साहित्य-संस्कृति की त्रैमासिक ई-पत्रिका
'अपनी माटी'
वर्ष-2 ,अंक-15 ,जुलाई-सितम्बर,2014
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चित्रांकन:उत्तमराव क्षीरसागर,बालाघाट |
भरोसे को कौनसा नाम दूं
विश्वास और आस्था
क्या मौत की संज्ञा
उन रास्तों में
जिनमें हो रही थी हत्याएं
ठिकाना तो तेरे पास भी नहीं था
अपनी मौत से जूझता हुआ
कामयाब हो गया
जैसे-तैसे
खुद को बचाने में
तुम्हारी लाज
वे लोग
जो आए थे
तुमसे मिलने
तुम मिल तो नहीं सके उनसे
केवल दर्शक की तरह
देखते रहे
उनके , जीवन को और मौत के सैलाब में
खोते हुए
उस भयानक समय को
सबने देखा
जिसे तुम रोक नहीं सके
अथवा रोका नहीं
अपनी गंभीर आकृति के साथ
बिना आँसू बहाए
अपनी तीनों आँखों से
सब कुछ भांप कर
भंग की तरंग में
बैठ गए
केदार से किस कैलाश पर
अकाल नहीं बाढ़ नहीं
भूकंप नहीं
भयावहता भी नहीं थी
किसी का आक्रमण भी नहीं था
एक साथ तेरी सहमति के बिना
तेरे ही साम्राज्य और लंबे रास्तें में
किसने किया
हजारों निहत्थों पर यह वज्राघात
उनके बच्चे ढूंढ रहे टूटेफूटे
पत्थरों में अपने पूर्वजों के सुराग
नहीं हुआ अग्नि-दाग
और , न ही जल समाधि
न कर सकेंगे उनका श्राद्व
पहना भी नहीं सकेंगे
उनके चित्र को माला
बड़े पत्थर की ठोकर से
पगडंडी सी सड़कें
आखिर छोर से पहले ही
बन गया वह आखिरी छोर
और बंद हो गए रास्ते
उन तक पहूंचने के
यदि डाल देता अपनी साँस
उधारी ही सही
उनकी रूह में
फिर किसी दिन
अपनी उधारी का हिसाब
कर लेना था मुझसे आकर
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खत की बांहों में
घर के आँगन
हाथों से गिरा
तुम्हारा लम्बा खत
बिना पढ़े ही
बार-बार गिरता रहा
घर के आँगन में
फिर से उठाया
खोलने लगा
गिर पड़ा खुल कर
तुम्हारी तरह
अभी भी रूठी रही तुम
धरती की छाती पर
मैं बैठ गया पर्वत सा
खत की बाहों में
घर के आँगन में
पढ़ने लगा खत ।
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डेढ़ बोतल खून
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डेढ़ बोतल खून
बाबूजी से आधी छुट्टी लेकर
अपना पूरा काम निपटाकर
हथेली पर लिखे पते पर
नंगे पाव ही चली जा रही थी
खुद का माल बेचने ।
लाल माल उसके शरीर के अन्दर
जो था ! सौदा तो पहले ही हो गया
तेज दौड़ दौड़ती
अब तो केवल आपूर्ति करनी थी
डेढ़ बोतल खून ।
डेढ महीने के आटे की जुगत करनी है
इन पैसों से
यह सिलसिला वर्ष में चार बार
यूं ही चलता
डेढ़ बोतल खून का ।
साढे़ अठ्ठारह वर्ष की बेटी
थोड़े ही दिनों में
जान जाएगी डेढ़ बोतल को
और फिर हाथ बंटाएगी
माँ के साथ
डेढ़ से तीन बोतल होगी
दोनों के खून से
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खोजना अपने होने को
कब मिलेगी आजादी
थिरकन है तुम्हारें पांवों में
और ऊर्जा देह में
शिथिल नहीं हो
सम्भलकर चलती हो
कहीं सच यह तो नहीं
कि तुम आजादी चाहती ही नहीं
जकड़ी जा चुकी हो
मेरी बेड़ियों में
मुझे पता है
तुम बंधन को
अपनेपन में बदल चुकी हो
इसमें भी शायद
खोज लेती हो
अपने होने को
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दशकों बाद ही सही
मेरे दिखाये रास्ते पर नहीं
तू खुद चल
राह अपनी
दशकों बाद
सच है यह कि
चल सकती है तू
अपने पांवों को तूने
देखा ही नहीं
देख एक बार
खुद चलकर
चाहता हूँ अब
मैं भी यही
चाहे दशकों बाद ही सही
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मौन से बतकही
आओ बातें करें
पेड़ों से
पत्तों के
मौन से
थोड़ा सहज होकर
कितने सीधे
अनुशासित
अहिंसक
पूरी सृष्टि में
बिना अंहकार से
जन्म-मरण में साथ निभाते
प्राण देते हमें
आओ इनके मौन से
बतियायें !
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जन्म 1962 , बीकानेर
हिन्दी और राजस्थानी भाषा की विविध विधाओं में दो दशक से निरंतर सृजन
प्रकाशित कृतियां: राजस्थान के स्वतंत्रता सेनानी: वैद्य मघाराम ( हिन्दी एवं राजस्थानी ); राजस्थान के स्वतंत्रता सेनानी: रघुवर दयाल गोइल ( जीवनी ), धुँएं की पोशाक ( बाल कथा संग्रह ), हिन्दी काव्य संग्रह ‘‘ सब के साथ मिल जाएगा ’’ ( राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशन सहयोग ) , हिन्दी काव्य संग्रह ‘‘ मौन से बतकही ’’ , उतरा है आकाश ( केन्द्रीय साहित्य अकादमी , नई दिल्ली से पुरस्कृत श्री मालचन्द तिवाड़ी के राजस्थानी कविता संग्रह ‘‘ उतर्यो है आभो ’’ का हिन्दी अनुवाद )
शोध - प्रख्यात् आलोचक डॉ. पुरूषोतम अग्रवाल के मार्गदर्शन में बीकानेर शहर में शांतिपूर्ण सह अस्तित्व की अवधारणा एवं सामाजिक क्रियान्विति के संदर्भ में शोध कार्य
सम्प्रति - साक्षरता एवं सतत शिक्षा विभाग में सहायक परियोजना अधिकारी ( वरिष्ठ )
आवास - तपसी भवन , नत्थूसर बास , बीकानेर-334004,
मो: 9414029687 ,ई-मेल:muktisanstha@gmail.com
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