साहित्य-संस्कृति की त्रैमासिक ई-पत्रिका
'अपनी माटी'
वर्ष-2 ,अंक-14 ,अप्रैल-जून,2014
आज जिस आधुनिक
दुनिया में भारत सफर कर रहा है, वहाँ तकनीक ने इतना विकास कर लिया है कि हमारे वैज्ञानिक
मंगल ग्रह पर आवास के सपने संजोने लगे हैं। तकनीकी सफलता ने हमें भविष्य में होने
वाली बहुत सी मानवजनित और प्राकृतिक कठिनाइयों से निजात दिलाई
है।इन सबके बावजूद आज भी हमारे देश की अधिसंख्यक समझदार आबादी ग्रहों और राशियों
के चक्कर में अपना समय व्यतीत करना नहीं भूलती है। भारत जैसे विशाल देश में मालूम
करना बहुत आसान है। यहाँ की जनता कर्म में कम और धर्म के पाखण्ड में ज्यादा विश्वास
करती है। आपका राशिफल क्या है? शनि की अमावस्या को
क्या करें? ऐसे तमाम फालतू प्रश्नों को अखिल भारतीय भारतीय प्रश्नों के रूप में
प्रचारित करने में हमारे मीडिया का बहुत बड़ा योगदान है। उसी के सहारे जनता को ऐसे
तमाम व्यर्थ के सवालों के सनसनीखेज जवाब ढेर सारे सम्भव-असम्भव नुस्खों के साथमिलतेरहते
हैं। जी हाँ! सुबह के समयके किसी भी समाचार चैनल में आपको इसका अपने आप मिल जाएगा।इस
तरह हमारा मीडिया एक तरफ तो खबर के सच को सामने लाने का दावा करता है तो दूसरी तरफ
धर्म का व्यापार करने से भी नहीं चूकता।आश्चर्य यह है पढे-लिखे भी अपने आपको इन
चौंचलों से दूर नहीं रख पाते।नेता हो या अभिनेता, अमीर हो या गरीब, इस धार्मिक
अनुष्ठान में सभी शामिल रहते हैं।
हमें यह नहीं भूलना
चाहिए कि समाज के राशिफल/कुण्डली को बदलने के रास्ते धर्म से नहीं बल्कि शिक्षा और
समानता पर आधारित समता और सामाजिक जागरूकता से तैयार होंगे। लोगों को, खासकर औरत
को धर्म के नाम पर डराने वाले समाजद्रोही उसकी हकीकत जानते है, इसलिए उन्हें धर्म
के नाम की दुहाई देने या टोने-टोटकों से बात बनेगी नहीं।ऐसे असामाजिकों/अपराधियों मुक्ति
सामाजिक एकजुटता से ही सम्भव है। वही औरत की कुण्डली में फन फैलाए बैठे‘सर्पकाल’ को खत्म
कर उसे तमाम अन्ध राशिफलों से मुक्त कर खत्म कर सकता है। अन्यथा जब औरत ही नहीं
रहेगी तो फिर करते रहिए पुरूष और उसके पुरूषवाद कीतलाश ब्रह्मा के मुख में। अगर कोई
ब्रह्म मिले तो!
चित्रांकन :शिरीष देशपांडे,बेलगाँव |
‘धर्म’ भी गजब चीज
है। वह हमें तोड़ने, जोड़ने और बेबस बनाए रखने के काम एक साथ करता है। तोड़ना और
जोड़ना तो भरी-पूरी संस्कृति या सभ्यताओं के लिए रहा। बेबसी/लाचारी तो दलित और नारी
पर ही लागू होती रही है। धर्म के पाखण्ड ने दलित को अछूतपन से तो नारी को
कर्मकाण्ड के भारी भरकम अनुष्ठानों के पैंतरों सो लाचार और शोषित बनाये रखा। बेबसी
भी ऐसी जिसका कोई हल नहीं। दलित वर्ग को आज भी धर्म के नाम पर डराया-धमकाया जाता
है, लाचार बनाकर उसका शोषण किया जाता है। धर्म के नाम पर औरतों के शोषण की बात की
जाए तो सदियाँ काँप उठेती है, और यह सिलसिला आज भी जारी है।औरत की कुण्डली न जाने
कौनसी कल या स्याही से लिखी गयी है कि उसके बुरे ग्रहों का उपाय ही नहीं मिलता। यह
देखकर आश्चर्य होता है कि राशिफल में एक अक्षर से शुरू होने वाले सभी नामों का फल
एक ही होता है। यानी ‘प’ अक्षर के सभी नामों का फल एक जैसा होगा!‘पा’ अक्षर
से लिखे सभी नामों की जन्म-मरण की कुण्डली एक जैसी होगी। तिथि, वर्ष और समय के दर्शन
की व्याख्याएँ अलग से अपना काम करती है।
आश्चर्य है कि हमारा
धर्मभीरू मन में ऐसी असम्भावनाओं पर भी कोई सवाल ही पैदा नहीं होता कि लाखों-करोड़ों
लोगों का जन्म-मरण एक ही जैसा कैसे हो सकता है?‘रा’ से ‘राम’और‘रा’ से ही ‘रावण’, काम
अलग-अलग मगर दोनों की जन्मकुण्डली एक जैसी सिद्ध की जा सकती है।‘क’ से ‘कंस’ और ‘क’ से ही ‘कन्हैया’, फिर भी
दोनों का जन्म-मरण और कर्म एक-दूसरे से बिल्कुल विपरित पर यहाँ भी सम्भावनाओं के
सभी द्वार खुले हैं। हम भूल जाते हैं कि एक को ईश्वर तो दूसरे को शैतान धर्म नहीं
बल्कि उनका अपना कर्म बनाता है। जो कुछ बनना बिगड़ना है वह हमारे कर्म या फिर
हमारे ज्ञान से बनता है, न कि किसी की बनायी जन्मकुण्डली से। ‘ज्ञान’ एकमात्र
रास्ता है जो धर्म के अन्धकार को खत्म कर सकता है पर हम वहाँ जाने से कतराते हैं।एक
ओर जहाँ ‘औ’ से ‘औरत’ होता है, वहीं दूसरा और ‘औ’ से ‘औलिया’ भी होता
है। ‘औलिया’ यानी ‘सन्त’। फिर भी एक राशि के इन दो सन्तों को उनके जीवन में मिले मान-सम्मान
में इतना अन्तर क्यों?किसी मुष्य का जीवन तभी सफल माना जाता है, जब उसके प्रति समाज का जरिया
साफ-सुथरा हो, ऐसा न होने पर जैसे सबकुछ बर्बाद सा लगता है पर दिक्कत यह है कि इस
नजरिये के मूल में समझ आधृत चेतनशीलता नहीं बल्कि धर्म आधृत अन्धविश्वासी
आस्थाएँ-आनास्थाएँ काम करती है।
‘औरत’ अपने सम्मान
के लिए आज काफी आगे बढ आई, मगर परिस्थितियाँ में बहुत अधिक अन्तर नहीं आ पाया। औरत
कुछ आगे बढी तो प्रेरणा बन गयी, कुछ और आगे बढी तो मिशाल बन गयी, जो कुछ न कर पाई
तो पत्नी बन गृहस्थिन बन गयी और कुछ तो पश्चिम से आयातित समता के चक्कर में कुछ और
ही बन गयी। भारतीय सन्दर्भ में ‘समता’ को
व्याख्यायित करते हुए महादेवी वर्मा लिखती हैं-“आजादी तो
हम औरतों को छिनकर लेनी होगी, पर समता के नाम पर पश्चिम से उधार ली हुई समता के
नाम से मैं सहमत नहीं हूँ। समता की बात करके औरत मर्द नहीं, विवेकशील विचारवान औरत
बनना है और यह नये और पुराने के सन्तुलित समन्वय से सम्भव होगा।”[1]दुनिया
की तीसरी सबसे बड़ी सैन्य शक्ति माने जाने वाले भारत में एक ओर तो खाड़ी की
सुरक्षा महिला पायलटों के हाथ में हैं तो दूसरी और राजस्थान, झारखण्ड, उड़ीसा और
बिहार में आज भी डायन के नाम पर औरत की नृशंस हत्याएँ हो रही हैं।कहीं तथाकथित
बुरे कामों या दुष्कर्म के नाम पर वह सामूहिक बलात्कार का शिकार होती है तो कहीं
डायन के नाम पर उसका जीवन ही समाप्त कर दिया जाता है। जहाँ यह सब नहीं होता, वहाँ
घरेलू हिंसा के रूप में उसे तमासे की चीज बनाकर रख दिया जाता है। करीब दो महिने
पहले देश के सबसे शिक्षित और सभ्य होने का दावा करने वाले कोलकाता में ही एक लड़की
को प्रेम करने की सजा के तौर पर भरे मंच पर सामूहिक बलात्कार का शिकार होना पड़ता
है। कितना घिनौना और शर्मनाक है यह सब। यह वही बंगाल है, जहाँ से भारतीय नवजागरण
की शुरूआत मानी जाती है।
कानून के नाम पर कई कुप्रथाएँ नये
रूप में मान्यताएँ पाने लगी और वे‘संविधान’ की नहीं
रूढिवादी समाज की सुनती है। फिर चाहे वो डायन, देवदासी, बलात्कार हो या कुछ दशकों
पहले की घिनौनी सतीप्रथा।सती प्रथा के बारे में पण्डिता रमाबाई लिखती हैं-“अँग्रेजों
ने सतीप्रथा को लगभग समाप्त कर दिया, लेकिन अफसोस! न तो
अँग्रेज, न ही देवताओं को यह पता चला कि हमारे घरों में क्या हो रहा है?”[2] हमारे
घरों का सच आज भी अधिक नहीं बदला। आज भी हमारे देश में औरत के साथ क्या हो रहा है,
यह सब जानते हुए भी कानून और कानून के रखवाले स्थितियों में सुधार के लिए तैयार
नहीं हैं। कई बार तो रक्षक ही भक्षक बन जाते हैं। आश्चर्य इस बात का भी है कि आदमी
को कभी ‘भूत’ बनाकर प्रताड़ित नहीं किया गया। शायद इसलिए कि वहाँ स्त्री को
प्रताड़ित करने वाली तमाम कुप्रथाओं का संचालित करने वाला पुरूष स्वयं ही‘शैतान’ होता
है, फिर शैतान के ऊपर शैतान कैसे सवार हो सकता है! डायन के
नाम पर किसी बेगुनाह औरत को सैकड़ों गाँववालों के सामने निर्वस्त्र कर उसके नाक,
कान, जीभ काटकर, उसका सिर मुण्डवाकर पूरे गाँव में घुमाकर, उसके साथ बलात्कार कर
उसे डण्डों व पत्थरों से मार-मार कर खत्म कर देना इंसानों का काम तो नहीं हो सकता।
जिन क्रूर,नृशंस और अमानवीय कुप्रथाओं का शिकार औरत होती रही है, उनके बारे में सुनने
या पढने मात्र से हमारी साँसें रूक जाती है, उसे अंजाम देने वाले इंसान तो नहीं ही
हो सकते हैं। औरत के बारे में महादेवी वर्मा लिखती हैं-“उसे अपने
हिमालय को लजा देने वाले उत्कर्ष तथा समुद्रतल की गहराई से स्पर्धा करने वाले
अपकर्ष दोनों का इतिहास आँसुओं से लिखना पड़ा है और सम्भव है भविष्य में भी लिखना
पड़े।”[3]
हमारे समाज में
पुरूष औरत के उद्धार की बात तो करता है, मगर पूरी ईमानदारी से उसके अधिकारों पर बात करने
से कतराता है – ‘तुम्हारे कानून छोटे पड़ जाते हैं तुम्हारे जुल्मों से/ इसलिए मुक्त
होने दो हमें अपने आप से/ जुल्म अपने आप बन्द हो जाएँगे।’[4]औरत कब
दूसरे मनुष्य (पुरूष) की तरह स्वच्छ और स्वस्थ जीवनयापन करेगी, नहीं मालूम।इसके
लिए समाज को अपना दृष्टिकोण और पुरूष को अपने पुरूषवाद त्यागना होगा। स्वयं औरत को
भी दबी-सहमी मानसिकता को बदल सामाजिक विषमताओं को खत्म करना होगा।समाज का स्वरूप
बाजार में उपलब्ध खाने के उस पुराने पैकेट सा हो गया है, जो बाहर से तो नया, साफ
और चमकदार दिखता है, मगर भीतरी सड़न के कारण उसमें कीड़े पड़ चुके हैं। ऐसी लोग समाज
को भीतर ही भीतर समाप्त कर रहे हैं, उसे भ्रष्ट बना रहे हैं और उनकी संख्या में
होती बढोतरी के कारण समाजिक जड़ता और अपराधिकर में में वृद्धि हो रही है।
पूनम
शोधार्थी
जामिया मिलिया इस्लामिया
(नयी दिल्ली) |
एक टिप्पणी भेजें