पुस्तक समीक्षा:आंतरिक पीड़ा की अभिव्यक्ति विनोद साव का पहला कहानी संकलन/ डॉ. ललित श्रीमाली

त्रैमासिक ई-पत्रिका 'अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati)वर्ष-2, अंक-16, अक्टूबर-दिसंबर, 2014
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छायाकार:ज़ैनुल आबेदीन
व्यंग्य से अपने लेखन का प्रारंभ करने वाले विनोद साव का पहला कहानी संकलन है तालाबों ने उन्हें हँसना सिखाया। जिसमें कुल सत्रह कहानियां है इन्हें हम मुख्य रूप से दो वर्गों में बाँट सकते हैं- एक जिसमें लोक का चित्रण और दूसरे में स्त्री मनोविज्ञान । लोक का चित्रण करने वाली कहानियों में लेखक के ऊपर अपने परिवेश का जो प्रभाव बचपन से अब तक पड़ा उसकी यादे संचित है। जिसे हम नोस्टेल्जिया कह सकते हैं। आज भूमंडलीकरण की परिघटना का हमारे ऊपर जो प्रभाव है उससे हमारे रिश्ते दरक गए हैं। इसका एहसास कराये बिना ये कहानियां हमें ग्रामीण जीवन की आत्मीयता की और ले जाती है। और यहीं पर लेखक अन्य कहानीकारों से पृथक अपनी पहचान बनाता है। तुम उर्मिला के बेटे हो कहानी में नीम का वह पेड़ अब भी उस जगह में वैसे ही खड़ा था। जैसा हम बरसों पहले छोड़ गए थे। ............. में सुखबती के साथ पिकरी बीनते इस पीपल की छांव में आया करता था। (पृष्ठ -13) यहाँ पर लेखक नोस्टेल्जिक हो जाता है। ऐसा नहीं है कि कहानियों में बाजार नहीं है, वह है लेकिन स्वयं लेखक के शब्दों में बाज़ार बिल्कुल छोटा था लेकिन उस छोटे गाँव के लिए बड़ा था। (पृष्ठ -9)  हम जिस बाज़ारवाद में जी रहे हैं। वह एक अलग तरह का है। 

नीरज बुक सेन्टर,
दिल्ली, 2014
आज के समय में जब भूमंडलीकरण की आंधी में हमारा सब कुछ उड़ रहा है। इस प्रभाव से हमारे गाँव भी अछूते नहीं बचे। हमारे गाँव प्रेमचंद और रेणु की रचनाओं से आगे काशीनाथ के पहाड़़पुर की शक्ल ले रहे जहाँ रिश्तों और संवेदनाओं के लिए जगह नहीं है वहीं लेखक के संकलन की प्रतिनिधि कहानी तालाबों ने उन्हें हँसना सिखाया में लेखक गाँव की अस्मिता कैसे बची रहती इसके लिए नारायण मामा के एक कथन में ही सारी बात निकलवा लेता है - हमने गाँव के सांस्क्रतिक कार्यक्रमों को नेताओं से दूर रख रखा है। फिर थोडा रूककर कहा था हमारा गाँव आज भी तालाबों से संस्कारित हो रहा है। हँसना, खेलना, नाचना, गाना सब हमने तालाब स्नान और तालाबों में संपन्न होने वाले पर्वों से सीखा। (पृष्ठ -39) यहाँ लेखक की आंतरिक पीड़ा की अभिव्यक्ति हमें मिलती है कि आज गाँव तक एक गन्दी राजनीति पहुुंच गयी है जिसने गाँव को गाँव नहीं रहने दिया। लेखक द्वारा वर्णित गाँव इसलिए बचा रहा क्योंकि वह आज भी सांस्कृतिक कार्यक्रर्मों में नेताओं को तवज्जो नहीं दे रहा है।

युवा समीक्षक
डॉ. ललित श्रीमाली 
याख्याता (हिन्दी शिक्षण)
एल.एम.टी.टी. कॉलेज,
डबोक, उदयपुर 
51, विनायक नगर, मण्डोपी, 
रामा मगरी,
 बड़गाँव जिला उदयपुर (राज.) 
मो-09461594159
ई-मेल:nirdeshan85@yahoo.com

इस संकलन में दूसरी महत्वपूर्ण बात लेखक का स्त्री - मनोविज्ञान है। आज हम 21 वीं सदी में जी रहे है लेकिन हमारे समाज में स्त्रियों की दशा अच्छी नहीं है। औरत की जात कहानी में एक स्त्री पात्र के माध्यम  से लेखक कहता है - चार बेटियां जनमी हूँ। बड़ी का ब्याह हो गया है। तीन बेटियाँ साथ है।  खाली बेटियाँ जनने वाली औरत को उसका आदमी पसंद नहीं करता। ....... औरत की जात जितना मरे खटे उसके काम को कोई मोल नहीं होता । (पृष्ठ -85) ’चालीस साल की लड़की’ प्रेम कहानी है। इसमें हुलास और संध्या के माध्यम से समाज के उस समूह का चित्रण किया है, जो खुद के दम पर एक अलग पहचान बनाने और दुनिया को दिखा देने की चाहत में क्रांतिकारी निर्णय (शादी न करने का) ले तो लेते है, लेकिन उनके मन में किसी कोने में रिक्तता का भाव हमेशा रहता है। लेखक ने कहानी के अंत में इसका संकेत दिया है, ’’अब वे दोनों घर के बाहर खड़े थे। बाहर सड़क का शोरगुल था लेकिन उनके भीतर सन्नाटा था। संध्या की वही निर्निमेष दृष्टि थी जो उसकी रिक्तता से उपजती थी।’’ (पृष्ठ - 54) कमला बहन जी कहानी में लेखक ने भारतीय परिवार के उस ताने बाने की ओर संकेत किया है जिससे उसे मजबूती मिली हुई है। ’’परिवार बड़ा सदाशयी होता है और घर का जो सदस्य जैसा व्यवहार करता है उसके मान को रख लेते हैं।’’ (पृष्ठ -80) 

कहानियों की वर्णन शैली औत्सुक्य उत्पन्न करने वाली है। इनको पढ़ते समय हमें लगता है कि लेखक स्वयं इनमें मौजूद है। कहानियाँ हमारे निम्न मध्य वर्ग की सोच और दशा को सामने लाने वाली तो है ही, साथ ही साथ स्त्री के भीतर की अनुभूतियों को भी पाठकों के सामने लाती है। कुल मिलाकर लेखक की सभी कहानियों में एक प्रकार की सरलता है इनमे लोक की शब्दावली और परम्पराएँ है और ग्रामीण जीवन का सहज चित्रण हमें मिलता है जो अन्यत्र दुर्लभ है। इस कहानी संग्रह का स्वागत है।

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