शोध:भारतीय नारी और वैयक्तिक मूल्यों की स्थिति/डॉ. ऋतु त्यागी

            साहित्य-संस्कृति की त्रैमासिक ई-पत्रिका           
'अपनी माटी'
          वर्ष-2 ,अंक-15 ,जुलाई-सितम्बर,2014                       
==============================================================

चित्रांकन:उत्तमराव क्षीरसागर,बालाघाट 
नारी सदा से समाज की मुखा पेक्षी रही है। वह पितृसत्तात्मक व्यवस्था के सम्मोहन में सदियों तक बँधी रही। समाज के निर्णयों मूल्यों - मर्यादाओं में ढली-पगी यह नारी व्यवस्था के खोल में सिमटी रही। समाज मूल्यों के नाम पर उसे नैतिकता के पाठ पढ़ाता रहा और वह इन्हें मूक भाव से पढ़ती रही । किसी व्यक्ति या वर्ग का दूसरे व्यक्ति या वर्ग की अस्मिता पर उसकी सहमति के बिना हस्तक्षेप को वर्चस्व की संज्ञा दी जा सकती है। वर्चस्व का यह रूप राजनैतिक आर्थिक, बौद्धिक, और नैतिक हो सकता है। नारी के संदर्भ में भी स्थिति ऐसी ही रही। नारी को पुरूष ने उन समस्त गतिविधियों से दूर रखा जो उसकी चेतना का वर्द्धन कर सकते थे- ‘‘इस सम्भावना को पूर्णतया खारिज़ नहीं किया जा सकता कि किसी काल विशेष में स्त्रियाँ संयोगवश और स्वाभाविक तौर पर अपने जैविक व्याकरण के अनुरूप गृहस्थी के उन्हीं कार्यकलापो में शरीक हुई हो, जो कालान्तर में उन्हें हाशिए पर रखने के शाश्वत कारण बन गए हों तथा शिकार करना, युद्ध, राजनैतिक तथा धार्मिक गतिविधियों का सम्पादन जो कालक्रम में अपेक्षाकृत ज्यादा महत्व के समझे गए, उन्हें पुरुषों ने अख्तियार कर लिया हो।(1) आरम्भ में कार्याें का यह विभाजन दोनों की सहमति से बना होगा जो कालान्तर में नारी पर आरोपित हो गया। इस प्रकार नारी ‘‘घर की चहारदीवारी में एक बार सिमटी तो सिमटती चली गई तथा उन सुविधाओं से वंचित होती चली गई, जो उन्हें इस दायरे से बाहर जाने में प्राप्त हुई होती।(2)

नारी को गुलाम बनाने वाले यह मूल्य शनैः शनैः सामाजिक मूल्यों में सम्मिलित होते चले गए। नारी की पारम्परिक भूमिकाओं को न्यायसंगत ठहराया जाने लगा क्योंकि सामान्यतः नारी को प्रकृति और पुरूष को संस्कृति के सन्दर्भ में देखे जाने की प्रवृत्ति है- ‘‘स्त्रियों को प्रकृति की संज्ञा देने का खेल मूल्य बोध और सामाजिक मानदण्डों का है। जैसे हमारे मूल्यबोध और मानदण्ड होंगे उसी अनुरूप हमारा समाज होगा।...........जब स्त्रियाँ पुरूषों के लिए व्रत रखने लगे तथा पति सेवा मूल्य और आदर्श बन जाऐ तो हुक्मपरस्ती का शाश्वत रूप धारण करना स्वाभाविक है।(3) किन्तु स्त्री चूँकि चेतन है अतः वह प्रकृति के समान नहीं हो सकती कारण प्रकृति में भाव-बोध का न होना। नारी पर सामाजिक मूल्यों का यह आरोपण उसमें चेतना का प्रस्फुटन नहीं कर पाता । लेकिन कोई भी स्थिति चिर स्थायी नहीं होती। समय का बदलता चक्र और नारी की समग्र शक्ति उसकी चेतना के प्रस्फुटन का कारण बन गई। अभी तक नारी कृत्रिम नैतिक मूल्यों के प्रति मोहग्रस्त थी जिससे उसकी तार्किकता निष्क्रिय हो चली थी ।

स्वतत्रता से पूर्व भारतीय नारी पुरूष से राजनैतिक स्थिति में हीन थी किन्तु संविधान निर्माण के साथ वह पुरूषों के समकक्ष आ खड़ी हुई है ‘‘आजादी के बाद भारतीय संविधान के प्रावधानों में मताधिकार और अन्य राजनैतिक अधिकारों में स्पष्टतः इनके प्रति कोई भेदभाव नहीं रखा गया है जबकि जनतन्त्र के प्रतिनिधि यूरोपीय देशों में स्त्रियों को ये संवैधानिक अधिकार हाल तक नहीं दिये गए थे।(4) ‘‘भारत में नारी को राजनैतिक अधिकार तो प्राप्त हो गए। लेकिन नारी समाज द्वारा उस पर लगाये गए नैतिक बन्धनों के भार से दबी रही है। ‘‘मनुष्य के लिए सबसे महत्वपूर्ण उसकी विश्वदृष्टि एवं उसका जीवन दृष्टिकोण होता है। उसके बाद राजनैतिक चेतना की बारी आती है और फिर सारे मूल्यबोध बनते हैं। सभी प्रकार के वर्चस्व और सत्रा के प्रति संशय तथा सत्ता पायदानों की शृंखला में ऊँचे से ऊँचे पायदान को प्राप्त करने की स्त्रियों की ललक जीवन दृष्टिकोण में परिवर्तन का परिणाम है।(5) ‘‘व्यक्तिगत स्वतन्त्रता वैयक्तिक मूल्यों के अनुसार जीवनयापन की प्रथम शर्त है और इस प्रक्रिया में- ‘‘शिक्षा, जागृति, स्वतन्त्रता आंदोलन और बदलती स्थितियों में अपने आपको पहचानने  की कोशिश कर रही थी, अपने होने और सामाजिक नियति के प्रति जागरूक हो रही थी।(6)‘‘वह बाहर की दुनिया से सीधे सम्पर्क स्थापित नहीं कर सकती थी और न ही कोई पुरूष मित्र बना सकती थी- ‘‘घर की लक्ष्मण रेखाऐं लाँघे जाने पर उसके लिए सिर्फ हत्या आत्महत्या और वेश्यालय ही थे......... लेकिन उन दिनों एक और आवाज़ भी बार-बार उसकी चेतना के दरवाजे पर दस्तक दे रही थी और वह थी राष्ट्रीय आन्दोलन के उभार की आवाज़।(7) 

‘‘सामन्ती व्यवस्था में व्यक्ति प्रमुख नहीं होता केवल संस्था और व्यवस्था होती है। नारी के साथ भी ठीक यही स्थिति थी। पति उसके लिए स्वामी या परमेश्वर था और यह समाज का एक मूल्य ही था जिससे नारी का जीवन संचालित होता था अपनी इसी सामाजिक स्थिति के कारण नारी ऐसे मूल्यों से घिरी रही जिन्होंने- ’’सदियों की गुलामी, सामाजिक स्थिति और असुरक्षा में बने रहने से नारी को सारे आत्मविश्वास को छीन लिया है। उसे अपने होने और बनने की हर स्थिति में पुरूष की स्वीकृति समर्थन चाहिए।(8)’’पर निर्भरता के इस वातावरण से नारी में जो वैयक्तिक मूल्य जन्मे वह थे- ‘‘आर्थिक और सामाजिक निर्भरता के माहौल में नारी होने की व्यर्थता, अर्थहीनता और खोखलेपन का अभिशाप सम्बन्धों के झूठे पड़ते जाने का दंश.........फिर परिचित दुनिया में लौट आने या अपरिचित शून्य में छलांग लगाने वाली आत्महत्याएँ।(9) 

‘‘हमारी व्यवस्था जो सामन्ती आधार पर विकसित हुई है वह यथास्थितिवाद को बनाए रखने में विश्वास रखती है। जो जहाँ है वह वहीं रहकर अपने कर्त्तव्यों का पालन करता रहे । कथाकार संपादक राजेन्द्र यादव ने इस सामन्ती व्यवस्था को पिरामिड के आकार की बताते हुए कहा कि ‘‘सामन्ती व्यवस्था पिरामिड के आकार में ऊपर से नीचे की ओर फैलती है। हर पत्थर और ढोके का कर्तव्य है कि वह जहाँ है वहीं स्थिर रहकर शीर्ष को साधें रहे।.......वर्ना यह शीर्ष के प्रति विश्वासघात है।..........यहाँ सारी मूल्य संहित और व्यवस्था की बनावट यही है। जो ईंट अपने कर्तव्य या धर्म से जरा भी हिलती या ऊपर जाने की कोशिश करती है वह या तो तोड़ दी जाती है या बेकार करार देकर फेंक दी जाती है।(10)

‘‘नारी ने जब-जब इस व्यवस्था से बाहर निकलने का प्रयास किया। तब-तब उसके प्रयास को या तो तोड़ दिया गया या व्यर्थता का नाम देकर फेंक दिया गया। इस प्रकार नारी सामन्ती मूल्यों के प्रति निष्ठा निभाती हुई जीवन व्यतीत करती रही। समाज के आन्तरिक विद्रोह समाज के मूल्यों को बदल नहीं पाए । ‘‘स्वतन्त्रता के बाद राजनैतिक अधिकारों की प्राप्ति के साथ देह के नाम पर परतन्त्रता को भोगती नारी देह के नाम पर स्वतन्त्रता की ओर अभिमुख हो गई। उदारी करण, बाजारवाद, भूमण्डलीकरण ने भारतीय नारी की छवि और स्थिति दोनों को बदल दिया। वह वैयक्तिक ढंग से सोचने-समझने और निर्धारण करने की स्थिति में आ गई। आज नारी के पास ‘‘सदी के अन्त में दूसरे छोर पर आ खडी वह स्त्री जिसकी स्वाधानता के प्रमाण आस-पास चारों ओर बिखरे ही पड़े है- आर्थिक आत्मनिर्भरता व्यावसायिक उपलब्धियाँ सूचना संचार माध्यमों पर स्त्री छवियोें का आधिपव्य, सौन्दर्य उद्योग का चमकीला संसार और स्वेच्छा से संबंधो का चुनाव।(11) 

डॅा. ऋतु त्यागी 
पताः 45, ग्रेटर गंगा, गंगानगर,
मवाना  रोड, मेरठ
मो. 9411904088
ई-मेलः ritu.tyagi108@gmail.com
‘‘लेकिन यह जो उपलब्धि है वह विशिष्ट नारी ने प्राप्त की है। इस नारी ने व्यवस्था से जो पाया है वह अपने साहस के चलते ही पाया है...’’शिक्षा का अधिकार, आर्थिक आत्मनिर्भरता, सम्पत्ति में साझेदारी और सत्ता की सम्भाव्य भागीदारी।(12) ‘‘इन सब अधिकारों  को लेकर नारी स्वाधीन होने को अनुभव को अनुभूत कर सकती है। ये समस्त अधिकार पाने के क्रम में नारी वैयक्तिक हुई। वैयक्तिकता का यह अधिकार नारी को सर्वप्रथम अपनी देह को अपने अधिकार में लेकर चलने से हुआ। ’’अन्ततः कहा जा सकता है कि भारतीस नारी के वैयक्तिक मूल्य सामाजिक मूल्यों की छत्र-छाया में सिमटे रहे है। स्त्रीत्व, शीला, पातिव्रत, मातृत्व आदि ये वैयक्तिक मूल्य पाश्चात्य नारीवादी आंदोलनों और नारी की आर्थिक आत्मनिर्भरता से दरकने लगे हैं। देह के नाम पर परतन्त्र की गई नारी ने अपनी स्वतन्त्रता का हथियार भी इसे बना डाला। आज की चेतना सम्पन्न नारी वैचारिक सम्पर्क, सांस्कृतिक संगति और सूचना माध्यमों से जिन मूल्यों को ग्रहण कर रही है उन्हें वह इस प्रकार अभिव्यक्ति देती है- ‘‘आत्मनिर्णय के अधिकार का अर्थ होगा ऐसी स्वतन्त्रता जिसमें सुरक्षित एक जीवन अविवाहित दाम्पत्य अथवा लिव इन सम्बन्ध अविवाहित मातृत्व या विवाहके भीतर भी मातृत्व से इन्कार का अधिकार अनचाहे दाम्पत्य से बाहर निकल आने की सुविधा, एकाधिक विवाह या मनचाहे प्रेम प्रसंगो और सम्बन्धों के स्वच्छंद जीवन जैसे चुनावों की निर्वाधता हो।‘‘

सन्दर्भ:- 

1. रसात्मक जिजीविषा और स्त्री विमर्श-रामचन्द्र ओझा हंस (अक्षर प्रकाशन फरवरी 2003   पृ 53)
2. उपरिवत्
3. उपरिवत् पृ. 54
4. उपरिवत्
5. उपरिवत्
6. आदमी की निगाह में औरत-राजेन्द्र यादव राज कमल प्रकाशन 2001 पृ. 117
7. उपरिवत्
8. उपरिवत् पृ. 112
9. उपरिवत् पृ. 113
10. उपरिवत् पृ. 20
11. बन्द गलियों के विरूद्ध-संपादन-मृणाल पांण्डे/क्षमा शर्मा स्त्री का भविष्य अर्चना वर्मा     पृ. 46
12. उपरिवत् पृ. 47
13. सशक्तिकरण पिछली सदी के स्वप्न का आगामी यथार्थ-अर्चना वर्मा-वागर्थ सितम्बर 2000 पृ. 162

Post a Comment

और नया पुराने