साहित्य-संस्कृति की त्रैमासिक ई-पत्रिका
'अपनी माटी'
वर्ष-2 ,अंक-14 ,अप्रैल-जून,2014
हमने कभी फ़ातिहा नहीं पढ़ा ज़िंदगी की हार पर
------------------------------ -----------------------
जीवन नहीं रहा उस तरह
जिस तरह एक आवाज़ के साथ
होती थीं कई-कई आवाज़ें
बैलों के खुरों में होती थी गति
खेतों के विस्तार की
वे चाव से हल खींचते
और हम नाप लेते
जीवन के छुटे हुए कोनों में
मिट्टी का साथ
हम सुख-दुख का पीछा नहीं करते थे
धूल हमें प्यारी थी
पत्थरों पर कई गीत लिखे
जो मिटाये नहीं जा सके
न्याय के लिए अदालतें नहीं
गवाही भीतर होती थी
जिसे सच मान लिया जाता
बिना शक़ और सवाल के
हम अक्सर अपनी ग़लतियों पर
क्षमा मांगते थे
होता यूं कि हम छोटा करते खुद को
और आजादी और अपनेपन को
रखते हमेशा उठाकर
कोरे शब्द नहीं रहे कभी हमारे पास
उनमें सच्चाइयाँ थीं हमारे ख़ून की
हमने कभी फ़ातिहा नहीं पढ़ा
ज़िंदगी की हार पर
जंगल से जब भी लकड़ियां लीं
भींगे हुए थे हम
हम भरे थे प्यार और करुणा से
जब भी हमने गले लगाया एक-दूसरे को
हम काम से लौटते
और रिश्तों के ताने-बाने में उलझकर
एक सुआ इस तरह टाँकते कि
ज़रूरत ही नहीं पड़ती गठान की
जीवन नहीं उस तरह
जिस तरह सच आज खड़ा है बाज़ार में
सौदे और बोलियों के बीच
देख रहा है वह चुके हुए इंसान की तरह
अपने उदास और दुखी मन की
स्वीकारोक्ति पर
उठते-गिरते सवालों की नूरा-कुश्ती
तमाशों का दौर जारी है...
----------------0------------- ------
सवाल यह है
सवाल यह है
तुम किस चीज़ से
बचाना चाहोगे दुनिया को
हथियार से,
बाज़ार से,
या प्यार से
हथियार अगर तुम्हारी ज़रूरत हैं
तो तुम दुनिया नहीं
ख़ुद को बचाना चाहते हो
अगर तुम बच गए
तो समझो तुम एक जंगल के बीच हो
जहाँ कटे पेड़ों के नीचे
दबे परिंदों की आँखों में
एक ख़ूबसूरत सपना है
तुम चाहते हो
उसे घर ले आया जाए
लेकिन जैसे ही छूते हो तुम
वह टूट जाता है
तुम अगर बाज़ार को चुनते हो
तो निश्चित ही जहाँ तुम दाँव फेंकोगे
तुम्हें अपने ख़रीदे प्रतिरूप दिखाई देंगे
यह दुनिया कमोडिटी की तरह होगी
जहाँ तुम तय करोगे भाव
और उसके उतार-चढ़ाव
तुम्हारी जीत-ही-जीत होगी
लेकिन जैसे ही तुम सोचोगे
अपनी हार के बारे में
मारे जाओगे
तुम अगर प्रेम के साथ हो
तो कहना मुश्क़िल है
तुम उदास नहीं होओगे
बल्कि हर अवसर पर घेरा जाएगा तुम्हें
कई दीवारों के भीतर चुने जाते हुए
जब तुम मुस्कराते मिलोगे
बरसों बाद भी
लोग निराश नहीं होंगे
जैसे ही तुम बिखर जाओगे
दुनिया के हर दुख में
----------------0------------- --
समुद्र से रिक्त लौटने के बावजूद
मैं सिर्फ़ इंसानों को जानता हूँ...
जिनके अपने मिटाए कई इतिहास हैं
जिनके पास सच नहीं,
उलझे हुए तमाम चीज़ों से
ढोकर लाए ख़ाली नावें
अपने थके कंधों पर
वे कहीं नहीं पहुँच पाए
हालांकि वे खोजते रहे रास्ते
उन्हें जल्दी नहीं थी
समय से दूूरी बनाए रखी
जो नहीं जीया, नहीं कह पाए
अंत तक नहीं लिखा
सुबह-सुबह के वक़्त
मुझे यह बात याद आई
जो गयी रात थककर सो गए
ख़र्च दिया जो लाए थे
दिनभर की जोड़-तोड़ के बाद वे ख़ाली थे
लेकिन चेहरे पर मुस्कान थी
मैं हैरान हुआ
जब वे गले मिले
वे फिर पुरानी कहानी दोहराने वाले थे
मैं जानता था
लेकिन नहीं जानता था कि
तरक़्क़ी की इमारत भले नष्ट हो जाए एक दिन
बचेगा यही जो अनकहा रह गया
जो बीज ज़मीन पर बिखरे पड़े थे
वे उग आए एक दिन
मैंने बहुत सोचा
लेकिन वह पेड़ नहीं था भीतर
जो झरने के बाद भी उग आता
इंसान ने हर बार यह संभव किया कि
बिना रास्तों के भी बनाए रखा दुनिया और ख़ुद को
समुद्र से रिक्त लौटने के बावजूद
------------0---------
तुम्हें अपने ख़िलाफ़ नहीं जाना चाहिए
अपनी चीज़ों को
मिलाओ मत किसी और में
वे हमेशा नाकाफ़ी साबित होंगी
क्या तुम नहीं चाहते
खुले आसमान की बारिश
वे बरसती बून्दों में
एक हो जाती हैं
ज़मीन पर गिरते ही
लेकिन तुम देखना
पत्तों पर ठहर कर
वे अलग कर देते हैं
सतह पर आए
किसी भी द्रव को
टिकता वही है
जहाँ जीवन छूट जाता है
जिसे थामते हैं हाथ
अपनी बातों को
मिलाओ मत किसी और में
वे घुलेंगी नहीं
वे बनी हैं अपनी परिधि में
तुम्हें अपने ख़िलाफ़ नहीं जाना चाहिए
जब तुम मौसम का विचार नहीं कर रहे हो
जीवन नहीं रहा उस तरह
जिस तरह एक आवाज़ के साथ
होती थीं कई-कई आवाज़ें
बैलों के खुरों में होती थी गति
खेतों के विस्तार की
वे चाव से हल खींचते
और हम नाप लेते
जीवन के छुटे हुए कोनों में
मिट्टी का साथ
हम सुख-दुख का पीछा नहीं करते थे
धूल हमें प्यारी थी
पत्थरों पर कई गीत लिखे
जो मिटाये नहीं जा सके
न्याय के लिए अदालतें नहीं
गवाही भीतर होती थी
जिसे सच मान लिया जाता
बिना शक़ और सवाल के
हम अक्सर अपनी ग़लतियों पर
क्षमा मांगते थे
होता यूं कि हम छोटा करते खुद को
और आजादी और अपनेपन को
रखते हमेशा उठाकर
कोरे शब्द नहीं रहे कभी हमारे पास
उनमें सच्चाइयाँ थीं हमारे ख़ून की
हमने कभी फ़ातिहा नहीं पढ़ा
ज़िंदगी की हार पर
जंगल से जब भी लकड़ियां लीं
भींगे हुए थे हम
हम भरे थे प्यार और करुणा से
जब भी हमने गले लगाया एक-दूसरे को
हम काम से लौटते
और रिश्तों के ताने-बाने में उलझकर
एक सुआ इस तरह टाँकते कि
ज़रूरत ही नहीं पड़ती गठान की
जीवन नहीं उस तरह
जिस तरह सच आज खड़ा है बाज़ार में
सौदे और बोलियों के बीच
देख रहा है वह चुके हुए इंसान की तरह
अपने उदास और दुखी मन की
स्वीकारोक्ति पर
उठते-गिरते सवालों की नूरा-कुश्ती
तमाशों का दौर जारी है...
----------------0-------------
सवाल यह है
सवाल यह है
तुम किस चीज़ से
बचाना चाहोगे दुनिया को
हथियार से,
बाज़ार से,
या प्यार से
हथियार अगर तुम्हारी ज़रूरत हैं
तो तुम दुनिया नहीं
ख़ुद को बचाना चाहते हो
अगर तुम बच गए
तो समझो तुम एक जंगल के बीच हो
जहाँ कटे पेड़ों के नीचे
दबे परिंदों की आँखों में
एक ख़ूबसूरत सपना है
तुम चाहते हो
उसे घर ले आया जाए
लेकिन जैसे ही छूते हो तुम
वह टूट जाता है
तुम अगर बाज़ार को चुनते हो
तो निश्चित ही जहाँ तुम दाँव फेंकोगे
तुम्हें अपने ख़रीदे प्रतिरूप दिखाई देंगे
यह दुनिया कमोडिटी की तरह होगी
जहाँ तुम तय करोगे भाव
और उसके उतार-चढ़ाव
तुम्हारी जीत-ही-जीत होगी
लेकिन जैसे ही तुम सोचोगे
अपनी हार के बारे में
मारे जाओगे
तुम अगर प्रेम के साथ हो
तो कहना मुश्क़िल है
तुम उदास नहीं होओगे
बल्कि हर अवसर पर घेरा जाएगा तुम्हें
कई दीवारों के भीतर चुने जाते हुए
जब तुम मुस्कराते मिलोगे
बरसों बाद भी
लोग निराश नहीं होंगे
जैसे ही तुम बिखर जाओगे
दुनिया के हर दुख में
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समुद्र से रिक्त लौटने के बावजूद
मैं सिर्फ़ इंसानों को जानता हूँ...
जिनके अपने मिटाए कई इतिहास हैं
जिनके पास सच नहीं,
उलझे हुए तमाम चीज़ों से
ढोकर लाए ख़ाली नावें
अपने थके कंधों पर
वे कहीं नहीं पहुँच पाए
हालांकि वे खोजते रहे रास्ते
उन्हें जल्दी नहीं थी
समय से दूूरी बनाए रखी
जो नहीं जीया, नहीं कह पाए
अंत तक नहीं लिखा
सुबह-सुबह के वक़्त
मुझे यह बात याद आई
जो गयी रात थककर सो गए
ख़र्च दिया जो लाए थे
दिनभर की जोड़-तोड़ के बाद वे ख़ाली थे
लेकिन चेहरे पर मुस्कान थी
मैं हैरान हुआ
जब वे गले मिले
वे फिर पुरानी कहानी दोहराने वाले थे
मैं जानता था
लेकिन नहीं जानता था कि
तरक़्क़ी की इमारत भले नष्ट हो जाए एक दिन
बचेगा यही जो अनकहा रह गया
जो बीज ज़मीन पर बिखरे पड़े थे
वे उग आए एक दिन
मैंने बहुत सोचा
लेकिन वह पेड़ नहीं था भीतर
जो झरने के बाद भी उग आता
इंसान ने हर बार यह संभव किया कि
बिना रास्तों के भी बनाए रखा दुनिया और ख़ुद को
समुद्र से रिक्त लौटने के बावजूद
------------0---------
तुम्हें अपने ख़िलाफ़ नहीं जाना चाहिए
अपनी चीज़ों को
मिलाओ मत किसी और में
वे हमेशा नाकाफ़ी साबित होंगी
क्या तुम नहीं चाहते
खुले आसमान की बारिश
वे बरसती बून्दों में
एक हो जाती हैं
ज़मीन पर गिरते ही
लेकिन तुम देखना
पत्तों पर ठहर कर
वे अलग कर देते हैं
सतह पर आए
किसी भी द्रव को
टिकता वही है
जहाँ जीवन छूट जाता है
जिसे थामते हैं हाथ
अपनी बातों को
मिलाओ मत किसी और में
वे घुलेंगी नहीं
वे बनी हैं अपनी परिधि में
तुम्हें अपने ख़िलाफ़ नहीं जाना चाहिए
जब तुम मौसम का विचार नहीं कर रहे हो
नीलोत्पल
- जन्म: 23 जून 1975, रतलाम,मध्यप्रदेश.
- शिक्षा: विज्ञान स्नातक, उज्जैन.
- प्रकाशन: पहला कविता संकलन ‘अनाज पकने का समय‘ भारतीय ज्ञानपीठ से वर्ष 2009 में प्रकाशित.
- विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं निरंतर प्रकाशित, जिनमें प्रमुख हैं:
- नया ज्ञानोदय, वसुधा, समकालीन भारतीय साहित्य, सर्वनाम, बया,साक्षात्कार, अक्षरा, काव्यम, समकालीन कविता, दोआब, इंद्रप्रस्थ भारती,आकंठ, उन्नयन, दस्तावेज़, सेतु, कथा समवेत सदानीरा, वागर्थ, अक्षर-पर्व, इत्यादि.
- पत्रिका समावर्तन के “युवा द्वादश” में कविताएं संकलित
- पुरस्कार: वर्ष 2009 में विनय दुबे स्मृति सम्मान
- सम्प्रति: दवा व्यवसाय
- सम्पर्क: 173/1, अलखधाम नगर
- उज्जैन, 456 010, मध्यप्रदेश
- मो.: 98267-32121,94248-50594
- ई-मेल:neelotpal23@gmail.com
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