साहित्य-संस्कृति की त्रैमासिक ई-पत्रिका
'अपनी माटी'
वर्ष-2 ,अंक-15 ,जुलाई-सितम्बर,2014
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चित्रांकन:उत्तमराव क्षीरसागर,बालाघाट |
डॉ. शंकर शेष के नाटकों में जाति व्यवस्था के नाम पर होने वाले अत्याचारों का
यथार्थ चित्रण हुआ है। भारतीय समाज की छुआछूत जैसी कुप्रथा से संबंधित कई प्रश्न
उठाए हैं।हमारे सभ्य समाज में जाति व्यवस्था आज भी विद्यामान है। आज भी सवर्ण जाति
के लोग मंदिर पर अपना ही वर्चस्व कायम रखना चाहते हैं। और मंदिरों में शूद्र का
प्रवेश मना है,यदि कोई मंदिर में प्रवेश करने का साहस किये तो उसे गाँव से बहिस्कृत दंड दिया
जाता है।इस कथन का प्रमाणबाढ़ का पानी में पंडित और छीतू के संवाद से स्पष्ट होता
है - तुम्हारे बेटे ने जो किया धरम का नाश। पच्चीस हरिजनों को लेकर जो भगवान के
मंदिर में घुस गया भगवान को छू लिया।”
डॉ.शंकर शेष |
डॉ. शंकर शेष ने स्त्री पुरुष संबंधों को गहराई से समझा और अपने नाटकों का
विषय बनाया। स्त्री पुरुष संबंध अस्तित्व पर आधारित है। सामाजिक परिप्रेक्ष्य में
स्त्री पुरुषों के संबंधों का चित्रण पारिवारिक और दैहिक जरूरत के द्वन्द्व से
परिपूर्ण होता है। शंकर शेष के कोमल गाँधार की गांधारी एक तवान ग्रस्त नायिका है।
गाँधारी के जीवन संघर्ष के माध्यम से विवाह जैसे संवेदनात्मक सवालों का स्वार्थी
जवाब ढूढ़ने की मनोवृत्ति को बेनकाब चित्रण किया है।रत्नगर्भ की इला और माया का
जगदीश और सुनील के प्रति संघर्ष समकालीन देश काल में प्रेम भावना जीवन की शक्ति नहीं
अपितु इस्तेमाल करो और फेंक दो जैसी बातों में बदल गया है और उसका उपयोग स्वार्थ
के लिए किया गया एक उदाहरण है। इस का प्रमाण जगदीश और सुनील के इस कथन से स्पष्ट
होता है - किसी का सुन्दर मन लेकर क्या चाटोगे? प्रेम और मन अब 19 वीं शती की बातें हैं
सुनील..... मन से तन की ओर बढ़ रहा है।”
अधिकांश पति-पत्नी तनाव में जीते हैं। रत्नगर्भ में सामाजिक संघर्ष मुख्यतः
पति-पत्नी संबंध के धरातल पर प्रस्तावित हुआ है और मूर्तिकार नाटक में हमारी
सामाजिक व्यवस्था में व्याप्त असंगतियों को शोषक-शोषित वर्ग के शाश्वत संघर्ष के
रूप में रेखांकित किया है।डॉ.शेष के नाटकों में अधिकतर सुखी एवं तनावग्रस्त
दाम्पत्य-जीवन का यथार्थ चित्रण हुआ है।भारतीय पारिवारिक व्यवस्था मूलतः संयुक्त प्रणाली पर आधारित है। परन्तु इस
स्थिति में धीरे धीरे टूटन और तनाव बढ़ता आया है। इस बदलाव के कारण नारी स्वतंत्र
जीवन जीना चाहती है। नारी धीरे धीरे आधुनिक रूप लेते हुए पुराने ढ़ांचे को नकारा
है। इस का प्रमाण रक्तबीजनाटक में देख सकते है जैसे -बास का इस्तेमाल करने के लिए
वह मेरा इस्तेमाल करना चाहता है। तो खतरनाक खेल देखते है कौन किसका पहले इस्तेमाल
करता है।” आधी रात के बादनाटक में शेष जी ने अनैतिकता के विभिन्न पहलुओं की उभारने की
कोशिश किया है।चोर अपराध होने से इनकार नहीं करता, लेकिन वह उस कुलीन समाज के इन
महत्वपूर्ण सेवकों के पाप से घृणा करता है। चोर परिस्थितियों के असहनीय दबाव से
अपराधी बना है।नाटक में चोर तो रोजी रोटी के लिए चोरी करता है। पर लोग अनौतिक ढंग
से रुपये कमाने और छुपाने के लिए कुछ भी करने तैयरा हो बैठे हैं।चोर के माध्यम से
सामाजिक अत्याचार एवं अन्याय की भीषणता की ओर ध्यान आकर्षितक करना ही नाटककार का
मूल उद्धेश्य रहा है। यही चोर का सामाजिक और नैतिक संघर्ष है।
फंदी नाटक के माध्यम से नाटककार डॉ. शेष ने न्याय व्यवस्था पर व्यंग्य करते
नज़र आते हैं। फन्दीनाटक का नायक है और अंततक संघर्षशील औऱ जूझता नज़र आता है।
लेकिन उसकी नियति अनिर्णयात्मक संशय में स्थगित हो जाती है।अपने कैंसर पीडित बाप
के दर्द के मारे अपने बाप के माँगने पर वह उनका गला घोंट देता है। इस कथन के
माध्यम से नाटककार ने पुराने कानूनी व्यवस्था को बदलने की घोषणा की है–कानून यदि स्थिर और
पत्थर की समान जड़ हो जाय तो समाज की बदलती हुई परिस्थितियों में वह न्याय नहीं दे
सकता है।” कानून मनुष्य के लिए है, मनुष्य कानून के लिए नहीं है। इसीलिए कानून हमेशा नई
चुनौतियों को स्वीकरते हुए आगे बढ़ना चाहिए। यहाँ फन्दी का मुकदमा भी इसी तरह की
एक नई चुनौती है।
डॉ.पी.थामस बाबु
पीएच.डी.(हिन्दी)
हैदराबाद विश्वविद्यालय।
ई-मेल:thomasphiliph@gmail.com
प्रकाशित रचनाएं
कोमल गांधार एक अनुशीलन,
समकालीन हिन्दी महिला नाट्य लेखन
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डॉ.शंकर शेष युगचेतना के कलाकार है, इसलिए उनकी रचनाओं में सामाजिक असंगतियों का खुला
चित्रण हुआ है।रत्नगर्भ, रक्तबीज, बाढ़ का पानी, पोस्टर, चेहरे, राक्षस, मूर्तिकार, बाढ़ का पानी, घरौंदा जैसे नाटक सामाजिक यथार्थ
को यथाकथित अनावृत्त करनेवाली रचनाएँ हैं। इन नाटकों में नाटककार ने जहाँ एक ओर
समकालीन मानव की त्रासदी, निराशा औऱ घुटन का यथार्थ वर्णन किया है, वहीं दूसरी ओर सामाजिक
दायित्व का निर्वाह करते हुए मानवता को नए मूल्य और प्रतिमान देने का प्रयास भी
किया है। नाटक की सफलता और सार्थकता उसके मंचन में देखी जा सकती है।
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