त्रैमासिक ई-पत्रिका 'अपनी माटी' (ISSN 2322-0724 Apni Maati), वर्ष-2, अंक-16, अक्टूबर-दिसंबर, 2014
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छायाकार:ज़ैनुल आबेदीन |
डाॅ. नंदकिशोर नवल ‘निराला रचनावली’ के प्रथम खण्ड में तत्कालीन स्थितियों का सन्दर्भ देते हुए निराला की व्यंग्यचेत्ता की विशेषता को रेखांकित करते हुए लिखते हैं, ‘‘पूरा देश अंग्रेजांे की हुकूमत से छुटकारा पाने के लिए संघर्षरत था। जनता में प्रतिष्ठाकामी ऐसे जमीदारों का चरित्र दुहरा होता था। एक ओर तो ये छल-प्रपंचहीन स्वतंत्रता की बलिवेदी पर मर-मिटनेवाले स्वतन्त्रता-सेनानियों की यदा-कदा सहायता करते थे, तो दूसरी ओर अंग्रेजी प्रशासकों के यहाँ ‘स्वतन्त्रता सेनानियों’ की योजनाओं की खबरें भी पहुँचाया करते थे। जमीदारों के इस दुहरे चरित्र पर भी निराला ने व्यंग्य किया है।”[3] अंग्रेजों के शोषण तंत्र का एक बहुत महत्वपूर्ण माध्यम था स्वदेशी जमींदार-वर्ग। सारा कानूनी संरक्षण इन्हीं को प्राप्त था। किन्तु जनता की चैकसी से उनके दिन लद गये। अंग्रेजी शासन में देशी रियासतों के इन नवाबों और जमींदारों की विलासी प्रवृत्ति पर भी आक्रामक व्यंग्य किया है। ‘कुकुरमुत्ता’ कविता में निराला बड़ी ही तल्ख भाषा में गहरे व्यंग्य के द्वारा इसी प्रवृत्ति को उजागर करते हैं-‘रोज पड़ता रहा पानी/ तू हरामी खानदानी/ चाहिए तुमको सदा मेहरुन्निशा/ जो बहाकर निकाले इत्र, रू, ऐसी दिशा/ बहाकर ले चले लोगों को, नहीं कोई किनारा/ जहाँ अपना नहीं कोई भी सहारा/ ख्वाब में डूबा चमकता हो सितारा/ पेट में डंड पेले हांे चूहे, जबाँ पर लफ्ज प्यारा।’’[4] अंग्रेजों के शासन का सबसे बड़ा दुर्गुण पूँजीवाद को प्रोत्साहित करना था। ‘कुकुरमुत्ता’ के माध्यम से तो पूँजीपतियों पर व्यंग्य किया ही गया है, उनके अमानवीय शोषण-तंत्र को भी निराला ने बेनकाब कर दिया है। निराला को राजे-रजवाड़ो और पूँजीपतियों के स्वार्थी चरित्र की एकदम सही पहचान थी। पूँजीपतियों द्वारा गरीबों का आखिर साँस तक शोषण किया जाता है। निराला उनके शोषण वृत्ति पर करारी चोट करते हैं। ‘रानी और कानी’ शीर्षक कविता में व्यंग्य अत्यंत सघन रूप से सम्प्रेषित हुआ है। निविड़ निर्धनता से लड़ती हुई भी कानी सयानी हो गयी है। वह विवाह के योग्य हो चुकी है। उसकी सारी चिन्ता इस बात पर केन्द्रित है कि अगर कानी का ब्याह हो गया, तो उसका पानी कौन भरेगा अर्थात् बीनने, कूटने, पीसने, झाडू-बुहारू करने से लेकर चैका-बरतन तक का सारा काम कौन करेगा। गरीबों के खून चूसनेवाले इन शोषक पूँजीपतियों से सर्वहारा वर्ग आतंकित रहता है। ‘बादल राग-6’ में निराला ने लिखा है-‘अट्टालिका नहीं है रे/ आतंक भवन’’[5] किन्तु जनता एकजुटता के आगे शोषकों की शक्ति कमजोर दिखाई पड़ने लगती है-‘‘आतंक अंक पर काँप रहे हैं/ धनी, वज्र-गर्जन से बादल।’’[6]
निराला ने राष्ट्र और राष्ट्रीयता के सन्दर्भ में अनेक व्यंग्य किए गए हैं। भारत सैंकडों वर्षों तक पराधीन रहा। अंग्रजों ने स्वार्थ के वशीभूत होकर भारत के खण्ड-खण्ड किए। अपनी इस विजयोन्माद में उनका अहंकारशील होना तो स्वभाविक ही था, परन्तु भारतीय जनता ने भी उनके वीरता के गीत गाए। देशी रियासतों के अलावा इनमें अंग्रेजी शासकों से प्रभावित सचिवालयों के बड़े पदाधिकारी, वकील-बैरिस्टर, प्रोफेसर आदि लोग भी थे। ये जन्म से भारतीय थे परन्तु मानसिकता से अंग्रेज हो चुके थे। पश्चिमोन्मुखी सांस्कृतिक दृष्टि से पराजित ऐसे लोगों की खबर निराला ने ‘खूशखबरी’ शीर्षक कविता में ली हैं- ‘‘कैद पासपोर्ट की नहीं तो कभी/ देश आधा खाली हो गया होता।’’[7] सेवा-प्रारंभ’ कविता के आमुख में निराला ने लिखा है कि ऐसे लोग स्वदेश-सेवा की भावना से शून्य थे।[8] ये निराला जैसे स्वातन्त्र्यचेत्ता व्यक्ति कैसे सहन करते। निराला ने उन भारतीयों पर व्यंग्य किया है जिनमें स्वतन्त्रता की कोई चेतना नहीं है। उन्होंने उन पर भी व्यंग्य किया है जिनमें कुछ स्वतान्त्रय चेतना तो है किन्तु आलस्यवश अपनी मुक्ति के लिए अग्रसर नहीं हो पाते। निराला ने पाश्चात्य सभ्यता की कूटनीति व ‘फूट डालो और राज करो की अनीति को भी अपने व्यंग्य को निशाना बनाया। निराला रचनावली में लिखा है कि, ‘‘अंगे्रजों की कूटनीति ने भारतीय जनता को कई दलों में बाँट दिया। उनकी राजनीति रूपी नागिन ने अभागिन भारतीय सभ्यता को पूरी तरह डँस लिया है।’’[9] निराला ने धोखेबाज पाश्चात्य सभ्यता को ‘दगा’ शीर्षक कविता में बेनकाब किया है। उन्होंने देशवासियों को अंग्रेजों की चाटुकारिता करने से वर्जित किया है-‘चूम चरण मत चोरों के तू/ गले लिपट मत गोरों के तू/ अगर उतरना पार चाहता/ दिखा शक्ति बलवान।’[10] विदेशी शासन की सबसे बड़ी बुराई हुई कि उसने भारतीय जनता को ईमान के रास्ते पर नहीं रहने दिया। उसने एक खुदगर्ज, चापलूसी और अवसरवादी पीढ़ी को जन्म दे दिया। लोग स्वार्थी हो गए। ‘वनबेला’ शीर्षक कविता में निराला ने लोगों की इस स्वार्थ-वृŸिा पर क्षोभ भरा व्यंग्यात्मक संकेत किया है-‘हो गया व्यर्थ जीवन, मैं रण में गया हार !/सोचा न कभी-/ अपने भविष्य की रचना पर चल रहे सभी।’’[11]
निराला ने इस सत्य का अनुभव किया है कि अनेक सामाजिक बुराईयों की जड़ में सामाजिक विषमता है। इसलिए अपनी कविताओं में उन्होंने समाज के अनेक मुद्दे पर व्यंग्य किये हैं। ‘जातिगत विषमता’, सामाजिक-आर्थिक विषमता का शिकार आम आदमी इन मुद्दों के केन्द्र में है। सामाजिक वैषम्य के सन्दर्भ में ‘कुकुरमुत्ता’ और ‘गुलाब’ के माध्यम से सामाजिक वैषम्य पर अच्छा व्यंग्य है जिसकी प्रशंसा अनेक समीक्षकों ने की है। स्वतन्त्रता के पहले शोषितों की जो दयनीय स्थिति थी, स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी उनकी स्थिति वैसी ही बनी रहीं थी। सामाजिक न्याय और सामाजिक समता के आधुनिक सन्दर्भ में ‘भिक्षुक’ कविता में सामाजिक-आर्थिक विषमता पर निराला द्वारा किया व्यंग्य और भी सार्थक हो जाता है-‘‘वह आता/ दो टूक कलेजे के करता पछताता/ पथ पर आता/ पेट-पीठ दोनों मिलकर हैं, एक,/ चल रहा लकुटिया टेक/ मुट्ठी भर दाने को-भूख मिटाने को/ मुँह फटी-पुरानी झोली को फैलाता/ साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाए/ बाँए से वे मलते हुए पेट को चलते/ और दाहिना दया-दृष्टि पाने की ओर बढ़ाए/ भूख से सूख ओठ जब जाते/ दाता- भाग्य-विधाता से क्या पाते?/ घूँट आँसुओं के पीकर रह जाते/ चाट रहे जूठी पŸाल वे कभी सड़क पर खड़े हुए,/और झपट लेने को उनसे कुŸो भी है अड़े हुए।’’[12]
निराला अपने व्यंग्य का आलम्बन समाज के उन तथाकथित बड़े व्यक्तियों को भी बनाते हंै जो समाज के उच्च वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। हर समाज में सफेदपोशों की एक अलग जाति होती है। ऐसे लोग सभ्यता, शील और नैतिकता की आड़ में हर प्रकार का भ्रष्ट व्यवहार करते हैं और दिखावटीपन की गहरी खाल में छुपे रहते हैं। ‘शशी वे थे शंश-लाछन’ शीर्षक कविता में इस व्यंग्य को भली-भाँति अभिव्यक्ति मिली है। लक्ष्मी के इन वाहनों की मूर्खता पर भी निराला ने व्यंग्य किया है। निराला ने सांसारिक रीति-रिवाजों और ढोंग को भी अपने व्यंग्य का विषय बनाया है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण ‘सरोज-स्मृति’ है जिसमें निराला ने एक करुण प्रसंग के माध्यम से परम्परा वाहक अपने समकालीन समाज का चित्रण किया है-‘‘सासु ने कहा एक दिवस/‘भैया, अब नहीं हमारा बस/ पालना-पोसना रहा काम/ देना ‘सरोज’ को धन्य धाम/ शुचि वर के कर, कुलीन लखकर/ है काम तुम्हारा धर्मोत्तर।’’[13] निराला परम्परा से चली आ रही पारिवारिक और सामाजिक रूढ़ियों को तोड़कर एक नवयुवक से, बिना किसी धूम-धड़ाके के सरोज का विवाह कर दिया। इतना ही नहीं, कवि ने लिखा है कि विवाह के बाद-‘‘माँ की कुल शिक्षा मैंने दी, पुष्प-सेज तेरी स्वयं रची/सोचा मन में, ‘‘विवाह शकुन्तला, पर पाठ अन्य यह, अन्य कला।’’[14]
संसार के सारे संबंधों के मूल में स्वार्थ है इसको निराला जानते थे। अतः इस पर करारी चोट उनके काव्य में देखने को मिलती है। आज मानव अपने स्वार्थ के इतना वशीभूत हो गया है कि प्रत्येक मनुष्य से बस अपना काम साधने की फिराक में लगा रहता है। अपना स्वार्थ की पूर्ति होने के बाद उससे इस प्रकार नाता तोड़ता है जैसे हम समाचार-पत्र पढ़कर उसे रद्दी समझकर फेंक देते हो। मानो संसार में एक मनुष्य का नाता स्वार्थ तक ही सीमित होकर रह गया है। निराला की मैं पढ़ा हुआ सा पत्र, न्यस्त’ में लोगों की इस मनोवृŸिा पर प्रकाश पड़ता है। ‘अनामिका’ में संकलित एक और कविता है जिसका शीर्षक है ‘ठूँठ’। इस कविता में भी निराला ने संसार के लोगों की इस स्वार्थी मनोवृŸिा पर गहरा व्यंग्य किया है-‘‘ठूँठ यह है आज!/ गयी इसकी कला/ गया है सकल साज..../ झरते नहीं यहाँ दो प्राणियों के नयन-तीर।’’[15] निराला ने नारी की सामाजिक स्थिति व समाज की अनेक बुराईयों जैसे बाल विवाह, बाल-वैधव्य, बहु विवाह आदि पर भी व्यंग्य किए है। भारता का समाज पुरुष प्रधान रहा है। व्यवस्था के समस्त अधिकार उसके हाथ में आज भी हैं। विधवा का जीवन तो और अधिक कष्टदायक है। नारी के वैधव्य जीवन की विभीषिका पर दुख प्रकट करते हुए निराला ‘विधवा’ कविता में लिखते हैं-‘‘वह इष्टदेव के मन्दिर की पूजा-सी/ वह दीप शिखा-सी शान्त, भाव में लीन/ वह क्रूर काल-ताण्डव की स्मृति-रेखा-सी/ वह टूटे तरु की छुटी लता-सी दीन/ दलित भारत की ही विधवा है/ षड्-ऋतुओं का शृंगार/ कुसुमित कानन में नीरव-पद-संचार/ अमर कल्पना में स्वच्छन्द विहार/ व्यथा की भूली हुई कथा है/ उसका एक स्वप्न अथवा है/ उसके मधु-सुहाग का दर्पण/ जिसमें उसने देखा था उसने/ बस एक बार बिम्बित अपना जीवन-धन/ अबल हाथों का एक सहारा।’’[16]
धार्मिक क्षेत्र में निरन्तर बढ़ती विषमताएँ और अनेक अस्वाभाविक वर्जनाओं, रूढ़ियों और निहित स्वार्थों के चलते इस क्षेत्र में विसंगतियाँ बहुत अधिक मिलती है। निराला के समय में भी समाज धर्म के कठोर बंधनों से जकड़ा हुआ था। इसलिए निराला ने भी तथाकथित धर्म और उसके ठेकेदारों पर अनेक व्यंग्य किये हैं। ‘दान’ कविता धार्मिक क्षेत्र पर चोट करने वाली प्रमुख कविता मानी जाती है। जिसमें निराला द्वारा तथाकथित भक्त पर जर्बदस्त व्यंग्य किया गया है-‘मेरे पड़ोस के वे सज्जन/ करते प्रतिदिन सरिता मज्जन,/ झोली से पुए निकाल लिये/ बढते कपियों के हाथ दिये,/ देखा भी नहीं उधर फिरकर/ जिस और रहा वह भिक्षु इतर,/ चिल्लाया, किया दूर दानव/ बोला मैं-‘धन्य, श्रेष्ठ मानव।’’[17] उपर्युक्त उदाहरण में ‘धन्य मानव’ में मनुष्यों की मूर्खतापूर्ण व्यवहार और क्रूर धार्मिकता पर पाठकों के मन को झकझोर देनेवाला व्यंग्य है। निराला के धार्मिक व्यंग्यों का लक्ष्य अन्धश्रद्धालुओं, भक्तजनों की विकृत भक्ति व धार्मिक पवित्र स्थलों में फैले आडम्बरों को बनाया। तीर्थस्थान व्यभिचार के अड्डे हो गए है। वहाँ लोग भक्ति नहीं, भोग-विलास करने जाते हंै। शुद्ध भक्ति की भावना का तीर्थयात्रियों में अभाव होता है। तीर्थस्थानों के अपढ किन्तु अहंकारी और ठगविद्या में निपुण पण्डों पर भी निराला ने अपनी कविताओं में व्यंग्य किया है। निराला की व्यंग्य-दृष्टि के प्रखर प्रवाह में भक्तों के साथ-साथ भगवान भी नहीं बच पाये हैं। सर्वव्यापी प्रभु के लीला-विहार पर भी निराला ने हल्का व्यंग्य किया है-‘सभी लोगों में योग-ध्यान बने बैठे हैं/ ज्ञानी के ज्ञान है, अज्ञान बने बैठे हैं..../मिले हैं तुमसे द्विजोŸाम बनकर मन्दिर में/ अभी मस्जिद में मुसलमान बने बैठे है।’’[18] निराला मूलतः आस्तिक हैं। किन्तु निराला की प्रखर अभिव्यक्ति ने दैव तक को भी नहीं बख्शा है। ‘दलित जन पर करो करुणा’ और ‘विधवा’ शीर्षक कविता की अन्तिम पंक्तियों में निराला ने उन्हें उनके अन्याय के लिए फटकारा है। क्योंकि वे जानते थे कि बिना वर्तमान सामाजिक व्यवस्था की सडाँध को दूर किये नवीन स्वस्थ समाज की नींव नहीं रखी जा सकती।
निराला ने अपने सामाजिक व्यंग्यों के ही घेरे में राजनीति और राजनीतिज्ञों को भी अपने अचूक व्यंग्य का निशाना बनाया है। उन्होंने तथाकथित नेता पदवीधारी की कथनी-करनी तथा उसके दोषपूर्ण आचरणों पर कई तल्ख व्यंग्य किये हैं। भारत की राजनीति में पीढ़ी-दर-पीढ़ी की परम्परा रही है। भाई-भतीजावाद राजनीति की दुर्बलता रही है जिसको निराला ने अच्छी तरह पहचाना है। देश में ऐसे नेताओं की कभी कमी नहीं रही जो स्वभाविक शून्य, देशद्रोही है जो जनता की आँखों में धूल झोंककर अपना स्वार्थसिद्धि में लिप्त रहे। निराला ऐसे स्वार्थी अवसरवादी और भ्रष्ट नेताओं की देशभक्ति के रहस्य को खूब ठीक से पहचानते हैं। वे जानते हैं कि ऐसे अथवा देशप्रेम तथाकथित नेताओं के देशप्रेम के मूल में उनकी प्रतिष्ठाकांक्षा के अलावा और कुछ नहीं होता। थोथी भाषणबाजी और गाँधीजी के सिद्धान्तों का झूठा अनुसरण करने वाले नेताओं पर निराला ने व्यंग्य किया है। इस सन्दर्भ में ‘झींगुर डटकर बोला’ शीर्षक कविता की कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-‘‘गान्धीवादी आये/ देर तक गान्धीवाद क्या है, समझाते रह/ देश की भक्ति से/ निर्विरोध शक्ति से/ राज अपना होगा/ जमींदार, साहूकार अपने कहलाएँगे/शासन की सŸाा हिल जाएगी/ हिन्दू और मुसलमान/ वैरभाव भूलकर जल्द गले लगेंगे../इस प्रकार जब बघार चलती थी/ जमींदार का गोड़इत/ दोनाली लिए हुए/ एक खेत फासले से/ गोली चलाने लगा/ भीड़ भगने लगी।’’[19] सामाजिक और राजनीतिक व्यंग्यों की तरह निराला ने साहित्यिक क्षेत्र की विसंगतियों को भी अपने व्यंग्य का लक्ष्य बनाया। उन्होंने कवि-स्वभाव और कवियों की सामाजिक स्थिति पर व्यंग्य किया है। कवि को इस बात का गर्व है कि हिन्दी साहित्य संसार को उन्होंने बहुत कुछ दिया है। साथ ही निराशा और वेदना यह है कि इतना सब होने पर भी हिन्दी वालों से उन्हें नितान्त उपेक्षा ही मिली है। इस बारे में सरोज-स्मृति की वे पंक्तियाँ द्रष्टव्य है जब सम्पादकों द्वारा कविय की रचना सखेद लौटा देते थे, तब कवि अत्यधिक उदास हो जाया करते थे। निराला लिखते हैं-‘‘पर सम्पादक-गण निरानन्द/ वापस कर देते पढ़ सत्वर/ दे एक-पंक्ति-दो में उŸार/ लौटी रचना लेकर उदास/ ताकता हुआ मैं दिशाकाश/ बैठा प्रान्तर में दीर्घ प्रहर व्यतीत करता था गुन-गुन कर/ सम्पादक के गुण, यथाभ्यास/ पास की नोंचता हुआ घास/ अज्ञात फेंकता इधर-उधर/ भाव की पूजा चढ़ती उन पर।’’[20]
सन्तोष विश्नोई
एस. आर. एफ शोधछात्रा
हिन्दी विभाग,
वनस्थली विद्यापीठ ,राजस्थान
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सन्दर्भ:
[1] कवि निराला, डाॅ. नन्ददुलारे वाजपेयी, वाणी वितान, वाराणसी, पृ. 39
[2] निराला रचनावली द्वितीय खण्ड, सं. नंदकिशोर नवल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण, 1992 पृ. 15
[3] वहीं, पृ. 204-205
[4] वहीं, पृ. 51
[5] निराला रचनावली प्रथम खण्ड, पृ. 135
[6] वहीं, पृ. 136
[7] निराला रचनावली द्वितीय खण्ड, पृ. 121
[8] वहीं, पृ. 353
[9] निराला रचनावली प्रथम खण्ड, पृ. 154
[10] निराला रचनावली, द्वितीय खण्ड, सं. नंदकिशोर नवल, पृ. 67-68
[11] निराला रचनावली प्रथम खण्ड, पृ. 246-47
[12] वहीं, पृ. 77
[13] राग विराग सूर्यकान्त त्रिपाठी
‘निराला’, सं. रामविलास शर्मा, लोकभारती प्रकाशन, नई दिल्ली, 2008, पृ. 87
[14] वहीं, पृ. 91
[15] पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, डाॅ. परमानन्द श्रीवास्तव, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली, पृ. 352
[16] आधुनिक काव्य संग्रह, सं. रामवीरसिंह, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, 2013, पृ. 85
[17] निराला रचनावली प्रथम खण्ड, पृ. 309
[18] निराला रचनावली द्वितीय खण्ड, पृ. 473
[19] राग विराग सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, सं. रामविलास शर्मा, पृ. 140
[20] वहीं, पृ. 83
[21] पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, डाॅ. परमानन्द श्रीवास्तव, पृ. 60-61
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