलों की अपनेपन की दीवार की ईंटों में परायेपन की दरारें
चौड़ी कर गया हो। पूर्वी के हाथ उस सौग़ात को शायद संभाल पाने में नाकामयाब रहे।
समीर के पलटते ही वह मुहब्बत का मिनार गिरकर टूटा, टूटकर बिखर गया। पर टूटने की
आवाज़ किसी कान तक न पहुँच पाई।
प्यार का प्रतीक ताजमहल उनके बीच में पड़ा था। सवाली
आँखें, जवाबी
होंठ जैसे मुखरित मौन में कह रहे हों- “ये हूँ मैं और ये है ताजमहल।“
एक अनछुआ अहसास अब भी खंडहरों में धड़कता है, सांस लेता है।
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