त्रैमासिक ई-पत्रिका 'अपनी माटी' (ISSN 2322-0724 Apni Maati), वर्ष-2, अंक-16, अक्टूबर-दिसंबर, 2014
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अकेला होना
हिल गया हूँ
दृश्य में
लौट कर
पीछे
छूटती सड़क
पर
फिर
अचानक- पेड़
घिरती आ रही है शाम.
-पक्षी है?
कि कोई अनखुली सी गाँठ?
सोचता हूँ मैं अकेला-
इस समूचे खेल में यह दृश्य है क्या शह
या फिर हमारी मात
इतना पास अपने कि बस धुंध में हूँ
गिर गए सारे पराजित-पत्र
वृक्ष-साधु
और चीलें, हतप्रभ
“हो कहाँ अब लौट आओ”- सुन रहा अपनी पुकारें
आवाज़ एक अंधा कुआं है, जल नहीं जिसमें बरस हैं
बस
जो गया- वह मृत्यु था
जो नया, वह बचा है - जल
सुन रहा अपनी पुकारें मैं निरंतर-
दोगे किन्हें
ये पुराने स्वप्न-
अपने बाद, यायावर ?
हवा नहीं, फिर भी चला हूँ
खो चुके अक्षर पुराने, शब्द सारे गुम
हूँ नहीं उस दृश्य में, फिर भी नया हूँ
कैसा ये संसार हमारे हृदयों को छीलता सा
मोड़ से पुकारता कोई हमारा नाम
क्या हमारे थे चेहरे
जो चल कर साथ आये कौन से थे वे लोग जो बिसरा दिए
एक घड़ी उलटी अब निरंतर
चल रही है
क्या समय है यह या कि कोई प्रश्न
याद नहीं रह गए पाठ
पुराने पहाड़े
धुंध गहरी-
और….. मदरसा बंद !
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वही पत्थर
हां, वही
पत्थर
जो कभी टूटता था महाकवि
के हृदय पर
मैं भी शमशेर बहादुर सिंह के पत्थर को थोड़ा बहुत जानता हूँ
अगर एक कवि हूँ –
जानना ही चाहिए मुझे अन्य को भी अपनी ही तरह
अगर महाकवि होने की आकांक्षा में हूँ तो
अब तक कभी का टूट जाना था
पहले
शमशेर बहादुर सिंह से पहले वही पत्थर
मेरे हृदय पर
आदरेय हेमंत शेष जी ,
जवाब देंहटाएंसादर वन्दन!
मैंने अभी-अभी आपकी चार कविताएँ-'अकेला, इतना पासअपने, हवा नहीं फिर भी चला हूँ और वही पत्थर'पढ़ी हैं.शब्द-शब्द मूर्तिवत तराशा हुआ.सबमें प्राणप्रतिष्ठा ऐसी कि लगता है जैसे अभी बोलने ही वाले हैं वे अबोले दुधमुंहे शब्द.
चारों कविताओं में कलात्मक उत्कृष्टता समान रूप में .हर शब्द सधा,बंधा.सबके सब नपे-तुले. सजग इतने कि कुछ कहा नहीं कि बोल पड़ेंगे उत्तर में .अपने अर्थ के संपूर्ण देवत्त्व के साथ देंगे मन चाहा सार्थक आशीष .
सहज मानवीय मूल्य कवि को आकृष्ट ही नहीं करते वह उन्हें अपनाए रखना चाहता है.उन्हें अपनाने की जितनी चाह उसमें है उससे कहीं अधिक उनके खोने की चिंता- ''जो चल कर साथ आये कौन से थे वे लोग जो बिसरा दिए
एक घड़ी उलटी अब निरंतर चल रही है."
मूल्यों के क्षरण पर कवि की टूटन उसे सघन रूप से संवेदित करती है.वह टूटता है-
"अगर महाकवि होने की आकांक्षा में हूँ तो
अब तक कभी का टूट जाना था
पहले
शमशेर बहादुर सिंह से पहले वही पत्थर
मेरे हृदय पर ."
यह टूटन हर महाकवि में रही है .अतः कवि अपने पूर्ववर्तियों के काव्य मूल्यों के साथ अपनी काव्य यात्रा जारी रखने में विश्वास रखता है.मूल्यों की परंपरा के संवाहक कवि हेमंत शेष को हार्दिक बधाई!
आपका
गुणशेखर
(डॉ.गंगा प्रसाद शर्मा),
प्रोफेसर(हिंदी),
भारतीय भाषा,संस्कृति एवं दर्शन विभाग,
गुआंगदोंग वैदेशिक भाषा विश्वविद्यालय ,गुआन्ग्ज़ाऊ,चीन.
फोन-००८६२०३६२०४३८५.
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