साहित्य-संस्कृति की त्रैमासिक ई-पत्रिका
'अपनी माटी'
वर्ष-2 ,अंक-15 ,जुलाई-सितम्बर,2014
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यादें
1
सूखी शाख से विलग पत्रों की चरचराहट
बूंदों से भीगे गीतों की गूंज लगती
यदि
चेहरों के आकार में गिरते जमीं पर
उनमें एक चेहरा तुम्हारा होता
भीगी यादों से चिपका हुआ तरोताजा
2
इंद्रधनुष के रंग
नाव बन गए
बूंदें हुई हैं सवार
हवाओं का दामन थाम बादल
तुम्हारी यादों के पतवार चला रहे
छूट रहे पीछे पहाड़
मगर...
दुखों का क्षितिज वहीं थमा
जमीं तेजी से घूम रही है क्यों ...
3
पगडंडी
तुम्हारी यादों से बनी
कदम कदम
... मंजिल ...
कभी होती नदी
कभी नागफनी के झुरमुट
नंगे पांव भी
तुम्हारी यादों का पीछा कर रहे
4
अक्सर जगमगाता
यादों का महल
सांझ गीत गाती
झोंका कोई जब
दर ओ’ झरोखे ...
... लांघ जाता
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विद्रूप
बरगद हो और तुममें कोटर भी असंख्य
छांव भी घनी
... मगर...
हमारे घरों से दूर न होते तो...
सच... पीपल की भांति
जरूर पूजते तुम्हें
हम और हमारे परिवार की स्त्रियां
कितना विदू्रप है दायरा
छांव में घिरा बंधा अंधेरा
कोटर में छटपटाता हीरामन
इतना विद्रूप कि...
तुम्हारी काली-सी छाया में पंचायतें भी
हलधर का बैल बिकवा कर
छीन लेती अबोध का भविष्य
बताओ तो जरा...
अपनी छत्र छाया में
तुम किसी को पनपाते क्यों नहीं
शापित... काश तुम बरगद-सा इंसान न होते
मोहन थानवी
संस्थापक अध्यक्ष,
विश्वास वाचनालय
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