साहित्य-संस्कृति की त्रैमासिक ई-पत्रिका
'अपनी माटी'
वर्ष-2 ,अंक-15 ,जुलाई-सितम्बर,2014
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स्वप्न
की टूटी सिलन
पात
झुलसा है दिवस भर
रात
भर सुलगी पवन
टीसते
पल-छिन विरह में
मावसी
होती किरन
भाव
के व्याकुल चितेरे
यूँ
सजाते अल्पना
रूप
की मादक छुअन से
है
किलकती कल्पना
आहटों
के दर्प बोझिल
स्वप्न
की टूटी सिलन
हलचलों
में अर्थ ढूँढें
थम
गईं पगडंडियाँ
शब्द
आवारा भटकते
बुन
रहे हैं किरचियाँ
ढल
रही इस साँझ के
बिम्ब
देते हैं चुभन
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सो
गए सन्दर्भ तो सब मुँह अँधेरे
सो
गए सन्दर्भ तो सब
मुँह-अँधेरे
पर
कथा
अब
व्यर्थ की बनने लगी है
गौढ़
होते
व्याकरण
के प्रश्न सारे
रात
भाषा
इस तरह गढ़ने लगी है
संकुचन
यूँ मानसिक
औ
भाव ऐसे
नीम
गमलों
में सिमटकर रह गई है
भित्तियों
की
इन
दरारों के अलावा
ठौर
पीपल को
कहाँ
अब रह गई है
बरगदों
के बोनसाई
हैं
विवश से
धूप
में
हर
देह अब तपने लगी है
व्योम
तो माना
सदा
ही है अपरिमित
खिड़कियों
के सींखचे
अनजान
लेकिन
है
धरा-नभ के मिलन का
दृश्य
अनुपम
चौखटों
को कब हुआ
आभास
लेकिन
ओस
से ही
प्यास
को अपनी बुझाने
यह
लता
मुंडेर
पर चढ़ने लगी है
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लालसा कनेर कोई
दायरों
के
इस
घने से संकुचन में
अब
कहाँ वह
नीम
या कनेर कोई
जेठ
से तपते हुए
ये
प्रश्न सारे
ढूँढ़ते
हैं
पीत
सा कनेर कोई
राह
का हर आचरण
अब
पत्थरों सा
ओस
की बूँदें गिरीं
घायल
हुई थीं
इन
पठारों को
कहाँ
आभास होगा
जो
शिराएँ बीज की
आहत
हुई थीं
अब
हवा भी खोजती है
वह
किनारा
हो
जहाँ पर
लाल-सा
कनेर कोई
अब
बवंडर रेत के
उठने
लगे हैं
आँख
में मारीचिका
फिर
भी पली है
पाँव
धँसते हैं
दरकती
हैं जमीनें
आस
हर अब
ठूँठ
सी होती खड़ी है
दृश्य
से ओझल हुए हैं
रंग
सारे
काश
होता
श्वेत
सा कनेर कोई
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ढूँढती
नीड़ अपना
ढूँढती
है एक चिड़िया
इस
शहर में नीड़ अपना
आज
उजड़ा वह बसेरा
जिसमें
बुनती रोज सपना
छाँव
बरगद सी नहीं है
थम
गया है पात पीपल
ताल, पोखर, कूप सूना
अब
नहीं वह नीर शीतल
किरचियाँ
चुभती हवा में
टूटता
बल, क्षीण पखना
कुछ
विवश सा राह तकता
आज
दिहरी एक दीपक
चरमराती
भित्तियाँ हैं
चाटती
है नींव दीमक
आज
पग मायूस, ठिठके
जो
फुदकते रोज अँगना
भीड़
है हर ओर लेकिन
पथ
अपरिचित, साथ छूटा
इस
नगर के शोर में अब
नेह
का हर बंध टूटा
खोजती
है एक कोना
फिर
बनाए ठौर अपना
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मछली
सोच-विचार कर रही
मछली
सोच-विचार
कर रही
आखिर
आँख
बचाऊँ कैसे
राज-सभा के बीच
फँसी
अब
नियति
चक्र
के बीच टँगी है
दुर्योधन
के हाथ
तीर
हैं
नोक
तीर की
जहर
पगी है
पार्थ
निहत्था
खड़ा
है चिंतित
राज-सभा में जाऊँ कैसे
चौसर
की
यूँ
बिछी बिसातें
खाना-खाना
कुटिल
दाँव है
दुशासन
की
खिली
हैं बाँछें
ठगा
हुआ हर लोक
गाँव
है
वासुदेव
भी
सोच
रहे हैं
आखिर
पीर
मिटाऊँ कैसे
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लेखन विधाएँ- छंद, छंदमुक्त, गीत, सॉनेट, ग़ज़ल आदि
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अन्य साहित्यिक गतिविधियाँ- पत्र-पत्रिकायें जिन्होंने मुझे प्रकाशन योग्य समझा- निर्झर टाइम्स में नियमित प्रकाशन; वारिस ए अवध, लखनऊ उर्दू अखबार में गजलें व लेख प्रकाशित; जन माध्यम, लखनऊ में रचनायें व लेख प्रकाशित; उजेषा टाइम्स, मासिक पत्रिका में नियमित प्रकाशित।‘अनुभूति एवं अभिव्यक्ति’, ‘नव्या’, ‘पूर्वाभास’, ‘नवगीत की पाठशाला’, ‘प्रयास’, ‘गर्भनाल’आदि ई-पत्रिकाओं में रचनायें प्रकाशित
बहुत सुंदर नवगीत हैं आ.श्री ब्रजेश नीरज जी !
जवाब देंहटाएंभीड़ है हर ओर लेकिन
पथ अपरिचित, साथ छूटा
इस नगर के शोर में अब
नेह का हर बंध टूटा …… सामयिक हालातों का चित्र उकेरता वर्णन !
बहुत खूब, उम्दा लेखन
पवन भाई आपका हार्दिक आभार!
हटाएंभीड़ है हर ओर लेकिन
जवाब देंहटाएंपथ अपरिचित, साथ छूटा
इस नगर के शोर में अब
नेह का हर बंध टूटा
खोजती है एक कोना
फिर बनाए ठौर अपना...............बहुत सुन्दर
सादर बधाई
आदरणीया मीना जी आपका हार्दिक आभार!
हटाएंसुन्दर, बहुत सुन्दर नवगीत !!
जवाब देंहटाएंआपका हार्दिक आभार!
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