साहित्य-संस्कृति की त्रैमासिक ई-पत्रिका
'अपनी माटी'
वर्ष-2 ,अंक-14 ,अप्रैल-जून,2014
चित्रांकन :शिरीष देशपांडे,बेलगाँव |
प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के समय से ही प्रगतिशीलता क्या है ? और इसका साहित्य से क्या
समबन्ध है ? इस मुद्दे को लेकर एक गंभीर बहस की शरुआत हुई, इस सन्दर्भ में यदि देखें तो
प्रेमचंद ने प्रगतिशील लेखक संघ लंदन (१९३५)के घोषणापत्र में निहित ‘प्रगतिशीलता’ की व्याख्या से अपनी
सहमति जाहिर की, जिसमे स्पष्ट कहा गया था की- “हमारी धारणा है कि भारत के नए साहित्य को हमारे वर्तमान
जीवन के मौलिक तथ्यों का समन्वय करना चाहिए और वे हैं : हमारी रोटी को, हमारी दरिद्रता का,
हमारी सामाजिक
अवनति का और हमारी राजनितिक पराधीनता का प्रश्न। तभी हम इन समस्याओं को समझ सकेंगे
और तभी हममे क्रियात्मक शक्ति आएगी। वह सबकुछ जो हमें निष्क्रियता, अकर्मण्यता और
अंधविश्वास की और ले जाता है, हेय है, वह सबकुछ जो हममें समीक्षा की मनोवृत्ति लता है, जो हमें प्रियतम रूढ़ियों
को भी बुद्धि की कसौटी पर कसने के लिए प्रोत्साहित करता है, जो हमें कर्मण्य बनाता है और
हममें संगठन की शक्ति लाता है, उसी को हम प्रगतिशील समझते हैं।”1 प्रगतिशील साहित्य के स्वरुप को
स्पष्ट करते हुए डॉ रामविलास शर्मा कहते हैं कि
“प्रगतिशील
साहित्य तभी प्रगतिशील है जब वह साहित्य भी है। यदि वह मर्मस्पर्शी नहीं है,
पढ़नेवाले पर उसका
प्रभाव नहीं पड़ता, तो सिर्फ नारा लगाने से या प्रचार की बात कहने से वह श्रेष्ठ साहित्य क्या,
साधारण साहित्य भी
नहीं हो सकता।”2
१९३६ में संगठित रूप से शुरू हुए
प्रगतिशील आंदोलन का साहित्य पर सबसे बड़ा असर यह पड़ा कि आदर्शवाद के कोहरे से
यथार्थ बाहर निकल आया। केदारनाथ अग्रवाल १९३१ से पहले लिख रहे थे। आरंभिक दौर में
उनमें सामान्य किस्म के रोमनी भाव थे। उनकी
में जान तब आई जब वह प्रगतिशील आंदोलन के संपर्क में आये और मार्क्सवादी हो
गए। उनके पहले काव्य संग्रह ‘युग की गंगा’ में यथार्थ की अग्निवर्षा है। कहा जा सकता है,
प्रगतिशील आंदोलन
ने एक समय हिंदी लेखकों को रोमांटिक भावोच्छ्वास, आदर्शवाद और अंतर्मुखता से किस
तरह बाहर निकाला था, इसके उदाहरण कवि केदारनाथ अग्रवाल हैं। इसी आंदोलन की वजह से पूंजीवाद और शोषण
भरे उद्योगीकरण का शैतानी चेहरा दिखाई पड़ा था, आधुनिकीकरण का छल उजागर हुआ था
और समझ में आया था कि किसान और श्रमजीवी लोग बदहाली में जीवनयापन करते हुए भी कैसी
अपराजेय शक्ति से भरे हैं। इस तरह जिस वर्ग के जीवन की तरफ कवियों का पहले ध्यान ठीक
से नहीं आया था, उसको प्रमुखता मिलनी शुरू हुई।
आज़ादी से पहले केदारनाथ अग्रवाल ने स्मृति से प्रत्यक्ष पर आकर प्रगतिशील
तेवर की जो कवितायेँ लिखी, वे ‘युग की गंगा’ में संकलित हैं। उनसे पहले ‘निराला’ और ‘पंत’ छायावाद का अतिक्रमण कर अपने-अपने
तरीके से पूंजीपति-सामंत गठजोड़ पर प्रहार कर चुके थे। ‘तार सप्तक’ के कवियों ने श्रमजीवी
जनता का जागरण दिखाया था, पूंजीवाद के ध्वंस की कामना की थी। पूंजीवादी दुनिया पहले
विश्वयुद्ध के बाद से ही जिस कदर नृशंस होती जा रही थी, स्वाधीनता आंदोलन के उस ख़ास दौर
में जन मनोभूमि के कवियों की आज़ादी का राजनितिक या वैयक्तिक अर्थ पर्याप्त नहीं लग
सकता था। इसका यह मतलब नहीं है कि आज़ादी के ये संघर्ष निरर्थक थे। मामला सिर्फ यह
था कि आज़ादी को देखने के एक साथ कई कोण बन
रहे थे। एक गरीब किसान के लिए आज़ादी का वही अर्थ नहीं हो सकता था जो शहरी
बुद्धिजीवी के लिए था। प्रगतिशील आंदोलन ने आज़ादी, राष्ट्रीयता आदि के दबे हुए
अर्थों को उद्घाटित किया था, उसे इसी रूप में देखना चाहिए। दरअसल उस युग की बुनियादी
बौद्धिक टकराहट कुछ और नहीं, आज़ादी की बन रही धारणाओं को लेकर थी।
“जब बाप मारा तब क्या पाया,
भूखे किसान के बेटे ने
घर का मलबा, टूटी खटिया,
कुछ हाथ भूमि
वह भी परती
चमरौधे जुटे का तल्ला
छोटी, छोटी बुढ़िया औगी.…
वह क्या जाने आज़ादी क्या ? आज़ाद देश की बातें क्या ?”3
केदारनाथ अग्रवाल ने १९६० में लिखा था, “मैं नई कविता का विरोधी नहीं,
उसके उन सब तत्वों
का विरोधी हूँ जो उसे कविता नहीं, ‘मस्तिष्क की विकृति’ और ‘युग विशेष की एकांगी आकृति’
बना देते हैं। नई
उपमाओं, नए
स्पर्शों के धरातल, नए आकार, नई ग्रहणशीलता आदि सबका स्वागत है।”4 केदारनाथ
अग्रवाल, त्रिलोचन
और नागार्जुन के साथ प्रगतिशील कवियों की त्रयी में आते हैं। जब भी हम प्रगतिशील
कविता की चर्चा करेंगे उनका उल्लेख अपरिहार्य होगा। केदारनाथ अग्रवाल बुंदेलखंड की
धरती से जुड़े ऐसे कवि हैं, जिनकी रचनाओं में मिट्टी की महक और उस मिट्टी के निवासियों
का जीवन अपनी समूची विशेषताओं के साथ उपलब्ध है। उनके पास भाव-प्रवण संवेदनात्मक
हृदय के साथ ही एक जागृत और विवेकशील मस्तिष्क भी है, जो उन्हें निरंतर सचेत और चौकस
रखता है। उनकी कविताओं में जीवनयापन का रस, कोमलता और सहजता के साथ ही एक
तरह की कठोरता और प्रचंडता भी है जो उनकी विशिष्टता को अलग से रेखांकित करती है,
उन्हें जनता से
अपार प्रेम है, किन्तु वे उसकी कमज़ोरियों के लिए उसे कभी माफ़ नहीं करते। केदार जनता से उत्कट
प्रेम रखते हुए भी उसकी कमज़ोरियों, संस्कार बद्धता और उसकी प्रतिगामी रुझानों के सजग आलोचक भी
हैं।
केदार जी वस्तुतः ‘यह धरती है उस किसान की’, ‘काटो काटो काटो करबी’, ‘चंद्रगहना से लौटती बेर’
आदि कविताओं में
अपनी काव्यात्मक आस्था पा चुके थे। ‘चंद्रगहना से लौटती बेर’ में कवि एक पोखर के किनारे खेत
की मेड़ पर बैठा प्रकृति के अचंभों को देख रहा है। यह कविता विविधतामय प्रकृति का
एक गतिशील सौंदर्य-चित्र भर रही है। इसमें
गुलाबी रंग के फूलों से सजे मुरैठा की तरह दीखता चने का पौधा साधारण की गरिमा का
उद्घोष बन जाता है। कवि खेत में भले ही अकेले बैठा हो, पर हिलमिल कर उगे अलसी के पौधों
की एकता का बिम्ब है। केदार जी को बिम्ब से परहेज नहीं है। वह लोक-जीवन की संवेदना
से भरा हृदय लेकर बड़े जीवन-स्पर्शी बिम्ब रचते हैं। प्रकृति की एक-एक चीज़ के साथ
कवि का मन दौड़ता है और उसे सुंदर बना देता है-
“एक बीते के बराबर
यह हरा ठिगना चना
बांधें मुरैठा शीश पर
छोटे गुलाबी फूल का
सजकर खड़ा है
पास ही मिलकर उगी है
बीच में अलसी हठीली
.............…………
इस विजन में
दूर व्यापारिक नगर से
प्रेम की प्रिय भूमि उपजाऊ अधिक है।”5
केदारनाथ अग्रवाल जीवंत प्रकृति-चित्रण के लिए अधिक ख्यात रहे हैं। जनवादी
कवि होने के कारण उन्होंने ग्रामीण प्रकृति के चित्र अपनी कविता में अधिक उतारे
हैं जो खेत-खलिहानों से सम्बंधित हैं। पेड़-पौधे, नदियां, पहाड़, फसल सबकुछ उनकी कविताओं में
उपलब्ध हो जाता है। ‘खेत का दृश्य’ नामक कविता में उन्होंने धरती को राधा के रूप में तथा कृषक को कृष्ण के रूप
में देखा है। आसमान ही इसका दुपट्टा है और धानी फसल ही इसकी घंघरिया है-
“ आसमान की ओढ़नी ओढ़े।
धानी पहने फसल घंघरिया।।
राधा बनकर धरती नाची।
नाचा हंसमुख कृषक संवरिया।।”6
अशोक त्रिपाठी ने केदारनाथ अग्रवाल के सम्बन्ध में लिखा है- “केदार धरती के कवि हैं-खेत,
खलिहान, कारखाने, और कचहरी के कवि हैं। इन
सबके दुःख-दर्द, संघर्ष और हर्ष के कवि हैं। वे पीड़ित और शोषित मनुष्य के पक्षधर हैं। वे
मनुष्य के कवि हैं। मनुष्य बनना और बनाना ही उनके जीवन की तथा कवि-कर्म की सबसे
बड़ी साध और साधना थी।”7 केदारनाथ जी की
प्रकृतिपरक कविताओं में बुंदेलखंड की धरती की सोंधी महक मिलती है। कवि ने केन नदी
के सौंदर्य का वर्णन एक सुन्दर युवती के रूप में किया है-
“नदी एक नौजवान ढीठ लड़की है
जो पहाड़ से मैदान में आई है
जिसकी जांघ खुली और हंसों से भरी है
पेड़ हैं कि इनके पास ही रहते हैं
जैसे बड़े मस्त नौजवान लड़के
हैं।”8
केदारनाथ अग्रवाल ने एक तरफ प्रकृति के गुमसुम रूप का चित्रण किया है,
दूसरी तरफ ‘बसंती हवा’ में जैसे वह हवा न हो,
एक उछलती-कूदती
गंवई लड़की हो। केदारनाथ अग्रवाल ने यह कविता अपने मन के सम्पूर्ण उल्लास के साथ
लिखी है-
“हवा हूँ हवा मैं बसंती हवा हूँ
बड़ी मस्तमौला नहीं कुछ
फिकर है
बड़ी ही निडर हूँ, जिधर चाहती हूँ
उधर घूमती हूँ मुसाफिर अजब
हूँ।।
चढ़ी पेड़ महुआ थपाथप मचाया
गिरी धम्म से फिर चढ़ी आम
ऊपर
उसे भी झकोरा किया कान में
कू
उतरकर अभी मैं हरे खेत
पहुंची
वहां गेहुंओं में लहर खूब
मारी।।”9
इस कविता में प्रकृति की विविधता और
काव्यात्मक तन्मयता दोनों चीज़े मौजूद हैं। बसंती हवा का मन खेत में अधिक रमा है।
केदारनाथ जी कविताओं में, वे उदासी की हों या उल्लास की, संगीत की ताकत बहुत काम करती है।
उन्होंने काव्यरूप की ज़मीन ही नहीं संगीत के मामले में भी लोक और आधुनिक दोनों को
पकड़ा। उनके संगीत में गहराई मिलती है। रामविलास शर्मा जी ने लिखा है, “कविता के अलावा केदार को
संगीत से भी प्रेम है। जब दिल्ली में थे तो मैंने टेप की हुई सुलोचना बृहस्पति की
मालकोस की बंदिश उन्हें सुनाई। वह उन्हें
पसंद आई, उन्होंने कहा इसे फिर बजाओ। जितने दिन वह यहाँ रहे, प्रतिदिन एक बार वह बंदिश सुनते
रहे।”10 उनकी जिन कविताओं में संगीत है, उनका अर्थ सुनिश्चित
सीमारेखाओं से मुक्त हो जाता है।
“मांझी न बजाओ बंशी मेरा मन डोलता
मेरा मन डोलता जैसा जल डोलता
जल का जहाज जैसे पल-पल डोलता
मांझी न बजाओ बंशी मेरा प्रन टूटता
मेरा प्रन टूटता जैसे तृन टूटता
तृन का निवास जैसे बन-बन टूटता।”11
प्रकृति और मनुष्य का उतने तरह का सम्बन्ध है, जितने तरह की खुद प्रकृति और
मनुष्य की मनोदशा है। केदारनाथ जी के प्रकृति वर्णन में प्रकृति की अपनी भरी पूरी
उपस्थिति है। इसके सौंदर्य में अपने ढंग की अद्वितीयता है, जो जीवन संघर्षों से जुडी अनोखी
कल्पना से उपजी है।
केदारनाथ अग्रवाल बाह्य जगत से प्रकृति को भी सम्मिलित करने के पक्षधर रहे
हैं। अपने समय की कविता को ध्यान में रखते हुए उन्होंने लिखा है- “मैंने प्रकृति को चित्र
रूप में देखा है, उसके सम्पर्क मे जीने के लिये मुझे संघर्ष नहीं करना पड़ा। अतएव प्रकृति का
मेरा निरूपण चित्रोपम निरूपण है। उसमें कलाकारिता है। शब्दों का सौंदर्य है।
ध्वनियों की धारा है। कहीं-कहीं ‘क्लासिकीय’ अभिव्यक्ति है। ‘बसंती हवा’ में अवश्य गति और वेग है। ‘खजुराहो के मंदिर’ का सौन्दर्य वहाँ के
स्थापत्य का सौन्दर्य है। वहां भी ‘क्लासिकीय’ तत्वों क संघटन है।”12
केदारनाथ अग्रवाल सामान्य जान के समस्त राग-विरागों के कवि हैं। हिंदी में
इस श्रम-सौंदर्य के सबसे बड़े गायक को देश, समाज, काल, और राजनीति के साथ जीवन के भिन्न-भिन्न रूपों के वर्णन में
महारत हासिल है। प्रेम, प्रकृति, नदी, पहाड़, जंगल, झरने, खेत, खलिहान कुछ भी उससे अछूता नहीं है। खड़ी बोली में लोक-बिम्ब
और प्रतीकों की साधना तो केदार जी कविता में जगह-जगह दिखाई देती है।
“धुप चमकती है चांदी की साड़ी पहने
मैके मे आई बेटी की तरह मगन है
फूली सरसों की छाती से लिपट गयी है
जैसे दो हमजोली सखियाँ गले मिली हैँ
भैया की बाहों से छूटी भौजाई-सी
लहगें की लहराती लचती ह्वा चलीं है
सारंगी बजती है खेतों की गोदी मे
दल के दल पक्षी उड़ते हैं मीठे स्वर के।
अनावरण यह प्राकृत छवि की अमर भारती।”13
इसमें संदेह नहीं है कि पूँजीवाद समाज के लिये एक बड़ी आफत के रूप मे मौजुद
था, इसके
बावजूद लोग अपने दुखों के बीच भी हँसते थे, जीते थे, प्रेम करते थे, और प्रकृति के साहचर्य
का भी आनन्द लेते थे। केदार जी की कविता में प्रकृति का जो अद्भुत सौन्दर्य है,
उसे क्रांति का
उद्दीपक भर मनना या किसी अन्य तरह से उस सौन्दर्य की महत्ता को संकुचित करना ठीक
नहीं है। उनकी दृष्टि में प्रकृति के
सौन्दर्य की उपेक्षा जीवन का हनन है। यह समझने की ज़रूरत है कि जिस तरह उन्होने
स्थानीय चेहरे को महत्ता दी, उसी तरह प्रकृति के सन्दर्भ मे एक व्यापक पर्यावरणवादी
दृष्टि की ज़रूरत महसूस करके उन्होने प्रगतिशील चेतना की एक और बन्द खिड़की खोली दी-
“चिड़ीमार ने चिड़िया मारी
नन्ही-मुन्नी तड़प गयी
प्यारी बेचारी
……………………
अब भी है वह चिड़िया ज़िंदा
मेरे भीतर
नीड़ बनाये मेरे दिल मे
सुबुक-सुबुक कर चूँ-चूँ करती
चिड़िया से डरी-डरी-सी।”14
यों तो केदारनाथ अग्रवाल प्रगतिशील
काव्यधारा के एक प्रतिनिधि कवि माने जाते हैं, लेकिन उनकी कविता में प्रकृति के
चित्र भी बहुलता से देखे जा सकते हैं। उनकी कविताओं में हवा, धूप, नदी, बादल, पेड़-पौधे, चना, अलसी, पत्थर, पहाड़, सब को हम नई तरह से देखते
हैं। उन्होंने प्रकृति के माध्यम से वस्तुओं और जीवों और मनुष्य की निजता, जीवट और विजय संघर्ष की
गाथा रची है। प्रगतिशील कवि होने के नाते उन्होंने प्रकृति के माध्यम से भी अन्याय,
शोषण और अत्याचार
का विरोध किया है।
केदारनाथ अग्रवाल की कविता मे प्रकृति और लोक परिवेश की सामाजिक-सांस्कृतिक
भूमिका को अलग नहीं देखा जा सकता। कालिदास, तुलसी, निराला, नागार्जुन की परंपरा में केदार
जी भी लोकजन के कल्याण से जुड़े हैं। केदार जी मुख्यतः मानववादी कवि हैं। लोक जीवन
का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है, जो उनकी दृष्टि से छूटा हो। उन्होंने सदैव जनता के बीच रहकर
उनके कल्याण के लिए संघर्ष किया। केदारनाथ अग्रवाल जितने सहज हैँ उतने ही कठिन कवि
भी हैं। सहजता उन्हें लग सकती है जो भारतीय ग्रामीण जीवन, कृषि संस्कृति और सचमुच के भारत
से वास्ता रखते हैं। गाँव और गाँव के जीवन से जिनका सम्बन्ध पुस्तकोँ और रजतपटों
तक सीमित है, उनके लिये वे कठिन कवि तथा अक्रामक। क्योकि वे किसानों के प्रतिनिधि हैं और
ठेठ ग्रामीण जीवन से लेकर श्रमिक की समग्रता ही उनकी मुख्य काव्य वस्तु है। इसका मतलब यह नहीं है कि इस कवि से जीवन का कोइ
कोना छूट गया हो। सच तो यह है कि इस कवि ने भारतीय जीवन के उन सभी पक्षों को
अभिव्यक्ति दी है जो हम सभी के साथ अनुस्यूत हैं। क्या सुख, क्या दैन्य, क्या श्रम से पस्त जीवन,
क्या टूटती
आकांक्षाओं मे दम तोड़ते सपने, क्या क्रूर व्यवस्था के पाखण्ड, क्या प्रजातंत्र का खोखला खेल और
इन सबसे अलग प्रकृति के समग्र उपादानों पर न्योंछावर कवि की अनुभूति की वह अप्रतिम
मानवीय संसक्तिः जो जीवन को नई चेतना से अनुप्राणित कर देती है।
सन्दर्भ:-
1. रेखा अवस्थी, प्रगतिवाद और सामानांतर
साहित्य, परिशिष्ट
1, लंदन
तैयार हुए ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ घोषणा पत्र का सारांश,
मैकमिलन कं० लि०,
नई दिल्ली,
प्रथम संस्करण 1978,
पृ० 315-316
2. डॉ० रामविलास शर्मा, मार्क्सवाद और प्रगतिशील साहित्य,
वाणी प्रकाशन,
नई दिल्ली,
द्वितीय संस्करण-2002, पृ० 30
3. लेखक- शम्भुनाथ, लेख- क्रांति में
खिड़कियां, आलोचना त्रैमासिक पत्रिका, सं० अरुण कमल,
सहस्त्राब्दी अंक बयालीस जुलाई-सितम्बर 2011, पृ० 24
4. अशोक बाजपेई को पत्र, साक्षात्कार
अगस्त-नवम्बर 1976
5. फूल नहीं रंग बोलते हैं, सं० अशोक त्रिपाठी,
प्रथम संस्करण 2009,
साहित्य भण्डार
प्रकाशन, इलाहाबाद,
पृ० 17-18
6. वही, पृ० 31
7. डॉ० अशोक त्रिपाठी, कहे केदार खरी खरी की भूमिका से, प्रथम संकरण 2009,
साहित्य भण्डार
प्रकाशन, इलाहाबाद,
पृ० 9
8. फूल नहीं रंग बोलते हैं, सं० अशोक त्रिपाठी,
प्रथम संस्करण 2009,
साहित्य भण्डार
प्रकाशन, इलाहाबाद,
पृ० 122
9. वही, पृ० 20-21
10. स्मरण में है जीवन : 2 केदारनाथ अग्रवाल,
सं० ,आलोक सिंह, लेखक-डॉ० रामविलास शर्मा,
लेख-मेरा मित्र
केदारनाथ अग्रवाल, गोदारण प्रकाशन, अलीगढ़, पृ० 39
11. फूल नहीं रंग बोलते हैं, सं० अशोक त्रिपाठी,
प्रथम संस्करण 2009,
साहित्य भण्डार
प्रकाशन, इलाहाबाद,
पृ० 25
12. केदारनाथ अग्रवाल, फूल नहीं रंग बोलते हैं, सं० अशोक त्रिपाठी, प्रथम संस्करण 2009,
साहित्य भण्डार
प्रकाशन, इलाहाबाद,
पृ० 7
13. फूल नहीं रंग बोलते हैं, सं० अशोक त्रिपाठी, प्रथम संस्करण 2009,
साहित्य भण्डार
प्रकाशन, इलाहाबाद,
पृ० 63
14. प्रगतिशील काव्यधारा और केदारनाथ
अग्रवाल, डॉ०
रामविलास शर्मा, प्रथम संस्करण 1986, परिमल प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ० 297-298
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जवाब देंहटाएंek sahitiyik resercher ke sare gun is lekh main uplabdh hain. kedar nath jee ka fan to mai unki ek hin kavita padh kar ho gaya tha. Hawa hoo hawa main basanti hawa hoon. banki vistrir yahan padh kar anad aa gaya waise is lekh ko kam se kam main 30bar padhna padhega.
जवाब देंहटाएंजितेंद्र सर ! मैं आपका ह्रदय से आभारी हूँ। आपकी तरह ही मैं भी केदारनाथ जी का बहुत बड़ा फैन हूँ। आप लेख पढ़िए और सुधार के लिए कुछ सुझाओ भी दीजिये।
जवाब देंहटाएंजितेंद्र सर ! मैं आपका ह्रदय से आभारी हूँ। आपकी तरह ही मैं भी केदारनाथ जी का बहुत बड़ा फैन हूँ। आप लेख पढ़िए और सुधार के लिए कुछ सुझाओ भी दीजिये।
जवाब देंहटाएंअद्भुत लेख हैं| मैं काशी हिंदू विश्वविद्यालय का छात्र हूं और सेमेस्टर में लेख मुझे बहुत मदद किया है, बहुत-बहुत धन्यवाद आपका|
जवाब देंहटाएंअति सहायक 🍁
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