संपादकीय:नन्ही चिरइन पर बीती का

            साहित्य-संस्कृति की त्रैमासिक ई-पत्रिका           
'अपनी माटी'
          वर्ष-2 ,अंक-15 ,जुलाई-सितम्बर,2014                       
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चित्रांकन:उत्तमराव क्षीरसागर,बालाघाट 
अगस्त आता है तो मुल्क का मिज़ाज  ज़रा देश भक्त होने लगता है और हर एक दिल का लाल किला भी उसी ख़ुमार से वाबस्ता होकर ज़रा सजने संवरने लगता है। चूंकि हम ठहरे किस्सागो तो मुल्क के मिज़ाज  में अपना मिज़ाज  कभी फ़ना होता है कभी सुर्ख़रू। गोया किस्सागो तो ख़ुदा भी है और ख़ाक भी। ख़ैर मुझे तो अभी  ये लफ़्फ़ाज़ी छोड़नी पड़ेगी और मुद्दे पे आना पड़ेगा क्योंकि हम  सियासत वाले तो हैं नहीं कि लफ़्फ़ाज़ी से ज़िन्दगी गुलज़ार कर लेंगे। पिछले दिनों दिनेश  त्रिपाठी  जी ने जन कवि बंशीधर शुक्ल की कविताओं पर केंद्रित पुस्तक भेजी तो उनकी एक कविता ने जैसे देश भक्ति के  सुर को थोड़ा और अनूठा कर दिया। उन्होंने लिखा था :

"राम और रहमान की यादें भी होतीं हैं कभी 
किन्तु दिल हर वक़्त यह गाता है वंदे मातरम "

आजकल जब दिल को देश भक्त  होने के लिए भी कोई अवसर ही प्रेरित करता है तब सोचता हूँ वो दौर कैसा रहा होगा जब दिल हर वक़्त वन्दे मातरम गाता होगा। जनकवि बंशीधर शुक्ल ग़ुलाम भारत में पैदा हुए और उन्होंने आज़ादी की लड़ाई में अपने गीतों को अपना हथियार बनाया। वे ऐसे कवि थे जिनका एक गीत " उठ जाग मुसाफ़िर भोर भई अब रैन कहां जो सोवत है "  गांधी जी की प्रार्थना सभा में गाया जाता था तो दूसरा गीत " कदम कदम बढ़ाये जा , ख़ुशी के गीत गाये जा , ये ज़िंदगी है कौम की तू कौम पे लुटाये जा " सुभाष बाबू की आज़ाद हिन्द फ़ौज़ गाती थी। अब दौर बदल गया है आजकल साहित्य में ऐसी बयार चल रही है कि हवा से भी पूछ लिया जाता है कि तुम वाम हो या दक्षिण ? ऐसे में वे कविताएँ और कवि दुर्लभ हो चले हैं जिनकी बंसी बाजे तो ब्रज चौरासी झूम उठे। अब तो कविता हो या कहानी या साहित्य का कोई और उजाला , सब के सब जात  बताकर पंगत में जीमने बैठते हैं। न जाने क्यों साहित्यकार इतना विवश हो गया है कि उसे कलम से अधिक भरोसा गुटबाजों पर है। वैसे यह पहले भी रहा है और शायद भविष्य में भी यह जारी रहेगा लेकिन हर दौर में कोई न कोई आज़ाद कलम नज़र आती रहे तो भरोसा पूरी तरह टूटने से बच जाता है । बंशीधर शुक्ल जी ने आज़ादी के बाद कई बार सत्ता को चुनौती दी उन्हें अंग्रेजों ने भी जेल भेजा और आज़ाद भारत में भी वे जेल गए लेकिन उनकी कलम कभी ग़ुलाम नहीं हुई। 

अशोक जमनानी
इन दिनों देश का मिज़ाज  ज़रा बड़ी बड़ी ख़्वाहिशों का दामन थामे हुए है पर जब आज़ादी के तराने गाने का मौसम है और दिल हरियाली का दीदार करना चाहता है तो क्या आधे से अधिक सूख चुके हिन्दुस्तानी सपनों की  चिंता भी हमें उतनी ही शिद्दत से  नहीं करनी चाहिये ? विकास के बड़े प्रतिमान गढ़ने वालों को सलाम लेकिन बंशीधर शुक्ल की कविता भी याद करता चलूं 

" हम हरी डाल के पत्ता हन पतझारन ते घबराई का
हमका दुःख हइ तो इतना  हइ नन्ही चिरइन पर बीती का "




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