शोध:बेचैनी के आगे की राह / धूमिल वाया अखिलेश गुप्ता

            साहित्य-संस्कृति की त्रैमासिक ई-पत्रिका           
'अपनी माटी'
          वर्ष-2 ,अंक-15 ,जुलाई-सितम्बर,2014                        
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"मगर समय गवाह है
                   बेचैनी के आगे भी राह है"    धूमिल

           
चित्रांकन:उत्तमराव क्षीरसागर,बालाघाट 
धूमिल की कविता जंगल से शहर तक की यात्रा करती हुई प्रतीत होती है जिसमें वह लगातार प्रत्यक्ष अनुभव के नये-नये पृष्ठों को पलटते समय जनमानस में व्याप्त वर्गभेद, हिंसा, विसंगतियों, अभावों, स्वार्थ-प्रेरित राजनीतिक दुरभिसंधियों से साक्षात्कार करती है। इसीलिए, "उसे मालूम है कि शब्दों के पीछे/ कितने चेहरे नंगे हो चुके हैं/ और हत्या अब लोगों की रुचि नहीं--/ आदत बन चुकी है।"1 और यह बहुत पहले की बात नहीं बल्कि उसी युग की ही बात है जब उसके गाँव में मानव से इतर कोई पशु भी यदि दर्द से तड़पता रहा होता है तब पूरा गाँव उससे व्यथित हो जाता था। लेकिन अब हालात यह है कि उसे राजनीतिक षड़यंत्र के कारण अपनी कविता मालूम पड़ती है कि यह :

             "घेराव में
              किसी बौखलाये हुए आदमी का
              संक्षिप्त एकालाप है"2 (कविता : संसद से सड़क तक)
           
            पंजाबी कवि पाश भी सत्तर के दौरान मरियम किसलर द्वारा संस्कृति की खोज विषय पर पी-एच.डी. कर रही गोरी नसल की छोरी से हमारी संस्कृति के नष्ट होने का जिम्मेदार उन्हें ही (लंदन) मानते हुए कहता है :

             "तुम हमारी संस्कृति की खोज का स्वाँग छोड़ दो
              आधी दिल्ली वैसे भी हिप्पियों के लिए स्वीकृत है"3

             और आज आलम यह है कि :
             "अब तो मेरा भारत मिट्टी की चिड़िया है
              अब तो हमारे पुरखों के कंठे से लेकर
              गुरुओं-पीरों के शस्त्र तक
              लंदन के अजायबघर की शोभा हैं"4 (संस्कृति की खोज : पाश)
           
            दोनों उसी वक्त भारतीय जन-मानस के लिए प्रतिबद्ध होकर संस्कृति के ह्रास के कारण को अलग-अलग ढंग से सिद्ध कर रहे होते हैं। और यह महज हवा-हवाई बातें न होकर अनुभव-सिद्ध बातें हैं। इसीलिए दोनों ही बेबाक वक्तव्य देने में समर्थ हैं। बक़ौल पंजाबी कवि पाश कहते हैं :

             "आप लोहे की चमक में चुँधियाकर
              अपनी बेटी को बीवी समझ सकते हैं,
              (लेकिन) मैं लोहे की आँख से
              दोस्तों के मुखौटे पहने दुश्मन
              भी पहचान सकता हूँ
              क्योंकि मैंने लोहा खाया है
              आप लोहे की बात करते हो।"5 (लोहा : पाश)
           
            धूमिल भी इसी बात का समर्थन करते हैं :

             "लोहे का स्वाद
             लोहार से मत पूछो
             उस घोड़े से पूछो
             जिसके मुँह में लगाम है।"6       (धूमिल की अंतिम कविता : कल सुनना मुझे)

             इस कविता का उत्स राजशेखर धूमिल की जीवन में घटित हुए प्रसंग को मानते हैं : "कलकत्ता में परिचितों का सहयोग न पाकर, वह लोहा ढोने का काम करने लगा। तभी शायद मृत्यु से पूर्व वह अपने अंतिम अक्षरों में"7 इसे बता सका। धूमिल और पाश दोनों की मानसिक बुनावट का जायजा लेते हुए कवियों की पृथ्वी में अरविन्द त्रिपाठी पाश की कविता का तापमान शीर्षक पर यह निष्कर्ष प्रस्तुत करते हैं : "दोनों में वही गुस्सा क्षोभ और एक खास तरह का तनाव जिससे नाराज आदमी प्राय: समाज में फब्तियां कसता है। पर इसके बावजूद धूमिल और पाश में एक मौलिक भेद है। पाश आवेश नियंत्रित कवि हैं। वे अपने आवेश को विद्रोह और क्रांति के रास्ते से होकर सृजन तक पहुँचाते हैं और कविता को नयी दिशा देते हैं। वे एक साथ स्वप्न और क्रांति दोनों के कवि हैं, उनमें क्षोभ है तो प्रेम भी है, गुस्सा है तो हमदर्दी भी। पर धूमिल में सिर्फ गुस्सा है, तोड़-फोड़ है और अंतत: उन्हीं के शब्दों में कहा जाए तो उनकी कविता  ‘कठघरे में खड़े एक बौखलाए हुए व्यक्ति का संक्षिप्त एकालाप है। जबकि पाश की कविता में क्रांति और प्रेम दोनों हैं।"8

            पाश की कविता का तापमानका अंदाजा तो इसी से लगाया जा सकता था। लेकिन पाश की कविता के तापमान को और विस्तृत ढंग से बतलाने के लिए वे धूमिल की कविताओं को धूमिल करने से भी नहीं हिचकते। इसी से आगे कहते हैं : "शायद धूमिल की ही देखा-देखी हिन्दी की नयी पीढ़ी के कुछ रोमांटिक कवियों ने एक नाराज नवयुवक की मुद्रा ओढ़कर ऐसी कविताएं लिखने की जिद ठान ली है कि प्रेम कविताओं को देश निकाला दे दिया जाए और बदले में नकली क्रांति की तलवारें भांजती कविताओं से समाज को बदलने का ठेका ले लिया जाए। कभी-कभी लगता है कि ऐसे कवियों का जीवन के सृजन में कोई विश्वास नहीं। वे अक्सर छात्र राजनीति के शिकार हो गए युवा लगते हैं, जो प्राय: दूसरों के कहने से अपनी राजनीतिक दिशा तय करते हैं।”9 उनके तापमान का आंकलन करने के लिए 100 डिग्री सेल्सियस भी संभवत: कम लग रही थी जिसके कारण यह भूल कर बैठे। लेकिन यह हिसाब न लगा सके कि इससे अधिक के तापमान पर पानी अब पानी नहीं रह जाता बल्कि उड़ कर आसमान में अदृश्य हो जाता है। फिर कहाँ तापमान और कहाँ पानी केवल बर्तन गर्माते रहिए।
           
            समकालीन हिन्दी कविता में सातवां दशक एक ऐसा समय था जब वह राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक प्राय: सभी क्षेत्र में एक तनावपूर्ण अराजक परिस्थिति के दौर में गुजर रही थी और आपात्काल की एक पृष्ठभूमि तैयार कर रही थी तब वह समाज में घटित हो रही ऐसी घटनाओं के प्रत्येक पहलुओं पर क्यों? कैसे? और किसलिये? को जानने के अपने उत्तरदायित्व से भाग कैसे सकती थी। चाहे इस क्षेत्र में कोई और साथ दे अथवा न दे। धूमिल के लिये कविता सिर्फ शब्दों की बिसात नहीं/ वाणी की आँख है जो अनुभव के नये-नये पृष्ठों पर/ भाषा के समर्थन में बूँदें गिरती हैं इसीलिए उसे भक्तिकालीन कबीर की तरह अकेले प्रतिकार करने के एवज में कठघरे में खड़े कर दिया गया। लेकिन उसे मालूम है :

             "जवानी जब भी फैसले लेती है
              गुस्सा जब भी सही जनून से उभड़ता है
              हम साहस के एक नये तेवर से परिचित होते हैं
              तब हमें आग के लिए
              दूसरा नाम ढूढ़ना नहीं पड़ता है।"10  (आतिश के अनार सी वह लड़की : कल सुनना मुझे)

            जनता के लिए उसकी प्रतिबद्धता सिनेमाई शो देखने के दौरान उफान मारती हुई देशभक्ति जनित वह आवेग नहीं है जो कि सिनेमा-घर से बाहर बुलबुले की तरह फट जाए। अनुभव जनित प्रतिबद्धता में गुस्सा क्षोभ एवं तनाव का होना स्वाभाविक है । इसी कारण वह क्रूर और अमानवीय होती व्यवस्था के मेननब्ज़ की शिनाख्त कर पाने में सफल हो सका :

             "मैंने जब भी उनसे कहा है देश शासन और राशन...
              उन्होंने मुझे टोक दिया है।
              अक्सर, वे मुझे अपराध के असली मुकाम पर
              अंगुली रखने से मना करते हैं।"11                  (अकाल दर्शन : संसद से सड़क तक)

            और इसी कारण व्यवस्था उसी पर काबिज़ होने लगी। और यह उसकी प्रश्नानुकूलता ही है कि इसके बावजूद भी इस क्रूर होती अमानवीय व्यवस्था के विरोध में वह सवाल पर सवाल करता रहा :

             "वह कौन-सा प्रजातांत्रिक नुस्खा है
              कि जिस उम्र में
              मेरी माँ का चेहरा
              झुर्रियों की झोली बन गया है
              उसी उम्र में मेरे पड़ोस की महिला
              के चेहरे पर
              मेरी प्रेमिका के चेहरे-सा
              लोच है।"12                                     (अकाल दर्शन : संसद से सड़क तक)

            यह उसके कवि-कर्म की सक्रियता ही है कि एक नये युग के सृजन के लिए वह “बूढ़ों को बीते हुए का दर्प और बच्चों को विरोधी/ चमड़े का मुहावरा सिखा रहा”13 है। देश की अनपढ़ जनता को ‘प्रौढ़ शिक्षा’ में उनकी सरलता का लाभ उठा रहे ‘सुराजी दलों’ की बदनीयत का पर्दाफाश करता है। और उन्हीं के देशज बतकही मुहावरेदार शैली के माध्यम से प्रतिरोध का स्वर भर देने को आतुर है :

            “इसीलिए मैं फिर कहता हूँ कि हर हाथ में
             गीली मिट्टी की तरह--हाँ--हाँ--मत करो
             तनो
             अकड़ो
             अमरबोलि की तरह मत जिओ,
             जड़ पकड़ो”14                                (प्रौढ़ शिक्षा : संसद से सड़क तक)

             भारत की प्रजातांत्रिक और दफ्तरशाही संस्कृति प्रधान समाज में वह जनता से सीधे-सीधे संवाद करने को महत्व देने का पक्षधर है। जिसका मूलाधार तर्क है। इसीलिए बकौल धूमिल का कहना है ’इस वक्त सचाई को जानना/ विरोध में होना है।’ मुहावरे-सी लगने वाली यह बात कोई मामूली नहीं हो सकती। क्योंकि राजनीति के ऐसे क्रूरतम पक्षों को जानकर कोई भी सरल आदमी असहज महसूस करने लगता है। फिर भी वह व्यवस्था परिवर्तन के लिए आतुर हो उठता है लेकिन देखता है कि उसका यह उतावलापन ’जनमत की चढ़ी हुई नदी में एक सड़े हुए काठ की तरह साबित हो रहा है। न प्रजा उसे समझ रही है और न प्रजातंत्र। अंग्रेजी के 8 अक्षर जैसी स्थिति हो गई है, दोनों ओर से डमरू-सा बजा दिया गया है। जनता द्वारा हकाल दिये जाने का कारण है :

             "सुनो !
              आज मैं तुम्हें वह सत्य बतलाता हूँ
              जिसके आगे हर सच्चाई
              छोटी है । इस दुनिया में
              भूखे आदमी का सबसे बड़ा तर्क
              रोटी है।"15                                                  (पटकथा : संसद से सड़क तक)

            वहीं दूसरी ओर मत-वर्षा के दादुर शोर में,
              "मंत्री जब प्रजा के सामने आता है
               तो पहले से
               कुछ ज्यादा मुस्कराता है
                नये-नये वादे करता है
                और यह सब सिर्फ घास के
                सामने होने की मजबूरी है
                वर्ना उस भलेमानुस को
              यह भी पता नहीं है कि विधानसभा-भवन
              और अपने निजी बिस्तर के बीच
              कितने जूतों की दूरी है।"16                         (पटकथा : संसद से सड़क तक)

            इसी कारण किंकर्तव्यविमूढ़ हो अवसाद से घिरकर वह कह उठता है,

             "नहीं-अपना कोई हमदर्द
              यहाँ नहीं है । मैंने एक-एक को
              परख लिया है ।
              मैंने हरेक को आवाज़ दी है
              हरेक का दरवाजा खटखटाया है
               मगर बेकार...। मैंने जिसकी पूँछ
               उठाई है उसको मादा
               पाया है।"17                                         (पटकथा : संसद से सड़क तक)

            क्या ऐसी अवस्था न रही होगी? जब मोहम्मद इब्राहिम ज़ौक़ कहता है ‘अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जायेंगे/ मर के भी चैन न पाया तो किधर जायेंगे लेकिन ऐसी परिस्थियों में भी पंजाबी कवि पाश आहत नहीं होता बल्कि दुगुने उत्साह से वह जोश भरने का काम करता है। इसी से उसकी कविता उच्चतर भाव के प्लॉट’ में स्थान पा सकी है,

              "हम लड़ेंगे साथी, उदास मौसम के लिए
              हम लड़ेंगे साथी, गुलाम इच्छाओं के लिए
              हम चुनेंगे साथी, जिंदगी के टुकड़े
              **** हम लड़ेंगे
              कि लड़ने के बगैर कुछ भी नहीं मिलता"18  (हम लड़ेंगे साथी/ संपूर्ण कविताएं : पाश)

            लेकिन कविता में प्रेम की कमी के कारण धूमिल जैसे परिचित चेहरे को तत्सम शब्द की तरह अपरिचित कर देना मूल्याँकन का कैसा पैमाना है? जबकि दोनों ही ’श्री काकुलम, लोहा’, अलंकारों के ओवरकोट पहने लोग’, और संस्कृति’ आदि पर समान रूप से कलम चला रहे होते हैं। और धूमिल के सामने तो प्यार को पहले पेट की आग से होकर गुजरना पड़ता था जहाँ अभाव के कारण, "पहले उसे थाली खाती है/ फिर वह रोटी खाता है"19 और पुन: रोटी की जुगत में एक पुराने साइकिल में दफ्तर जाता है लेकिन,
            "सहसा चौरस्ते पर जली लाल बत्ती जब
              एक दर्द हौले से हिरदै को हूल गया
              ऐसी क्या हड़बड़ी कि जल्दी में पत्नी को
              चूमना--
               देखो, फिर भूल गया।"20                     (किस्सा जनतंत्र : कल सुनना मुझे)

            डॉ. परमानंद श्रीवास्तव की आलोचना शुद्ध कविता के विरोध में’ धूमिल का उचित मूल्यांकन करते हैं, "अधिक से अधिक क्रूर और अमानवीय होती व्यवस्था के विरूद्ध कविता को एक प्रकार के नैतिक हस्तक्षेप का माध्यम बनाते हुए धूमिल ने अपना एक खास मुहावरा विकसित किया जिसका ऐतिहासिक महत्व है। धूमिल के बारे में यह कहना अतिरंजना नहीं माना जाएगा कि उन्होंने अपने समय को शब्द दिये। पहले से प्राप्त मुहावरे में, भाषा या काव्यभाषा में इतना बड़ा परिवर्तन लाने के लिए केवल साहस नहीं, नया काव्यात्मक विवेक भी अपेक्षित है। धूमिल इस काव्यात्मक विवेक का निश्चित प्रमाण देते हैं।"21 यह उसके गहन समाज-दर्शन का ही प्रतिफलन है जिससे वह संसद में भी रोटी से खेलने वाले तीसरे व्यक्ति को प्रश्नांकित करने से नहीं चूकता। धूमिल की भाषा के संदर्भ में विद्यानिवास मिश्र की उक्ति सटीक लगती है, "धूमिल की भाषा लड़ाई की भाषा है जरूर, पर इस लड़ाई में अकेलेपन की एक विथा है, क्योंकि धूमिल नकली लड़ाईयों के खिलाफ हैं, वे हर नकलीपन के ख़िलाफ हैं-

            चुटकुलों सी घूमती लड़कियों के स्तन
             नकली हैं, नकली  हैं युवकों के दाँत ।"22

            और वीरता की प्रशंसा करने से नहीं कतराते :
            "और ओ प्यारी लड़की!
             कल तू जहाँ आतिश के अनार की तरह फूटकर
             बिखर गई है ठीक वहीं से हम
             आजादी की वर्षगाँठ का जश्न शुरू करते हैं।"23 (आतिश के अनार से वह लड़की : धूमिल) 

मरणोत्तर धूमिल : एक कथा-यात्रा में राजशेखर द्वारा लिखी गई प्रसंग है- जब कलकत्ता की एक व्यवसायिक फर्म मेसर्स तलवार ब्रदर्स प्राइवेट लिमिटेड’ में, धूमिल पासिंग आफिसर’ के रूप में कार्यरत थे। "अपनी इस नौकरी के दौरान-जब वह बीमार होकर, चारपाई पर पड़ा था। कम्पनी के मालिक मि. तलवार ने, उसे ट्रंकाल द्वारा तत्काल मोतीहारी से गोहाटी जाने का आदेश दिया। धूमिल ने मि. तलवार को बताया कि "मैं अस्वस्थ हूँ।"

            इस पर क्रुद्ध होकर मि. तलवार ने कहा- "I am paying for my work, not for your
health."
            प्रत्युत्तर में धूमिल ने हथौड़े की तरह चोट करते हुए कहा- "But I am working for my health, not for your work."

            
अखिलेश गुप्ता,
हिंदी-विभाग,
डॉ.हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर,
म.प्र.-470003, मो.8085913848 , 
ई-मेल : akhilesh.src@gmail.com
और इसके बाद वह चार सौ पचास रुपये माहवार की नौकरी, ६ पैसे प्रति घन फुट कमीशन, सारे टी.ए., डी.ए. पर लात मार कर- सीधे घर चला आया। स्वाभिमान व्यक्तिगत ईमानदारी का आदिम पर्याय है। धूमिल इस मामले में बहुत आगे था। आत्महीनता के विरुद्ध उसका अनवरत संघर्ष इस बात का साक्षी है।"24 (मरणोत्तर धूमिल : एक कथा यात्रा) आत्मगौरव का जो भाव स्वतंत्रता के समय जगा था वह शनै: शनै: टटपुंजिये राजनेताओं के षड़यंत्र से समाप्त होता चला जा रहा था और आलम यहाँ तक पहुँच गया कि जिसमें रही-सही भी आत्मगौरव हो वह इनके द्वारा पीठ ठोंककर गायब कर दिया जाता रहा। इसलिए आजादी से मोहभंग की जो स्थिति मुक्तिबोध की रचनाओं में प्रकट हो रही थी-

            "सपनों की आँतें सब
             चीरी गईं, फाड़ी गईं,
             बाकी सब खोल है
             ज़िंदगी में झोल है"25 (चांद का मुह टेढ़ा है : मुक्तिबोध) 

            धूमिल में यह अपने प्रखरतम रूप में पहुँच गई और अब वह आजादी के प्रतीक पर भी प्रश्न करने लगी। अनुभव की ऐसी बारिश में भींगकर वह कविता को जंगल से ढोते हुए जनता तक पहुँचा देता है। अत: कविता ऐसी जनप्रतिबद्धता से निखर उठी,

            "सहना ही जीवन है जीवन का जीवन से द्वन्द है
             मेरी हरियाली में मिट्टी की करुणा का छन्द है"26 (बारिस में भींग कर : कल सुनना मुझे)

       संदर्भ ग्रंथ सूची : 
1. संसद से सड़क तक/ धूमिल/ राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., दिल्ली/ प्रथम संस्करण :
       1972/ पृ. 9
2. वही/ पृ. 10
3. संपूर्ण कविताएँ : पाश/ संपादक तथा अनु. : चमनलाल/ आधार प्रकाशन पंचकूला/
       प्रथम पेपरबैक्स संस्करण  : 2011/ पृ. 59
4. वही/ पृ. 60
5. वही/ पृ. 40
6. कल सुनना मुझे : धूमिल/ संपादन : राजशेखर/ युगबोध प्रकाशन वाराणसी/ प्रथम
    संस्करण : 1977/ पृ. 80
7. वही/ पृ. 12
8. कवियों की पृथ्वी/ अरविन्द त्रिपाठी/ आधार प्रकाशन, पंचकूला/ प्रथम संस्करण :
       2004/ पृ. 55-56
9. वही/ पृ. 56
10. कल सुनना मुझे : धूमिल/ संपादन : राजशेखर/ युगबोध प्रकाशन वाराणसी/ प्रथम
      संस्करण : 1977/ पृ. 22
11. संसद से सड़क तक/ धूमिल/ राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., दिल्ली/ प्रथम संस्करण :
      1972/ पृ. 19
12. वही/ पृ. 20
13. वही/ पृ. 27
14. वही/ पृ. 53
15. वही/ पृ. 124-25
16. वही/ पृ. 137
17. वही/ पृ. 138
18. संपूर्ण कविताएँ : पाश/ संपादक तथा अनु. : चमनलाल/ आधार प्रकाशन पंचकूला/
       प्रथम पेपरबैक्स संस्करण : 2011/ पृ. 90-91
19. कल सुनना मुझे : धूमिल/ संपादन : राजशेखर/ युगबोध प्रकाशन वाराणसी/ प्रथम
       संस्करण : 1977/ पृ. 17
20. वही/ पृ. 18
21. समकालीन कविता का यथार्थ/ डॉ. परमानंद श्रीवास्तव/ हरियाणा साहित्य
       अकादमी चण्डीगढ़/ प्रथम संस्करण : 1988/ पृ.122
22. कल सुनना मुझे : धूमिल/ संपादन : राजशेखर/ युगबोध प्रकाशन वाराणसी/ प्रथम
       संस्करण : 1977/  प्रस्तावना (घ)
23. वही/ पृ. 24
24. वही/ पृ. 14
25. गजानन मा. मुक्तिबोध : प्रतिनिधि कविताएँ/ सं. : अशोक वाजपेयी/ राजकमल
       पेपरबैक्स नई दिल्ली/ चौथा संस्करण : 1991/ पृ. 105
26. कल सुनना मुझे : धूमिल/ संपादन : राजशेखर/ युगबोध प्रकाशन वाराणसी/ प्रथम
       संस्करण : 1977/ पृ. 43

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