साहित्य-संस्कृति की त्रैमासिक ई-पत्रिका
'अपनी माटी'
वर्ष-2 ,अंक-14 ,अप्रैल-जून,2014
हिन्दी साहित्य का प्रादुर्भाव और विकास निरंतर मिथकों से जुड़ा प्रतीत होता है। इसके विकासक्रम को देखने पर ज्ञात होता है कि हिन्दी साहित्य का कोई भी युग मिथकीय अवचेतना से अछूता नहीं है। भावबोध से लेकर कलात्मक अभिव्यक्ति तक सर्वत्र मिथकों की उपादेयता दर्शनीय है।हिन्दी साहित्य के आदिकाल को वीरगाथा काल के नाम से जाना जाता है। इस काल में वीर काव्यों की प्रधानता थी। अधिकांश कवि राज्याश्रित थे परन्तु इस राज्याश्रित परंपरा के अतिरिक्त एक अन्य धारा अविरल गति से प्रवाहित हो रही थी जो सीधी-सीधी मिथ कथाओं से जुड़ती है। विद्यापति ने अपने पदों में शिव और कृष्ण के सम्बन्ध में अनेक रमणीय प्रसंगों की कल्पना की है जिसमें शिव और कृष्ण पौराणिक चरित्र के रूप में चित्रित हुए है। चंदरबरदायी के ‘पृथ्वीराजरासो‘ और दूसरे काव्यों में ऐतिहासिक चरित्रों को कल्पना प्रसूत अतिरंजनाओं के बीच में रखकर चित्रित करने की प्रक्रिया दिखाई पड़ती है। बौद्ध धर्म से सम्बन्ध रखने वाली कथायें तथा उनके रचयिता सबरपा, लुइपा, डोम्बिम्पा, ककुरिपा आदि मुख्य है जिनके साहित्य में बौद्ध दर्शन का ही वर्णन मिलता है। जैन धर्म परम्परा में देवसेन का काव्य ‘श्रावकाचार’ जिनकेश्वर का ‘भारतेश्वर बाहुबलीरास‘ आसगु का ‘चंदनबालारास‘ विजयसेन सूरी का ‘रेवंतगिरीरास‘ सुमतिगणि का ‘नेमिनाथरास‘ महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं। ‘भारतेश्वर बाहुबलीरास‘ में राम कथा और ‘नेमिनाथरास‘ में कृष्ण कथा को नए रूप प्रदान किये हैं। नाथ पंथियों के हठयोग, वाममार्ग, तंत्र मंत्र आदि का वर्णन भी आदिकालीन साहित्य में मिलता है। इस धारा में विशेष चर्चा का विषय गोरखनाथ रहे हैं जो मत्स्येंद्रनाथ के शिष्य थे। गोरखनाथ ने अपनी रचनाओं में गुरु महिमा, इन्द्रिय निग्रह, वैराग्य, समाधि, हठयोग, ज्ञानयोग आदि वार्ताओं को प्रमुख स्थान दिया जिनमें मिथक का प्राचुर्य प्रयोग मिलता है।
चित्रांकन :शिरीष देशपांडे,बेलगाँव |
पूर्वमध्य काल तक पहुंचते-पहुंचते सिद्ध-नाथ की रचनाओं ने काव्यधारा का रूप धारण कर लिया जो निर्गुण ब्रह्म परक ज्ञानाश्रयी शाखा कहलायी। इस शाखा के प्रमुख कवि रैदास, नानकदेव, जम्भनाथ, हरिदास, लालदास, दादूदयाल, मलूकदास आदि हैं। संत मत में अनेक विख्यात भक्त हुए जिनमें कबीर का स्थान सर्वोपरि है। कबीर निःसंग कवि होते हुए भी मिथक कथाओं से अलग नहीं रह पाए। विष्णु की महत्ता स्वीकार करते हुए उनके चरण से उत्पन्न गंगा की कथा कबीर ने ग्रहण की। विष्णु की नाभि से कमल निकला जिस पर ब्रह्मा का जन्म हुआ, इसका उल्लेख भी उनके काव्य में मिलता है।
जाके नाभि पदम सु उदित ब्रह्मा, चरण गंग तरंग रे ।
कहै कबीर हरि भगति बांछूं , जगत गुरु गोव्यंद रे ।। १
कबीर ने इन्द्र, नारद, कृष्ण, उद्धव, शंकर आदि के अनेक मिथकों का वर्णन सविस्तार किया है। उनके पदों में राम के प्रति विशेष भक्तिभाव का अंकन मिलता है। राम भजन से तो भीलनी और गणिका भी संसार सागर तार गयी, पत्थर तैरने लगे।
भजन कौ प्रताप ऐसो तीरे जल परवान ।
अधम भील ,अजाति गनिका चढ़े जात विमान ।।२
पूर्व मध्यकाल की प्रेमाश्रयी निर्गुण काव्यधारा सूफी संप्रदाय के नाम से प्रसिद्ध हुई। सूफी कवियों में जायसी, मंझन, उस्मान, आलम, मुल्ला दाऊद, कुतुबन, गणपति विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। सूफी काव्यों पर भी पुराण कथाओं का प्रभाव रहा है। जायसी ग्रंथावली के आधार पर यह कहा जा सा सकता है कि मुख्य कथा में यत्र-तत्र अनेक मिथकों को पिरोया गया है। भारतीय पद्धति के अनुसार परमात्मा के तीन रूप होते हैं -रचयिता, पालनकर्ता और संहारक। इन तीनों रूपों को सूफी भक्तों ने स्वीकार किया। जायसी ने जिन दो वृक्षों को श्वेत- श्याम कहा है उनमें एक जड़ है दूसरा चेतन। चेतन जीव को भी जायसी परमात्मा के साथ एक कर देते हैं। ३
निर्गुण काव्य में विश्वास रखने वाले जायसी विष्णु के अवतार राम की कथा के अनेक संदर्भ स्मरण करते हैं। राम काव्य में लक्ष्मण की मूर्छा का उपचार संजीवनी थी। पद्मावत में राजा रतनसेन पद्मावती का सौंदर्य सुन कर मूर्छित हो जाता है। राजा रत्नसेन की मूर्छा भी पद्मावती रूपी संजीवनी ही दूर कर सकती है। यहाँ न राम हैं, न हनुमान ? संजीवनी कैसे मिलेगी -यहाँ मिथक का प्रयोग एक बिम्ब के रूप में हुआ है।
है राजहिं लष्षन कै करा । सकति बाण माहा है परा ।
नहिं सो राम, हनिवंत बड़ि दूरी । को लै आव संजीवनी मूरी ।।४
समुद्रमंथन, अर्जुन-द्रौपदी के विवाह की कथा, राजा हरिश्चंद्र की सत्यवादिता, बैकुंठ धाम, हरिलीला, कैलास पर्वत, शिवलोक के वर्णन के साथ-साथ आदि देवत्रय का अंकन भी जायसी के काव्यों में मिलता है। विभिन्न देवताओं का अंकन करते हुए जायसी महेश से विशेष अभिभूत जान पड़ते हैं।
महादेव देवन्ह के पिता। तुम्हरी सरन राम रन जिता ।।
एहू कंह तसि मया करेहू । पुरवहु आस, कि हत्या लेहु ।।५
पूर्वमध्यकालीन सगुण भक्ति साहित्य मिथकीय प्रभाव से पूर्णरूपेण आच्छादित रहा है। सूर, तुलसी, मीरा, रसखान आदि भक्त कवि और महात्माओं द्वारा सृजित यह साहित्य नैतिक, धार्मिक एवं सामाजिक मूल्यों और उच्च आदर्शों से समन्वित है। सगुण भक्तिकाल साहित्य में मिथकों की विविधता दृष्टिगोचर होती है। राम, कृष्ण, गज, गणिका, अजामिल, प्रहलाद, जटायु, रावण आदि चरित्रों, पशु-पक्षियों की कथाओं का उल्लेख भक्ति साहित्य में यत्र-तत्र प्राप्त हो जाता है। डॉ श्यामसुन्दर दास ने भक्ति काल को हिन्दी साहित्यकाल कहा है । हिन्दी भक्ति काव्य में से यदि वैष्णव कवियों के काव्य को निकाल दिया जाये तो तो जो बचेगा वो इतना हल्का होगा कि जिस पर हम गर्व नहीं कर सकते । सूर, तुलसी, मीरा, रसखान आदि भक्त कवियों में किसी पर भी संसार का कोई साहित्य गर्व कर सकता है।
तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस के राम दिव्य चरित्र के धनी नायक के रूप में, आराध्य ईश्वर के रूप में तथा मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में रामायण काल से लेकर वर्तमान साहित्य तक अनवरत वर्णित किये जा रहे हैं। अनेक मिथ इस चरित्र से जुड़ गये हैं जो प्राचीन से लेकर आधुनिक साहित्य तक मिलते हैं। रामभक्ति शाखा में राम के अवतार की पूर्ण ब्रह्म रूप में कल्पना की गई है। तुलसी के रामचरितमानस से स्पष्ट होता है -
जेहि राम भावाईं वेद बुध, जाहि धरहि मुनि ध्यान ।
सोई दशरथ सुत भगत हित कौसल पति भगवान।।६
परस्पर विभिन्नता संसार का आवश्यक लक्षण और गुण है परन्तु तुलसीदास ने अपने काव्य में समरसता के मिथक को इतना प्रभावशाली बना दिया है कि वही उनके काव्य-प्रेरणा का मुख्य लक्षण बन गया है। उन्होंने समन्वय के भाव को एक मिथक का रूप देकर सर्वजन-हिताय, सर्वजन-सुखाय की कल्पना की और इसका माध्यम राम चरित्र को बनाया। सर्व साधारण को लक्ष्य कर समन्वय की कल्पना रामराज्य के मिथक द्वारा ही पूर्णत्व प्राप्त कर सकती है। तुलसी ने रामचरित मानस के अलावा राम लला नहछू, वैराग्य संदीपिनी, बरवै रामायण, विनय पत्रिका आदि की रचना की जिसमें उन्होनें राम के मर्यादित रूप को मानव जीवन का आदर्श बनाने का प्रयास किया। राम भक्ति तुलसी के मिथक विषयक मोह का सबसे बड़ा प्रमाण तो यह है कि वे राम चरित की गाथाओ तक ही सीमित नहीं रहे। उन्होंने विष्णु के अवतार कृष्ण से भी संबद्ध पुराकथाओं को भी अंकित किया। सीता की महत्ता को स्वीकार करते हुए वे कहते हैं-
वाम भाग सोभित अनुकूला, आदि शक्ति छवि निधि जगमूला ।
जास अंस उपजहिं गुन खानी, अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी ।
भृकुटि विलास जासु जग होई, राम बाम दिसि सीता सोई ।७
परशुराम, विश्वामित्र, हनुमान, बालि, सुग्रीव, कुम्भकर्ण, कुबेर आदि से संबद्ध प्रचलित समस्त मिथकों का प्रयोग तुलसी के काव्य में मिलता है। इस काल में अन्य मुख्य कवि स्वामी रामानंद, अग्रदास ईश्वरीप्रसाद आदि हुए।
श्रीमद्भागवत ने सगुण वैष्णव कृष्ण भक्ति परंपरा को जन्म दिया। कृष्ण भक्ति से संबद्ध प्रमुख संप्रदायों में वल्लभ, निम्बार्क, राधा-वल्लभ, हितहरिवंश तथा चैतन्य की गणना की जाती है। सूरदास, कुम्भनदास, नंददास, हरिव्यासदेव, दामोदरदास, रामराय, हरिदास आदि अनेक कवि इन धाराओं से जुड़े हुए कृष्ण अराधना में लीन रहे साथ ही मीराबाई और रसखान आदि कवि भी थे जो केवल भक्त थे। कृष्ण के परम्परागत मिथक ने उनके ह्रदय में प्रेम जगाया। कृष्ण भक्ति के सर्वाधिक मान्य कवि सूरदास हुए। अतः, उन्हें अनेक पौराणिक गाथाओं को बटोरने का अवसर मिला।
गोकुल प्रकट भए हरि आइ ।
अमर उधारन, असुर संघारन, अंतरजामी त्रिभुवन राई ।८
शंखचूड़, मुष्टिक, धेनुक, कंस, कपि, विप्र, गीध आदि के मिथक सशक्त शत्रु का नाश करने वाले कृष्ण के रूप को उजागर करते है। भक्त के आर्तनाद को सुन वरदहस्त बढ़ाने वाले कृष्ण से जुड़े प्रायः सभी मिथक सूर के काव्य में उपलब्ध हैं। भक्तों में परिगणित न होने पर भी उस युग के कुछ ऐसे कवि थे जो प्रबंधात्मक काव्यों की रचना करते थे, किन्तु उनकी कृतियों का विषय मिथक कथायें ही थीं । तत्कालीन नीतिकाव्यों में काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार के परित्याग तथा उपकार वृति को ग्रहण करने का आग्रह मिलता है। मिथक कथाओं का निचोड़ इनमें प्राप्त है। ऐसे ग्रंथों में पद्मनाभ कृत डूंगरबावनी, ठाकुरसी रचित कृपणचरित आदि विशेष उल्लेखनीय हैं।
भक्तिकाल के उत्तरार्ध में केशव, सेनापति, रहीम आदि अनेक कवियों का प्रादुर्भाव हुआ जो परवर्ती रीतिकालीन धारा के मूल स्रोत माने गये। राम और कृष्ण परक भक्ति में रसिकता का समावेश तो हुआ किन्तु इष्टदेव के प्रति आस्था ज्यों की त्यों बनी रही। उस युग में ऐसे कवियों की कमी न थी जो आस्तिकता पूर्वक भक्ति में लीन थे। वातावरण के प्रभाव से राम और कृष्ण काव्य में रसिकता का समावेश अवश्य हुआ पर पौराणिक कथाओं ने एक नया मोड़ लिया। रीतिबद्ध कवियों की रचनाओं में भी मिथकीय चित्रों का समावेश है। चिंतामणि ने शक्ति के विभिन्न रूपों का अंकन किया है -
जु गौरी गनाधीस माता उमा चंडिका जो बखानी।
तु ही सर्व की बुद्धि तु ब्रह्म विद्या तु ही वेदवानी ।।९
राधा-कृष्ण की युगल लीला के प्रति कहीं-कहीं मतिराम की बहुत सुन्दर उक्तियाँ हैं। भूषण की कुलदेवी भवानी थीं। उनका प्रत्येक भूषण के काव्य का विषय बना -
जय मधु कैटभ छलनि देवि जय महिष विमर्दिनी ।
जय चमुंड जय चंड-मुंड भंडासुर खंडिनी ।।१०
कुलपति मिश्र ने दुर्गा भक्ति चन्द्रिका नामक ग्रन्थ में शक्ति के समस्त क्रियाकलापों को ग्रहण किया है। देव की अतिशय श्रृंगारिकता भी कृष्ण और राधा के रूप में उभरी है। भिखारीदास की रामभक्ति तुलसी के बहुत निकट जान पड़ती है। संत काव्य धारा गुरुभक्ति से लेकर योग साधना, सदाचार, आडम्बरों का उन्मूलन, आत्मा दृपरमात्मा के अंश आदि सभी की पुष्टि के लिये मिथकों का सहारा लिया गया है। परम्परागत राम भक्ति में गुरु गोविन्द सिंह का नाम उल्लेखनीय है। उन्होंने ब्रजभाषा में गोविन्द रामायण की रचना की। इसके अलावा कई कवियों ने राम के मिथकों पर आधारित काव्यों की रचना की। रीतिकाल में कृष्ण काव्यधारा से संबद्ध अनेक कवियों का भी प्रादुर्भाव हुआ जिनके काव्य में प्रेम, श्रृंगार और विलास का समावेश अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में हुआ। इनमें गुमान मिश्र (कृष्ण चन्द्रिका), ब्रजवासी दास (प्रबोध चंद्रोदय अनुवाद), मंचित (सुरभीदान लीला), नागरीदास (जुगालरस विलास) आदि उल्लेखनीय हैं। रीतिकालीन साहित्य में चैतन्य मत से संबद्ध भगवतमुदित, किशोरीदास गोस्वामी, गोपाल भट्ट, रामहरि, तुलसीदास मनोहारराय; निम्बार्क सम्प्रदाय के नागरीदास, सुन्दरि कुंवरि, कृष्णदास; वल्लभ संप्रदाय के जगतानंद, व्रजवासीदास; राधावल्लभ संप्रदाय के सहचरी सुख, अनन्य अली, आनंदबाई आदि; सखी संप्रदाय से संबद्ध बनी ठनी, रुपसखी, सहचरि शरण आदि अनेक कवियों की रचनायें कृष्ण विषयक मिथक पर आधारित हैं।
आधुनिक काल हिन्दी साहित्य का वह काल है जब कविता छंद ताल लय के बंधनों को छोड़ स्वतंत्र हो गई। उसने जातीयता, धार्मिकता, राष्ट्रीयता को स्वीकार नहीं किया। इस काल का आरम्भ भारतेंदु युग या पुनर्जागरण काल से हुआ। इस युग में स्वतंत्रता प्राप्ति, नारी उत्थान, भारतीय सांस्कृतिक, मानवतावाद, भक्तिविषयक आंदोलन छिड़ चुके थे । भारतेंदु युग के काव्य में सुधार और जागरण की प्रवृति मुखर हो उठी। मिथक कथायें साहित्य के ऐसे चौराहे पर पहुँच गयीं थीं कि वे अनेकों दिशाओं में आगे बढ़ सकती थीं। एक ओर माइकल मधुसूदनदत्त और हेमचन्द्र जैसे बंगदेशीय कृष्णभक्त कवि थे तो दूसरी ओर टीकाधारी भक्ति के ठेकेदारों का उपहास करने वाले कवि। भारतेंदु जी ने अपने काव्य में अनेक मिथकों का प्रयोग किया है। गोवर्धनधारी कृष्ण का उन्होंने अपने काव्य में स्मरण करते हुए लिखा है-
“ जिनके देव गुवरधनधारी ते औरहि क्यों माने हो ।
निरभय सदा रहत इनके बल जगतहि तृन करि जानै हो।
देवी देव नागनर मुनि बहु तिनहि नाहिं दर आनै हो ।
हरिचन्द्र गरजत निरधक नितकृष्ण कृष्ण बल सानै हो” । ११
भक्ति तीन धाराओं में प्रवाहित हुई-निर्गुण, सगुण वैष्णव तथा देशभक्ति। सगुण भक्तिपरक रचनाओं में राम कृष्ण से संबद्ध अनेक सन्दर्भों का अंकन उपलब्ध है। रामकाव्य के क्षेत्र में हरिनाथ पाठक की श्री ललित रामायण, बाबू तोता राम की राम-रामायण विशेष उल्लेखनीय हैं। राम की अपेक्षा कृष्ण काव्यों की रचना अधिक मात्रा में हुई। प्रेमघन की अलौकिक लीला, अम्बिकादत्त व्यास की कंसवध आदि रचनायें विशेष रूप से उल्लेखनीयहैं। ठाकुर जगमोहन सिंह ने ’प्रेमसम्पतिलता’ नामक ग्रंथ में राधा कृष्ण के निश्छल प्रेम का सुन्दर अंकन किया है -
अब यों उर आवत है सजनी, मिलि जाऊं गरे लगि कै छतियां ।
मन की करि भांति अनेकन औ मिलि कीजिए री रस की बतियां ।
हम हारि अरी करि कोटि उपाय, लिखि बहु नेह भरी पतियां ।
जगमोहन मोहनी मूरति के बिन कैसे कटें दुःख की रतियां ।१२
द्विवेदी युग के साहित्य की मूल प्रवृत्ति इतिवृतात्मक होनेे के कारण काव्य के क्षेत्र मिथकीय चेतना का बहुमुखी विकास हुआ। परंपरागत पूज्य भावनाओं के आलंबन मिथकीय पात्रों का सहज सामाजिक मनुष्य के रूप में अंकन किया गया। इस प्रकार के तथ्यों से मिथकों रूप थोड़ा बदल सा गया। मैथिलीशरण गुप्त जी ने मुख्यतः रामकथा को आधार बनाकर ही अपने काव्यों की रचना की जिनमें प्रमुख हैं - साकेत, पंचवटी, प्रदक्षिणा आदि। साकेत में राम के भगवत स्वरूप के प्रतिपादन के साथ साथ उनके युग पुरुष स्वरूप का भी वर्णन किया गया है।
“राम तुम मानव हो ईश्वर नहीं हो क्या ?
विश्व में रमे हुए नहीं सभी कहीं हो क्या ?
तब मैं निरीश्वर हूँ , ईश्वर क्षमा करे !
तुम न रमो तो मन तुम में राम करे” । १३
गुप्त जी ने परम्परागत मिथकों को एक नया मोड़ प्रदान किया। उनके ह्रदय में एक ओर अपने युग की प्रासंगिकता का मोह था तो दूसरी ओर भारतीय संस्कृति का आग्रह था, तीसरी ओर पशुता की आत्मकेंद्रित प्रवृति के प्रति वितृष्णा तथा सामाजिकता से जुड़ी मानवीय चेतना का आग्रह था तथा चौथी विचारधारा नर-नारायण के मिथक से प्रेरित थी। ‘नहुष’ एक सशक्त मिथकीय चरित्र है। गुप्त जी ने अपने काव्य नहुष में पौराणिक कथा को प्रस्तुत करते हुए नहुष के चरित्र को को प्रतीकात्मक बना कर प्रस्तुत किया है। नहुष को मानव के पराक्रम और दर्प का प्रतीक कहा जा सकता है, पराक्रम से वह स्वर्ग का अधिकारी बनता है और दर्पातिरेक से उसका पतन हो जाता है। कवि ने उसका चरित्र नवीन रूप में गढ़ा है-
मैं ही तो उठा था आप, गिरता हूँ जो अभी,
फिर भी उठूँगा और बढ़के रहूँगा मैं,
नर हूँ, पुरुष हूँ मैं, चढ़ के रहूँगा मैं ।१४
गुप्त जी ने अपने काव्य में नारी को विशेष स्थान प्रदान किया है। उन्होंने इस मिथक को परिवर्तित कर दिया है कि पुरुष का स्थान नारी से बड़ा होता है। उन्होंने अपने काव्य में यह चित्रित किया है कि पुरुष नारी के बिना अधूरा है तथा वह किसी धार्मिक कार्य का संपादन बिना सहधर्मिणी के नहीं कर सकता -
न तन सेवा न मन सेवा न जीवन और धन सेवा
मुझे है इष्ट जन सेवा सदा सच्ची भुवन सेवा ।
न होगी पूर्ण वह तब तक , न हो सहधर्मिणी जब तक ।१५
गुप्त जी ने जितने मिथकों को अपने काव्य में ग्रहण किया, सबमें अपने ढंग से मनोवैज्ञानिकता से आपूरित प्रासंगिकता का समावेश किया है। अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ ने कृष्ण चरित को एक नया रूप दिया। परंपरा से कृष्ण विरह में रोती हुई राधा ‘प्रियप्रवास’ में समाज सेविका बन गयी। हरिऔध ने कृष्ण कथा में अपने युग की प्रासंगिकता का समाहार बहुत पटुता से किया है। उनके युग का स्वर जितना प्रियप्रवास में मुखरित हुआ है उतना वैदेही-वनवास में नहीं जबकि दोनों मिथक ग्रंथों का झुकाव समाजसेवा की ओर है। हरिऔध जी ने कृष्ण के अतिमानवीय क्रियाकलाप को अत्यंत सहज समाज-सेवा वृत्ति के रूप में अंकित किया है।उन्होंने राधा-कृष्ण को समाज के सहज जनों के रूप में अंकित किया है -
जो देखते कलह शुष्क-विवाद होता
तो शांत श्याम उसको करते सदा थे ।
कोई बली निबल को यदि था सताता,
तो वे तिरस्कृत किया करते उसे थे ।१६
व्यंग-विनोद के रचनाकारों में ईश्वरी प्रसाद शर्मा, नाथू राम शर्मा, जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी तथा बाल मुकुंद गुप्त विशेष महत्वपूर्ण हैं। इन सभी कवियों ने पुरा कथाओं के गणमान्य पात्रों को व्यंगपरक काव्य का विषय बनाया।छायावादी युग में जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, सुमित्रा नंदन ‘पन्त’ तथा बालकृष्ण शर्मा नवीन मुख्य रूप से उल्लेखनीय कवि हैं जिन्होंने मिथक को काव्य का विषय बनाया। जयशंकर प्रसाद की कामायनी सृष्टि रचना के मिथक पर आधारित होते हुए भी सर्वकालिक एवं सार्वभौमिक परिवेश से जुड़ी जान पड़ती है जिसमें कवि ने प्रलय का मूल कारण देवों के विलास को माना है ।
देव दंभ के महामेघ में, सबकुछ ही बन गया हविष्य । १७
कामायनी के आधार ग्रंथ के विषय में रचना के आमुख में प्रसाद जी ने स्वयं लिखा है- जलप्लावन भारतीय इतिहास की एक ऐसी घटना है, जिसे मनु देवों से विलक्षण मानवों की एक भिन्न संस्कृति प्रतिष्ठित करने का अवसर दिया। इस घटना का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण में मिलता है। कामायनी के आधार ग्रंथों में विष्णुपुराण, पद्मपुराण, वायुपुराण, अग्निपुराण ब्रह्मपुराण, मार्कण्डेयपुराण, मत्स्यपुराण तथा श्रीमदभागवत आदि मुख्य हैं। जलप्लावन की कथा इस्लामी, यहूदी, ईसाई धर्मग्रंथों में भी मिलती है। प्रसाद जी ने कामायनी में उसे उसी रूप में चित्रित किया है।
हाहाकार हुआ क्रंदनमय कठिन कुलिश होते थे चूर ,
हुए दिगंत बधिर, भीषण रावण बार बार होता था क्रूर।
दिग्दाहों से धूम उठे या जलधर उठे क्षितिज-तट के,
सघन गगन में भीम प्रकंपन, झंझा के चलते झटके।१८
कामायनी में वर्णित नियतिवाद मिथक चेतना का ही एक रूप है। कवि द्वारा संसार के चलाने की शक्ति को नियति स्वीकार करना ही मिथक कल्पना है। देवताओं का जीवन उच्छृंखल हो जाने पर ही जल प्रलय से उनका विध्वंस हुआ था। कामायनी के आशा सर्ग में सृष्टि के विकास का जो चित्रण हुआ है उसमें शिव के विश्व रूप में अभिव्यक्त होने के संकेत हैं। सृष्टि के निर्माण का मिथक पौराणिक साहित्य से होता हुआ कामायनी तक आया है।
निराला की कविताओं पर भारतीय दर्शन का गहरा प्रभाव है। राम की शक्तिपूजा लंकाकाण्ड के कथानक को लेकर लिखी गई एक लंबी कविता है। इसमें अपने सर्जक के निजत्व के समीपतम पहचान का प्रतिफलन है। यह राम कथा कम निराला के रचनात्मक संशय, संघर्ष एवं आत्मबलिदान की कहानी अधिक है। कृतिवास रामायण के आधार पर निराला ने इस मिथक काव्य की रचना की है। कवि ने कथा में परिवर्तन तो नहीं किया है लेकिन राम के चरित्र को आधुनिक मनुष्य के अंतर्द्वंद से जोड़ दिया है। निराला की काव्य रचना ’राम की शक्तिपूजा’ एक लघु पौराणिक मिथक काव्य है।
“स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा फिर फिर संशय
रह-रह उठता जग-जीवन में रावण-जय-भय,
जो नहीं हुआ आज तक ह्रदय रिपु-दम्य-श्रान्त
एक भी, अयुत-लक्ष में रहा जो दुराक्रान्त
कल लड़ने को हो रहा विकल वह बार-बार,
असमर्थ मानता मन उद्यत हो हार-हार।”१९
सुमित्रानंदन पन्त की कविताओं में मिथक का स्फुट प्रयोग हुआ है। ’पावस ऋतु में पर्वत प्रदेश’ कविता में पन्त ने इन्द्र के पौराणिक स्वरूप को नये मिथक के रूप में प्रस्तुत किया है। इनकी कविता में प्रकृति के विभिन्न रूपों का चित्रण करते हुए मिथक का प्रयोग स्वतः ही हो गया है। ’सोम’ एक महत्वपूर्ण मिथक है इसे ‘जीवन मधु’ और ‘जीवन के रस’ अर्थ में पेय पदार्थ के साथ साथ प्रयोग किया गया है। पन्त जी ने भी ‘सोमपायी’ कविता में इसे ‘जीवनमधु’ के रूप में देखा है और दुहरे अर्थ में मधु और रस में प्रयोग किया है।
गौरी तट का स्वादु सोम जीवन आह्लादक
ऋषि-मुनियों का हृद्य पेय था रुचिर मादक
पीले मृदु वृन्तों को कूट निचोड़ अमृतरस
दुग्ध मिला मधु पेय बनाते दक्ष पुरोहित ।२०
रामकथा के कुछ और प्रतीकार्थ भी ’लोकायतन’ में खोले गये हैं। छायावादी युग में अनेक प्राचीन मिथकों का कहीं कुछ परिवर्तन करके कवियों ने अपने काव्य में प्रयोग किये। मिथकों और मनोविकारों का समन्यवय भी इस युग में हुआ।
रामधारी सिंह दिनकर ने अपने काव्य में वैदिक मिथकों का प्रयोग किया है। दिनकर ने मुख्यतः महाभारत के पात्रों को ही अपने काव्य का आधार बनाया है। ‘कुरुक्षेत्र’ नामक काव्य में कौरव-पांडव के युद्ध का वैचारिक विन्यास मिलता है। दिनकर ने इन मिथकों को द्वितीय विश्वयुद्ध के परिपेक्ष्य में देखा है। एक आदर्श वीर योद्धा की स्थापना करने के लिये दिनकर ने ’रश्मिरथी’ काव्य की रचना की। इस काव्य का नायक कर्ण है और कर्ण की चारित्रिक गरिमा को प्रकाश में लाने वाला यह प्रथम महाकाव्य है। दिनकर ने कर्ण के चरित्र के माध्यम से वर्तमान युग की अनेक संवेदनाओं को को पाठकों के सम्मुख उद्घाटित किया है-
मैं उनका आदर्श कहीं जो व्यथा न खोल सकेंगे
पूछेगा जग किन्तु, पिता का नाम न बोल सकेंगे ,
जिनका निखिल विश्व में कोई कहीं न अपना होगा
श्रम से नहीं विमुख होंगे जो दुःख से नहीं डरेंगे ।२१
’उर्वशी’ दिनकर का गीत नाट्य शैली में लिखा हुआ एक प्रबंध काव्य है। इसमें उर्वशी और पुरुरवा की पौराणिक कथा को काव्य का विषय बनाया गया है जिसका उद्देश्य चिरंतन पुरुष और चिरंतन नारी के प्रेम संबंधों की अतुल गहराइयों का अनुसंधान करना है।
छायावादोत्तर साहित्य में भी मिथक कथाओं पर आधारित वृहत साहित्य उपलब्ध है। एक ही कथा को कवियों ने भिन्न-भिन्न तथ्यों का पोषण करने के लिये भिन्न दिशाओं में मोड़ा है। रामेश्वर शुक्ल अंचल ने ऋषि अगस्त्य के मिथक का प्रयोग किया है। डॉ राम विलास शर्मा आलोचक के साथ प्रगतिवादी रचनाकार भी हैं जिन्होंने अपनी कविता में मिथक का उपयोग किया है। रामकथा की खलपात्र कैकेयी को काव्य का विषय बनाकर अनेक काव्यों की रचना हुई और प्रायः हरेक कवि ने मनोवैज्ञानिक स्तर पर उसे दोषमुक्त स्वरूप प्रदान करने का प्रयास किया। केदार नाथ मिश्र ने ‘कैकेयी’ नामक काव्य में रामवनगमन संदर्भ को एक नया संदर्भ प्रदान किया है। इसमें कैकेयी को एक वीर महिला के रूप में अंकित किया गया है जो यह सुनकर कि दक्षिण में असुर उत्पात कर रहे हैं, राम को युद्ध के लिये भेज देती है। मिश्र जी ने कैकेयी को वीरांगना, विदुषी तथा वात्सल्यमयी आदर्श नारी के रूप में प्रतिष्ठित किया है।
नारी जिसके लिये हाय अपना सिन्दूर लुटा दे
माता जिसके लिये गोद में अपनी आग लगा दे ।
तू कैसे उसके महत्त्व को जाने, तू रोता है,
तुमको ज्ञात भरत ! कितना कर्तव्य कठिन होता है ।२२
शेषमणि शर्मा ‘मणिरायपुरी’ ने भी कैकेयी नामक काव्य की रचना की जिसमें समसामयिक प्रसंगों की प्रतिच्छवि को बहुत निपुणता से कैकेयी काव्य में समाहित किया है । चांदमल अग्रवाल ‘चन्द्र’ के ‘कैकेयी’ नामक काव्य में भारत के चीन और पाकिस्तान से हुए युद्धों की प्रासंगिकता प्रतिबिंबित है।
नयी कविता हिन्दी की ऐसी धारा है जिसमें पहली बार मिथक का सार्थक और मार्मिक उपयोग दिखाई पड़ता है। अनेक स्थलों पर यांत्रिक युग की, युद्ध की विभीषिका का समानांतर मिथक के प्रसंगों का चुनाव किया गया है। नयी कविता की विशिष्ट उपलब्धि के रूप में धर्मवीर भारती, दुष्यंत कुमार, कुँवर नारायण, नरेश मेहता आदि का नाम उल्लेखनीय है। धर्मवीर भारती ने अपने काव्य ’कनुप्रिया’ में राधा को कृष्ण की प्रेयसी के रूप में वर्णित न कर आदर्श समाज सेविका के रूप में वर्णित किया है।
मैं पगडंडी के कठिनतम मोड़ पर
तुम्हारी प्रतीक्षा में
अडिग खड़ी हूँ कनु मेरे ।२३
धर्मवीर भारती ने ‘अंधायुग’ में मिथकों का रूप परिवर्तित कर श्रेष्ठ मिथकीय काव्य की रचना की है। इसमें युद्ध के पश्चात समाज में व्यक्तियों की दयनीय स्थिति को चित्रित करते हुए कवि ने लिखा है -
युद्धोपरांत
यह अंधायुग अवतरित हुआ
जिसमें परिस्थितियां, मनोवृतियाँ, आत्माएँ सब विकृत हैं।
है एक बहुत पतली डोरी मर्यादा की
पर वह भी उलझी है दोनों की पक्षों में
सिर्फ कृष्ण में साहस है सुलझाने का ।२४
कुँवर नारायण चक्रव्यूह की रचना में महाभारत की उस कथा का प्रसंग लिया जिसमें अभिमन्यु अपने अंतिम समय में निहत्था युद्ध करने को विवश हो गया था। आज का हर व्यक्ति अपने को एक विचित्र चक्रव्यूह में घिरा पा रहा है। कुँवर नारायण के काव्य ’आत्मजयी’ की मूल कथा कठोपनिषद से ली गई है। यह काव्य आधुनिक जीवन में उभरे प्रश्नों को चिरंतन भावधारा से जोड़ने का प्रयास तथा उत्तर पाने की अकुलाहट व्यक्त करता है।
नरेश मेहता ने अपने मिथकीय काव्य ‘संशय की एक रात’ में मनोवैज्ञानिक प्रश्न उठाया है कि यदि आज का मानव राम के जीवन जैसी विषम परिस्थितियों में घिर जाये तो क्या करेगा ? यह काव्य मानवीय स्तर पर राम-रावण युद्ध से पूर्व की स्थिति का मनोवैज्ञानिक अंकन है-
राम की इस विवशता को
सोच सकते हो
अन्य क्यों प्रायश्चित करें मेरे लिये ,
दुःख भोगे
वनों में भटकें अकारण ही ।२५
‘महाप्रस्थान’ की काव्य कथा भी नरेश मेहता ने पौराणिक कथा से ली है। यह उनका दूसरा प्रबंध काव्य है जिसमें उन्होंने मिथक कथा और पात्रों के माध्यम से राज्य, राज्य-व्यवस्था एवं युद्ध की समस्या को पुनः आधार बनाया। ‘प्रवाद पर्व’ नरेश मेहता की ऐसी कृति है जिसमें उन्होंने आपतकालीन संदर्भ में राज्य व्यवस्था को ही प्रमुखता से रेखांकित किया है।
‘एक कंठ विषपायी’ दुष्यंत कुमार की एक श्रेष्ठ मिथकीय रचना है जो दक्ष के यज्ञ और सती के मिथक पर आधारित है। इस काव्य में यह आशा की गयी है कि प्रत्येक युग में एक ऐसा व्यक्ति अवश्य उत्पन्न होता है जो उस युग की समस्त कुरीतियों, कुसंस्कारों को परिवर्तित करने का प्रयास करता है। प्रतिफल में उसे दुःख, अवहेलना, तिरस्कार ही मिलता है।
मुझे पता है ,
इस त्रिलोक में ,
महादेव का एक कंठ केवल विषपायी,
जिसकी क्षमताएं अपार हैं ।२६
सच्चिदानन्द हीरा नन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ की समस्त काव्य रचनाओं का अध्ययन करने के पश्चात यह ज्ञात होता है कि उनके काव्य में प्रसंगवश, वातावरण निर्माण अथवा बिम्ब व प्रतीक के रूप में मिथ शब्दों, घटनाओं और प्रसंगों को ही कविता के रूप में प्रयोग किया गया है। अज्ञेय ने ‘दिति कन्या को’ कविता में दिति की कथा का उपयोग करते हुए अभिप्रेत हुए प्रेत, असुर और दिति-कन्या शब्दों से पौराणिक मिथकों की ओर संकेत किया है। उनकी प्रसिद्ध रचना ‘असाध्य वीणा’ में मिथकीय वातावरण की संरचना बहुत उत्तम कोटि की हुई है। अज्ञेय की कविता में वैदिक मन्त्रों का आकर्षण है जिससे कविता एक अद्भुत मिथकीय वातावरण की सृष्टि स्वतः कर देती है।
महाशून्य
वह महामौन
अविभाज्य, अनाप्य, अद्रवित, अप्रमेय
जो शब्दहीन सबमें गाता है ।२७
प्रयोगवादी कवियों में गजानन माधव मुक्तिबोध ने प्रभावशाली ढंग से मिथकों का प्रयोग युक्तियों और प्रसंगों के रूप में किया है। इनके काव्य में मिथक के दो रूप मिलते हैं-
(क) उक्ति और प्रसंगगत मिथक
(ख) कल्पित मिथक
मुक्तिबोध रचित ‘ब्रह्मराक्षस’ एक मिथक है - बौद्धिक चेतना का। मध्यवर्गीय व्यक्ति इसी चेतना के कारण मुक्ति के लिये आतुर रहता है। कवि ने इस कविता के माध्यम से अनेक मिथकीय परतों को खोलने का कार्य किया है। ब्रह्मराक्षस को समरसता का प्रतीक मानकर कवि कहता है
अतिरेक वादी पूर्णता
की ये व्यथाएं बहुत प्यारी हैं
ज्यामितिक संगति-गणित
की दृष्टि के कृत
भव्य नैतिक मान
आत्मचेतन सूक्ष्म नैतिक गान।२८
मुक्तिबोध का काव्य मिथकीय भावनाओं से युक्त है। उन्होंने अपने काव्य में मिथकों का प्रयोग ही नहीं किया बल्कि उनका परिष्कार और पुनरुत्थान भी किया है। नागार्जुन के मन में पीड़ितों के प्रति बहुत ही वेदना एवं सहानुभूति की भावना थी जो समय-समय पर मिथकों के माध्यम से उनके काव्य में प्रकट हुई। नागार्जुन ने अपने काव्य में मिथकों को ज्यों का त्यों ही स्वीकार नहीं किया वरन उन्हें आधुनिक परिवेश का रूप देकर अपने काव्य में प्रयोग किया है। उन्होंने पुराने मिथकों को नवीन अर्थवत्ता प्रदान की है तथा नये अर्थ में प्रयोग किया है। ‘तालाब की मछलियाँ’ नागार्जुन की प्रसिद्ध कविता है जिसमें पुराण वर्णित मिथक ‘वही जीवित रह पाता है जिसके पास शक्ति है’ के रूप को थोड़ा परिवर्तित कर समाज का चित्रण किया गया है -
वह कुलीन मैथिल कन्या
फिर सुनने लगी वही आवाज
हम भी मछली, तुम भी मछली
दोनों ही उपभोग वस्तु है
ज्ञाता स्वाद सुधी जन,
सजनी हम दोनों को
अनुपम बतलाते हैं २९
केदार नाथ अग्रवाल की कविता एक विशिष्ट भारतीय मिथकीय जीवन की कविता है जिसमें अपनी धरती प्रति मोह है। प्रकृति के विविध रूपों में प्रतिबिम्बित करने के लिये भी कवि मिथकीय पात्रों के नामों का सहारा लेता है। कवि ने नये मिथक बनाये हैं और अपने साहित्य में प्रयोग किये हैं।
सुस्मित सौरभ
शोध छात्र ; मगध विश्वविद्यालय
ब्5।ध्52 ,जनकपुरी
नई दिल्ली - 110058
मो .09310296122
ई-मेल:susmitsaurabh@gmail.com
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चंद्रकान्त देवताले की कविताओं में मिथकीय संवेदनाओं का द्रव्यशील ताप है, जो उन्हें प्रहार, विध्वंस की कविता लिखने की सृजनात्मक शक्ति देता है। उनकी कविताओं में दर्द और आक्रोश की भावना भरी हुई है। वे कविकर्म की जटिलता को समझते हुए मिथकों के माध्यम से शोषकों पर व्यंग करते हैं। वे नेताओं पर व्यंग करते हैं जिस व्यंग का माध्यम है मिथक।
डॉ जगदीश गुप्त की एक प्रमुख मिथक प्रधान काव्य रचना है-‘शंबूक’। सत्ता पक्ष के प्रतीक राम के व्यवहार से आहत शंबूक, राम के समक्ष एक चुनौती है। इस काव्य में उठाये गये तमाम सवाल राम की लोकतांत्रिक व्यवस्था की बखिया उधेड़ कर रख देते हैं। शंबूक एक मिथक पात्र ही नहीं, वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था की समस्त अच्छाइयों तथा बुराइयों को मापने का माध्यम भी है-
सब करें सेवा
अगर वह श्रेष्ठ है,
त्याग दे सब स्वार्थ
यदि वह नेष्ट है ।३०
इसप्रकार, हिन्दी साहित्य के आदिकाल से अधुनातन साहित्य तक कोई भी अंश मिथकीय साहचर्य से दूर नहीं रह पाया। ह्रदय और बुद्धि का कोई भी आयाम ऐसा नहीं जहाँ मिथक कथाओं की पहुँच न हो।
संदर्भ
१ कबीर ग्रंथावली पृ २८१, पद ३९०
२ वही पृ १९०,पद ३०१
३ भक्ति का विकास -मुंशीराम शर्मा, पृ ५९१
४ जायसी ग्रंथावली,पद्मावत
५ पद्मावत, पद २११
६ रामचरितमानस- तुलसीदास
७ रामचरितमानस, बालकाण्ड- तुलसीदास पद १७६
८ सूरसागर, गोकुललीला- सूरदास
९ छंद विचार- चिंतामणि,पद ५८
१० शिवराज भूषण- भूषण
११ भारतेंदु ग्रंथावली- भारतेंदु हरिश्चंद्र
१२ प्रेमसम्पतिलता- ठाकुर जगमोहनसिंह
१३ साकेत-मैथिलीशरण गुप्त
१४ नहुष-मैथिलीशरण गुप्त
१५ साकेत-मैथिलीशरण गुप्त
१६ प्रियप्रवास- अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
१७ कामायनी, चिंता- जयशंकर प्रसाद
१८ कामायनी -जयशंकर प्रसाद
१९ राम की शक्तिपूजा - निराला
२० सोमपायी- सुमित्रानंदन पन्त
२१ रश्मिरथी- दिनकर
२२ कैकेयी -केदार नाथ मिश्र
२३ कनुप्रिया- धर्मवीर भारती
२४ अंधायुग- धर्मवीर भारती
२५ संशय की एक रात- नरेश मेहता
२६ एक कंठ विषपायी- दुष्यंत कुमार
२७ असाध्य वीणा- अज्ञेय
२८ ब्रह्मराक्षस- मुक्तिबोध
२९ तालाब की मछलियाँ- नागार्जुन
३० शंबूक- डॉ जगदीश गुप्त
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