साहित्य-संस्कृति की त्रैमासिक ई-पत्रिका
'अपनी माटी'
वर्ष-2 ,अंक-15 ,जुलाई-सितम्बर,2014
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चित्रांकन:उत्तमराव क्षीरसागर,बालाघाट |
इस मनभावन वाक्य कल्पना ने जमीन से जुड़ीं हुई सीधी-सरल हकीकत और उमंग को उड़ान दी है, जिसमें एक साधारण-सा मानव दर्शन है, जो बुरे-से-बुरे दिनों में भी अच्छे दिनों की कल्पना और जरुरत को समझता है| कल्पना में भावना हो सकती है, परन्तु जरुरत हकीकत और हकीकत जरुरत को समझती है | अच्छे दिन आएंगे नहीं कहा गया, क्योंकि इसमें मंचीय आश्वासन की-सी अविश्वसनीयता अधिक है| आने वाले हैं में एक निकटवर्ती मोहक आकर्षण और ज़िद का दर्शन दिखता है | इस ह्रदय- उमंग और दर्शन को सपने से भरी भाषा-प्रभावना ने जन-जन के ह्रदय को ऐसा छुआ कि मानों उसकी स्वप्न-अभिलाषा को किसी एक की भाषा ने समझ लिया है |
इन अच्छे दिनों की भाषाई जरुरत, हकीकत ने सिद्ध कर दिया कि भाषा भी वह एक शक्ति है जो ह्रदय को ह्रदय से जोड़ कर रख सकती है | यह ह्रदय-मंत्र किसी एक व्यक्ति विशेष का नहीं है ,किसी एक जाति-पाती, मजहब, सम्प्रदाय का नहीं है, यह सीमित, संकुचित नहीं है और अब रूढ़िबद्ध संकीर्णता भी इसे स्वीकार नहीं | यह सार्वभौमिक मंत्र उस मानव- जरुरत और वक्त की भाषा का है -- जो परम्परागत मान्यताओं को बदलता है, पुरातन ढांचे की चूले हिला देता है, और व्यर्थ के सामयिक लच्छेदार प्रलोभनों को पहचानता है और अब नकारने की शक्ति भी रखता है |यह भाषा इतनी उदारमना और स्वप्नजीवी भी है कि इस अच्छे मुहावरे को गढ़ने के लिए मानवीय शक्ति स्वयं को अब नगण्यता के रूप में नहीं बल्कि लघुता और लघुता से बनने वाली उस गुरुता के रूप में देख सकी कि जिसने यह सिद्ध कर दिया कि अच्छे दिनों का यह मत बहुतो का मत है|
एक वह भी भाषा थी, जिसने गरीबों की दीन-हीन बुरे दिनों की स्थिति को सिरे से नकार कर,चंद रुपए उसकी जेब में होने पर उसे एक ऐसे तराजू पर बैठा दिया, जहाँ से वह गरीब कतई नहीं तोला जा सकता| भाषा की ऐसी अंधी अमीरी हमने देखी है, वही एक ऐसी चिंतनशील भाषा भी थी, जो बोलने में जल्दबाजी तो कभी कर ही नहीं सकती थी परन्तु, इतने गहन मनन में डूब गयी कि उसने मौन, चुप्पी व उदासीनता की नई- नई शब्द-शैलियाँ तैयार कर दी| कभी स्त्री की अस्मिता को उघारती खाप पंचायती भाषा की नग्नता दिखी तो कभी भाषा की एकता को जातीय और मजहबी राजनीतिक चालों के कारण संकीर्णता में भी बदलते भी देखा गया| भाषा की इस मक्कारी, उदासीनता, वीभत्सता व लघुता से प्रथक एक घ्वनि- स्वर- भाषा और वाक्य बना, जो सपने ख़ुशी और इंसानी जज्बे के निकट था |
मानव के निकट पहुंची यह भाषा जब साक्षात्कार में परिणत हुई, तब इसकी उत्तर भावना भाषाई बनावटीपन और तत्काल उत्तर प्रवीणता के चातुर्य के बजाए इसमें एक ऐसी उत्तरदायित्वपूर्ण शैली का निर्वहन दिखा, जिसमे पुरातनपंथी सुनी- सुनाई बचाव, आरोप शैली नहीं है | कांईयापन नहीं,बडबोलापन भी नहीं | और न लम्पटदार बहाव और न अनावश्यक और व्यर्थ का ठहराव | इस बहाव और ठहराव के मध्य उभरती एक ऐसी जबान है, जो मुद्दे की बात सरलता, सटीकता से कहने में विश्वास रखती है | उसमे एक ऐसी तारतम्यता और देसीपन होता है कि, उसमे घर के एक जिम्मेदार बुजुर्ग का- सा अनुभवमय लहज़ा दिखता है, जिसके जवाब सुनने के बाद सामने वाला सोच- समझकर अगला प्रश्न दागता है |
यह भाषा जब राजनीतिक गलियारों से घर- घर तक पहुंची, तब सुनने वालों को ऐसा नहीं लगा कि सोवियतसंघ की कोई रिपोर्ट प्रस्तुत की जा रही है | यह भाषा तथ्यों को भावों में बदलती है और आंकड़ो को मुहावरों में | नेतागिरी की चिरपुरातन शब्दावली से दूर, आश्वासनों से दूर, उलझाऊ बोद्धिकता, जटिलता, दुरुहता से गुरेज करती हुई एक ऐसी सुनहरी भाषा है जिसने सबके दिल- दिमाग में अपनी पैठ बनाई | यह भाषा अपनी नवीनता में प्रहार कर्ताओं के कटाक्ष और व्यंग पर जब लगाम लगाती तब साधारण जन के ह्रदय में एक ऐसे हम्म का भाव उभरता है, मानो अब सुना मन माफ़िक जवाब कि हमारे मुहँ की बात छीन ली हो |
कुसुम सिंह
शोधार्थी- हिंदी विभाग
दिल्ली विश्वविद्यालय
मो-: 9899 020 466
ई-मेल:kusumsinghsolanki@gmail.com
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