त्रैमासिक ई-पत्रिका 'अपनी माटी' (ISSN 2322-0724 Apni Maati), वर्ष-2, अंक-16, अक्टूबर-दिसंबर, 2014
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छायाकार:ज़ैनुल आबेदीन |
आजादी से पहले व्यावसायिक फिल्म कम्पनियों के अलावा
ब्रिटिश सरकार का बकायदा एक प्रचार विभाग
था जिसका नाम था आई ऍफ़ आई यानि इनफार्मेशन फिल्म्स ऑफ़ इंडिया जिसका मुख्य काम
युद्ध के समय सैनिकों का उत्साह बढाने वाली प्रचार फिल्में बनाना था। आजादी के ठीक
पहले ब्रिटिश सरकार ने इसे बंद कर दिया और भारत के आजाद होने के क्षणों की
ऐतिहासिक आवाजें तो हम सुन सकते है लेकिन चलती हुई तस्वीरों को कैद करने के लिए कोई संस्था न थी। आजाद भारत
में जिन नयी संस्थाओं की स्थापना हुई फिल्म्स
डीविसन भी उनमे से एक है। यह कोई नयी संस्था नही बल्कि आई ऍफ़ आई का ही नया
नाम था। नए नाम के साथ 1948 में अस्तित्व में आये
फिल्म्स डीविसन ने ही पहली बार नए बनते देश की छवियों को दर्ज करने का
महत्वपूर्ण काम किया। इस संस्था का योगदान इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी के
प्रयासों की वजह से भारतीय सिनेमा की
मुख्यधारा फीचर फिल्मों के बरक्स दस्तावेजी फिल्मों को देखने का भी एक सिलसिला
शुरू हुआ। पचास और साठ के दशक तक सिनेमा
हालों के लिए यह सख्त निर्देश थे कि फीचर
फिल्म के साथ-साथ फिल्म्स डीविसन की बनी नए राष्ट्र निर्माण की दस्तावेजी फिल्में
भी दिखाएँ। पुराने लोग, जिन्होंने उस समय सिनेमा हालों में इन फिल्मों को देखा था,
इस बारे में कुछ
अलग तरह की राय भी देते हैं। उनके अनुसार जैसे -जैसे राष्ट्र निर्माण के गौरव में
लोगों की रुचियाँ कम होती गयीं वैसे -वैसे इन फिल्मों को देखने की बजाय लोगों
ने हाजत करने और मूंगफली तोड़ने को तरजीह
दी। फिर बाद में तो इस अनिवार्यता के ख़तम हो जाने के बाद राष्ट्र निर्माण की इन
दस्तावेजी फिल्मों को देखने का यह एकमात्र अवसर भी ख़तम हो गया।
नए भारत में सिनेमा देखने के और क्या अवसर थे ?:मुख्यधारा का सिनेमा हर शुक्रवार बॉक्स ऑफिस के
जरिये अपनी स्वतंत्र पहचान और दर्शक बना रहा था और भारत सरकार फिल्म्स डिवीसन की दस्तावेजी फिल्मों के जरिये अपने
झूठे- सच को बिना किसी व्यवधान के निरंतर निर्मित कर रही थी। सिनेमा हालों में हर
शुक्रवार दर्शकों की संख्या बढ़ती गयी और वहीं इसके उलट दस्तावेजी फिल्में धीरे
-धीरे मुख्यधारा से बाहर होकर सरकारी संपत्ति मात्र रह गयीं। इसके अलावा भारत
सरकार के सूचना विभाग का फील्ड पब्लिसिटी डिपार्टमेंट भी बोलती हुई तस्वीरों को
दिखाने का एक और सरकारी उपक्रम था। यहाँ भी सिनेमा दिखाया जाता लेकिन यह मुख्य रूप
से शुद्ध सरकारी प्रचार वाली फिल्मों का मंच था जिसके लिए फ़ीचर फिल्में दर्शकों को
सरकारी नीतियों वाली ऊबाऊ फिल्में देखने के लिए रोकने का जरिया भर थीं। इसलिए इस
मंच में भी फीचर फिल्मों के लिए तो थोड़ी
बहुत गुंजायश थी लेकिन दस्तावेजी
फिल्म के नाम पर ऊबाऊ फिल्मों की पुनारावृत्ति एकदम संभव न थी।
इन दो मंचों के अलावा पचास के दशक में ही कलकत्ता
(अब कोलकाता ) के कॉफ़ी हाउस की गप्पबाजियों के बीच सत्यजित राय, चिदानंद दासगुप्त और
मृणाल सेन सरीखे सिने प्रेमियों के प्रयास
के फलस्वरूप फिल्म सोसाइटी आन्दोलन की नीव पडी और जो FFSI (Federation of
Film Societies of India) और नेशनल फिल्म आर्काइव के अस्तित्व में आ जाने के कारण खूब फला-फूला भी। 1952 में दिल्ली में सम्पन्न
हुए भारत के पहले अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल की वजह से भी गंभीर सिने
प्रेमियों को सिनेमा देखने के नए संस्कार भी मिले। खुद सत्यजित राय ने अपने फिल्मकार बनने में इस उत्सव के योगदान को
स्वीकारा है।
बंगाल से
शुरू हुए फिल्म सोसाइटी आंदोलन ने एक साथ केरल में भी गति पकड़ी और फिर बाद में
कर्नाटक के कुछ शहरों में भी इसने जड़ें जमाई। इन राज्यों के अलावा इस आन्दोलन का
विकास यूनिवर्सिटी कैपसों के जरिये उत्तर भारत के भी बहुत से शहरों में हुआ। एक
बात समझ में रखने वाली है कि पचास के दशक से शुरू हुआ यह आन्दोलन मुख्यधारा के
भारतीय सिनेमा के बरक्स मुख्य रूप से यूरोपीय कथा फिल्मों के प्रसार के जरिये
विकसित हो रहा था और जिसकी सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि में से एक यह है कि केरल जैसे
राज्य में छोटे कस्बों के अन्दर तक फिल्म सोसाइटी से जुड़े लोग फ्रेंच न्यू वेव या
कुरोसावा के जापानी सिनेमा का लाइव अनुवाद करते या फिर फिल्म को रोककर उसके हिस्से
को समझाकर स्क्रीनिंग सम्पन्न की जाती। इस आन्दोलन का केंद्र पुणे का नेशनल फिल्म
आर्काइव था जहां विश्व सिनेमा के धुनी और गुणी संग्राहक श्री पी के नायर ने अपने
प्रयत्नों के फलस्वरूप आर्काइव को एक सम्मानजनक पहचान दिलाई थी। पुणे में ffsi
का भी केंद्रीय
दफ्तर था और दोनों संस्थाएँ आपसी तालमेल के साथ एक पैकेज बनाती जो पैकेज एक दिशा
से आये अनुरोधों के हिसाब से अपनी फ़िल्मी यात्रा शुरू करता। इसीलिए ffsi के पुराने सर्कुलरों को
देखने से पता चलता है कि पुणे से चला हुआ फ्रेंच न्यू वेव का पैकज आगरा , दिल्ली से चलता हुआ
इलाहाबाद, पटना और फिर कलकत्ता (अब कोलकाता ) पहुँचता।
ffsi नियंत्रित इस आन्दोलन का ध्यान से
अध्ययन करने पर दो बातें समझ में आती हैं। एक तो इस पैकेज में दस्तावेजी सिनेमा के
लिए बहुत गुंजायश नहीं थी दूसरे मुख्यधारा के भारतीय सिनेमा के बरक्स इसका वो
प्रभाव नहीं बन पा रहा था क्योंकि संसाधनों की कमी के कारण ffsi के पास इन फिल्मों के
प्राय एक ही प्रिंट होते थे। इसलिए ये स्क्रीनिंग कई जगह पर एक साथ न होकर एक
लम्बे अंतराल में कुछ जगह हो पाती। यहाँ युवा पाठकों को फिल्मों के प्रिंट और आज
की तकनालाजी के फलस्वरूप डी वी डी के अन्तर के बारे में बताना जरूरी है। 1990 से पहले विडियो तकनालाजी के लोकप्रिय होने के पहले
फिल्म को देखना आप्टिकल प्रिंट के जरिये ही संभव था और किसी १ घंटे की फिल्म के
प्रिंट की प्रति बनवाने में कम से कम 20000 रुपये का खर्च आता जबकि विडियो तकनालाजी के आने के
बाद यह खर्च सिमटकर 20 रुपयों तक आ गया। इसी वजह से पुराने सिनेमा आन्दोलन की तेजी से जगह -जगह
पुनरावृत्ति न हो सकी।
इसलिए 1980 तक नयी तकनालाजी के आने के पूर्व भारतीय सिनेमाई
परिद्रश्य में देखने -दिखाने के स्तर पर अभी भी बम्बई (अब मुंबई ) और दक्षिण के सिने
उद्योग का बोलबाला था जो हर शुक्रवार अपने नियमित रिलीज़ के जरिये युवाओं की नयी
पीढ़ी को भाषा के नए अंदाज़ देने के साथ
-साथ सरकारें भी बना रहा था वहीं दूसरी तरफ दस्तावेजी फिल्में अभी तक भारत सरकार
के नेतृत्व में फिल्म्स डीविसन द्वारा ही बनायी जा रही थीं और वे सरकारी उपलब्धियों को दर्ज करते हुए कमोबेश एक
गैर जरुरी सांस्कृतिक उत्पाद तक सिमट गयीं थीं जिनके निर्माण के बाद वितरण और
प्रदर्शन तक के लिए कोई न्यूनतम व्यवस्था अब न बची थी।
नयी तकनालाजी की दस्तक और बदलता सिनेमा परिद्रश्य: 1969 में
दस्तावेजी सिनेमा के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना हुई। इस साल अर्जेंटीना के
क्रांतिकारी फिल्मकार फर्नान्डो सोलानास ने वहां के मुक्ति संग्राम को ध्यान में
रखकर 4
घंटे की दस्तावेजी फिल्म आवर ऑफ़ द फरनेस (The Hour of the Furnace) फिल्म बनायी। इस फिल्म
के प्रीमियर के अवसर पर फ्रेंच न्यू वेव के मशहूर
फिल्मकार गोदार्द ने सोलानास का रेडियो
इंटरव्यू लिया। इस इंटरव्यू के दौरान बहुत सी खास बातों के बाद जब पलट कर
सोलानास ने गोदार्द से सवाल किया कि
"क्या आपको अब फिल्में बनाने के लिए प्रोड्यूसर मिलते हैं ?
" तब गोदार्द
ने बहुत मार्के की बात कही। उन्होंने कहा " फिल्मों के लिए तो नहीं लेकिन हाँ
अब मैंने विडियो फोरमैट पर काम करना शुरू कर दिया है। मैंने इस साल विडियो पर चार
फिल्में बनायी। " इसी इंटरव्यू वे आगे कहते हैं कि " हमें कैमरे का
इस्तेमाल वैसे ही करना चाहिये जैसा वियतनामियों ने अमरीका से युद्ध लड़ते हुए साइकिल का किया।"
1969 में
गोदार्द द्वारा व्यक्त यह चाहत 2005 तक आते -आते ओडिशा में चल रहे संघर्षों के सन्दर्भ में
एकदम सही साबित होती है। इसके उदहारण और व्याख्या हम बाद में देंगे फिलहाल नयी
तकनालाजी और उससे बन रहे नए संबंधों को समझा जाए।
हमारे देश में 1982 में एशियाई खेलों के साथ -साथ
रंगीन टेलीविसन की शुरुआत हुई और चलती-बोलती तस्वीरों को देखने -सुनने का एक नया अवसर मिला। 1980 के दशक में वीएचएस
(विडियो होम सर्विस ) के अस्तित्व में आ जाने के कारण शुक्रवार के रिलीज़ के बरक्स
देखने का एक मौका आम जनता को मिला। वी एच एस का दौर 1997 के पहले तक डिजिटल तकनालाजी आने
तक खूब चला और उसने एक नए दर्शक वर्ग को तैयार करने में ख़ास भूमिका भी निभाई। फिर
डिजिटल तक्नालाजी के आने के बाद तो देखने -दिखाने का पूरा परिद्रश्य ही बदल गया।
इस नए परिद्रश्य पर बात करने से पहले 1974 में जय प्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आन्दोलन
पर बनी अपनी पहली फिल्म वेव्स ऑफ़ रिवोलुशन (Waves of
Revolution) से
चर्चा में आये दस्तावेजी फिल्मकार आनंद पटवर्धन की फ़िल्मी यात्रा को समझना जरुरी
है।
सिनेमा
बनाने और दिखाने के तरीकों में आनंद पटवर्धन का हस्तक्षेप:समाजवादी विचारों से प्रभावित आनन्द दस्तावेजी
फिल्मों के निर्माण में आने से पहले मध्य
प्रदेश के होशंगाबाद जिले में शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रही संस्था किशोर
भारती के साथ जुड़े थे। जे पी के आन्दोलन से प्रभावित होने के कारण गुरिल्ला तरीके
से उन्होंने इस आन्दोलन को अपने कैमरे में कैद करना शुरू किया। फिल्म फोरमैट किस
तरह दस्तावेजी फिल्मों के लिए निर्माण में
बड़ी बाधा बनकर सामने आता यह आनंद द्वरा लिखित छोटी पुस्तिका गुरिल्ला सिनेमा से
समझा जा सकता है। उन दिनों फिल्मों की रीलें विदेश से आती थीं इसलिए हर स्वतंत्र
फिल्मकार को शूटिंग के लिए फिल्म रोल
हासिल करने के लिए लिख कर बताना पड़ता कि वो इन फिल्मों को किस कहानी या विषय के
लिए इस्तेमाल करेगा। यह एक तरह का अघोषित सेंसर था जिसे नए बाजार के दवाब ने तोड़
दिया। नए बाजार की वजह से अब हर तीसरे महीने कोई नयी तकनालाजी छवियों के दर्ज करने
के खर्च को सस्ता बना रही है जिसका सीधा स्वार्थ अपने बाजार का विस्तार करना है।
लेकिन इस वजह से आज 40 मिनट की रिकार्डिंग करने वाला टेप महज 90 रुपये में छोटे शहरों की
किरानों तक की दूकान में मिल जाता है। 1974 में आनंद ने इन सब सुविधाओं के विपरीत वाकई में
गुरिल्ला फिल्मकार की तरह क्रान्ति की तरंगें पूरी की। आनंद ने 1974 से लेकर 2012 तक 16 छोटी -बड़ी दस्तावेजी फिल्मों का निर्माण किया। आनंद
का फ़िल्मी सफ़र इसलिए भी ख़ास बन जाता है
क्योंकि उन्होंने ही पहली बार मुख्यधारा के सिनेमा और फिल्म्स डिविज़न के जरिये
निर्मित हो रहे तथाकथित सरकारी दस्तावेजी सिनेमा के बरक्स भारतीय समाज को देखने का
एक नया नजरिया दिया। यहाँ पटवर्धन का योगदान इसलिए भी खास है क्योंकि उन्होंने न
सिर्फ स्वतंत्र तरीके से फिल्म का निर्माण किया बल्कि अपनी फिल्मों को दर्शाकों तक
ले जाने का काम भी किया। पहले वे अपनी फिल्में 16 mm के भारी भरकम प्रोजक्टर के जरिये
दिखाया करते थे और बाद में नयी तकनालाजी के आने के बाद उन्होंने तुरंत छोटे और
हलके एल सी डी प्रोजक्टर का इस्तेमाल करना
शुरू कर दिया। उनके प्रयासों के फलस्वरूप नया सिनेमा नए दर्शकों तक पहुंचा और
फिल्म प्रदर्शन के बाद होने वाली बातचीत से सिनेमा दिखाने ने एक क्रांतिकारी छलांग
हासिल की। पहली बार परदे के उस पार बैठे लोगों और सिनेमा के बीच संवाद बना। आनंद
की इस महत्वपूर्ण पहल का लाभ आनेवाले सिने आन्दोलनों को मिला। आनन्द ने अपनी
फिल्मों को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुचाने के मकसद से अंग्रेजी के अलावा दूसरे
भाषाई संस्करण भी बनाए और दस्तावेजी फिल्मों के वितरण का काम भी शुरू किया।
फिल्मों के प्रदर्शन के इस सीधे तरीके की वजह से आनंद ने न सिर्फ पढ़े -लिखे युवाओं
को इस माध्यम की प्रति आकृष्ट किया बल्कि दस्तावेजी सिनेमा को एक पहचान भी दिलवाई
इसके लिए नए दर्शक भी तैयार किये। आज के दस्तावेजी सिनेमा के दो महत्वपूर्ण
फिल्मकार संजय काक और अजय भारद्वाज अपनी फ़िल्मी यात्रा को सीधे -सीधे यूनिवर्सिटी
के दिनों में फिल्म दिखाने आये आनंद के फिल्म प्रदर्शन और उसके बाद हुई बातचीत से
जोड़ पाते हैं।
नब्बे के दशक की नयी आर्थिक नीतियाँ, दमन , प्रतिरोध और नयी
तकनालाजी से उपजा नया कैमरा:अस्सी के
दशक में आनंद के अलावा पहले से काम कर रही फिल्मकार मीरा दीवान के अलावा फिल्म संस्थान
पुणे और स्वयं प्रशिक्षित कुछ और भी युवा
फिल्मकार दस्तावेजी फिल्मों के परिद्रश्य को समृद्ध करने में जुटे थे। इनमे के पी
ससि, रीना
मोहन , रंजन
पालित, मंजीरा
दत्ता , शशि
आनंद, वसुधा
जोशी और दीपा धनराज का काम उल्लेखनीय है। इस समूह के फिल्मकारों द्वारा बनाई गयी
दो फिल्मों की चर्चा जरुरी है। पहली है 1987 में मंजीरा दत्ता की फिल्म बाबूलाल भुइयां की
कुर्बानी और दूसरी है वसुधा जोशी और रंजन पालित की फिल्म वायसेस फ्राम बलियापाल।
पहली फिल्म धनबाद के कोयल खदानों में काम करने वाले अति गरीब लोगों के बीच से एक
श्रमिक बाबूलाल के अपने लोगों के स्वाभिमान के लिए शहीद हो जाने की कहानी और दूसरी
ओडीशा के बलियापाल इलाके में मिसाइल रेंज स्थापित किये जाने के विरोध में शुरू हुए
स्थानीय लोगों के अहिंसक आन्दोलन की कहानी कहती
है। दोनों फिल्मों का जिक्र इसलिए जरूरी है क्योंकि एक तो ये आनंद पटवर्धन
की परंपरा का विकास करती हैं दूसरे नब्बे के दशक में शुरू होने वाले जन प्रतिरोध
के संघर्षों का संकेत भी देती हैं। दोनों ही फिल्में 16 mm के फॉरमैट में बनी थीं इसलिए महत्वपूर्ण फिल्म होने के बावजूद कुछेक फेस्टिवलों और विशेष स्क्रीनिंगों के
अलावा ये ज्यादा बार दिखाई नहीं गईं। यहाँ
यह जानकारी भी रोचक और चौंकाने वाली कि इन फिल्मों का सर्वाधिक इस्तेमाल तभी हुआ
जब ये डीवीडी पर बदलकर सर्वसुलभ हो गयीं और विभिन्न आंदोलनों और नए फिल्म फेस्टिवलों का हिस्सा बनी।
नब्बे के
दशक आते -आते शादी की चहल - पहल वी एच एस कैमरों में तेजी से दर्ज होने लगी। शादी
की चहल-पहल को दर्ज करने में रोजगार के अलावा इन कैमरों की उपलब्धता से सुदूर
अंचलों में घट रही सामाजिक और राजनेतिक सरगर्मियों को दर्ज करने का भी अवसर अब नए
सिनेकारों के पास था। ये अलग बात है कि वीएचएस कैमरे से दर्ज की गयी तस्वीरों का
सम्पादन एक बेहद थकाऊ प्रक्रिया थी क्योंकि हमेशा कट लगाते हुए कुछ फ्रेम आगे
-पीछे हो जाते। इस उपलब्धता का समझदारी से इस्तेमाल करते हुए स्थानीय जरूरतों से
उपजे फिल्मकारों के समूह अखड़ा की चर्चा यहाँ करना बहुत प्रासंगिक होगा। रांची के
संस्कृतिकर्मियों के समूह अखड़ा से जुड़े फिल्मकार मेघनाथ और बीजू टोप्पो ने अपना
फ़िल्मी सफ़र 1996 में पहली फिल्म शहीद जो अनजान
रहे से किया फिर 2005 तक उन्होंने स्थानीय स्तर पर उपलब्ध वीएचएस और एसवीएचएस फॉरमैट पर एक हादसा
और भी , जहां
चींटी लड़ी हाथी से, हमारे गाँव में हमारा राज, विकास बन्दूक की नाल से और कोड़ा राजी जैसी महत्वपूर्ण
फिल्में बनायी जिनमे से विकास बन्दूक की नाल ने
भविष्य के कई आन्दोलनों को दिशा और संबल प्रदान किया।
ये इस
फॉरमैट की वजह से ही संभव हुआ कि हमें बीजू टोप्पो के रूप में पहला आदिवासी
फिल्मकार मिला।नब्बे के दशक में जिस तेजी से विकास के नाम पर राज्य
ने जन विरोधी समझौते बहुराष्ट्रीय
कंपानियों के साथ किये उसी तेजी के साथ
उनका प्रतिरोध भी हुआ। इन लड़ाइयों की
कहानियों को मुख्यधारा के सिनेमा
में जगह नहीं मिली। वहां अभी भी नयी कहानी का इंतज़ार, रीमेक की उबाऊ पुनरावृत्तियों,
विदेशी प्लॉटों को
देशी कथाओ में बदलने की जुगत का खेल चल रहा था और नया माध्यम सेटेलाईट टीवी बहुत जल्दी ही सनसनी और उच्स्तरीय दलाली
के संस्थान में तब्दील होता गया। जबकि इसके उलट भारतीय दस्तावेजी सिनेमा में नयी
उपलब्ध तकनालाजी को अपनाकर जन संघर्षों के साथ जीवंत दोस्ती की शुरुआत हो चुकी थी।
फिल्म निर्माण के खर्च के बहुत कम हो जाने के कारण अब आनंद पटवर्धन लम्बी फिल्में
बनाने लग गए और उनके अलावा चारों दिशाओं में नए -पुराने फिल्मकार अपने कामों से
जनता की लड़ाई को बहुत जरुरी सहयोग दे रहे थे। अब सिनेमा डब्बे में कैद होने के लिए
नहीं बल्कि बहुत कम लागत में दुहरकर नए मोबाइल एल सी डी प्रोजक्टरों के जरिये गाँव-गाँव अपनी अलख जगा रहा था।
नयी शताब्दी की कुछ चुनिन्दा दस्तावेजी
फिल्मों की सूची बनाएँ तो कुछ इस तरह की देश की तस्वीर हमारे सामने खड़ी हो जाएगी।
- विकास बन्दूक की नाल से (2003) - निर्देशक : बीजू टोप्पो और मेघनाथ, कथासार: ओडिशा , झारखंड, मध्यप्रदेश , गुजरात और छतीसगढ़ में आदिवासियों द्वरा अपनी जमीन पर सरकार द्वारा थोपी गयी परियोजनाओं का प्रतिरोध।
पी (शिट ) (2003)
- निर्देशक :
अमुधन आर पी, कथासार:
मदुरै की दलित सफाईकर्मी के नारकीय जीवन का एक दिन। इसके बहाने भारत के दलितों की स्थिति पर एक टिप्पणी।कित्ते मिल
वे माही (2005) - निर्देशक : अजय भारद्वाज, कथासार:
पंजाब के दलित और सूफियों की अनोखी दोस्ती की कहानी।
- 1000 डेज़ एंड अ ड्रीम (2006) - निर्देशक :पी बाबूराज और सी सरतचंद्रन,कथासार:केरल के प्लाचीमाड़ा में कोका कोला के खिलाफ हुए जन प्रतिरोध।
- AFSPA 1958 (2006) - निर्देशक : हाओबम पबन कुमार,कथासार: मणिपुर में काले क़ानून AFSPA 1958 के खिलाफ पूरे राज्य में प्रतिरोध
- ख़याल दर्पण (2006) - निर्देशक : युसूफ सईद,कथासार: पाकिस्तान में शास्त्रीय संगीत की खोज के बहाने भारतीय उपमहाद्वीप में हिंदुस्तान -पाकिस्तान की दोस्ती के मायने।
- महुआ मेमॉअर (2007) - निर्देशक : विनोद राजा,कथासार: आदिवासी बहुल राज्यों में प्राकृतिक संसाधनों की लूट और जनता का राज्य के खिलाफ प्रतिरोध।
- जश्न-ए -आज़ादी (2007)- निर्देशक : संजय काक,कथासार: कश्मीर में आज़ादी के मायने।
- द अदर सौंग (2009) - निर्देशक:सबा दीवान,कथासार:उत्तर भारत की तवायफों की कहानियां।
- वेअर हैव यू हिडन माई न्यू क्रिस्सेंट मून (2009) - निर्देशक:इफ्फत फातिमा,कथासार : कश्मीर की आधी विधवाओं के दर्द की दास्तान।
पचास से अस्सी के दशक तक जब भारत का फिल्म सोसाइटी
आंदोलन ffsi द्वारा संचालित होता था। फिल्म फेस्टिवल कराना खासी मशक्कत वाला काम था। फिल्में सिर्फ और सिर्फ प्रिंट पर
उपलब्ध थीं और एक फिल्म के प्राय एक ही प्रिंट होने के कारण बहुत पहले से सूचना
देने पर ही ffsi आपके इलाके के लिए फिल्म भेज सकती थी। प्रिंटों की उपलब्धता के बाद स्थानीय
स्तर पर फिल्म प्रोजक्टर का होना बहुत जरुरी था। फिर ज्यादा फिल्में फेस्टिवल में
शामिल होने पर प्रिंटों को स्टेशन से लाने के लिए एक अदद गाड़ी
और मजबूत सहयोगियों की टीम भी चाहिए थी इस कारण पुराना सिनेमा आन्दोलन
बहुत हद तक बड़े शहरों तक ही केन्द्रित था।
नयी तकनालाजी की वजह से 10 लाख का प्रोक्जक्टर अब कुछ हजार रुपयों में में मिलने लगा,
फिल्मों के भारी
-भरकम प्रिंटों को अब डीवीडी के पतले चक्कों ने अपदस्थ कर दिया और फिर बाद में तो
डीवीडी के चक्कों को और सस्ते और व्यावहारिक माध्यम हार्ड डिस्क ने रास्ता दिखाया।
जिस फेस्टिवल के लिए पहले कई लाख रुपयों, जगह, लोगों और घोड़ा -गाडी की जरुरत होती वो सिमटकर अब उत्साही
सिने एक्टिविस्ट के कन्धों पर आ गयी। इस वजह से सिनेमा और फिल्म फेस्टिवल इलीट गतिविधि
न होकर कविता /गीत सुनाने और नुक्कड़ नाटक करने जैसा हो गया। सिनेमा का पर्दा अब
इलीट न रहकर क्रांतिकारी भूमिका का निबाह
करने लगा।
नियमगिरि से गोरखपुर तक नये सिनेमा की गूँज:सस्ती तकनालाजी से न सिर्फ जमे और प्रशिक्षित
सिनेकारों ने फायदा उठाया बल्कि ज्यादा फायदा आन्दोलनों से जुड़े संस्कृतिकर्मियों
ने नए कैमरा और नए प्रोजक्टर की क्रांतिकारी
भूमिका को पहचान कर अपने आन्दोलन का प्रचार -प्रसार करने के वास्ते किया।
पहले जहाँ फिल्म फेस्टिवल कुछ बड़े शहरों और चुनिन्दा युनिवर्सिटियों के सिने
क्लबों तक सीमित थे अब वे मदुराई, यमुनानगर, अहमदाबाद, सिलीगुड़ी , बलिया, सलेमपुर, आजमगढ़, मालदा, बेगुसराय, नैनीताल, जयपुर, बिजनौर , फैजाबाद, इंदौर जैसी नयी जगहों पर लोकप्रिय होने लगे। इसी नयी
तकनालाजी की वजह से गोरखपुर प्रतिरोध का सिनेमा अभियान का मुख्य केंद्र बना और खाप पंचायतों वाले हरियाणा के यमुनानगर
शहर की लड़कियों को ठेठ स्त्री विमर्श की फिल्में देखने को मिलीं। मजे की बात है कि
इन नए केन्द्रों पर न सिर्फ गम्भीरता से सिनेमा देख रहे हैं बल्कि तकनालजी की वजह
से सस्ते दामों पर उपलब्ध डीवीडी प्रतियों को खरीदकर और नए लोगों को दिखा भी रहे
हैं और कह सकते हैं कि भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष पूरे होने पर अब सही मायने में
निर्मित हो रहे सिनेमा और दर्शकों के बीच कोई जैविक संबंध बनना शुरू हुआ है। यह भी
कि अब हम दावे के साथ कह सकते हैं हमारा सिनेमा(कम से कम दस्तावेजी सिनेमा ) भी
लोगों के सुख-दुःख से जुड़ा है।
नयी तकनालाजी द्वारा सिनेमा दिखाने के अवसर
क्रांतिकारी तरीके से दिखाने उपलब्ध कराने का फायदा यह हुआ कि भारतीय राज्यसत्ता
और मुख्यधारा के मीडिया संस्थाओं द्वरा सच को दबाये रखने और झूठ को बार - बार सच
की तरह पेश करने की नीति के बजाय जब एक इलाके का दुःख ,सच और संघर्ष दूसरे इलाके तक
पहुंचा तो ईमानदारी स्क्रीनिंग की वजह से दोनों इलाकों के बीच एक सच्चा सम्बन्ध और
एकता बनी। यही वजह है कि मणिपुर के लोगों
के संघर्ष को देखते हुए पर गोरखपुर फिल्म
फेस्टिवल में पूर्वांचल के लोग भी उनसे गहरे जुड़ जाते हैं और उस फिल्म के सूत्र
अपने संघर्षों के साथ जोड़ पाते हैं। ओडिशा के नियमगिरि और डोंगरिया कोंध
आदिवासियों की लड़ाई भी इसी खातिर व्यापकता पाकर दूसरी लड़ाइयों को बल प्रदान देती
है।
संजय जोशी
स्वतंत्र फिल्मकार और लेखक।
जन संस्कृति मंच द्वारा संचालित
प्रतिरोध का सिनेमा अभियान
के राष्ट्रीय संयोजक।
संपर्क:981157426
ई-मेल:thegroup.jsm@gmail.com
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नयी तकनालाजी ने न सिर्फ जनता के सुख-दुःख को
व्यापकता प्रदान की है बल्कि भारतीय दस्तावेजी सिनेमा एक कदम आगे बढ़कर मुख्यधारा
के सिनेमा को भी प्रभावित कर रहा है। कश्मीरी फीचर हारुद को हम सीधे- सीधे संजय काक की जश्न-ए -आज़ादी के प्रभाव में
बनी फिल्म के रूप में देख सकते हैं जो न सिर्फ अपने कहानी भी दस्तावेजी फिल्म से
हासिल करती है बल्कि उसे नए दर्शक भी जश्न-ए-आज़ादी द्वरा जमीन बनाने के कारण मिलते
हैं। इसी तर्क को हम गुरविंदर सिंह की पंजाबी फीचर फिल्म अन्हे घोड़े दा दान और अजय
भारद्वाज द्वरा बनाई गयी तीन दस्तावेजी फिल्मों कित्ते मिल वे माही , रब्बा हुन की करिए और मिलांगे बाबे रतन दे मेले ते के साथ
रखकर पेश कर सकते हैं।उम्मीद है आने वाले समय में तकनालाजी और जनप्रिय
होगी और फिर समझदार सिनेकारों और सिने एक्टिविस्टों की नयी पीढ़ी नए समय में और
जिम्मेवारी के साथ सिनेमा की क्रांतिकारी भूमिका को नयी ऊंचाई पर ले जायेगी।
सन्दर्भ :
1.The New Latin American Cinema:
Readings from Within
Edited by Indroneel Chakraborti and Samik Bandopadhyay
Published by Celluloid Chapter,
Jamshedpur, 1998
2. गुरिल्ला सिनेमा - आनद पटवर्धन
जन
संस्कृति मंच की दिल्ली इकाई द्वारा प्रकाशित , 1989
3. अखडा की वेबसाईट : http://www.akhra.in/akhrafilms.php
यह आलेख 'नया पथ' पत्रिका के सिनेमा विशेषांक में प्रकाशित हुआ था हम पाठक हित में 'नया पथ' से साभार यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं.-सम्पादक
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