त्रैमासिक ई-पत्रिका 'अपनी माटी' (ISSN 2322-0724 Apni Maati), वर्ष-2, अंक-16, अक्टूबर-दिसंबर, 2014
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छायाकार:ज़ैनुल आबेदीन |
अंततः पीरू की जोठ को देशद्रोही करार देते हैं। जबकि सभी जानते हैं कि इस देश को कौन खा रहा है? कौन इसके संसाधनों और सांस्कृतिक उपादानों पर कब्जा जमाये हुए हैं। ये जाति हर जगह आडे़ आती है? असली दंगल जाति का ही है। कहानी इस सत्य को दर्ज करती है कि जाति का श्रेष्ठताबोध ही असली समस्या की जड़ है बाकी पीरू से बड़ा कालाकार कौन है? लेकिन वहां उसकी कला का सम्मान नहीं है वहां उसकी जाति सर्वोपरि है। इसी कारण जोठ का दंगल जाति के दंगल में तब्दील हो जाता है।
कसाई कहानी में सुमेर को उसी के परिवार के लोग मिलकर मार देते हैं और कहते कि इसको भूत-प्रेत ने मार दिया। सुमेर का जुर्म यह था कि वह प्रेम करता है और यही उसके परिवार के लोग बर्दास्त नहीं कर पाते। गांवों का सामंती और जातिवादी ढ़ांचा इसको सच साबित करने के लिए इस तरह की कथाएं सदा ही रचता रहा है। इसके पीछे लोगों का डर, अंध्विश्वास है। जिसका परिणाम है कि एक पिता अपनों के साथ मिलकर अपने बेटे को अपने फायदे के लिए मार देता है और कहता है कि उसको भूत ने मार दिया। सुमेर की मौत एक हत्या होते हुए भी हत्या नहीं होती है।
बक्खड़ कहानी वह कहानी है जिससे पथिक को हिंदी कहानी की दुनियां में गंभीर कहानीकार के रुप में पहचान मिलती है। अगर कोई बक्खड़ है तो उसमें उसकी क्या गलती है? हरामजादी कुतियां, तेरे बाप का घर है जो चली आई? और फिर तड़ाक-तड़ाक लात-घूंसे। मैं एक कोने में कबूतर-सा दुबका हुआ मां का पिटता लाचार हो, बस देख सकता था। कितना खौफनाक और मुश्किल होता है अपनी मां का बेरहमी से पिटना देखना.....जी करता था, कुल्हाड़ी उठा लूं और फिर खच्चाक् से अपने बाप के सिर में दे मारूं। मगर मैं कुछ भी नहीं कर सकता था, सिवा रोने के। पृसं 27
वह जैसे पैदा हुई हो मार खाने के लिए। उसे यहां तो कभी आराम नहीं मिला। नाना को अपनी नाक की चिंता। बेटी बाप के घर कैसे रह सकता है भला? चाहे उसका मरण! बस फिर क्या था वह एक बार नैहर गई और फिर वापस आना ही था। लेकिन यहां कहां जीवन था। यहां तो बस मर-मर कर जीना था। एक दिन हम नाना के पास आ ही गए।
और इसी का प्रतिफल हुआ-मां का बीस हजार में सौदा होकर नाते जाना।उसी दिन मुझे नए कपड़े पहनाए गए थे। मैं बहुत खुश था। मुझे अपनी आठ वर्ष की जिंदगी में कभी इतनी खुशी नहीं हुई थी। उस दिन घर में बड़ी चहल-पहल थी। यों वह कहने को ही घर था। वरना ननिहाल था।पृसं 33
ननिहाल से अपने घर जहां मैं अब मूला मीणा वल्द हजारी मीणा हो चुका था। एक दिन पटेल के छोरे को पटक दिया।‘वह अपने बेटे बदरी पर बरस पड़ा-हरामजादे, मूला से हार गया। एक बक्खड़ से....ना जाने किसका मूत है ये और तू इसी से मात खा गया। डूब मर मादर....। आ...क्क....थू....
मुझे जैसे हजारों विषधरों ने डस लियाहो, मैं संज्ञाशून्य हो चुका था। मुझे पहली बार लगा कि मैं आदमी होने के अलावा भी कुछ हूं। बक्खड़...बक्खड़... मैं बक्खड़ हूं। मैं मूला मीणा वल्द हजारी मीणा। मेरे बाप का नाम हजारी है। गांव का माना हुआ आदमी है। पांच आदमियों में उठता बैठता है।मैं चीखा,‘कौन, किसका मूत है सुखाराम पटेल। बक्खड़ होगा तू...तेरा बाप। ठहर तो सही...।‘ और ऐ जोरदार लाठी मैंने सुखाराम की पीठ में दे मारी। ‘पृसं 35
यह मूला का प्रतिकार था। उसने अपनी पहचान के लिए यह प्रतिकार किया। जो उसका मनुष्य होने के नाते स्वाभाविक अधिकार था। लेकिन उसे यह दंश झेलना पड़ा और इस कदर झेलना पड़ा कि बक्खड़ को कोई लड़की तक देेने को तैयार नहीं होता। गुपचप उसका ब्याह होता है तो उसकी दुलहन सुगरों को पटेल पार कर देता है। बक्खड़ होने की त्रासदी को झेलते हुए मूला चला जाता है। क्या वाकई उसका जीवन अभिशाप था। क्या बक्खड़ आसमान से पैदा होते हैं? क्या उसने कभी प्रतिकार नहीं किया? क्या अपराध था मूला का? कुछ भी तो नहीं, लेकिन निरपराध होने का शाप वह ताउम्र भोगता रहा। उसके पास जैसे कोई विकल्प ही नहीं था। उसकी मां का क्या अपराध था? लेकिन उसका जीवन ऐसे ही तबाह किया गया। यह कैसा समाज है जो अपने ही लोगों को स्वीकार नहीं कर सकता? जबकि उसकी पितृसत्ता में एक स्त्री के लिए कहीं कोई जगह नहीं है और उसके मार्फत वह मनुष्यता को शर्मसार करता है।
फिरने वालियॉं समाज की रीति-नीति के निर्वाह में स्त्री की क्या भूमिका होती है? उसका काम केवल उनका निर्वाह करना है। मौत के मातम में औरत का काम रोना है। उसकी ऑखों में आंसू हो या नहीं उसका कोई अर्थ नहीं। उसे रिवाज का निर्वाह करना है।
राजस्थान में गुजर मीणा आरक्षण आंदोलन समय-समय पर गर्माता रहा है। आरक्षण किसको मिलना चाहिए और कितना मिलना चाहिए वह बहस का विषय है लेकिन जाति के नाम पर होनेवाले इस दंगल के कारण व्यापक समाज का जीवन कैसे प्रभावित होता है मूछें कहानी इसके बारे में उल्लेखनीय है। रामराज जाटव फौज से छुट्टी पाकर घर आता है और अपनी पत्नी को लेने के लिए ससुराज जा रहा है उसी समय गुजर मीणा आंदोलन चल रहा है और उसके सामने परेशानी ही परेशानी आती है। वह तो जाटव है लेकिन उसको कोई जाटव नहीं मानता। वह इतना स्मार्ट है कि कथित सभ्य कहलानेवाले समाज के लोग यह बात स्वीेकार नहीं करते कि जाटव भी ऐसा हो सकता है उसकी मूछें ऐसी हो सकती है? ‘तेरी.... तो.... साले हमको चूतिया समझता, ऐं जात छुपाकर बचना चाहता था हरामी। तुमनें या तुम्हारी बिरादरी वालों ने हमारी जात के कई लोगों की मूंछें काटी है।‘ पृसं-56 अंततः वह अपने ससुराल के सफर में ही सफर करता है। उसको तरह-तरह से मारा जाता है और बेहोशकर रास्ते में पटक कर चले जाते हैं वे लोग। उसकी मूछें काट ली जाती है जबकि न तो वह गुजर था न मीणा वह तो जाटव था।
दो बहनें दो बहनों के ससुराल में आने के बाद की कहानी है। दोनों बहनों का विवाह एक ही घर में होता है जहां वे आपस में लड़ती है। दोनों के पति बाहर नौकरी करते हैं और वे यहां लड़ाई करती है। ठंडी गदूली में घासी और अंगूरी की प्रेम कहानी है। अंगूरी विधवा होने के बाद नया जीवन शुरु करना चाहती है। घासी अपढ़ और पटेल के यहां काम करता है। पटेल के बेटे दिल्ली में रहते हैं। घासी दिल्ली देखना चाहता है। ब्याह करना चाहता है। लेकिन पटेल उसको अपने यहां से छोड़ना नहीं चाहता, क्योंकि वह चला गया तो पटेल के घर का काम कौन करेगा। इधर घासी को अंगूरी का साथ मिलता है और वह कहती है कि‘ असली जोगी था भरथरी। वचन-कौल का पक्का। धूणी पर झूठ मत बोलना।‘ अंगूरी उस रात धूणी की तरह धधकती हुई बोली थी,‘ अंगारे चट-चट चटक रहे हैं। मेरे भीतर भी धूणी सुलग रही है। तू इस धूणी का धणी बनेगा?‘ पृसं -76
एक दिन घासी और अंगूरी दिल्ली चले जाते हैं और गांव का कोई बंदा उनका ढूढ़ न पाया। पीपल के फूल प्रकृति के उजड़ने की त्रासदी की कहानी है। एक पेड़ के कटने पर कितने लोग बेघर हो जाते हैं। कितना कुछ खत्म हो जाता है। इसका अंदाजा मनुष्य कम ही लगाता है। केदारनाथ अग्रवाल अपनी एक कविता में कहते हैं पेड़ नहीं/पृथ्वी के वंशज है/फूल लिए/फल लिए मानव के अग्रज है। तो प्रकृति मनुष्य की अग्रज है। और ऐसे में मनुष्य का उसके साथ क्या रिश्ता बनता है। प्रकृति अपने साहचर्य में विकास करती है तो मनुष्य का भी यही फर्ज बनता कि वह प्रकृति के साथ अपना विकास करे।
यात्रा कहानी में धर्म और धर्मस्थलों की यात्रा करने के बहाने कैसे व्यापार किया जाता है और लोगों को ठगा जाता है। कोई ज्यादा तो कोई कम। इस तरह होड़ा-होड़ चलती है और बाजार घर पर जा जाता है। ऐसे में यह यात्रा न होकर व्यापार हो जाता है। इस संग्रह की अंतिम कहानी है गूंगा गुलाब। त्रासद प्रेम कहानी। पुरुष अपनी ताकत का कितना भी ढ़िढ़ोरा पिटता रहे लेकिन वह कितना कमजोर होता है यह वह कभी नहीं बताता। ‘कितना धोखेबाज और कायर था मैं.....!‘ कहानी का नायक कहता है। वह अपने प्रेम को गंगा में बहाने ले जाता है। रुखसाना के दिये गुलाबों को वह गंगा में बहाकर अपने को अपराध मुक्त करना चाहता है या अपने प्रेम की मुक्ति। वह यह सब उसकी मौत के बाद करता है। अपने को गुनाहों का देवता बनाता है। बाण भी भटिटनी के सामने यही करता है। ऐसे नायक जो अपने प्रेम को गंगा में बहाते हैं वे किस तरह का प्रेम संसार रच सकते हैं। जबकि होना तो यह था कि उसको रुखसाना के लिए, अपने प्रेम के लिए लड़ना था। कहानी बहुत मार्मिक है। भाषा शिल्प और संवेदना के स्तर पर कहानी गंभीर प्रतिमान रचती है।
डॉ.कालूलाल कुलमी
युवा समीक्षक
ई-मेल:paati.kalu@gmail.com मो-8285636868 |
पथिक की कहानियों के पात्र पीरू तेली, घासी,अंगूरी, सुमेर, मूला मीणा, बसंत रुखसाना जिस जमीन से आते हैं वह ग्रामीण परिवेश है। एक तरफ घासी और अंगूरी अपने प्रेम को अंजाम तक पहुचाते हैं वही बसंत पढ़ा-लिखा होकर भी अपने प्रेम को त्रासद दशा में ले जाता है। उसके पास एक ही रास्ता बचता है अपने प्रेम को गंगा में डूबोना। अपने को बसंत कहां खड़ा पाता है? इसका उसको आभास कहां है? वह चाहता तो अपने प्रेम को अंजाम तक ले जा सकता था। लेकिन उसके भीतर का उहापोह और अनिर्णायक रहना उसको नियति का शिकार बनाता है। कहानियां पढ़ते हुए गा्रम जीवन के चित्र बार-बार सामने आते हैं। गा्रमीण जीवन का कोलाज बनाते हुए वहां जातिवाद, विद्रोह प्रेम की त्रासदी सब एक साथ अभिव्यक्त होते हैं।
मेरी प्रिय कथाएं
चरण सिंह पथिक,ज्योतिपर्व प्रकाशन,प्रसं 2014,मूल्य:249/-
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