त्रैमासिक ई-पत्रिका 'अपनी माटी' (ISSN 2322-0724 Apni Maati), वर्ष-2, अंक-16, अक्टूबर-दिसंबर, 2014
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छायाकार:ज़ैनुल आबेदीन |
फ़ारुक़ीजी का हिंदी रूपांतरित उपन्यास ‘कई चांद थे सरे आसमां’ 748 पृष्ठों में प्रकाशित हुआ है। इस उपन्यास में उन्होंने भारतीय परंपरा की विविध विशेषताओं को विवरण शैली में लिपिबद्ध किया है। उन्होंने 18वीं-19वीं शताब्दी के भारत में संगीत, चित्रकारी, शिल्पकारी, बुनकरी, भाषा-विज्ञान एवं साहित्य की विविधवर्णी प्रचलित परंपराओं को सामने लाती हुई ग़ालिब, जौक़, दाग़ जैसे नामचीन शायरों की शायरी से सजी कथा को विस्तार से अपने उपन्यास में रखा है। इस उपन्यास में एक जगह फ़ारुक़ीजी लिखते हैं कि आज के लोग बहुत कुछ भूलते जा रहे हैं, कदाचित् इसीलिए वह विस्तार से वर्णन करते हुए उपन्यास में उपस्थित हुए हैं। इस कथा में तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक चेतना का सुंदर संगुंफन हुआ है, किंतु कथा में वर्णनाधिक्य के कारण कहीं-कहीं पुनरावृति हो गई है। जब वह उर्दू के ललित गद्य में हिंदी बोलियों का समाहार करते हुए लिखते हैं तो पाठक कथा के साथ-साथ नायाब गद्य से रूबरू होता हुआ चलता है। उपन्यास में आए हिंदी-उर्दू के प्रचलित मुहावरे और प्रसंगवश आए कुछ शब्दों की व्युत्पत्ति करते हुए उपन्यास की कथा बुनी गई है। उपन्यास में 50 वर्षों की कथा का क्षेत्र राजपूताना से लोकर कश्मीर, लाहौर, फ़र्रुख़ाबाद एवं दिल्ली तक फैला हुआ है। कथा का समय मुग़ल काल के पतन और ईस्ट इंडिया कंपनी के मज़बूत होने के संक्रमण काल तक फैला हुआ है। यह कथा केवल काल्पनिकता की उड़ान नहीं भरती, वरन् यह समसामयिक विमर्शों में से एक स्त्रीवादी लेखन में छाए हुए स्त्री प्रश्नों को लेकर ऐतिहासिक पात्रों के माध्यम से पाठक के सम्मुख उपस्थित होती है। उपन्यास की कथा नायिका प्रधान है। कथा नायिका वज़ीर ख़ानम विलक्षण सौंदर्य की धनी एवं सुरुचि साहित्य संपन्न है। उपन्यास की यह प्रधान पात्र वस्तुतः प्रसिद्ध उर्दू शायर दाग़ देहलवी की मां थी। वज़ीर के पूर्वज किशनगढ़ राजपूताना में रहते थे, जहां से उसके पूर्वजों में से मियां मख्सूसुल्ला बडगाम कश्मीर चले गए थे।
मियां मख्सूसुल्लाह मुसलमान थे या हिंदू, कथाकार के लिए यह कहना मुश्किल था। मियां के दो पौत्र दाऊद और याक़ूब फ़र्रुख़ाबाद और दिल्ली आकर बस गए और जेवर बनाने का काम करने लगे लेकिन ये भाई मराठा फ़ौज के साथ लड़ाई में कहीं खो गए। इनका एक बेटा यूसुफ बचा रहा, जिसका विवाह अक़बरी बाई की बेटी असग़री से हुआ। मुग़लों का सूर्य अवसान पर था और दिल्ली में ईस्ट इंडिया कंपनी अपने पैर पसार चुकी थी, तब 1811 ई में तीसरी और सबसे छोटी बेटी के रूप में इन्हीं मुहम्मद यूसुफ नाम के सुनार के यहां वज़ीर ख़ानम का जन्म हुआ। कथाकार इस उपन्यास को किसी कथा से अधिक इतिहासकार की भांति कथा का आरंभ करता है। फ़ारुक़ीजी लिखते हैं ‘पर्दानशीन मुसलमान लड़की जो बज़ाहिर कहीं कस्बन (गणिका) या पेशेवर नचनी न थी, किस तरह और क्यों एक अंग्रेज के अधिकार तक पहुंची, इसके बारे किसी लिखित परंपरा या किसी चश्मदीद गवाह के बयान की बुनियाद पर तैयार किया हुआ ब्योरा नहीं मिलता।’ वज़ीर ख़ानम अपने जीवन में अपनी इच्छा और शर्तों से विवाह अथवा बिना विवाह किए हुए वर्तमान में चल रहे लिवइनरिलेशनशिप की तरह चार पुरुषों के साथ रही और चारों असमय कालकवलित हो गए। सर्वप्रथम वह एक अंग्रेज अधिकारी मार्स्टन ब्लेक के साथ रही, जिससे उसके दो बच्चे हुए। ‘ज़्यादा संभावना यह है कि मार्स्टन ब्लेक उनकी ज़िंदगी में पहला मर्द था और उससे वज़ीर ख़ानम की मुलाक़ात देहली में हुई।’ वज़ीर के पिता और बड़ी बहिन स्वतंत्र विचारों के कारण उससे रुष्ट रहते, पर वह ब्लेक के साथ जयपुर में बिना विवाह किए रहकर दो बच्चों की मां बनी। वहां महाराजा की हत्या के संदेह में भीड़ ने ब्लेक को मार दिया। बच्चों को ब्लेक की बहिन ने वज़ीर को नहीं दिया। वज़ीर जयपुर से दिल्ली आ गई। उसका दूसरा साहचर्य उर्दू के प्रतिष्ठित साहित्यकार मिर्ज़ा ग़ालिब के निकट संबंधी नवाब शमसुद्दीन अहमद खां से हुआ। वज़ीर नवाब के साथ विवाह करते हुए रही। उपन्यासकार ने जगह-जगह कथा में पात्रों द्वारा और कथा-वर्णन में संगीत की विविध राग-रागिनियों का नामोल्लेख करते हुए शे‘र और पद उद्धृत किए हैं। वह बड़ी बारीक़ी और विस्तार से वर्णनपरक कथा बुनते हुए कहता है ‘तालीम को समझना उसे ईजाद करने से कुछ ही कम बारीक़ी मांगता है।’ फ़ारुक़ीजी शिक्षा को बहुआयामी बनाने पर ज़ोर देते हैं, वे कहते हैं ‘तालीमनवीस को शायर, मुसव्विर, नर्तक, गायक सब कुछ होना चाहिए।’ शिक्षा के विविध स्वरूप हैं, किसी भी क्षेत्र में कोई महत्वपूर्ण योगदान कर सकता है। वह एक पात्र से कहलवाते हैं ‘क्या तुम जानते हो कि जो सुन नहीं सकता, वह ज़्यादा अच्छा देख सकता है? लेकिन जो सुन नहीं सकता वह बोल नहीं सकता? और जो बोल नहीं सकता वह गा नहीं सकता, लेकिन वह नाच सकता है?’
शम्सुर्रहमान फ़ारुक़ी/कई चांद थे सरे-आसमां उर्दू से हिंदी अनुवाद नरेश 'नदीम'/ पेंगुइन बुक्स इंडिया प्रा लि, 11 कम्युनिटी सेंटर, पंचशील पार्क नई दिल्ली-110017/ मूल्य ₹ 599/- |
उपन्यास में आशा-निराशा, प्रगतिशीलता और नारी संवेदना का प्रभावशाली अंकन ललित गद्य में किया गया है। उपन्यास में दृष्टव्य है कि ऊंचे दर्जे़ की कारीगरी विविध क्षेत्रों में उस समय देश में होती थी और उन सबका समाज में सम्मान था। आशावाद का एक उदाहरण दृष्टव्य है ‘ज़िंदगी के समंदर की लहरें हर जगह मोती बिखेरती हैं और इन आबदार मोतियों को मुट्ठियों को बटोर लेने वाले हुनरमंद नक़्क़ाश भी हर जगह हैं।’ निराशा - ‘शायरी जितनी मीठी और सजिल, ज़िंदगी उतनी ही कड़वी और कठिन है।’ उपन्यास में हिंदू और मुस्लिम संस्कृति का पार्थक्य नहीं है। सर्वत्र हिंदुस्तानी संस्कृति में पात्र रचे-बसे हैं। मुस्लिमों के साफ-सुथरे रहन-सहन से हिंदू तो हिंदुओं के देवी-देवताओं का प्रभाव मुस्लिमों पर हुआ दिखाया गया है। उपन्यास मेें फ़र्रुख़ाबाद के मुसलमान रस्मों और आदतों में हिंदुओं के बहुत क़रीब थे। हबीबा के एक भाई को सीतलामां अपनी गोद में चिरनिद्रा में सुला लेती है। उपन्यास में चित्रित प्रगतिशीलता याक़ूब के इस कथन में दृष्टव्य है ‘इन लड़कियों पर तुम्हारा कोई हक़ नहीं। ये बालिग़ हैं और अपनी मर्ज़ी की मालिक। तुम इन्हें अपनी हवस का शिकार बनाकर कोठे पर बेचना चाहते हो तो यह हम न होने देंगे।’ दिल्ली में अपनी सबसे बड़ी बहिन द्वारा विवाह करने की बात पर वज़ीर कहती है ‘...बच्चे पैदा करें, शौहर और सास की जूतियां खाएं, चूल्हे-चक्की में जल-पिसकर वक़्त से पहले बूढ़ी हो जाएं।’ वज़ीर की बाज़ी कहती है ‘जबसे दुनिया बनी है औरतें इन्हीं कामों में लगाईं गईं हैं। एक शरीफ़ाना राह है, एक कमीनों की राह है।’ वज़ीर जवाब देती है ‘बस भी करो ये शरीफ़ों, कमीनों की बातें। मर्द कुछ भी करते फिरें, उन्हें कोई कुछ भी न कहे और हम औरतें ज़रा ऊंचे सुर में भी बोल दे तो ख़ैला छत्तीसी कहलाएं।’ बाज़ी द्वारा महिलाओं का शर्म, हया, ममता, क़ुर्बानी देने का वास्ता देने पर वज़ीर कहती है ‘मेरी सूरत अच्छी है, मेरा ज़हन तेज है, मेरे हाथ-पांव सही हैं। मैं किसी मर्द से कम हूं? जिस अल्लाह ने मुझमें ये सब बातें जमा कीं, उसको कब गवारा होगा कि मैं अपनी काबिलियत से कुछ काम न लूं, बस चुपचाप मर्दों की हवस पर भेंट चढ़ा दी जाऊं?’
स्त्री और पुरुष के शाश्वत संबंधों को लेकर हुई बातचीत में उपन्यासकार कई प्रश्नों को उठाता है और उनके उत्तरों को खोजने का प्रयास करता है। पुरुष के लिए स्त्री इज़्ज़त है और स्त्री के लिए पुरुष वारिस, लेकिन वारिस बनाने के लिए विवाह कहां आवश्यक है। इन शाश्वत सामाजिक प्रश्नों की कथाकार ने उपेक्षा नहीं की है। वज़ीर और उसकी बाज़ी में हुए वार्तालाप में आखि़रकार चिढ़ते हुए वज़ीर अपना निर्णय देती है ‘मुझे जो मर्द चाहेगा उसे चखूंगी; पसंद आएगा तो रखूंगी नहीं तो निकाल बाहर करूंगी। इसके बाद वह ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी मार्स्टन ब्लेक के साथ रहने लगती है। वज़ीर के एक अंग्रेज के साथ के अनुभवों का वर्णन इस प्रसंग में हुआ है। पुरुषों के बारे में आमधारणा होती है कि उन्हें अपनी इच्छा सर्वोपरि होती है, किंतु किसी स्त्री की इच्छा और सुविधा का ध्यान रखने में अंग्रेज हिंदुस्तानियों से कहीं आगे हैं। ब्लेक के साथ रहकर वज़ीर में खुलापन आ जाता है, वह ब्लेक के साथ एक ही थाली में भोजन करती है। हिंदुस्तानी पुरुष जहां स्त्री से माफी मांगने में अपना अनादर मानते हैं, वहीं जब ब्लेक वज़ीर से अम सारे रे (आइ एम सारी) कहता तो वज़ीर को बहुत भला लगता। कथाकार ने इसी प्रसंग में कई शब्दों का अंग्रेज उच्चारण दिया है।
वज़ीर अपने बच्चों की शिक्षा पर विशेष ध्यान देते हुए अपनी शर्तों पर ब्लेक का घर छोड़ देती है। जयपुर से दिल्ली आकर वह सन् 1830 में विलियम फ्रेजर के यहां एक कवि सम्मेलन में जाती है। वहां देखकर फ्रेजर वज़ीर पर आसक्त हो जाता है, किंतु वज़ीर उसके लिए उदासीन है, जिससे फ्रेजर नाराज़ हो जाता है किंतु वज़ीर को इसकी परवाह नहीं। वह कहती है ‘वो अंखमुंदी और होंगी जो दो वक़्त की रोटी पर आबरू बेच देती हैं।’ इसी कवि सम्मेलन में मौजूद मिर्ज़ा ग़ालिब के रिश्तेदार नवाब अहमद खां से वज़ीर विवाह कर लेती है। वज़ीर और नवाब का शायराना संवाद चलता रहता है। नज़ाकत और नफ़ासत भरे वातावरण में दोनों की ज़िंदगी बसर हो रही होती है। मुग़लकालीन स्त्री की स्वतंत्रता और आत्मसम्मान का जो ध्यान इस कथा में देखा गया, वह विरल है। वज़ीर सोचती है ‘मुझे जो मर्द चाहेगा कोई ज़रूरी नहीं कि मैं भी उसे चाहूं। उपन्यास में जगह-जगह सुने हुए किंतु अबूझे से शब्दों के अर्थ उपन्यासकार ने खोले हैं जैसे लनक्लॉट अंग्रेजी के लॉंग क्लाथ का भाषारूप है।
हिंदुस्तानी और अंग्रेजी परंपरा के अंतर को उपन्यास में रेखांकित किया गया है। अंग्रेज नज़रें झुकाकर बात करने वालों को दग़ाबाज़ या बेईमान समझते हैं, वहीं हिंदी तहज़ीब में बड़ों से, अजनबियों से, क़रीबी अज़ीज़ों से आंख मिलाकर बात करने को असभ्य कहा जाता है। अंग्रेज पुरुष-स्त्री जहां कभी-कभी स्नानागार में एक साथ स्नान कर लेते हैं लेकिन हिंदुस्तानी परंपरा में यह ऐब है। अंग्रेज अपने नौकरों का कभी शुक्रिया अदा नहीं करते, जबकि हिंदुस्तानियों में पुराने नौकरों का शुक्रिया; बल्कि उनके पूरे सम्मान की रस्म हुआ करती थी। नवाब शम्सुद्दीन और वज़ीर के हमबिस्तरी प्रसंग में कथाकार ने हिंदुस्तानियों और अंग्रेजों के तौर-तरीक़ों को अलग-अलग दिखाया है। फ़ारुक़ीजी कामक्रिया के अंग-प्रत्यंगों का बिना सनसनी पैदा किए ऐसा बारीक़ वर्णन करते हैं कि पाठक के सामने समूचा दृश्य चित्र उपस्थित हो उठता है। दर्शक कैमरे से निकले फोटो और वीडियो के दृश्यों को तो ओझल कर सकता है, पर इन वर्णनों को पढ़ने में पाठक तनिक भी बेख्याल नहीं होता। नवाब साहब से वज़ीर के दैहिक संबंध बनाने के बाद ही साथ रहने संबंधी भविष्य की योजनाएं तय होती हैं। वज़ीर ख़ानम से नवाब साहब का एक पुत्र 25 मई 1831 को पैदा हुआ, जिसे नवाब मिर्ज़ा नाम दिया गया और जो बाद में वास्तविक रूप में दाग़ देहलवी के नाम से प्रसिद्ध शायर हुए।
विलियम फ्रेजर वज़ीर पर बुरी निगाह रखता, वह उसे बाज़ारू औरत समझता था। इससे नाराज़ होकर नवाब ने उसका क़त्ल करा दिया। इस अपराध में नवाब को फांसी दे दी जाती है।स्त्री जीवन की विडंबना और विवशता तथा पारंपरिक छबि के बरक्स कथाकार ने वज़ीर के रूप में उसकी मज़बूती, स्वनिर्णय और आत्मनिर्भरता में चित्रित किया है। खालिस अरबी-फारसी के शेरों का अर्थ उपन्यास में जगह-जगह दिया गया है, फिर भी अनेक शब्दों का अर्थ पाठक को खोजना पड़ता है। इसका आशय है कि पाठक को हिंदुस्तानी शब्दों से सामान्यतः परिचित होना ही चाहिए। भाषा की रवानगी उपन्यास से जाती न रहे, शायद अनुवादक नरेश ‘नदीम’ ने इसीलिए मूल गद्य से छेड़खानी उचित न समझी हो।
विलियम फ्रेजर की हत्या होने के प्रसंग में फ़ारुक़ीजी बंदूकों का वर्णन करने लगते हैं। बंदूकों की कील और पुर्जों का वर्णन वे ऐसे करते हैं जैसे कोई आयुध निर्माणी कार्यशाला से होकर आए हों। संक्षिप्ताक्षरों का विस्तार करते हैं यथा डीबीबीएल का पूरा रूप है डबल बैरल्ड ब्रीच लोडिंग। हिंदी में जिसे दोनाली, क़राबीन या रिफल या दोगाड़ा कहते थे। बेधरमी इसे अंग्रेजो द्वारा भारत लाए जाने के कारण कहा गया। ‘भरमारू’ बंदूक में बारूद और गोली नाली की राह से भरी जाती थी। क़राबीन फ्रांसीसी बंदूक थी, जिसे अंग्रेजी और फ्रेंच में कारबाइन कहा जाता है। इन हथियारों को चलाने और उनकी मारक क्षमता सहित अन्य गुण-दोषों का वर्णन कथाकार ने इस प्रसंग में किया है। जिस क़रीमखां से नवाब शमसुद्दीन ने विलियम फ्रेजर की हत्या करवाई, उसे अंग्रेजों ने थर्ड डिग्री दी, फिर भी क़रीमखां ने शमसुद्दीन का नाम नहीं लिया। यद्यपि अंग्रेजों की अदालत ने 26 वर्षीय शमसुद्दीन अहमद को फांसी की सज़ा दे दी।
वज़ीर ख़ानम एक बार फिर विधवा हो गई। वह सोचती है यह दुनिया पुरुष की दासी और स्त्री की शत्रु है। यह ऐसा भंवरजाल है जिससे निकल पाना असंभव है। इस निराशा के बीच उसकी मंझली बाज़ी उम्दा ख़ानम उसको शिया समुदाय के आग़ा मिर्ज़ा तुराब अली के साथ रखना चाहती है। इस प्रसंग में उम्दा का वज़ीर के साथ जो संवाद चलता है, वह स्त्री चेतना को मज़बूत तर्काें के साथ पाठक के सामने लाता है। वज़ीर, मंझली बाज़ी, जहांगीरा बेगम और आग़ा साहब की इच्छा और शर्तों से नहीं, अपितु वह किस मिज़ाज के हैं और नवाब मिर्ज़ा के लाड़-प्यार में कमी तो न रखेंगे की आशंकाओं को दूर कर लेना चाहती है। आग़ा शिया हैं और वज़ीर सुन्नी। वज़ीर आग़ा से होने वाली संतान को अपने रंग-ढंग से पालने की शर्त लगाती है। वज़ीर का मानना है कि दुनिया में प्यार स्त्री के लिए ही है। पुरुष चाहे जाने से अधिक उसके अहसास की दीवाने हैं। प्रेम की कसौटी स्त्री द्वारा पुरुष में चाहे जाने का अहसास पैदा करना है। उम्दा द्वारा स्त्री को पुरुष के शरीर की चादर, सर के ऊपर की छत और बुढ़ापे का सहारा बताने पर वज़ीर कहती है ‘अब तक मुझे मर्दों से कौन सा सहारा मिला है कि अब मिल जाएगा।’ वज़ीर अपनी बहिन, पति और रिश्तेदारों की सलाह और इच्छा से नहीं, वरन् अपने पुत्र की सुविधा और भविष्य का ध्यान रखती है, पर पुत्र की भी हिम्मत नहीं कि वज़ीर के आगामी जीवन का वह निर्णय करे, वह अपनी मां को उसके जीवन के बारे में कोई निर्णय देने में अपने को समर्थ नहीं पाता। इस तरह की राय मां से व्यक्त करने में ही एक प्रसिद्ध शायर दाग़ देहलवी चकरा जाते हैं। वज़ीर कहती है मेरी जगह यदि तुम्हारे पिता होते तो तुम क्या उन्हें सलाह देते? तुम यह निर्णय कैसे निकाल सकते हो कि मेरी समस्या का समाधान करना तुम्हारा कर्तव्य है? वज़ीर किसी दलील की मोहताज नहीं होती। अंतिम निर्णय वज़ीर का ही होता है। वज़ीर अपना पुनर्विवाह आग़ा से अपनी शर्तों पर करती है, जिससे 1843 में एक पुत्र का जन्म हुआ। इसके बाद आग़ा मिर्ज़ा तुराब अली सोनपुर में ठगों द्वारा मार दिए जाते हैं। ठगों में हिंदू मुस्लिम दोनों शामिल थे और सभी एक विशेष बोली ‘रमासी’ का प्रयोग करते। वे जय देवीमाई के भक्त थे। वज़ीर जब आग़ा के निधन के बाद तीसरी बार वैधव्य को प्राप्त हुई, तब कथित शरीफ घरानों की बेटियों के हिसाब से उसके विवाह की आयु निकल चुकी थी।
वज़ीर जानती है कि वह बदनाम है, लेकिन उसने अपनी स्वतंत्रता से कोई समझौता नहीं किया। वह अपने भाग्य को कोसती है कि मुझे ऊपर वाले ने क्या बच्चे पैदा करके और उनसे बिछुड़ने के लिए ही भेजा है। वह अपने शायर बेटे से कहती है ‘मर्द जात समझती है कि सारी दुनिया के भेद और तमाम दिलों के छुपे कोने उस पर ज़ाहिर हैं, या अगर नहीं भी हैं तो न सही लेकिन वह सबके लिए फैसला करने का हक़दार है। मर्द ख़्याल करता है कि औरतें उसी ढंग और मिज़ाज की होती हैं जैसा उसने अपने दिल में, अपनी बेहतर अक्ल और समझ के बल पर गुमान कर रखा है...।’ वज़ीर का पुत्र नवाब मिर्ज़ा शरीअत का हवाला देकर कहता है कि मर्द औरत से बरतर (श्रेष्ठ) है। वज़ीर पुरज़ोर मुख़ालफत करती हुई कहती है ‘आपकी क़िताबों के लेखक सब मर्द, आपके क़ाजी, मुफ़्ती-बुज़ुर्ग भी कौन, सबके सब मर्द! मैं शरई हैसियत नहीं जानती, लेकिन मुझे बाबा फ़रीद साहब की बात याद है कि जब जंगल में शेर सामने आता है तो कोई यह नहीं पूछता कि शेर है या शेरनी। आखि़र हज़रत राबिया बसरी भी तो औरत थीं।’ उपन्यास की पूरी कथा इस प्रश्न का उत्तर खोजने में बुनी गई है कि पुरुष क्या है और स्त्री क्या है। उपन्यासकार चाहता है कि स्त्रियां मजबूरी से बाहर निकलें और स्वतंत्र होकर अपने फैसले लेकर समृद्ध और सशक्त बनें। दुनिया की वास्तविकता से कथाकार बाख़बर है कि ‘दुनिया सŸाा वालों के आगे खु़द-ब-ख़ुद झुकती है और कमज़ोरों, ख़ासकर वह औरतों को वह कभी माफ नहीं करती।’ वज़ीर भले ही बदनाम हो कि जिसने चार पैसे दिखाए उसी की हो रहीं किंतु उसका दरवाज़ा किसी के लिए खुला नहीं होता, वह एक बार ऐसा कहते हुए नवाब जियाउद्दीन अहमद को झिड़क देती है।
वज़ीर की चौथी शादी की बात मिर्ज़ा फ़तहुल मुल्क बहादुर से चलती है तो वज़ीर डरती है कि बार-बार चार दिन की खुशी के बाद मुद्दतों रोना पड़ता है, किंतु फिर वह सोचती है कि कभी के दिन बड़े तो कभी की रात बड़ी। इस बीच नवाब मिर्ज़ा (दाग़ देहलवी) भी उम्तुल फ़ातिमा से आंखें चार कर लेते हैं। वज़ीर की शर्तों के अनुसार फ़तहुल मुल्क बहादुर उर्फ़ फ़खरू बहादुर वज़ीर के बेटों नवाब मिर्ज़ा और मोहम्मद आग़ा को अपने साथ रखने को तैयार हो जाते हैं। ज्योतिषी विवाह की तिथि तय करते हैं और जनवरी 1845 को दोनों का विवाह हो जाता है। उपन्यास में कथाकार ने स्त्री और उसके अंतर्मन को गहराई में जाकर झांका है, स्त्री संवेदना का कदाचित् कोई कोना अछूता न रहा जहां कथाकार ने दस्तक न दी हो। मिर्ज़ा के साथ हमबिस्तर होने पर वज़ीर सोचती है कि मर्द को सिर्फ अपनी गरज़ से काम है। मतलब पूरा होने के बाद वह इस बात से बेताल्लुक़ हो जाता था कि मेरा शरीके-बिस्तर किस हाल में है। अक्टूबर 1845 को वज़ीर ने एक बेटे खु़र्शीद मिर्ज़ा को जन्म दिया, किंतु जुलाई 1856 में वज़ीर ख़ानम के इस चौथे पति की भी स्वास्थ्य बिगड़ने से मृत्यु हो गई। वज़ीर को क़िला छोड़ना पड़ता है। क़िले से निकलते समय वज़ीर कहती है ‘हक़ क्या चीज है साहिबे-आलम? सारी ज़िंदगी मैं हक़ की तलाश में रही हूं। वह पहाड़ों की किसी खोह में मिलता हो तो मिलता हो, वरना आसमान तले तो देखा नहीं गया।’यह पंक्ति इस उपन्यास की फलश्रुति मानी जा सकती है।
उपन्यास के आभार भाग में फ़ारुक़ीजी ने इच्छा व्यक्त की है कि इस उपन्यास को 18वी-19वीं सदी की हिंद-इस्लामी तहज़ीब और इंसान के साहित्यिक सांस्कृतिक सरोकारों का चित्रण समझकर पढ़ा जाए, किंतु उपन्यास के आवरण पृष्ठ पर ब्रियाना ब्लास्को द्वारा बनाए चित्र में एक सुंदर स्त्री शोभायमान है, जिससे इसकी केंद्रीय विषय-वस्तु स्वतःस्पष्ट हो जाती है। उपन्यास का शीर्षक शायर अहमद मुश्ताक़ के इस शेर के एक मिसरे पर रखा गया है-
कई चांद थे सरे-आसमां कि चमक-चमक के पलट गए
न लहू मेरे ही जिगर में था न तुम्हारी ज़ुल्फ सियाह थी।
समीक्षक
डॉ. राकेश नारायण द्विवेदी
शब्दार्णव,नया पटेल नगर,
कोंच रोड, उरई (जालौन)
मोबाइल 9236114604
ईमेल rakeshndwivedi@gmail.com
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उपन्यास के अंत में उर्दू-फ़ारसी और अंग्रेजी के उन दुर्लभ ग्रंथों की सूची भी दी गई है, जिनसे उपन्यासकार ने सहायता ली है। फ़ारुक़ीजी ने विभिन्न शब्दकोशों का उल्लेख करते हुए उनके बीच के अंतर को रेखांकित किया है। आमतौर पर उपन्यासों में ग्रंथ-सूची नहीं दी जाती है, पर कथा की विश्वसनीयता और प्रामाणिकता के लिए फ़ारुक़ीजी ने ऐसा करना उचित समझा होगा। प्रसिद्ध प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस उपन्यास में हुई कुछ मामूली वर्तनी त्रुटियां अगले संस्करण में सुधार दी जाएंगी। सात सौ अड़तालीस पृष्ठों में फैले इस महाकाव्यात्मक उपन्यास को बहत्तर शीर्षकों में बांटा गया है। हर शीर्षक अपनी कहानी कहता है किंतु शीर्षक स्वतःपूर्ण नहीं होता और यह किसी कहानी के लिए उचित भी नहीं। उपन्यास के आवरण पृष्ठ के दोनों ओर प्रसिद्ध साहित्यकारों की टिप्पणियां प्रकाशित हैं। इसे कोई विक्रय प्रोत्साहन के लिए भी कहे, पर इससे पाठक के मन में उपन्यास को जानने की उत्कंठा हो जाती है। ओरहान पामुक ने इसे ‘अद्भुद उपन्यास’ कहा तो मोहम्मद हनीफ इसे भारतीय उपन्यासों का कोहिनूर कहते हैं। असलम फर्रूखी कहते हैं यह इक्कीसवीं सदी की ही नहीं, उर्दू फिक्शन की बेहतरीन क़िताब है, वहीं इंतिज़ार हुसैन देहली की मिटती हुई बादशाहत के साए में फलने-फूलने वाली इस तहज़ीब का मंज़रनामा ग़ालिब, ज़ौक, दाग़, घनश्यामलाल आसी, इमामबख़्श सहबाई, हकीम अहसनुल्लाह ख़ां के साथ-साथ बहादुरशाह ज़फ़र, मलिका ज़ीनतमहल और नवाब शमसुद्दीन अहमद ख़ां जैसे बहुत से वास्तविक किरदारों से भी जगमगा रहा है। इस उपन्यास को उस सदी की हिंद-इस्लामी तहज़ीब में कौमी एकजुटता, जिं़दगी, मुहब्बत और फ़न की तलाश की दास्तान कहें तो सही होगा। आलोचक और कवि अशोेेक वाजपेयी ने कहा है कि अठारहवीं-उन्नीसवीं सदियों में जीवन, समाज, साहित्य, कलाओं आदि के क्षेत्रों में व्यापक रचनात्मकता, बहुत कुछ को बचाने की इच्छा और जतन, अनेक नवाचार, समाज के कई वर्गों के बीच संवाद आदि सब बहुत सक्रिय थे। उन्होंने अपनी टिप्पणी में उपन्यास में छायी स्त्री कथा को सुंदरता से व्याख्यायित किया है और ‘सुंदर अंततः बच नहीं पाता, वह बराबर वेध्य है। उसकी भंगुरता मानो उसके होने की अनिवार्य परिणति है।’ वाजपेयीजी ने इस उपन्यास को सुंदरता की विफलता की गाथा कहा है। इंडिया टुडे हिंदी में वरिष्ठ पद पर कार्यरत पत्रकार मनीषा पांडेय ने इस उपन्यास की प्रशंसा करते हुए लिखा है ‘हिंदी में जाने कितने बरसों बाद एक ऐसी क़िताब आई जो पन्ना दर पन्ना आपको चकित करती है। यह क़िताब इतिहास के गलियारों में ले जाती है, भाषा के चमत्कार से चकित करती है, रुलाती है, अवसाद में डुबो देती है और मुहब्बत के सबसे बीहड़ बियावानों में अकेला भटकने के लिए छोड़ देती है। इस भटकन का सुख वहीं जानते हैं जो क़िताबों के संग-संग भटके हैं।’ वहीं वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने इस कृति पर अपनी टिप्पणी दी कि जब कोई विद्वान रचनात्मक कृति रचता है तो अपने समय के ज्ञान को कथानक में कैसे ढालता है। हिंदी में ऐसी क्षमता हजारी प्रसाद द्विवेदी में थी।
अंत में कहा जा सकता है कि कोई बड़ा रचनाकार अपने समय के टुकड़ा-टुकड़ा विमर्शों का समाहार और अतिक्रमण अपनी विराट कृति के सम्यक् कथानक में कैसे संभव कर दिखाता है, यह उपन्यास इसका विरल उदाहरण है जिसमें वर्तमान में प्रचलित विमर्शों पर समय और उसका अवदान भारी पड़ गया है।
धन्यवाद/ / लगा कि उपन्यास पढ लिया
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