त्रैमासिक ई-पत्रिका 'अपनी माटी' (ISSN 2322-0724 Apni Maati), वर्ष-2, अंक-16, अक्टूबर-दिसंबर, 2014
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शोध:राजभाषा पत्रकारिता में प्रयुक्त हिन्दी का स्वरूप/ रेशमा पी.पी
छायाकार:ज़ैनुल आबेदीन |
स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद
26 जनवरी, 1950 से भारतीय संविधान लागू हुआ। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 के
अनुसार, हिन्दी को देवनागरी लिपि के साथ ‘राजभाषा’ घोषित किया गया। इसके अनुसार, केन्द्र सरकार के
कार्यालयों, उपक्रमों, बैंकों के काम-काज में खड़ी बोली हिन्दी के प्रयोग को कुछ
नियमों के साथ अनिवार्य कर दिया गया। राजभाषा कार्यान्वयन कार्यक्रम के अंतर्गत
समस्त देश को राजभाषा हिन्दी के प्रयोग के लिए क, ख, ग क्षेत्रों में बाँटा गया
है। इन क्षेत्रों में परस्पर कार्यान्वयन के लिए कार्यालय पत्राचार, काम-काज
नियमावलियों का निर्माण तथा इतर कार्यों के लिए, लिखित निष्पादन के लिए और
पत्र-व्यवहार इत्यादि में अंग्रेज़ी-हिन्दी और हिन्दी-अंग्रेज़ी के माध्यम से,
अंग्रेज़ी की सहायता से अनुवाद का कार्य किया जाने लगा। राजभाषा हिन्दी के सफल
कार्यान्वयन कार्यक्रम के अन्तर्गत काम करने वाले संगठनों ने हिन्दी भाषा के
उपयोग, प्रयोग एवं प्रचार के लिए अपनी मुख-पत्रिकाओं को संकल्पित किया। राजभाषा
पत्रकारिता के अन्तर्गत प्रमुख रूप से बैंक एवं केन्द्र सरकार के उपक्रम अपने-अपने
संगठन की मुख-पत्रिकाओं का निश्चित एवं अनिश्चितकालीन मुख-पत्रों का प्रकाशन करते
हैं। ऐसी मुख-पत्रिकाओं का प्रकाशन राजभाषा हिन्दी के कार्यान्वयन का एक
महत्वपूर्ण हिस्सा है। ये संस्थाएँ अपनी मुख-पत्रिकाओं का नामकरण संगठन के
उद्देश्य एवं प्रकार्यों के अनुरूप करती हैं। राजभाषा पत्रकारिता का बहुत प्रबल और
प्रभावी स्वरूप केन्द्र-सरकार के अधीनस्थ कार्यरत वैज्ञानिक अनुसंधान कार्यशालाओं
में दिखाई देता है। जैसे –IICT, CCMB, BDL, DRDO, DRDL, LMDC, SCTIMST आदि। इसी प्रकार बैंकों के
क्षेत्र में अनेक अपनी राजभाषा पत्रिका का प्रकाशन नियमित रूप से करते हैं। जैसे –
कॉरपोरेशन बैंक (मंगला पत्रिका)।
केन्द्र सरकार के
कार्यालयों में राजभाषा पत्रिका का स्वरूप उत्साहवर्धक नहीं है। बैंकों एवं
उपक्रमों से संकलित राजभाषा पत्रिकाओं का भाषिक विश्लेषण करने पर, इसमें प्रमुखतः
तीन प्रकार की भाषिक शैलियाँ दिखाई देती हैं जो निम्नलिखित हैं :-
1. संस्कृतनिष्ठ हिन्दी
2. उर्दू मिश्रित हिन्दी
3. अंग्रेज़ी मिश्रित एवं
लिप्यंतरित हिन्दी
1.1 संस्कृतनिष्ठ हिन्दी
संस्कृतनिष्ठ हिन्दी में संस्कृत के तत्सम, तद्भव शब्दों की
प्रधानता होगी।
(क)
तत्सम :- तत्सम शब्द का अर्थ है –‘उसके समान’ या ‘ज्यों का त्यों’।1
हिन्दी में जो शब्द संस्कृत भाषा से ज्यों के त्यों लिए गए हैं, वे तत्सम कहलाते
हैं। इन शब्दों के मूल रूप प्राचीन काल से अब तक यथावत् हैं। हिन्दी भाषा में
तत्सम शब्दों की संख्या बहुत ज्यादा है। तत्सम संस्कृत के शब्दों का अपने स्वरूप
में हिन्दी में प्रयोग हो रहा शब्द, जैसे तत्सम उपसर्गों के रूप में – अ, अति,
अधि, अनु, अप, दुः, प्र आदि का प्रयोग होता रहा है।
(ख)
तद्भव : - जो शब्द सीधे संस्कृत से न
आकर पालि, प्राकृत, अपभ्रंश से होते हुए हिन्दी में आए हैं, तद्भव कहलाते हैं।2
यद्यपि ये तद्भव शब्द भी मूल रूप से संस्कृत के ही शब्द हैं, लेकिन अपनी लंबी
यात्रा में देश-काल के प्रभाव से विकृत हो गए हैं। वैसे तद्भव (तत् + भव) शब्द का अर्थ है –‘उससे उत्पन्न’।3 यहाँ
उससे का तात्पर्य संस्कृत से तो है ही, इसके अतिरिक्त अन्य आर्य भाषाओं के शब्दों
से भी है। हिन्दी भाषा में तद्भव शब्दों का विशाल भंडार है। हिन्दी में तद्भव
प्रत्ययों में ता, आलु, जीवी, इक, अनीय, इमा आदि शामिल हैं।
हिन्दी में तत्सम,
तद्भव शब्द आने के कारण :-
1. भाषा को अलंकृत करने की
कोशिश में हिन्दी को संस्कृतनिष्ठ बनाया जाता है। लेखक की यह इच्छा होती है कि
उसकी भाषा ज्यादा से ज्यादा सुंदर हो।
2. साहित्य में जब ऐतिहासिक
चरित्र का वर्णन किया जाता है तो देश-काल, परिस्थिति का जीवंत चित्रण करने के लिए
भाषा को संस्कृतनिष्ठ बनाया जाता है ताकि परिवेश उभरकर सामने आए। जैसे – बाणभट्ट
की आत्मकथा, चित्रलेखा आदि।
3. जब हिन्दी-उर्दू विवाद
सामने आया (19वीं शती के उत्तरार्द्ध) तो उर्दू में लिखने वाले लेखक धीरे-धीरे
फारसी की ओर बढ़ते चले गए और हिन्दी के लेखक संस्कृत की ओर। पूरा का पूरा छायावादी
लेखन इसका उदाहरण है जिसके रचनाकारों की भाषा (चाहे गद्य हो या पद्य) को हम
संस्कृत के बेहद निकट पाते हैं।
4. शुरुआत में भाषा बनती है,
फिर उसका व्याकरण। हिन्दी का कोई व्याकरण नहीं था लेकिन उसे साहित्य के लिए और
भाषा का मानक रूप स्थिर करने के लिए व्याकरण की जरूरत थी। उसके सामने पहले से
विरासत में संस्कृत का व्याकरण था तो उसने उसके व्याकरण से भी काफी कुछ ग्रहण कर
अपना व्याकरण निर्मित किया। इससे भी काफी सारे शब्द संस्कृत के आए।
5. अहिन्दी भाषी क्षेत्र में
जो लोग हिन्दी बोलते हैं, वह कहीं न कहीं अपनी भाषा पुस्तकों से सीखते हैं। इस
कारण उनके लेखन में और उनके व्यवहार में काफी संस्कृतनिष्ठ शब्द आते हैं। इन
क्षेत्रों में संस्कृतनिष्ठ शब्दों के आने का एक कारण यह भी हो सकता है कि सभी
भारतीय भाषाएँ कहीं न कहीं संस्कृत से जुड़ी हुई हैं।
राजभाषा पत्रिका का भाषिक
पक्ष देखें तो वैज्ञानिक संस्थाओं ने ज्यादातर अंग्रेज़ी मिश्रित लिप्यंतरित
हिन्दी का प्रयोग किया है। हिन्दी में कुछ शब्दों के उपयुक्त शब्द न मिलने के कारण
अंग्रेज़ी शब्दों का प्रयोग किया गया है। वैज्ञानिक लेखों के हिन्दी में लिखने में
थोड़ी कठिनाई आती है क्योंकि प्रयुक्त होने वाले शब्द अधिकतर अंग्रेज़ी में उपलब्ध
हैं और उन शब्दों का हिन्दी रूपान्तर करने से लेख के भाव स्पष्ट नहीं होते और लेखक
को अंग्रेज़ी शब्द का प्रयोग करना अनिवार्य हो जाता है। अन्य प्रकार के लेखों में
यह समस्या नहीं आती है।
संदर्भ ग्रंथ सूची
1.
भोलानाथ तिवारी एवं महेन्द्र चतुर्वेदी, पारिभाषिक शब्दावली
: कुछ समस्याएँ, पृ. 19
2.
डॉ. जितेन्द्र वत्स, राष्ट्रभाषा हिन्दी एवं व्याकरण, पृ.
113
3. वही
रेशमा पी.पी,
शोधार्थी, हिंदी
विभाग
अंग्रेजी एवं विदेशी
भाषा विश्वविद्यालय, हैदराबाद
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