शोध:जन चेतना और आँचलिक यथार्थ के कथा शिल्पी: मार्कण्डेय/डॉ.चमन लाल शर्मा

त्रैमासिक ई-पत्रिका 'अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati)वर्ष-2, अंक-16, अक्टूबर-दिसंबर, 2014
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छायाकार:ज़ैनुल आबेदीन
प्रसिद्ध आंँचलिक कथाकार रामदरश मिश्र के कथन से अगर मैं अपनी बात शुरू करूँ तो आँचलिक कथा साहित्य में अंचल अपनी सम्पूर्ण विविधता और समग्रता के साथ नायक होता है। अंचल के जीवन की सारी परम्पराओं, ऐतिहासिक प्रगतियों, शक्तियों, अभिव्यक्तियों, छवियों, अछवियों को लेखक जितनी अधिक सच्चाई से पकड़ता है, आँचलिक जीवन के चित्रण में वह उतना ही सफल होता है। आँचलिक कथाकार जनपद विशेष के जीवन के बीच वहाँ के पात्रों, समस्याओं, सम्बन्धों, वहाँ के प्राकृतिक और सामाजिक परिवेश के समग्र रूपों, परम्पराओं और संस्कृतियों को अंकित कर सकता है, क्योंकि उसने उन्हें अनुभूति में उतारा है। श्री रामदरश मिश्र ने आँचलिक कथा साहित्य को ह्नदय में कसमसाती हुई किसी प्रदेश की जीवनानुभूति को वाणी देने का अनिवार्य प्रयास माना है।1

दरअसल प्रत्येक अंचल का भौगोलिक, सामाजिक वातावरण दूसरे अंचलों से अपने आप को अलगाता भी है और विशिष्ट सन्दर्भ भी देता है। भौगोलिक भिन्नता एक ओर अंचल विशेष की आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक गतिविधियों को जन्म देती है तो दूसरी ओर  सांस्कृतिक एवं धार्मिक वातावरण में अलगाव भी पैदा करती है। किसी क्षेत्र या अंचल विशेष के जन जीवन का अध्ययन अथवा चित्रांकन, जो उसकी सम्पूर्ण क्षेत्रीयता को प्रतिपादित करता है, हम आँचलिकता कह सकते हैं और अंचल के भौगोलिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक सीमाबद्ध क्षेत्र विशेष के सामान्य जीवन सत्यों को निरूपित करना ही आँचलिक रचनाओं का लक्ष्य है। इसलिए अंचल विशेष की अनदेखी, छवियों को हमारे सामने उजागर करने का श्रेय आंचलिक कथाकार को जाता है। आँचलिक कथा साहित्यकार दूसरे लेखकों से भिन्न इसलिए भी होता है, क्योंकि अंचल विशेष के जन-जीवन को बाहरी-भीतरी आघातों से होने वाले बदलाव एवं परिवर्तन को स्वीकारते हुए ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक रूपान्तरण की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है और आँचलिक कथा साहित्यकारों को उस सम्पूर्ण परिवेश की इन्हीं संष्लिष्ट समस्याओं से जूझना पड़़ता है।2

हिन्दी के आँचलिक कथा साहित्य की विगत पैंसठ सत्तर वर्षाें की यात्रा वस्तुतः सामाजिक प्रसंगों एवं युग यथार्थ के गहरे जुड़ाव के प्रगतिशील तत्वों के साथ आगे बढ़ी है। हिन्दी के कुछ समीक्षक आँचलिक कथा साहित्य का प्रारंभ शिवपूजन सहाय के उपन्यास ’देहाती दुनिया’  सन् 1925 से मानते हैं, वस्तुतः इस उपन्यास में शिवपूजन सहाय ने ग्रामीण जीवन के संघर्ष, शोषण, अत्याचार को तो बखूबी चित्रित किया है पर समग्र परिवेश को आँचलिक सन्दर्भाें में प्रस्तुत नहीं किया गया है। संभवतः लेखक का मकसद भी आँचलिक उपन्यास की सृष्टि करना नहीं है, जैसा कि उन्होंने स्वयं स्वीकार भी किया है- ’’मैं ठेठ देहात का रहने वाला हूँ। वहाँ इस युग की नई सभ्यता का बहुत ही धुँधला प्रकाश पहुँचा ह,ै वहाँ केवल दो ही चीज़ें प्रत्यक्ष देखने में आती हैं, अज्ञानता का घोर अंधकार और दरिद्रता का ताण्डव नृत्य। वहीं पर मैंने जो कुछ स्वयं देखा, सुना है, उसे यथाशक्ति ज्यों का त्यों इसमें अंकित कर दिया है।’’3 इतना ज़रूर है कि इस उपन्यास को आँचलिक कथा साहित्य का पहला प्रयास कहा जा सकता है।

वस्तुतः साहित्य की सोद्देश्यता उसके समाज सापेक्ष होने में ही है। प्रेमचन्द ने साहित्य को समाज से जोड़ते हुए यथार्थवादी परम्परा का सूत्रपात किया, उनकी जन पक्षधरता की ठोस परम्परा को कुछ विशिष्ट सन्दर्भ प्रदान करते हुए मार्कण्डेय आंचलिक कथाकार के रूप में अपनी एक अलग पहचान स्थापित करते हैं। मार्कण्डेय की जनसमाज से गहरी सम्पृक्ति रही है और प्रगतिशील दृष्टि होने के कारण सामाजिक पक्षधरता उनके कथा साहित्य की विशेषता रही है। मानव जीवन के यथार्थ दृश्य का चित्रण आँचलिक कथा साहित्य में रहता है। मनुष्य अपने सम्पूर्ण वैशिष्ट्य के बावजूद अपने परिवेश से प्रभावित होता है, इसलिए उसका सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक जीवन परिवेश से भी परिचालित होता है। सम्म्भवतः इसीलिए मार्कण्डेय ने अपनी रचनाओं में परिवेश को उतनी ही तत्परता के साथ प्रस्तुत किया है। यह भी सच है कि अंचल को अंचल बनाने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका भौगोलिक परिवेश की होती है। क्योंकि वही उसे विशिष्ट व्यक्तित्व प्रदान करता है तथा सामान्य सामाजिक जीवन से भिन्न करता है।4 भौगोलिक वातावरण का निर्माण प्राकृतिक परिवेश से भी होता है। आंचलिक कथा साहित्य में इस प्रकार प्राकृतिक स्थितियों, परिस्थितियों के यथार्थ रेखांकन से वहाँ के विशिष्ट भू-क्षेत्र की समग्रता को स्पष्ट किया जाता है जिससे आंचलिकता के निर्माण में सहायता मिलती है।

मार्कण्डेय की आँचलिक  कथा रचनाओं में प्रकृति चित्रण की विशिष्ट चित्रात्कता है जिससे जीवन की गहरी अनुभवशीलता का अहसास होता है। जैसे- “मुराद के कंधे पर श्यामा का पूरा शरीर झूलता है, ठंड जैसे धीरे-धीरे रेंगती निगलती हुई ऊपर चढ़ रही है।”5 मार्कण्डेय के ’अग्निबीज’ उपन्यास में प्रकृति चित्रण, परिवेश और रीति रिवाजों आदि का बड़ी कुशलता से चित्रण किया गया है। शिक्षा का प्रचार, शहरीकरण राजनीतिक हस्तक्षेप, समान अधिकार की मांग आदि अनेक कारणों से  सामाजिक व्यवस्था में बदलाव आ रहा है। कहीं - कहीं आधुनिकता ने रूढ़ियों को तोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। तो कहीं रूढ़ियों ने मध्यवर्ग को ध्वस्त कर रखा है। रूढ़ियों से जर्जर परिवार, रीति-रिवाज, जाति-संस्कार आदि समाज को नरकमय बना रहे हैं। सामाजिक व्यवस्था में विवाह तथा उससे जुड़ी हुई परम्पराओं, मान मर्यादाओं का बड़ा महत्व है। मार्कण्डेय में ’अग्निबीज’ उपन्यास में श्यामा के विवाह के अवसर पर सामाजिक रूढ़ियों एवं प्रथाओं को गहन यथार्थ बोध और तज्जनित चिंताओं के साथ व्यक्त किया है। पारिवारिक स्तर पर संयुक्त परिवारों का विघटन एवं उसके कारण पारिवारिक व्यवस्था को हिला देने वाले परिवर्तन को वर्तमान समाज में देखा जा सकता है। लेकिन मार्कण्डेय के आँचलिक कथा साहित्य में पारिवारिक व्यवस्था के प्रति अवहेलना का दृष्टिकोण नहीं है। मूल्यों में आये बदलावों के बावजूद उनके आंचलिक कथा साहित्य में पुरानी मान मर्यादाओं को खारिज नहीं किया गया है। इसलिए वहाँ प्रगतिशील श्यामा भी कुल की मान मर्यादा को ध्यान में रखते हुए लड़के को देखे बिना शादी के लिए तैयार हो जाती है।
भारतीय समाज व्यवस्था का प्रमुख आधार कही जाने वाली वर्ण व्यवस्था का विकृत रूप जाति व्यवस्था के रूप में देखा जाता है जिसके अन्तर्गत दलित वर्ग के लोग अथवा पिछड़ी जातियाँ सदैव अमानवीय शोषण का शिकार रही हैं। ग्रामीण अंचलों में प्रायः ऊँच-नीच, छुआ-छूत तथा भेदभाव करने वाली कुप्रथाएँ सदैव विद्यमान रही हैं। आंचलिक एवं ग्रामीण लोग भोले होने के साथ-साथ इस प्रकार के जातीय शोषण में खासे चतुर भी होते हैं। मार्कण्डेय के उपन्यास ’अग्निबीज’ में ज्वालासिंह द्वारा हरिजन मतों का लाभ उठाना तथा उसके कहने पर मुसई को पुलिस द्वारा पकड़वाना, ज्वालासिंह द्वारा हिरनी के हत्यारों को छुड़वाना जैसी घटनाओं से दलित जातियों के प्रति तथाकथित उच्च जातियों का शोषणपरक नजरिया साफ-साफ दिखाई देता है। जमींदारों द्वारा किसानों पर किये गये अत्याचारों का जिक्र ’मधुपुर के सिवान का कोना, कहानी में व्यक्त किया गया है। पिता के कर्ज को चुकाने के लिए मुन्नन को बखरी को सौंपा जाता है और एक आँख फूटने पर भी जु़ल्म ढ़ाये जा रहे हैं तो दूसरी ओर ’अग्निबीज’ उपन्यास में छुआ-छूत की भावना को दूर करने के लिए कुछ ज़रूरी प्रयासों के संकेत भी किये गये हैं। ये अलग बात है कि ऐसे प्रयास उतनेे कारगर और वाजिब नहीं लगते जितना इन्हें होना चाहिए था।

उच्चवर्गीय साधो काका के घर पर मुसई महतो, बाकर सागर, मुराद आदि का आना-जाना, श्यामा, सुनीत, मुस्लिम मुराद, हरिजन सागर का एक पाठशाला में साथ-साथ पढ़ना समाज के कई लोगों को अखरता है। ’छोटी जात की सोहबत ठीक नहीं’ का आदेश पाकर भी सुनीत, मुराद एवं सागर से सम्बन्ध बनाये रखता है। किन्तु दुलरा आजी परम्परागत संस्कारों में बँधी होनंे के कारण सोचती है कि समाज में आने वाला यह परिवर्तन नैतिकता, रीति-रिवाज, मान-सम्मान और संस्कृति जरूर को मिटाकर रखेगा। इस उपन्यास में निम्नवर्ग, गरीब, शोषित और अधिकार वंचित लोगों के अन्दर एक क्रंातिकारी परिवर्तन भले ही मानसिक धरातल पर ही सही, पर हुआ ज़रूर है।6

वर्ग संघर्ष की समस्या आंचलिक जीवन की प्रमुख समस्या है। स्वाधीनता के बाद भी वर्णव्यवस्था अपने पुराने रूप में गांवों, अंचलों में अन्दर तक घुस-घुस कर जड़ जमाये हुई है। समाज के शोषित लोगों में मुक्ति की आकांक्षा की बेचैनी, छटपटाहट और कसमसाहट तो है, पर लाख कोशिश के बाद भी वे जाति व्यवस्था की उस किलेबन्दी को नहीं तोड़ पा रहे हैं। इसलिए वे बार-बार अलग-अलग तरह से शोषित होते जाने को अभिशप्त हैं। मार्कण्डेय ’अग्निबीज’ उपन्यास में हरिजन सागर को सवर्ण स्कूल में शिक्षक नियुक्त करके, बजमा नदी के पानी पर सबका समान अधिकार आदि से वर्ण-व्यवस्था को चटकाकर वर्ग चेतना के अंकुरण का रास्ता साफ तो करते हैं पर बरगद की जड़ों की तरह पाताल तक पहुँची हुई ग्रामीण समाज की जातिगत सोच को उखाड़ फेंकने के लिए यह क्रंातिकारी कदम भी नाकाफी साबित होता है। ’गनेसी’ कहानी में सभी वर्गाें को जंगली सूअर का मांस खिलाना, ’धून’ कहानी में सेठानी की लड़की को चमारिन द्वारा लिट्टी का टुकड़ा खिलाना जैसे प्रसंगों में वस्तुस्थिति का अतिक्रमण करने और भावी यथार्थ को रेखांकित करने की कोशिश मार्कण्डेय जी द्वारा ज़रूर की गयी है।7

मार्कण्डेय जी के आंचलिक साहित्य में स्त्रियों की समस्याओं को लेकर भी एक अलग तरह की चेतना जागृत होते दिखाई देती है। ’अग्निबीज’ उपन्यास की श्यामा कहती है - ’’हमारे सामने सीता, सावित्री के आदर्शाें के होते हुए भी आज वह राम, कृष्ण, अर्जुन, भीम का जमाना नहीं रहा है। यह घुरहू, कतवारू का समाज है। किताब में द्रौपदी की कहानी है और आँखों के सामने हिरनी की हत्या है।’’8 स्त्रियों की दशा में तब तक सुधार नहीं आएगा जब तक वह आर्थिक रूप से स्वावलम्बी न हो। मुराद के माध्यम से मार्कण्डेय ने यही सुझाया है। मृणाल पाण्डे ने भी माना है जब तक दूसरा विकल्प नही ंहोगा तब तक वह आर्थिक शोषण का विरोध नहीं कर सकती।9 स्त्री की पतिनिष्ठा, यौन सुचिता और वर्जनाओं आदि को आँचलिक कथा साहित्य में परम्परागत रूप में स्वीकार किया गया है। कहीं भी यौन उच्छृंलकता या व्यभिचार को गौरवान्वित करने का चित्रण नहीं है। मार्कण्डेय ने अपनी समाजवादी आस्था और प्रगतिशील चेतना के अनुरूप अपनी आंचलिक रचनाओं में स्त्री को प्रस्तुत किया है। पर वहाँ स्त्रियाँ उतनी मुखर, क्रंातिकारी या व्यवस्था परिवर्तन की खालिश प्रतीक नहीं हैं। आँचलिक सन्दर्भों में शायद ऐसे स्त्री पात्रों की रचना का जोखिम बना ही रहता है। 

मार्कण्डेय के आंचालिक कथा साहित्य में राजनीतिक चेतना भी ठेठ ग्रामीण अंदाज दिखाई देती है। वहाँ राजनीति तो पहुँची है, पर साथ ही राजनीति की टुच्चई भी आ धमकी है। राजनीति के नाम पर विकास और सुराज के नारे तो बहुत लगे हैं पर हकीकत में राजनीति ने गांव के बिरादरी में नीम ही घेली है। इतना ही नहीं अज्ञान एवं अशिक्षा के कारण चुनाव प्रणाली शोषण का एक औजार तक बन गयी है।

स्वाधीनता के बाद भारत के अंाचलिक जीवन को उन्नत करने के तमाम प्रयत्न उल्टे साबित हुए हैं। राजनीति के दाँव-पेंच ने गाँव में घुसकर उसे विषाक्त बना दिया है। ’अग्निबीज’ उपन्यास में आज भी गांवों में ज्वालासिंह जैसे अवसरवादी, धूर्त और चालाक लोगों की एक अच्छी खासी संख्या है, जो साधो काका जैसे लोगों के त्याग और तपस्या का फल आजाद भारत में भोग रही है, अपनी जय-जयकार करा रही है।10 स्वातंन्न्योत्तर अवसरवादिता, कानून का लचीलापन और उससे उपजे आक्रोश का स्वर मार्कण्डेय के कथा साहित्य में सर्वत्र दिखाई देता है। मार्कण्डेय की ’भूदान’ कहानी की भागो बहन के माध्यम से उस आक्रोश की धुरी को नापने की कोशिश की गयी है। ग्रामीण चरित्रों के सजग विश्वास और मानवीय आस्था के विपरीत उच्च वर्ग की कुटिल नीतियों की यह कहानी गांवों की स्थितियों और वास्तविकताओं को उभारती है।’’11 आजादी के बाद जनमानस में उत्पन्न नयी चेतना एक नया आत्मविश्वास, संघर्षशीलता, अपने अधिकारों के प्रति सजगता, प्रगतिशीलता तथा हर रूढ़ि, अंधविश्वास, अन्याय, अत्याचार और प्रतिक्रियावादी, प्रगति विरोधी शक्तियों से लड़ने वाली नयी  मानसिकता का उभार भी हमें मार्कण्डेय जी की इन रचनाओं में दिखाई देता है। सबसे निचले पायदान पर खड़े व्यक्ति, खासकर मजदूर, किसान और दलित वर्ग अधिकार-बोध की चेतना के कारण व्यवस्था के प्रति सीधे-सीधे टकराहट की मुद्रा भी अख्तियार कर रहा है। बजमा के पानी पर टिकस लगाने के बाद मुसई की झूठे जुल्म में गिरफ़्तारी तथा बैठुकी सागर पर होने वाले अत्याचारों का विरोध उसी चेतना और जागृति का परिणाम है। यह सामाजिक जन चेतना सिर्फ ’अग्निबीज’ में ही नहीं ’बीच के लोग’ कहानी में भी साफ-साफ दिखाई देती है। मनरा द्वारा फऊदी को रोककर अन्याय के विरूद्ध लड़ने की क्षमता नयी पीढ़ी में कहीं ज़्यादा दिखाई देती है।

  मार्कण्डेय जी के कथा साहित्य में सामाजिक परिवर्तन के उजले संकेतोें के साथ-साथ राजनीति के सामाजिक कुप्रभावों का भी रेखांकन मिलता है। वस्तुतः वे सुविधा सम्पन्न वर्ग की अभिलाषाओं का अधिक विवरण न देकर आम आदमी के जीवन की आशाओं और आकांक्षाओं को चित्रित करने में अधिक रूचि प्रदर्शित करते हैं। सुराज के सुख का अनुभव करता हुआ रामू किसान चारों ओर फैले हुए भ्रष्टाचार से भौंचक्का है। उसे लग रहा है कि समूचे विकास में उसके हिस्से में कुछ भी नहीं पड़ रहा है। विशेषकर स्वराज का एक प्रमुख आधार कही जाने वाली पंचायत व्यवस्था के प्रति अनास्था का स्वर ’बातचीत’ कहानी में बहुुत तीव्र है। प्रसिद्ध साहित्यकार विवेकी राय ने भी माना है कि मार्कण्डेय की ’बातचीत’ कहानी में यही आम आदमी चित्रित हुआ है। इसी प्रकार ’चाँद का टुकड़ा’ कहानी में एक आदमी यातायात-सम्बन्धी नवनिर्माण के बारे में सोचता है कि - ’देहात के इलाके में यह सड़क स्वतंत्रता की पहली निशानी है।’ वास्तव में हकीकत भी यही है। इस कहानी में विकास के लिए तरसती देहाती दुनिया को एक वोट बैंक समझ कर उनका अपने हक में इस्तेमाल कर राजनीति का राजमार्ग तैयार करने वाले राजनीतिज्ञों पर कठोर व्यंग्य किया गया है। गाँव में मोटरों का न आना भी यही दर्शाता है कि गाँव के लोगों तक राजनीतिक की वास्तविक चेतना न पहुँच सके जिनसे कि राजनीति और व्यवस्था की ताकत पार्टी और नेताओं की बजाय गांव के लोगों के हाथों में न चली जाय। वास्तव में देखा जाय तो एक लोकतांत्रिक व्यवस्था ही सामाजिक जन-जीवन की विकासशील शिराओं को गति प्रदान करती है, और इस लोकतांत्रिक व्यवस्था की प्रमुख धुरी है राजनीति। पर राजनीति की समूची शक्ति वोट के रूप में जनता के पास स्थित है। मार्कण्डेय जी ने इन सभी स्थितियों को बखूबी समझकर उन्हें आँचलिक सन्दर्भाें  के साथ जोड़कर प्रस्तुत करने का कार्य किया है। वस्तुतः मार्कण्डेय जी ने अपनी प्रगतिशील सोच और समाजवादी आस्था के कारण अपने समूचे आँचलिक कथा साहित्य में आँचलिक संस्कृति को उसके तमाम अन्तर्विरोधों के साथ चित्रित किया है। वहाँ सादगी और सच्चाई के साथ जीवन यापन करता समाज भी है तो चतुरता और चालाकी के साथ अपने स्वार्थ सिद्धि का कांईयापन भी है, अनास्था और अविश्वास का राजनैतिक घटाटोप भी है तो दलित, शोषित और जातीय जकड़न में पथराई तंद्रा के टूटने की आवाज़ भी है। निपट निरक्षर लोगों की कुरीतियाँ, अंधविश्वास और छद्म नैतिकताएं हैं, तो शिक्षा की उजली किरणों के  आगमन का अबूझ अहसास भी। मार्कण्डेय जी उन गिने-चुने आंचलित कथाकारों में से हैं, जिन्होंने आँचलिक सरोकारों और क्षेत्रीय पहचान के साथ जन सामान्य की पीड़ा, अपमान, संघर्ष, विषमता, चेतना, मूल्यों और संस्कृति को कथा एवं पात्रों के माध्यम से इस प्रकार प्रस्तुत किया है कि अंचल विशेष का एक समग्र चित्र पाठकों के सामने उपस्थित हो जाता है। इसलिए मार्कण्डेय जी जन चेतना के आंचलिक यथार्थ के कथा शिल्पी कहे जा सकते हैं।

सन्दर्भ:-
1. राम दरश मिश्र -हिन्दी उपन्यास - एक अंतर्यात्रा - राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ-154
2. वृषाली मांद्रेकर -मार्कण्डेय एवं पुण्डलीक नायक के आंचलिक कथा साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन, गोवा विश्वविद्यालय, गोवा, पृष्ठ-56
3. शिवपूजन सहाय-देहाती दुनिया, भूमिका, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ-8
4. विद्या सिन्हा-आधुनिक परिदृश्य आंचलिकता और हिन्दी उपन्यास, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ-206
5. मार्कण्डेय-अग्निबीज, नया साहित्य प्रकाशन, इलाहाबाद, पृष्ठ-19
6. मेल्टिना टोप्पो-हिन्दी के आंचलिक उपन्यासों की सांस्कृतिक चेतना,सत्यम पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, पृष्ठ-109
7. वृषाली मांद्रेकर-मार्कण्डेय एवं पुण्डलीक नायक के आंचालिक कथा साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन, गोवा विश्वविद्यालय,गोवा, पृष्ठ-188
8. मार्कण्डेय -अग्निबीज, नया साहित्य प्रकाशन, इलाहाबाद, पृष्ठ-107
9. ज्ञानचन्द्र गुप्त-स्वातंन्न्योत्तर हिन्दी उपन्यास और ग्राम चेतना, राधा पब्लिकेशन, दिल्ली, पृष्ठ-122
10. मार्कण्डेय -अग्निबीज, नया साहित्य प्रकाशन, इलाहाबाद, पृष्ठ-15
11. रघुनाथ देशाई -हिन्दी के आंचलिक उपन्यासों में समाज जीवन, अमन प्रकाशन, कानपुर, पृष्ठ-68

डॉ.चमन लाल शर्मा
सहायक प्राध्यापक “हिन्दी”
शासकीय कला एवं विज्ञान महाविद्यालय, रतलाम एवं 
एसोसिएट, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, राष्ट्रपति, निवास शिमला (हि.प्र.)
ई मेल :sharma_cl@yahoo.co.in
मो-09826768561

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