साहित्य-संस्कृति की त्रैमासिक ई-पत्रिका
'अपनी माटी'
वर्ष-2 ,अंक-14 ,अप्रैल-जून,2014
गाँव से शहर को जोड़ने वाले रास्ते में पीपल का एक पुराना पेड़ है. रास्ते पर
इसकी छाँव हर राहगीर को ललचा लेती है. आज आसमान साफ़ है और यहाँ वहाँ बिखरी सफ़ेदी
भी जैसे धूप कीआँच को बढ़ाती जा रही है. अपनी मंजिल की तरफ़ नज़रें उठाये और बीते
रास्ते पर धूल उड़ाते हुए झनकू बड़ी देर से चल रहा था. उबड़-खाबड़ रास्ते पर चलते
हुए उसे भी इस पेड़ ने ललचा लिया. इसकी छाँव से ठंडक चुराने के लिए वो थोड़ा रुका
और जर्जर साइकिल पर दया करके नीचे कूद पड़ा. एक लम्बी यात्रा से थका झनकू पेड़ के
नीचे पसर गया. उसके बैठने में एक तरह की उदासी थी जो अगली बार फिर उठ आने की
मजबूरी की ख़बर दे रही थी.
चित्रांकन :शिरीष देशपांडे,बेलगाँव |
अगला पड़ाव दूर है और पिछला भी कहीं दूर छूट चुका है, चढ़ती दुपहरी में इस रास्ते में
भला कितनी देर रुका जा सकता है? और रास्ते भी कोई रुकने के लिए होते हैं? दो घड़ी सांस लेने भर के
लिए रास्ते के किनारे ठहर जाना ठीक है, कोई इंसान साथ चल रहा हो तो घड़ी भर के लिए उससे
बतिया लेना भी ठीक है. लेकिन लोहे की इस बेजान और गूंगी बहरी साइकिल से आखिर कितनी
देर बातें की जा सकती हैं? जब किनारे पडी हो तो ये बस सुनती है और जब चलती है तब सिर्फ
बोलती है. लेकिन इसे तो बातचीत नहीं कहा जा सकता, लेकिन जब अपने लोग भी अपनी बातें
नहीं सुनना चाहते और अपनी ही बिरादरी में हुक्कापानी बंद हो चुका हो तब इस लोहे के
गट्ठर से बतियाना भी एक तरह का सुकून देता है. शायद ये ही सुकून वे लोग भी महसूस
करते होंगे जिनकी बातें झनकू दिन भर सुनता तो है लेकिन जवाब में कुछ बोल नहीं
पाता.
पेड़ के नीचे ज़मीन से उभरती चट्टान पर पसरते ही झनकू के कमज़ोर और सूखे हाथ
तम्बाखू की पोटली तक पहुँच गए. सूखे पत्तों की कड़वाहट में जल चुके पत्थर की सफ़ेदी
मसली जाने लगी. मुर्दा और राख हो चुकी चीजों से अपने लिए घड़ी भर का सुकून चुरा
लेना झनकू की पुरानी आदत है. ये उसके बाप दादों का संचित हुनर है जो परम्परा से उस
तक आया है. इसके सहारे उसने ऐसे कितने ही सफ़र तय किये हैं और ऐसी धूप में देर तक
चलते रहने की हिम्मत शायद उसे इसी से मिलती है. कडवाहट की ये ख़ुराक जीभ से छूते ही
उसके ज़ेहन में कई दृश्य उभरने लगे.
ऐसे ही किसी पेड़ की छाँह में गर्म दुपहरी में उसने पहली बार अपने पिता को एक
मरी हुई गाय की खाल उतारते देखा था. आसपास फैली हुई दुर्गन्ध, कौवों का शोर और कुत्तों
की लपलपाती जीभ और ललचाई नज़रें देखकर वो घबरा रहा था. लेकिन इन सबके बीच भी उसके
पिता के चहरे पर एक अजीब सा विजय का भाव था. जैसे किसी सिंह ने शिकार किया हो.
उसके मन में भय तैर रहा था और पिता के मन में कुछ आश्वासन तैर रहे थे. कुछ दिनों
के लिए नून तेल का इंतज़ाम हो सकेगा और आज बस्ती में इस गाय के माँस का भोज हो
सकेगा - ये बात ही इतना नशा पैदा कर रही थी कि इस ख़ुमारी में पिता के लिए माँस की
सडांध न जाने कहाँ खो गयी थी. पिता के उस गर्व भरे चहरे को झनकू कभी भूल नहीं
पाता. ऐसे कम ही मौके आये उसके जीवन में जब पिता के चहरे पर अपने लिए सम्मान और
आश्वासन दिखाई दिया. डेढ़ पैरों पर टंगे पिंजर पर लिपटे कुछ थिगड़े लगा हुआ मैला
कुर्ता और अस्तव्यस्त सी बंधी धोती. इस सबके ऊपर मजबूती से टिका हुआ वो चेहरा जहां
मुस्कराहट किसी बोझ की तरह पसरती थी, इस बोझ को उठाने में वो कभी अभ्यस्त नहीं हो पाए थे.
वे आँखें जो, दुर्भाग्य की छाप लिए कपाल के ठीक नीचे किसी गहराई से उभरती नज़र आती थीं,
उनकी बेनूरी में
अतीत का दर्द और भविष्य का भय एकसाथ छलकता था. बगल में दबी बैसाखी जो पूरे समाज की
दया समेटे हुए इस लम्बी यात्रा में साथ चलती थी. एक नंगे पैर के साथ ठक ठक करती
हुयी इस बैसाखी की कर्कश आवाज जैसे पूरे बस्ती के प्राणों का रुदन अपने साथ लिए
उनके साथ घिसटती जाती थी. इस छवि में अपने पिता को पहचानते हुए झनकू का पूरा बचपन
गुजरा है. वो चेहरा आज इस सड़े हुए मांस के ढेर पर झुका है, और आज अपने परिवार के लिए भोजन
और कमाई ढूंढ रहा है. इस चहरे के सामने क्या है इसे झनकू याद नहीं करना चाहता,
लेकिन इस चहरे पर
फैले दुर्लभ से आश्वासन को आज झनकू बहुत गौर से अपनी आँखों से पी लेना चाहता था.
“बाबा इसका क्या करोगे” - झनकू ने सवाल किया
“इस खाल से जूतियाँ बनाऊँगा और उन्हें बेचकर तेरे लिए नयी कमीज़ लाऊँगा”-झनकू के पिता ने कहा
हालाँकि पिता ने इसके माँस को आज पकाने की बात उसे नहीं बताई और न ही झनकू इसे
समझ सकता था. वैसे झनकू खाल और कमीज़ के रिश्ते को भी नहीं समझ पा रहा था. लेकिन
कुछ भी हो, उसे उसके पिता पर भरोसा था और वो एक सम्मान के भाव से अपने पिता को देखता रहा.
खाल उतारकर और माँस का एक बड़ा टुकड़ा काटकर, एक विजयी वीर की तरह चलते हुए
उसके अपाहिज पिता की कमर झुकी हुई थी लेकिन मस्तक और दिनों की तरह झुका हुआ नहीं
था. एक पैर की लाचारी को बैसाखी से संभालते हुए वे घर लौटा. उस सांझ घर में भी
उत्सव सा माहौल था. आस-पडौस के कुटुंबी भी बड़े सम्मान से बातें कर रहे थे. लाये
गए टुकड़े में से थोड़ा माँस उनके हिस्से भी आयेगा. उनकी आँखों में एक जलन भी झलक
रही थी कि आज आसमान पर उनकी नज़र ठीक से नहीं पड़ी और मंडराते हुए चीलों के संकेत
समझने में वे असफल रहे. कुछ भी हो - आज बस्ती का भौतिक अस्तित्व तो वहीं का वहीं
है लेकिन बस्ती के मन में आज हमेशा की तरह वैसी मनहूसियत नहीं है जैसी कि हमेशा
छाई रहती है.
चमारों की ये बस्ती, शायद कभी बस ही न पायी थी. यहाँ चारों ओर कच्चे झोपड़ों की
कतारें खड़ी हैं जो सदियों से ऐसी ही वीरान हैं. इनकी दरारों से इन चमारों का
भविष्य रिस रिस कर धूल में मिलता जाता है. गाँव से कुछ दूर, नदी के कीचड वाले हिस्से के
नजदीक और बस अड्डे, स्कूल बाज़ार और राशन की दूकान से बहुत दूर इस बस्ती में सब कुछ धीमा ठंडा और
अंधेर से भरा हुआ है. जंगल में बस्ती उग आयी है या बस्ती में जंगल उग आया है ये
कोई नहीं जानता. हर घर से सटी नालियों से उनका दुःख बहता हुआ बहुत दूर एक मैदान
में इकठ्ठा हो जाता था. इसकी नमी में कुलबुलाते कीड़ों पर गिद्धों और चीलों का
अट्टहास बस्ती तक सुनाई देता था. बस्ती के दूसरे किनारे पर सहमे से खड़े हुए
हेंडपंप और कुंवे में एक बड़ा मासूम भाईचारा है. बारिश और सर्दियों में ये हेंडपंप
उनकी बड़ी मदद करता है. चढ़ती गर्मी में अक्सर हेंडपंप के दम तोड़ देने पर सभी चमार
उस कूवें का रूख करते थे. इस कुवें की गहरी छाती के गंदले से रिसाव में अपने लिए
जीवन का अमृत तलाशते थे. अँधेरी गहराइयों में अपने लिए जीवन ढूंढना उनकी एकमात्र कला
थी जिसके सहारे वे सब ज़िंदा थे. नदी के कीचड भरे तट की तरफ फिसलती ढलान तक पेड़ों
की कतारों में सर छुपाये हुए उनकी झोपड़ियां थी. इन झोपड़ियों में से हर रात मिटटी
के तेल की रोशनी झांकती थी. गाँव की तरफ से थोड़ी सी हवा नदी की ओर चलने पर चमारों
के भयभीत मन की हलचल इस रोशनी के नाच में साफ़ नजर आती थी. लगभग रोज ही डरी हुई
रोशनी की छाप कच्ची सड़कों और नालियों पर पड़ती थी.
आज रात बस्ती में भोज सा माहौल था, पिता के मजबूत हाथों से जो माँस का टुकड़ा आज दोपहर
कटा था वो धीरे धीरे बाकी घरों में बंट गया. अभाव में पले घरों में माँस का बाँटा
जाना एक-दूजे के लिए प्रेम की निशानी थी या मांस को सड़ने से पहले ख़त्म करने की
मजबूरी, ये
कोई समझना नहीं चाहता था. जो भी हो एक मजबूरी थोड़ी देर के लिए प्रेम का पाथेय बन
जाती थी और बस्ती की एक रात बिना हल्ला, हुड़दंग के आसानी से कट जाती थी. वरना भूखी आँतों में
नशे की खुराक रोज़ ही झगड़ों और गाली गलौंच का क़हर बरपाती थी. इस हल्ले को सुनकरऊँची
जात के लोगों को अगली सुबह पूरी बस्ती को गाली बकने का मौक़ा मिल जाता था. आजमाँस
के एक लोथड़े ने न सिर्फ उनकी भूख मिटाई बल्कि रात के सन्नाटे को भी साँस लेने का
मौक़ा दिया. झनकू का पिता सोच रहा था कि कल जब वे तेली की दूकान पर चूना हरडा
खरीदने जायेंगे तो हमेशा की तरह रात की हुल्लड़ का ताना मारकर आज कोई उनका अपमान
नहीं करेगा. लेकिन गुज़र गए हज़ारों साल में दुर्भाग्य के देवता ने कई तरकीबें और
जाल रच डाले थे जिन्हें समझना और काटना पिता बस में ना था. बीती रात की शान्ति ने
उनके लिए एक नया ही सवाल पैदा करके रख छोड़ा था.
“क्यों रे मंगलू कल बस्ती में कोई झगड़ा नहीं हुआ...? कोई मर गया था क्या?” किनारे पर कुछ दूर लगी
दूकान पर तम्बाकू थूककर रमिया तेली ने सबको सुनाते हुए पूछा.
“नहीं बाबूजी ऐसी कोई बात नहीं” -मंगलू ने झनकू को अपनी बगल मे समेटते हुए कहा.
“अच्छा तो फिर तुम स्साले कल रात बिना हुल्लड़ किये सो गए ?ये साले चमार इतने
समझदार कब से हो गए रे ?.... ये बात तो समझ नहीं आयी भाई” -हंसते हुए मिश्री बनिए ने कहा
“अरे नहीं भैया... कल कोई गाय या भैंस का सड़ा माँस पकाया होगा सालों ने ...
इसीलिये न कल रात हल्ला हुआ ना आज सुबह... सड़े माँस का वज़न पेट में जाते ही ये लोग
एकदम सीधे हो जाते हैं... साले, हरामी पूरी जात ही खराब है इनकी ... अरे इनके घर में शांति
भी आती है तो सड़े माँस को खाकर ... थू ” रमिया तेली ने
बनियों को सुनाते हुए कहा.
इसे सुनते ही पिछले दो दिनों में कमाया गया मंगलू का आत्मसम्मान जैसे रमिया
तेली के थूक में मिलकर धूल में जा गिरा. इस गाली के बोझ से दोहरे होते हुए उसने
झनकू को एक तरफ़ खड़ा कर दिया. उसे याद आया कि ये तेली भी जब जब चमारों को गाली बकता
है तब तब बनियों की नज़र में इसकी इज़्ज़त बढ़ जाती है. वैसे ये ख़ुद भी बनियों के कुओं
का पानी नहींपी सकता लेकिन चमारों पर थूकते हुए उसे भी बनियों के बराबर होने का
मौक़ा मिल जाता है. गाँव के बस स्टेंड के पीछे लगे इस बाज़ार में टूटी फूटी सड़क के
एक कोने में रमिया तेली की दूकान थी. सभी चमारों के लिए चमड़ा गलाने के लिए चूने और
हरडे का स्रोत यही थी. बनियों की दूकान दूसरे गाँवों की तरह कुछ उंचाई पर पेड़ की
छांवो में लगी थीं और उनके बगल से बहती हुयी नाली थी जिसके ठीक बगल में रमिया को अपनी
दूकान की जगह मिली थी. बस स्टेंड की तरफ से आती हुई इस नाली के मुहाने पर एक गड्ढा
था जो पूरे बाज़ार की गन्दगी को सोखने की असफल कोशिश करता था. कुछ सोख लेता था और
कुछ उसपर से बहाकर और नीचे की तरफ बहता रहता था. शायद यही हाल रमिया तेली का भी
था. वो भी बनियों की तरफ से आती अपमान की धारा को जितना पी पाता था पी लेता था और
जितनी नहीं पी पाता था उतनी चमारों पर उछाल देता था.
तेली की दूकान पर हुए इस छोटे से संवाद ने पिता के कान खड़े कर दिया, धड़कते दिल से अपनी
बैसाखी संभाले वे आगे बढे. उन्हें लगा कि बहस में जाए बिना जल्दी जल्दी सौदा लेकर
आगे बढ़ जाने में ही भलाई है. दूकान के पास रखे काले पत्थर के नजदीक पहुंचकर उम्मीद
से वे रमिया की तरफ देखने लगे. ये वही पत्थर है जिस पर उसके पूर्वज न जाने कब से
अपनी खून पसीने की कमाई को दूर से ही रखकर बनिए की कृपादृष्टी का इंतज़ार करते आये
हैं. अछूतों के हाथ लगी लक्ष्मी भी इस पाषाण पर सर टिकाकर और बनिए के लोटे से
बरसती धार के आचमन से ही पवित्र हो पाती थी. इसके बिना बनिए और तेली दोनों ही उसे
स्वीकार नहीं कर पाते थे.
“वैसे तू क्या लेने आया है बे ?”- रमिया ने पूछा
“थोड़ा चूना और हरडा लेना था बाबूजी”
“अच्छाSSSS ... मैं कह रहा था न मिसरी काका... ये सब चमड़ा गलाने के मसाले हैं... इस साले ने
कल कोई खाल उतारी होगी और उसी के माँस का भोग लगाकर आया है ये हरामी... निकल यहाँ
से साले राक्षस ... तुम लोगों को समझाया है ना कि ये माँस खाकर यहाँ ना आया करो...
दो तीन दिन तुमसे सबर नहीं होती?”- ये दहाड़ते हुए रमिया ने एक ईंट फेंककर मारी. उससे बचते हुए
झनकू का पिता पास के गड्ढे में फिसल गया.... बनियों के ठहाकों से पूरा माहौल गूँज
उठा.
गड्ढे में गिरे मंगलू के दिमाग में वो पुरानी सलाह कौंध गयी. गाय का मांस खाकर
तीन दिनों तक बनियों की दूकान वाली गली में नहीं घुसना चाहिए. लेकिन महीनों से
बेकारी का जो सन्नाटा पसरा हुआ है उसे काटने की जल्दीबाज़ी में आज वो ये सलाह भूल
गया था. अपनी भूल पर ख़ुद को कोसते हुए वे गड्ढे में पड़ा रहा, जब तक कि झनकू दौड़कर
अपने चाचाओं को नहीं बुला लाया. दो लोगों ने मिलकर अपाहिज मंगलू को बाहर निकाला.
एक महीने बाद मंगलू ने बड़ी मेहनत से जूतियाँ तैयार कर ली थीं अब समय था कि
पारगाँव के हाट में उन्हें बेच दिया जाए. मंगलू सुबह से ही अपने कुरते और धोती को
संभालते हुए तैयार होने लगा. बैसाखी को बगल में दबाये और बहुत जगह से फट चुके बड़े
से थैले में चार जोड़ी जूते भरकर मंगलू बस
स्टेंड की ओर जाने लगा. सुबह नौ बजे शहर की ओर जाने वाली बस उसके लिए किसी वरदान
से कम ना थी. कंडक्टर, ड्राइवर और सहयात्री हालांकी दुत्कारते जरूर थे लेकिन पिछले
कोने में जहां बकरियां और गाय भैंस का चारा रखा होता था वहां उसे हमेशा ही जगह मिल
जाया करती थी. ये छोटी सी यात्रा कभी कभी किसी कमजोर होती गाय या मरणासन्न बैल या
भैस के बारे में जानकारी दे जाती थी. सहयात्री उसे जानते थे और अपाहिज पर दया करके
ऐसे जानवरों के बारे में उसे बताते थे. इस तरह इस बस से मंगलू के लिए बहुत सारी
अच्छी बातें जुडी थी जिनके भरोसे वो बकरियों के पेशाब और मल के बीच सुकून से बैठ
जाया करता था. लौटते में सांझ यही बस फिर से उसे इसी मुकाम पर छोड़ जाती थी,
इस तरह उम्मीदों
से भरा एक दिन गुजर जाता था. इसकी याद बहुत समय तक बनी रहती थी.
“क्यों जी आज तो बड़ी तैयारी हो रही है सुबह से ही ! कहीं पारगाँव जाने की
तैयारी है क्या?” - किसनू चाचा ने पूछ ही लिया.
“हाँ रे, पिछली बार वो जो खाल उतार के लाया था उसकी जूतियाँ बनकर तैयार हैं सोचा इस हाट
में बेच आऊँ, ब्याह शादी का मौसम है अच्छी कमाई हो जायेगी, और लौटते में कुछ जरूरी सामान भी
लेता आऊँगा”- बैसाखी संभालते हुए मंगलू ने कहा.
“क्या-क्या ले आओगे आज भैया, इतने दिनों बाद हाट करने जा रहे हो”
“कुछ ख़ास नहीं रे, हमारे झनकुआ के लिए कमीज और निक्कर का कपड़ा और उसकी अम्मा
के लिए लाल साड़ी का इंतज़ाम करना है, दोनों बहुत दिनों से जिद लगाए बैठे हैं”
इस छोटे से वार्तालाप में कच्चे से घर की दीवारें कितनी सारी उम्मीदों से भर
गयीं थीं ! और झनकू की माँ के हाथ भी बहुत दिनों बाद लोहे के बर्तनों पर तेज़ी से
चलने लगे थे, आज की रात हमेशा की तरह कुछ पतला नहीं पकेगा. आज कुछ तरकारी और तेल में भीगा
पकाना होगाऔर ये सब माटी की हांडी के बस का नहीं है. महीनों से जिस लाल साड़ी का
इंतज़ार है उस साड़ी की कल्पना ने ही गालों पर एक लाली छिड़क दी, झनकू की माँ देर तक उस गोबर से छबी दीवार पर लटक रहे टूटे
हुए आईने में अपनी छबी देखती रही, अपनी लजाई हुई मुस्कराहट के कई सारे टुकड़ों को सहेजने में
आज उसे बहुत समय लग रहा था. झनकू की माँ की हर बात में भी एक गर्व का भाव था और एक
आश्वासन की ठंडक छुपी हुई है जिसे झनकू कभी कभार ही महसूस करता है लेकिन उसका
इंतज़ार वो हमेशा करता है.
झनकू अपनी पाँचवी कक्षा तक की पढ़ाई के दौरान पिता को काम करते देखता था. फिर
अपाहिज पिता की हालत जैसे जैसे गिरती गयी वैसे वैसे उसकी हिस्सेदारी उनके काम में
बढ़ती गयी. बस्ती के ही और लड़के, जिनके पिता स्वस्थ थे वे आगे भी पढ़ाई करते रहे. उनमे से कुछ
की नौकरी लगती गयी और कुछ चमारी का काम छोड़कर मुर्गी बकरी पालने लगे. जो बच्चे ये
सब न कर सके वे मज़दूरी करने लगे. जो ये दोनों न कर सके वे पुश्तैनी चमड़े का काम
करते रहे. अब जिनकी नौकरी है या अपना धंधा और पक्के मकान हैं वे गाँव में कभी-कभी
आते हैं लेकिन उनके शादी ब्याह में झनकू को नहीं बुलाया जाता. वह काटू जो है –
चमड़ा काटने वाला !
झनकू सुनता आया है कि कोई क़ानून है जिसके कारण उसकी बिरादरी के लोगों को नौकरी
आसानी से मिल जाती है. उसे अपने जीवन में इसका कोई अनुभव नहीं. वो तो सोचता है कि
ये सब विद्या की महिमा है. जिसके पास जितनी विद्या उतनी अच्छी नौकरी. अब अपने
अपाहिज बाप के कारण वो पढ़ नहीं पाया इसलिए आज भी काटू बना हुआ है. ये नीच काम है
इसलिए उसके पढ़े-लिखे कुटुम्भी भी अपने पक्के मकान में उसे घुसने नहीं देते. उसके
जैसे काटू और भी बहुत हैं जो एक दूसरे का दुःख बाँटते हैं. वे बस्ती के निचले
हिस्से में झोपड़ियों में रहते हैं. उनके बीच अब बड़ा भाईचारा है लेकिन नौकरीपेशा,
मज़दूर या मुर्गी,
बकरी पालने वाले
अपने ही रिश्तेदारों में उनका कोई मेलजोल नहीं रह गया है. उनके साथ अब रोटी-बेटी
का व्यवहार भी नहीं है. उसे समझ नहीं आता कि जो गालियाँ वो रमिया तेली या मिसरी
बनिए से अपने पिता के लिए सुनता था वही गालियाँ अब उसके रिश्तेदार उसके लिए क्यों
इस्तेमाल करते हैं.
पेड़ के नीचे बैठे झनकू ने अब उठना चाहा, मुँह में बची हुई कड़ुवाहट को
थूकते हुए वो साइकिल उठाकर आगे बढ़ने लगा. आज वह अपनी बेटी की शादी के लिए सरकारी
सम्मलेन विवाह में जगह बनाने की कोशिश में सिफ़ारिश के लिए जा रहा है. चचेरे भाई
बलराम जो वर्षों पहले जबसे नौकरी से लगे हैं तब से कभी कभी उसे हारी बीमारी में
मदद करते रहे हैं. वे चमारों के नेता हैं और बनियों ठाकुरों में उनका उठना बैठना
है. चमारों की भलाई और बराबरी की बात करने में वे सबसे आगे हैं. चुनाव आने पर उनकी
बड़ी पूछ परख होती है और शहर के नेताओं से उनकी अच्छी बातचीत है. चमारों की भलाई के
सब छोटे बड़े काम शहर में उनकी सलाह से होते हैं. ख़ासकर जब से ग़रीबों में सामूहिक
विवाह का चलन हुआ है तब से ग़रीब चमार उनकी मदद के लिए आते हैं. इन सम्मेलनों में
वे अपने बच्चों की शादी बहुत कम खर्च में करने लगे हैं. आज इतवार का दिन है,
भैया घर ही होंगे
और बल्लू भैया सम्मलेन में शामिल होने के लिए सिफ़ारिश कर ही देंगे. इसी उम्मीद में
उसके पैर पैडल पर मजबूती से चलते जा रहे थे.
शहर में पहुँचते ही वो रविदास कालोनी की ओर मुड गया. ये उन दलितों की बस्ती है
जो अपना पुश्तैनी काम छोड़कर किसी धंधा मजदूरी या छोटी मोटी नौकरी पा गए हैं.
स्थानीय विधायक ने यहाँ सड़कें बनवा दीं हैं और बिजली बत्ती का इंतज़ाम भी कर दिया
है. पक्के मकानों, नालियों और नलकों को देखकर झनकू अपनी बेटी के लिए ऐसी ही किसी कालोनी में बसर
होते जीवन की कल्पना करता है. उसकी कल्पना अब मुखर होती जा रही है. गाँव से यहाँ
तक के सफ़र में लगातार इस खटारा साइकिल की उबाऊ बातें सुनते हुए उसे अपनी कल्पनाओं
में रंग भरने का मौक़ा ही नहीं मिला. अब पक्की सड़क पर वो इत्मीनान से अपनी कल्पना
की कूचियाँ चला रहा था. कभी कभी राह चलती औरतो को देखकर सोचता था कि उसकी मा कभी
भी ऐसी सड़कों पर नहीं चल पायी लेकिन उसकी बेटी जरूर इन सड़कों पर चल सकेगी. चमारों
की कई बेटियों का ब्याह सरकारी विवाह सम्मलेनों होता आया है ऐसा उसने देखा सूना
है. इसी में उसकी बेटी का भी ब्याह हो सकेगा अगर बलराम भैया थोड़ी सी कृपा कर दें. इसी उम्मीद की रोशनी और
कल्पना के रंगों से सजे झनकू का चेहरा आज दमक रहा था. उसके पिता के चहरे पर आने
वाली वो दुर्लभ सी मुस्कान जैसे आज उसके हिस्से में आ गयी है. सर पर फेंटा बांधे
हुए और आधी से ज्यादा सफ़ेद हो चुकी दाढी के किनारों पर पिचके हुए गालों पर बहुत
लम्बे समय बाद वो आश्वासन की मुस्कान उठाये चला जा रहा था. धुल भरी गहरी काली
भौहों के बीच से कपाल से झरते हुए दुर्भाग्य की रेखा की तरह रिस रहे पसीने को बार
बार वो पोछता जाता था.
थोड़ी ही देर में वो रविदास कालोनी में दाखिल हुआ और अपने भाई के पक्के मकान के
सामने जा खड़ा हुआ. कालोनी में घुसते भैया की मोटर साइकिल देखकर वो आश्वस्त हुआ कि
वे घर में ही हैं. झनकू समझदार था और अपने भाई की इज़्ज़त का उसे ध्यान था इसलिए
अपनी खटारा साइकिल उसने उनकी मोटर बाइक से दूर ही टिका दी और आँगन के कोने में खड़े
होकर दूर से आवाज लगाई. आवाज सुनकर भौजी बाहर आयीं. फटेहाल झनकू को सामने खड़ा
देखकर वे चौंकी.
भौजी ने औपचारिकतावश बात शुरू की. बतियाते हुए उनकी नज़र आस-पास दौड़ रही थी कि
झनकू को उनसे बात करते हुए कोई और देख तो नहीं रहा है. आसपास कटुओं का आना अच्छा
जो नहीं माना जाता ना !
“कैसे हो भैया बड़े दिन बाद आये”
“सब कुसल मंगल है, अब आप लोग तो आ नहीं सकते हमारे गाँव तो हम सोचे हम ही भौजी के दरसन कर आयें”
“अच्छा अच्छा ... घर में सब ठीक है?कोई हारी बीमारी तो नहीं है... कैसे आना हुआ?”
“सब ठीक है भौजी, अभी कामधाम भी ठीक ही चल रहा है आपकी भतीजी कमली अब बड़ी हो गयी है ना अब उसी
के सम्बन्ध के लिए बल्लू भैयाजी से सलाह करने आये हैं.
भौजी फ़ौरन समझ गयीं कि ये सामूहिक विवाह में अपनी बेटी की शादी करवाने के लिए
कुछ इंतज़ाम करने के लिए आया है. पिछली बार गाँव की कुछ औरतों से ये बात उसने सुनी
थी. आजकल सारे काटुओं की हालत ख़राब है. जब से रेडीमेड जूते बाज़ार में आये हैं तब
से इनके खाने-कमाने का पूरा हिसाब ही गड़बड़ा गया है. और अब इन काटुओं की इच्छा है
कि किसी तरह इन्हें भी सामूहिक विवाह में अपने बेटे बेटियों की शादी की सहूलियत
मिले. भौजी ने तुरंत ही अन्दर जाकर माजरा अपने पति को समझा दिया. पति भी एक बार तो
चौंके कि अब कैसे छुटकारा पायें. एक तो झनकू से आँगन में बात करते हुए किसी ने देख
लिया तो बदनामी होगी,उनकी अपनी बिटिया को देखने लोग आने लगे हैं. ऊपर से ये अगर ये काटुओं की
बराबरी कीमाँग का मामला उछल गया तो उसकी अपनी बनी बनाई इज़्ज़त ख़तरे में पड़ जायेगी.
वे मन ही मन खीझ पड़े कि इस जात से जितना दूर जाने की कोशिश करो उतना ही ये घर में
घुसी आती है. ये सब सोचते हुए वे आँगन में बैठे झनकू के सामने खड़े हो गए.
“राम राम बल्लू भैया” -झनकू ने दूर से ही सिर झुकाते हुए कहा
“राम राम ... कहो झनकू ... बड़े दिन बाद आना हुआ... सब ठीक तो है?”-बल्लू भैया ने भी आसपास
नज़र दौड़ाते हुए पूछा.
“सब आप लोगों का आशीर्वाद है भैया सब कुसल है”
“आज कैसे आना हुआ इतने दिनों बाद कोई खास बात तो नहीं ?कोई हारी बीमारी ?”
“अरे नहीं भैया ... सब भले-चंगे हैं सबका कामकाज भी अच्छा चल रहा है... आपकी
भतीजी कमली अब बड़ी हो गयी है सो उसकी चिंता में हम सब घुले जा रहे हैं... अब आप तो
सब समझते ही हैं”
“हाँ रे झनकु ... सब पता है मुझे मेरी अपनी बेटी भी तो अब सयानी हो रही है ...”
“हाँ भैया... अब बिटिया की शादी की चिंता क्या होती है आप भी जानते हैं इसीलिये
कमली के बारे में आपसे सलाह करने आया हूँ”
“अरे हमसे क्या सलाह करोगे ... तुम खुद होसियार हो अपने समाज की रीत तो तुम्हें
पता ही है ... अब तुम गाँव में रहते हो तो तुम जादा जानते हो जात समाज की बातें”
“सो तो ठीक है भैया लेकिन आप-पढ़े लिखे आदमी हैं ... अच्छे लोगों में उठना बैठना
है सो आप हर लिहाज में बड़े हैं और समझदार हैं, सोचा आपसे सलाह कर लें”
इस बीच भौजी पानी ले आयीं ... बहुत ऊपर से मिट्टी के लोटे से पानी की धार छोड़ी
गयी,झनकू
ने कमर झुकाकर आँगन के कोने में बैठकर चुल्लू से पानी पीया. पीते समय उसके मन में
वो पुराने दृश्य कौंध गए, उसके अपाहिज पिता भी जब बाज़ार में पानी माँगते थे तब तेली
और बनिए उन्हें ऐसे ही पिलाते थे. ठीक यही मिट्टी का लोटा और इतनी ही ऊँचाईसे
गिरती पानी की धार. बनियों और चमारों के बीच जो दूरी है वही चमारों में नौकरीपेशा
और काटुवों के बीच भी पसर गयी है. बनियों के लोटों में और चमारों के गले में जो
दूरी थी वो अब यहाँ भी बनी हुयी है. ये बात सोचकर ही पानी के घूँट उसके गले में
चुभने लगे. गंदे गमछे से मुंह पोछते हुए उसने फिर बोलना शुरू किया.
“अब भैया आप तो जानते ही हैं ... हम ठहरे गरीब और लाचार, ऊपर से काटू चमार... हम नाऊँचे
चमारों के साथ उठ बैठ सकते हैं ना शादी समबन्ध कर सकते हैं. एक आस लगी है कि किसी
तरह सम्मलेन में हमारी बिटिया की शादी कर दें”
“सम्मेलन ऊँचे चमारों का होता है भैया ... काटुओं को कौन घुसने देगा वहाँ ?”
“यही बात है भैया ... इसी बात पर आपसे उम्मीद है... आप सब बड़ी-बड़ी सभाओं में
चमारों के हक की बात करते हैं झंडा लहराते हैं, नारे लगाते हैं और सबको समझाते
हैं कि चमारों को बनियों की तरह हक़ मिलना चाहिए... आप ये सब सिखाते ही हैं ना ?”
“हाँ सो तो है”
“हाँ तो भैया ऐसे ही काटू चमारों को भी ऊंचे चमारों के बराबर हक़ मिलना चाहिए ना
?”
“धीरे बोलो भाई... किसी ने सुन लिया तो तुम्हारी तो ठीक है हमारी भी मुसीबत हो
जायेगी... हमें भी अपनी बेटी की शादी करनी है.... बनिया और चमार का झगड़ा एक बात है
और ऊँचेचमार और काटू चमार की बात अलग है, इनका मेल नहीं हो सकता”
“क्यों नहीं हो सकता भैया ?अब हमारे और आपके बाप दोनों एक साथ चमड़ा छीलते थे और जूते
बनाकर बेचते थे. वे एक साथ ही रहते खाते थे. आज आप पढ़-लिख गए और नौकरी पा गए,
और बनिया ठाकुरों
के बीच उठने बैठने लगे. लेकिन हम अब भी पुरखों का धंधा कर रहे हैं तो हम छोटे हो
गये ? जब
आप उनके साथ उठ बैठ सकते हैं तो हम आपके साथ क्यों नहीं बैठ सकते भैया ?” -झनकू ने डरते हुए अपना
अधिकार जताने की कोशिश की.
“यार तुम लोग बात नहीं समझते... बात है अच्छे और गंदे काम की, अब आप गंदा काम करते हैं
इसलिए आपका दर्जा हमसे नीचे है अब इसमें बनिया और चमार की बात मत मिलाइए”
“भैयाजी बुरा मत मानिएगा... हम भी मानते हैं कि हम नीच काटू हैं और आप
नौकरीपेशा हैं,ऊँचे चमार हैं. हम भी कोई ऊँचे चमारों से रोटी बेटी का रिश्ता तो नहीं माँग
रहे हैं. लेकिन फिर भी मन में बात आती है भैया कि काटुओं को कम से कम आपके सम्मलेन
में अलग मंडप ही मिल जाएँ... अब हमारी हालत तो आपसे छुपी नहीं... इतनी भी सहूलत
मिल जाए तो हमारी बड़ी मदद हो जायेगी भैया, अब हम गरीब हैं तो क्या हम सम्मलेन में नहीं घुस
सकते? सरकार
भी तो सम्मलेन में मदद करती है ना !” -झनकू रिरियाते हुए बोला
“देखो भाई... हम समझते हैं कि तुम गरीब हो ... पर यहाँ बात गरीब-अमीर की नहीं
है ... यहाँ अच्छे और बुरे काम की है... अब तुम गंदे काम करते हो तो तुम्हारे साथ
नौकरीपेशा लोग क्यों बैठेंगे ?तुम भी समझदार हो तुमने भी सब देखा ही है अपनी आँख से... जब
तक हम गंदा काम करते थे तब बनिए ठाकुर हमसे बात नहीं करते थे ... अब हम नौकरी करने
लगे और गन्दगी से निकल आये तो वे हमसे इज्जत से बात करने लगे... अब ऐसा ही तुम भी
करो तो हम भी तुम्हें इज्जत देंगे” - ऊँची आवाज में बल्लू ने समझाते हुए कहा.
“अब हमारी कोई उम्र है नया काम सीखने की?इतने सारे काटू अब कोई नयी नौकरी
या मजूरीकहाँ ढूंढेंगे? और आज ढूंढ भी ली तो ये जवान बच्चे जो अभी शादी ब्याह को
तैयार बैठे हैं वो कब तक रुके रहेंगे भैया?”
“अब ये तो तुम सबको पहले सोचना चाहिए था ना?” -बल्लू ने खीझते हुए कहा
“भैया देखो ... हम ठहरे मूरख काटू ... हम न पढ़े-लिखे, ना आपके बराबर हमने दुनिया देखी
... लेकिन आप ही की बातें सुनकर हमें थोड़ी आस जगी थी... अब काटू चमार भी अपना दर्द
आपसे ना कहें तो किससे कहें?आप चमारों के नेता हैं और चमारों की तरक्की की बात करते हैं
ना?”
“हाँ-हाँ भाई ... मैं भी तरक्की की ही बात कर रहा हूँ... मैं कह रहा हूँ गंदा
काम छोड़ दो और बाकी काटूओं से रिश्ता तोड़ दो तुम्हारी भी इज्जत होने लगेगी.”-यह कहकर बल्लू उठकर घर
के अन्दर चला गया.
संजय जोठे
स्वतंत्र लेखक, अनुवादक और शोधार्थी
टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोसियल साइंस,
मुम्बई (महाराष्ट्र)
ई-मेल sanjayjothe@gmail.com
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इस सलाह को सुनते ही झनकू को झटका सा लगा. उसकी स्मृति में फिर कुछ कौंधने
लगा. उसे याद आया कि उसके पिता को जब भरे बाजार में ईंट फेंककर मारी गयी थी तब
उन्हें शायद यही झटका लगा होगा. उसके अपाहिज पिता ने हज़ारों साल की खाई को लांघने
के लिए जी जान लगा दी थी और अंत तक उन्हें कुछ उम्मीद बाकी थी. लेकिन कुछ ही सालों
बाद आज अपने ही लोगों के सामने, सिर्फ एक ही पीढ़ी के फासले पर इस नयी खाई को वो लांघ नहीं
पा रहा था. उसके अपाहिज पिता भी जीवन भर इतने लाचार नहीं थे जितना कि वो आज ख़ुद को
महसूस कर रहा था. उसके पिता अपनी तमाम लाचारियों का बोझ उठाकर भी उसे अपने पैरों
पर खडा कर गए हैं. इस पूरी यात्रा में उन्होंने ऊँची जात वालों और पराये लोगों से
लम्बी लड़ाई लड़ी. इसमें वे बहुत हद तक विजयी भी हुए. लेकिन झनकू आज अपनी ही जात में
अपने ही भाई भौजी के सामने कहीं अधिक अपमानित महसूस कर रहा रहा है. इस अपमान को
सहन करना उसके बस के बाहर हुआ जा रहा है. उसने रमिया तेली को बहुत बार बनियों की
गाली सुनते हुए देखा है और रमिया की आँखों से फूट पड़ने वाले गुस्से में अपने लिए
भय को भांपकर वो भागता रहा है. आज वही गुस्सा उसकी आँखों में नाच रहा है.
अपनों से ही अपमानित और तिरस्कृत हुआ झनकू आँगन में अकेला खड़ा है. वो ये महसूस
कर रहा है कि उसके पिता रमिया तेली और मिसरी बनिए के सामने छोटे अछूत थे, और आज अपने ही चचेरे भाई
के सामने वो एक बड़ा अछूत बन गया है.
कंपा देने वाली कहानी. एक तरफ सामंती जकडन से उपजीं जातीय श्रेणियाँ और दूसरी तरफ़ आर्थिक गैरबराबरी के चलते बनतीं नयी श्रेणियां शोषण के इस चक्के पर स्नेहक सी लगती हुईं. रोंगटे खड़े होते हैं तो फिर लड़ाई के नए खुलते मोर्चों की पहचान भी होती है.
जवाब देंहटाएंबेहद परिपक्व भाषा में लिखी हुई इस कहानी के लिए संजय भाई को सलाम.
अशोक कुमार पाण्डेय भाई का कमेन्ट हासिल करना बहुत मायने रखता है भाई.संजय जी बधाई और अपनी माटी को इस कहानी और कमेन्ट पर फक्र है
हटाएंअशोक भाई और मानिक जी ... दोनों को बहुत धन्यवाद ... ये पहला प्रयास है मेरा, आपकी प्रतिक्रया से उत्साहित हूँ ...
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