साहित्य-संस्कृति की त्रैमासिक ई-पत्रिका
'अपनी माटी'
वर्ष-2 ,अंक-15 ,जुलाई-सितम्बर,2014
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चित्रांकन:उत्तमराव क्षीरसागर,बालाघाट |
सर्वप्रथम समालोचक को साहित्य का सहृदय पाठक होना होगा
अन्यथा कृति का मर्म पीछा करना एवं कृति की संवेदना की अनुभूति करना बहुत कठिन है।
हिन्दी के डॉ. अरुण होता, प्रो. बलराज पाण्डेय,
प्रो. जगदीस्वर चतुर्वेदी, श्री शिवराचसिंह चौहान, अमरजीत कौंके, श्री अरुण कुमार, प्रो. श्रीप्रकाश शुक्ल, प्रो. वेदरमन, देवेन्द्रनाथ शुक्ल, डॉ. सत्यप्रकाश तिवारी आदि
समालोचकें स्रष्टा सम्मत होने के कारण ये लोग संवेदनशील एवं सृजन परिक्रिया के
ज्ञाता भी हैं और इसी से समालोचक मेँ सकारात्मक प्रभाव देखने को मिलता है। दूसरे तरफ
समालोचक ही स्रष्टा होने के कारण अन्य स्रष्टा एवं कृति के मूल्यांकन मेँ स्पष्टता
न होना या पूर्वाग्रह भी सक्त है। इसके लिए समालोचक हमेसा अपनी नैतिकता, ईमानदारी तथा
तटस्थता की आधारभूमि तैयार करने की कोसिस करता है।
हिन्दी समालोचना मेँ कतिपय कृति के मूल्यांकन को न समझकर या
क्षणिक प्रभाव मेँ पर कर भी आलोचना करते हुए देखे जाते हैं और इसी वजह से समालोचना
मेँ गाली-गलौज करने वाला वातावरण का सृजन होता है।
................................. के बारे मेँ मूल्यांकन को इसी संदर्भ मेँ देखा
जा सकता है।
ज़्यादातर समालोचक पाठक की रुचि, स्तर
एवं समालोचना की प्रक्रिया से वास्ता न रखकर अपने विद्वत्ता प्रदर्शन मे ही अत्यंत
क्लिष्ट होकर समालोचना करते हुए देखा जाता है जिससे उनका पुनः समालोचना करने की
आवश्यकता हो जाती है और ऐसा होना समालोचक के आत्म सम्मोहन के कारण उत्पन्न ऋणात्मक
पक्ष है। इस प्रथा के कारण समालोचकों के बौद्धिक विकास मात्र बनने का डर बना रहता
है। किसी भी गहन विषय को सरल भाषा मेँ समझा पाना ही सफल समालोचक का लक्षण होने के
कारण व्यक्तिगत आग्रह का त्याग कर समालोचना करना आवश्यक है।
समालोचक द्वारा अपने संकीर्ण विचार को किसी भी कृति पर
लादने की प्रवृति के कारण कतिपय युवा रचनाकार लोखन से विचलित होते जा रहे है। साधारणतः
व्यक्तिगत अहम, अनावश्यक तर्क, जबर्दस्ती वैचारिक आग्रह
एवं अज्ञानता के कारण ऐसे समस्याओं का जन्म होता है। आज प्रचल यह है कि प्रगतिवादी
साहित्यकारों मेँ भी ऐसे संकीर्ण प्रवृतियों बढ़ते हुए देखा जा रहा है पर
प्रगतिवादी विचार को नहीं स्वीकारने वाले ऐसे
संकुचित मानसिकता वाले समालोचकों को बदलना ही होगा। आज के युग में हिन्दी साहित्य
में निरंकुश एवं एकाधिकारवादी समालोचक होने के कारण नए युवा साहित्यकारों के विविध
विचारों को कैसे परिस्कृत एवं उजागर होने के लिए कौन पथ दर्शन करेगा?
एक समालोचक न्यायाधीश की तरह न्यायकर्ता तो है पर उसमे किसी
को कठिन सजा देने का अधिकार नहीं है और समालोचक रूपी न्यायाधीश को ऐसे प्रक्रिया को
अपनाना भी उचित नहीं है। वह सुधार के उपाय बता सकता है पर स्रष्टा या रचनाकार से
द्वेष बढ़ाने वाले या निराश करने वाले कठोर शब्दों का प्रयोग करके साहित्य का
हितैसी नहीं हो सकता है। हिन्दी साहित्य में एक स्रष्टा द्वारा समालोचना मेँ अपने
प्रतिबिंब को देखने की कमी है। मेरे विचार से एक समझदार समालोचक द्वारा मूल्यहीन
कृति के ऊपर कलम नहीं चलना ही ठीक है।
साहित्य जगत में अधिकांश हिन्दी समालोचकों द्वारा अग्रगामी
साहित्यकारों का उदारपूर्वक सम्मान करते नहीं देखा जा रहा है। सौन्दर्य का अर्थ ‘नवीनता’ है इसे पहले के आलोचको को समझना होगा। वही विचार,
वही शैली, वैसे ही विषय एवं रचना से साहित्य आगे नहीं बढ़
सकता, आपको नए जमाने के नए धारा मेँ आना होगा और नए साहित्य
की मुख्य धारा मेँ आकर नए सोंच के साथ चर्चा करना होगा एवं नवीनता के लिए वातावरण
बनाने मेँ मदद करना होगा।
समालोचना में ज़्यादातर प्राध्यापन पेसागत प्रतिभा से जुड़ा
होता है जिससे केवल पाठ्यक्रम में होने वाले कृतियों को विध्यार्थी के लिए
व्याख्या कर सहज ढंग से मात्र विश्लेषण करने की प्रवृति जन्म ले रही है। बिना
क्षमता के एक संरचना अनुकरण कर जबर्दस्ती समालोचना करना अत्यंत प्रत्युत्पादक हो
सकता है। हिन्दी समालोचना में पाठकों के संख्या में कमी होने के कारण भी इस प्रथा
ने प्रश्रय पाया है। इस प्रारूप को रोकने के लिए प्राध्यापक तथा पाठकों को एक ही
मंच देकर वैचारिक विमर्श में संलग्न करना जरूरी है।
समालोचक का काम विवरण सूची या उदाहरण देना मात्र न होकर
उसका विश्लेषण करते हुए औचित्य का पुष्टि कर सौन्दर्य का निष्कर्ष देना है। भाषा
एवं साहित्यिक कला के सहसंबंध को दिखा न सकना भी समालोचना को अर्थहीन बना देता है। इस पर
अंकुश लगाने के लिए बौद्धिक विलास या प्राज्ञिक क्रियाकलाप का मात्र हाथ न थाम
सामाजिक अंतक्रिया के रूप में सही समालोचना के विकास को विकास के पाथ पर अग्रसर करना
होगा।
संस्कृत समालोचना को हिन्दी में आधार मानकर अंतर विषयक
बनाने में असमर्थ एवं कुछ कृत्रिम शब्द वर्गीकरण प्रधान एवं बौद्धिक विलास को
प्राथमिकता देने वाले दिशा की तरफ चलकर समसामयिक आलोचनात्मक पद्धति को सक्षम बनाने
में असमर्थ दिखाई देता है। पाश्चात्य समालोचना की पद्धति का प्रयोग कर अधिकांशतः
हिन्दी साहित्य को हूबहू उसी में फिट करने की कोशिश हिन्दी समालोचक की मौलिकता में
बारम्बार प्रश्न चिन्ह उठाते रहा है। इसे कम करने के लिए अन्य संदर्भ को सहयोगी
बनाकर हिन्दी कृतियों से विश्लेषण का प्रारूप तैयार करना जरूरी है।
समावेशिता को आधार बनाकर सीमांकृत वर्ग, लिंग, क्षेत्र, जाति, भाषा आदि को
साहित्य मे उठाना अलग बात है पर उत्तरआधुनिकता के साहित्य,
भाषा, इतिहास, सौन्दर्य की मान्यता एवं
मूल्यांकन में कीचड़ उड़ाना एवं अव्यवस्था उत्पन्न करने को ही समालोचना मानने वाले
समालोचक में गैरजिम्मेवार प्रवृति भी दिखाई पड़ता है। इसी से हिन्दी साहित्य की
पाठनशीलता में समालोचना एवं स्रष्टा का योगदान साहित्यिक समालोचना को परिस्कृत कर
सकता है। आक्रोश एवं ध्वंस कभी भी समालोचना का साध्य नहीं हो सकता है।
आपसी लेनदेन में लाभ या व्यक्तिगत सान्निध्य के आधार पर
समर्थन, प्रशंसा करके या लांछन लगाकर या फिर राजनीतिक गुट-उपगुट बनाने
वाली समालोचक होना दुर्भाग्यपूर्ण है। साहित्य सृजन में एक-दूसरे पर शंका, अविश्वास सिर्जना करना है और स्रष्टा तथा समालोचक दोनों को कुंठित करता
है और ऐसे असंतुलन ने नए साहित्य एवं सैद्धान्तिक विमर्श के मुहाना को अवरुद्ध
करता है।
हिन्दी समालोचकें समालोचना के न्यूनतम सिद्धान्त एवं तत्वों
को पूरा न कर समालोचना के नामपर हमेशा एक ही प्रकार के परेशान करने वाले लेख लिखते
हुए देखा जाता है। असल समालोचना के लिए चार प्रकार के पक्ष अनिवार्य होते हैं – ‘मूल्य
निर्णय, व्याख्या-विश्लेषण,
सैद्धांतिकरण एवं शोधपरकता’। दूसरे के अध्याय से पर्याप्त
सामग्री लेकर उसका उल्लेख संदर्भ के रूप में नहीं कर पाने की कायरता समालोचक को
सोभा नहीं देता। खुद को ज्ञान का मूल स्रोत ठान कर अपने लेखन में उसी शैली, पद्धति एवं सिद्धांतों का पुनरावृति कर अपने लेखनी में मौलिकता नहीं दे
पाना समालोचक का व्यर्थ ही अभिमान है। इस प्रवृति को हटा कर समालोचक में दूसरे की
बातें पढ़ने, दूसरों को स्वीकारना एवं ज्ञान को परंपरा के
निरंतरता के रूप में समझने की क्षमता, धैर्य एवं उदारता के
साथ सृजना करना होगा अन्यथा उसका समालोचना कच्चे आम की तरह ही होगा।
समकालीन साहित्यिक कृतियों के मूल्यांकन में समालोचकों
द्वारा कम महत्व देते हुए देखा जाता है। अध्ययन ‘अप-टू-डेट’ न हो पाने पर या नए के इंतजार करने की क्षमता न होने पर भी समकालीन
रचनाओं का तिरस्कार करने की समस्याएँ आती है। समालोचक को भी सैद्धान्तिक आधार, विभिन्न धारा के दृष्टिकोण तथा उदार ग्रहनशीलता की उचित वातावरण का भी
अभाव है। इसी कारण समालोचना द्वारा सृजना प्रबोधित, संशोधित
या परिष्कृत होने का क्रम शिथिल होकर प्राज्ञिकता ही शुष्क होने लगा है। इस प्रकार
पाठक में साहित्य के प्रति विश्वास जगाया नहीं जा सकता है।
रचयिताएँ अधीर हैं, इसलिए वें लोग अपने कृति की
प्रशंसापरक ढंग से तुरंत ही समालोचना होते देखना चाहते हैं। ऐसे न होने पर
समालोचना को मृत घोषित करना या समालोचक ही नहीं है यह कहना उनके लिए सहज है।
उपयुक्त प्रतिभा या कृति से भी खुद ही मात्र पुरस्कार, चर्चा
एवं ‘ग्लेमर’ हथियाने के लिए गलत
प्रक्रिया अपनाने की प्रवृति को हमे निरुत्साहित करना होगा।
इन समस्याओं से मुक्ति के लिए हिन्दी समालोचक को समकालीन
साहित्य के प्रति सचेत दृष्टिकोण की बहुलता स्वीकार करना तथा साहित्य के
सैद्धान्तिक, व्यावहारिक एवं अग्रगामी पक्षों में स्पष्ट होना आवश्यक है।
सच्चे समालोचक को हरेक प्रकार के कृति के प्रति व्यापक एवं सकारात्मक दृष्टिकोण
रखना होगा।
संदर्भ ग्रंथ:-
1. हिंदी साहित्य : बीसवीं शताब्दी
- नंददुलारे वाजपेयी
2. नया साहित्य : नए प्रश्न -
नंददुलारे वाजपेयी
3. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल : आलोचना
के नये मानदण्ड - लेखक - भावदेव पाण्डेय
4. समकालीन हिंदी साहित्य
के सतरंगी बिंब – डॉ. अरुण होता
5. सांस्कृतिक संकट और हिन्दी कहानी
– डॉ.
सत्यप्रकाश तिवारी
डॉ.मो.मजीद मिया
अध्यापक,पोस्ट-बागीदौरा,
दार्जिलिंग,पश्चिमी बंगाल-734014,
मो-9733153487,ई-मेल:khan.mazid13 @yahoo.com
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