त्रैमासिक ई-पत्रिका 'अपनी माटी' (ISSN 2322-0724 Apni Maati), वर्ष-2, अंक-16, अक्टूबर-दिसंबर, 2014
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राजस्थान की संस्कृति की प्रमुख विशेषता है यहाँ की
धार्मिकता और वीरता। राजस्थान की जीवन व्यवस्था में
धर्म और धार्मिक आस्था की गहरी छाप रही
है। यहाँ का प्रत्येक क्षेत्र धार्मिकता से
ओतप्रोत रहा है। राजस्थान में प्राचीनकाल से
अद्यतन सभी वर्ग और
स्तर के व्यक्ति, विभिन्न धर्मों सम्प्रदायों तथा परम्पराओं में
आस्था रखते हैं। यहाँ समाज के हर वर्ग पर धर्म का स्पष्ट प्रभाव देखने को मिलता है। ‘‘इसी
प्रकार की आस्था के
आधार पर राजस्थान में
लोकदेव की आराधना ने
नई प्रवृत्ति का स्वरूप धारण किया। जिन महापुरुषों ने त्याग तथा आत्म बलिदान से अपनी मातृभूमि की सेवा या नैतिक जीवन और लोकोपकार की
वृत्ति अपनायी तो समाज ने उनको देवत्व का
स्थान दिया तथा उत्तरोत्तर उनके पूजने तथा उनकी मनौती मनाने की प्रथा चल पड़ीा’’[1] डाॅ. सत्यव्रत सिन्हा लिखते हैं कि, ‘‘प्रायः समस्त लोकगाथाएँ देश की मध्ययुगीन संस्कृति एवं सभ्यता से
सम्बन्ध रखती है। मध्ययुग, क्या राजनीतिक क्षेत्र में
अथवा क्या धार्मिक क्षेत्र में, एक महान् उथल-पुथल का समय था। उस
समय देश में विदेशियों का वेग के साथ
आगमन हुआ। अनेक राज्यों की स्थापना हुई तथा
अनेक बड़े राज्य उजड़
गये। जीवन की रक्षा का माध्यम खड्ग ही
था। परन्तु इस राजनीतिक अराजकता में ग्रामीण जीवन में शान्ति और तारतम्यता थी। राजा, राजा से
लड़ते थे, तथा सेना, सेना से लड़ती थी, प्रदेशों एवं
प्रान्तों का निपटरा होता जाता था, परन्तु गाँवों का जीवन पुरातन काल
से शांति एवं समान रूप से चला आ
रहा था। वे राजनीतिक अधीनता स्वीकार कर लेते थे, परन्तु अन्य सभी क्षेत्रों में स्वतन्त्र थे। उनकी आन्तरिक चिन्तनधारा में
कोई विशेष अन्तर नहीं आया था। धर्म के
प्रति, देवताओं के प्रति, वीरपुरुषों के
प्रति उनकी आस्था अटूट थी। राजनीतिक दृष्टि से
शांत रहते हुए भी
गांव के जीवन में, धार्मिक विश्वासों में अनेक हेर-फेर
हुए, परन्तु गांव का धार्मिक जीवन अन्ततः हिन्दू ही
था। इस्लाम धर्म ने
चाहे कितने वेग से
क्यों न पदार्पण किया, परन्तु ग्रामीण जीवन के
विश्वासों के सम्मुख वह
अर्कमण्य सिद्ध हुआ। वे
ग्रामीण हिन्दू, चाहे वैष्णव थे, चाहे शैव या शाक्त अथवा वे नाथधर्म से
भी क्यों न प्रभावित रहे हो, परन्तु सभी
सिमट कर हिन्दू परिधि में ही संरक्षित थे।
एक अद्भुत समन्वय उनके जीवन में था जो
आज भी गांवों में
परिलक्षित होता है।”[2]
मध्ययुग में राजनीतिक उथल-पुथल ने
राजस्थान की राजनीति के
साथ-साथ यहाँ की संस्कृति व धर्म को भी
बेहद प्रभावित किया। बाह्य आक्रमणों के परिणामस्वरूप राजस्थान बलात् धर्मान्तरण का
शिकार बना तथा यहाँ के देवालय आक्रमणकारियों का
निशाना बने। ऐसे समय
में जब चारों ओर
निराशा और अनिश्चय का
वातावरण था, हिन्दू समाज का एक वर्ग जो
जातिगत भेदभाव व ऊँच-नीच
की भावना से ग्रस्त था। ऐसी स्थिति में
धर्म, गौ व स्थानीय जनता की रक्षा करना, अन्त्यजों को
समाज में उचित स्थान दिलाना आदि ऐसी महत्त्वपूर्ण समस्याएँ प्रस्तुत हो
गयी जिनका निराकरण अति
आवश्यक हो गया। इसी
समय राजस्थान में कुछ
विशिष्ट वैयक्तित्व का
जन्म हुआ। जिन्होंने जन
साधारण के बीच अपने जीवन के कार्यों से
ही सेवा, त्याग व
बलिदान का उच्च आदर्श प्रस्तुत किया। अपने अलौकिक कार्यों से वे
जन साधारण के मध्य श्रद्धा के पात्र बन
गये तथा ‘लोक देवता’ के
रूप में स्थापित हो
गये। लोकदेवों की इस
परम्परा में राजस्थान में
देवनारायणजी, पाबूजी, तेजाजी आदि
हुए हैं जिन्होंने तत्कालीन समाज में विद्यमान सामाजिक विसंगतियों का विरोध कर
आत्मत्याग, पराक्रम का परिचय दिया है। इन लोकदेवताओं ने स्थानीय जनता एवं
गौ वंश की रक्षा हेतु समाज में शांति व सुव्यवस्था बनाने हेतु तथा निम्न जातियों के उद्धार हेतु अपनी महत्ती भूमिका का निर्वहन किया और साथ ही
धर्म रक्षार्थ हेतु अपने प्राणों का उत्सर्ग किया। इनके लोकहितकारी कार्यों से अभिभूत होकर लोकमानस ने इन्हें आराध्य देव
का पूज्य स्थान प्रदान किया।
लोकदेवताओं की इस परम्परा में
गोगाजी हुए जिनकी ख्याति अपने अनुयायियों की
रक्षा करने के लिए
है। राजस्थान के लोकवीरों में गोगाजी का स्थान महत्त्वपूर्ण हैं। लोक
समाज में गोगाजी की
पूजा सदियों से चली
आ रही है। राजस्थान,
उत्तरप्रदेश, पंजाब, हिमाचल प्रदेश आदि अनेक स्थानों में
गोगाजी की पूजा बहुत ही श्रद्धा से की
जाती है। वे साँपों के देवता के रूप
में प्रसिद्ध हैं। अन्य प्रान्तों की तुलना में
राजस्थान में उनकी मान्यता अधिक देखने को मिलती हैं। यहाँ लगभग प्रत्येक गाँव में खेजड़ी के
वृक्ष के नीचे गोगाजी का थान होता है।
यहाँ यह कहावत प्रसिद्ध हैं कि-‘गाँव गाँव गोगा नै गाँव गाँव खेजड़ी’ यह मान्यता रही
है कि जब किसी व्यक्ति को साँप काट
लेता है तो उसकी प्राण रक्षा की मनौती में गोगाजी की विशेष पूजा की जाती है।
भाद्रपक्ष के कृष्ण पक्ष की नवमी को गोगामेड़ी में एक विशाल मेला लगता है। गोगामेड़ी गंगानगर जिले की नोहर तहसील से आठ कोस दूर
पूर्व की ओर स्थिति है। इस मेले में
दूर-दूर के लोग गोगाजी के दर्शन करने आते
हैं। गोगाजी हिन्दू और
मुस्लिम दोनों जातियों में
उपास्य है। डाॅ. चन्द्रदान चारण ‘गोगाजी चैहान री राजस्थानी लोकगाथा’ में
गोगाजी की राजस्थानी समाज में लोकप्रियता के
निम्न कारण मानते हैं-
1. सर्प पूजा संसार की अनेक जातियों में प्रचलित है। जब
गोगाजी को सर्पों का
देवता स्वीकार कर लिया गया तो उनकी भी
पूजा होने लगी।
2. गोगाजी ने
अपने देश और धर्म की रक्षा के लिए
विदेशी आक्रान्ता से लड़कर प्राण त्यागे। इससे लोकजीवन पर उनके चरित्र का
अमिट प्रभाव पड़ा। वीर
के साथ साथ पीर
मानकर वे पूजे जाने लगे।
3. हिन्दू से
मुसलमान बने कायमखानी वास्तव में चैहान कायमसी या
करमचन्द की सन्तान हैं
ये गोगाजी को अपना पूर्वपुरुष मानकर पूजते हैं। संभवतः उनके अनुकरण पर अन्य कई नव
मुस्लिम जातियाँ (जैसे गुजरात के गूजर) भी उन्हें पूजने लगे।
4. पृथ्वीराज के
पतन के बाद राजस्थान से कई चैहान वंश
हिमाचल प्रदेश में चले
गये और वहाँ उन्होंने अपने राज्य स्थापित किये। वे अपने पूर्व पुरुष गोगा को न भूले। उनकी देखादेखी वहाँ के
पहाड़ी लोग भी गोगा की पूजा करने लगे।
5. वीरों को
भगवान् या किसी देवता का अवतार मानकर उनकी पूजा की पद्धति भारतवर्ष में प्राचीन काल से
ही प्रचलित रही है।
गोगाजी भी उसी परम्परा में होने के कारण वे भी जनता में
श्रद्धा की वस्तु बन
गये।
6. राजस्थान की
लगभग सभी जातियाँ गोगाजी की पूजा करती है।
जब राजस्थान के व्यवसायी व्यापार के लिए अन्य प्रान्तों में गये तो
वे वहाँ अपनी धार्मिक भावना के अनुसार अपने देवताओं को भी पूजते रहे।
7. यद्यपि विज्ञान काफी आगे बढ़ चुका है पर साँपों का
भय आज भी मनुष्य जाति में व्याप्त है।
साँपों द्वारा काटे हुए
व्यक्ति की प्राण-रक्षा के
सम्बन्ध में प्रचलित गोगाजी के चमत्कारों ने यहाँ के एक विशाल जन
समुदाय को उनका अनुयायी बना दिया।’’[3]
गोगाजी की लोकगाथा लोक मर्यादा-रक्षा के
लिए उच्चतम बलिदान का
ज्वलंत उदाहरण है। डाॅ. कृष्णकुमार शर्मा लिखते हैं कि, ‘‘लोकविश्वास के अनुसार गोगाजी गुरु गोरखनाथ की कृपा से
उत्पन्न अलौकिक शक्ति सम्पन्न विभूति हैं। वे जीवित ही अपने अश्व सहित भूमि में समा गये
थे। गोगाजी राजस्थान में
सर्पों के देवता के
रूप में मान्य हैं। भाद्र कृष्ण नवमी को
गोगाजी का मेला भरता है- राजस्थानी लोक में इसे
गोगा नवमी भी कहा
जाता है। जन्माष्टमी के
दूसरे दिन गोगा नवमी मनाने का एक और
भी कारण है। भगवान श्रीकृष्ण को भीषण वृष्टि से बचाने के लिए
नाग ने अपना आभोग विस्तुत किया था।
गोगा नवमी के दिन
नाग की पूजा कर
जनमानस उसके सुकृत्य के
प्रति कृतज्ञता प्रकट करता है। राजस्थान के पांचों पीरों में गोगा भी
गिने जाते हैं।’’[4] नायक गोगा चैहान अपने प्रचण्ड पराक्रम के द्वारा गौ और
प्रजा की रक्षा करते हुए आत्मोत्सर्ग करते हैं। बीकानेर का ददेरवा नामक स्थान गोगाजी की
जन्म भूमि मानी जाती है। किसी समय ददेरवा में चैहान राजपूत राज्य करते थे। इसी वंश
का प्रसिद्ध राजा ऊमर
चैहान हुआ है। ऊमर
चैहान का पुत्र झंवर था। झंवर की पत्नी बाछल एक सती साध्वी व धार्मिक प्रवृत्ति की
स्त्री थी। झंवर और
बाछल सम्पन्न सद्गृहस्थ थे
किन्तु उनके कोई सन्तान नहीं थी। एक बार
नाथपंथी सिद्ध कण्हपा ददेरवा आये। भिक्षाटन करते-करते वे
सती बाछल के द्वार पर पहुँचे। बाछल-चावल और
धुले मूंगों को भिक्षा लेकर उपस्थित हुई। नाथजी ने कहा, ‘मुझे तो
बालक का उच्छिष्ट लाकर दो।’ पुत्रहीना बाछल फूट
फूट कर रोने लगी, उसका हृदय विदर्ण होने लगा। कण्हपा ने उसे गुरु गोरखनाथ की सेवा करने को कहा। बाछल ने
गोरखनाथ की अटूट सेवा की परन्तु जिस दिन
वरदान मिलना था, वह समय
पर न पहुँची तो
गोरखनाथ ने उसकी बहिन आछल को उसके स्थान पर वरदान दे दिया। बाद में गुरु गोरखनाथ को अपनी भूल प्रतीत हुई। तब उन्होंने बाछल को एक ऐसे पुत्र का वरदान दिया जो
उसकी बहिन आछल के
पुत्रों की अपेक्षा अधिक बलशाली होगा तथा जगत् में सिद्ध नाम से
प्रसिद्ध होगा। बाछल प्रसन्न होकर लौट आई। कुछ
समय बाद गोगा उसके गर्भ में आया। बाछल की ननद जोगियों की
सेवा करने को अच्छा नहीं समझती थी। उनके विचार में बाछल जोगियों की सेवा में रह
कर चैहान वंश की
प्रतिष्ठा गिरा रही थी।
उन्होंने अपने दादा ‘ऊमर’ से शिकायत की, इस पर राजा ऊमर
ने बाछल को उसके पितृगृह भेजने के
बहाने निष्कासित कर दिया। गर्भवती बाछल विवश होकर रथ में बैठकर अपने ‘पीहर’ को चल
पड़ी किन्तु गर्भस्थ गोगाजी को ननिहाल जाना ठीक
नहीं लगा। मार्ग में
गोगाजी ने गर्भ से
ही नाग को आदेश देते हैं। इस पर
नाग बैल को डस
लेता है। गोगाजी के
कहने पर गोगाजी की
तांती बांधने पर बैल
पुनः जीवित हो जाता है। वे गर्भ से
ही अपनी माता को
प्रबोधन देकर कहते हैं
कि माँ! तुम क्यों रोती हो? तुम्हारा पीहर जाना व्यर्थ है। यद्यपि दादा ने तुम्हें देश
से निकाल दिया है, किन्तु में अपने ननिहाल से
जन्म नहीं लूंगा। मुझे लोग नानड़िया कहकर चिढ़येंगे। यह मेरे लिए असह्य होगा। यथा- ‘‘नानेरै मत
जावों मेरी बाछळ माता/ नान्हो नांव कढावै/ पाछी ददेरवै नैं चालो मेरी मेरी बाछळ माता/ प्रिथवी पीर
कैवाऊँ’’[5]
गोगाजी की गाथा में गोगाजी अलौकिक शक्तिसम्पन्न बताए गए हैं। गोगाजी ने शिशु अवस्था में
ही चमत्कार दिखाना शुरू कर दिया। उन्होंने अपनी शक्ति से रथ को
अपने पितृगृह की ओर
लौटा दिया। रथ अपने आप राजा ऊमर के
द्वार पर आकर रुक
गया। ऊमर ने रथ
को घोड़ों से खिंचवाया,
हाथी से खिंचवाया किन्तु रथ टस से मस
न हुआ। बाछल के
पति झेवर ने जब
इस चमत्कार को देखा तो स्तब्ध रह गये। बाछल को सम्मानपूर्वक महल
में ले जाया गया। समयानुसार बाछल ने
गोगाजी को जन्म दिया। जन्म लेते ही बालक ने चमत्कार दिखाये। अपंग दाई को आँखे और
पैर मिल गये। यथा- ‘‘आँख्याँ सूँ आँधी पगाँ रे
पाँगळी/ दाई आवै राजा झेवर री पोळ/ पैलो तो
पग दियो पेड़ियाँ/ दिया रे
दाई माई नैं पांव/ दूजो तो परचो ओ दियो/ दिवा दाई माई नै आँख।’’[6] पिता के
घर जन्म लेने पर
गोगाजी का पालना सर्पों के फण से ढका
रहता है। माता बाछल जब उन्हें मारने के
लिए आती हैं तो
गोगाजी उन्हें कहते हैं- ‘‘गोगो राणो पाळणियै में सूतो/ पाछी घिर अम्मा निजर पसारी/ पालणियो सरपां सूँ छायो/ काची नींदाँ में बालो पाँव पसार्यो/ सरपाँ डँक लगायो/ लेकर हुंक बालो चूसण लाग्यो/ जहर अमी
कर डाल्यो/ खबर हुई
मेरी माता बाछल नै/ ले
लाठी मारण आया हाँ/ इण
सरपाँ रै माता लाठी मत मारजो/ म्हारा बुलाया आया हाँ।’’[7] गोगाजी का
कोल्हूगढ़ के पाबूजी से
मिलन होता है जिसमें अपने चमत्कार से गोगाजी पाबूजी को हरा देते हैं। यथा- ‘‘मैं तो
हार्याँ सूँ देसाँ ददेरै रो राज/ थाँरे हार्याँ सूँ लेसाँ केलमदे डीकरी/ पाबूजी तो धारयो मींडकै रो
रूप/ सतंू समदाँ रै पींयाळै बैठिया/ गौगै जी धार्यो सरप रो रूप/ अपड़ तो
बगायो मींडक बार नै।’’[8] केलमदे को
बाग में नाग के
काटने पर गोगाजी की
तांती बांधने पर जीवित हो जाना भी गोगाजी का चमत्कार था। कालान्तर में गोगाजी ने पाबूजी की भतीजी केलमदे से
विवाह किया और पिता की मृत्यु के पश्चात् स्वयं सिंहासनारूढ़ हुए। गोगाजी का चमत्कारिक व्यक्तित्व वीरता से परिपूर्ण था।
वे जहाँ एक ओर
अपनी माता के कष्टों का निवारण करते हैं
वही दूसरी ओर अपने कार्यों से तत्कालीन समाज की बुराईयों को भी
नष्ट करते हैं। उनका सम्पूर्ण जीवन उनके इसी वीरता, चमत्कार और
त्याग की कहानी बनकर जनमानस के समक्ष आती
है।
गोगाजी एक वीर, महत्त्वाकांक्षी और निपुण योद्धा थे।
डाॅ. कृष्णकुमार शर्मा के
शब्दों में ‘‘राजस्थान की
प्राचीन संस्कृति को सभी
मनीषी ‘वीर संस्कृति’ कहते आये
हैं। यहाँ के कण-कण
में वीरों के बलिदान की कहानी अंकित है।
यहाँ का समाज वीर-पूजा और उनके गौरव गान
में स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करता है। सत्य-पालन, प्रजारक्षण में अपने प्राण भी
देने वाले वीर पुरुष राजस्थान की वीरकथात्मक लोकगाथा के नायक हैं और
राजस्थान का जनमानस इन्हें अत्यन्त श्रद्धापूर्वक सुनता है। राजस्थान की भूमि को वीर प्रसू कहकर स्मरण किया जाता है।
इसी वीर भूमि की
वीर-संस्कृति का चित्र राजस्थानी लोकगाथा में है।’’[9] गाथा में
गोगाजी का चरित्र इसी
प्रकार से वर्णित हैं। गाथा नायक गोगा के
मौसेरे भाई अरजन सरजन गोगाजी की सम्पत्ति को
देखकर ईष्र्या करने लगे। उन्होंने गोगाजी पर
आक्रमण कर दिया किन्तु गोगाजी ने उन्हें परास्त कर दिया। अरजन सरजन अपनी हार पर चुप
नहीं बैठे। वे भाग
कर दिल्ली पहुँचे और
बादशाह से गोगाजी की
शिकायत कर उन पर
आक्रमण करा दिया। किन्तु गोगा ने बादशाह की
सेना को परास्त कर
दिया। यथा- ‘‘तन्हें मारुँ रे मुगल का मियाँ/ तूँ
तेरी भोम छोड़ आयो-हाँ/ पाछो पाछो उठजा रे/ तूँ तेरी भेम छोड़ आयो हाँ/ महलाँ तो बैठी थारी मायड़ झुरैली/ और झुरै घर
री नार रे हाँ/ नव
लख तो मुगल का
मार्या/ दस लाख मार्या रे
पठान हाँ।”[10] गोगाजी को
बादशाह की सेना को
परास्त करना उनकी वीरतापूर्ण व्यक्तित्व को तो हमारे सामने लाता ही हैं
ही साथ ही अपने राज्य और प्रजा की
रक्षा करने वाले एक
शासक के रूप में
सामने आते हैं। वे
अपने परिवार के आंतरिक संघर्षों का सामना करने के साथ-साथ बाहरी आक्रमणों से अपने राज्य की रक्षा करके एक
समर्थ वीर शासक के
रूप में सामने आते
हैं। कालान्तर में अपनी हार व अपमान का
बदला लेने के लिए
अरजन-सरजन गोगाजी की पत्नी का अपमान करते हैं
तथा उसके आभूषण लूट
कर ले जाते हैं। इस पर क्रुद्ध हो
गोगाजी ने उन्हें ललकारा तथा युद्ध में उनका वघ कर अनीति का
फल देते हैं। यथा- ‘‘तिरिया रो कांई लूँटणो रे
जोड़ाँ भायाँ/ मरदाँ सूँ
करो रे जबाब/ आधी तो
गायाँ पाछी घैर लै
रे गोगा/ मासी तो
देवैली सराप/ आधाी दे
दूँ चारण भट नैं
रे जोड़ा भायाँ/ थाँ संग
बाऊँ तलवार/ पैली तो
बाण अरजन साधियो लीलो तो आयो रण में
काम/ मै तन्है लीलो इसो
न जाणतो/ रण में
तूँ आयग्यो काम/ गुरु गोरख रो लाडलो रे गोगा/ गुरु गोरख नैं मनाय/ गुरु गोरख नैं मनांवताँ ही/ लालो तो
कूद्यो नव-ताळ/ साँग भुँआवै घोड़ा नचावै डूँगी डाबर में/ एक साँग दोनूँ भाई मार/ घोड़ा नचावै साँग भुँआवै सुरता तो/ महल
लगाय।’’[11]
गोगाजी ने वीरता से
अरजन-सरजन को भी मार
गिराया। गोगाजी अपने शासन में किसी भी प्रकार के अत्याचार को स्वीकार नहीं करते हैं। गोगाजी के भाईयों के द्वारा एक नारी का अपमान करने पर उन्हें मृत्युदण्ड देते हैं।
भाई के द्वारा भाई का घात करने के कारण माता बाछल गोगाजी से रुष्ट हो
गई और उसने उन्हें बारह वर्ष का देश
निष्कासन का दंड दिया। गोगाजी जैसे स्वाभिमानी और
वीर के लिए ऐसा
दण्ड असह्य था। साथ
ही वे अपनी माता का आदर करते थे
और उनकी सभी बातें उन्हें स्वीकार्य थी। अतः
देश निकाला देने और
वंश का घाती कहने पर गोगाजी वहाँ से
प्रस्थान कर जाते हैं। गोगा ने पांच पीरो को एकत्रित किया। पीरों ने कलमा पढ़ कर
इस्लाम की दीक्षा दी
किन्तु गोगा की सिद्ध आत्मा को इस परिवर्तन को स्वीकर न कर
सकीं। एक भयंकर गर्जन के साथ धरती फट
गयी। गोगा अपने घोड़े सहित पृथ्वी मां की
गोद में छिप गये। यथा- जावो थे मक्का-पढ़ो
थे कलमा/ हिन्दु रा
हुवो मुसलमान/ पाँचूँ तो
पीर भेळा हुयग्या/ गोगै नै
कलमाँ पढाय/ लीलो तो
घोड़ो हिणकता आवै/ पातळियो असवार/ फाटी तो धरती दिया रे
बराड़ा/ गोगा धरती समाय।’’[12] गोगा रात
में अपनी पत्नी से
मिलने आते, वह सोलह शृंगार कर उनकी प्रतीक्षा करती। बाछल ने सोलह शृंगार करने का कारण पूछा तो उसने गोगा के आगमन की बात
कह दी, माँ ने
छिपकर देखा, उस दिन
के बाद गोगाजी कभी
मिलने न आये। गोगाजी लोकगाथा के विषय में
अपने विचार प्रकट करते हुए चन्द्रदान चारण लिखते हैं कि, ‘‘गोगाजी के
गीत की एक बहुत बड़ी विशेषता है उसका स्थानीय अनुरंजन। राजस्थान के लोकजीवन के विभिन्न अवसरों के सुन्दर चित्र गीतकार ने अंकित किये हैं। गोगाजी के जन्म और विवाह का वर्णन आकर्षण है। गोगाजी का
गीत सरल भाषा में
है। भाषा में प्रवाह के साथ-साथ चित्रात्मकता है। लोकमानस में इस
गीत की अमिट गूँज का कारण सम्भवतः उसका प्रसाद गुण ही है।
गोगाजी राजस्थान के प्रसिद्ध लोकदेवता हैं। जन-जन
के हृदय में गोगाजी को जो स्थान मिला है, वह उनके चमत्कारी जीवन के कारण है। गीतकार ने अपने गीत में
इसी की प्रधानता दी
है। पर केवल चमत्कार वर्णन से गीत नीरस हो जाता, अतः उसने ऐसे सरस प्रसंगों को
भी अपने गीत में
स्थान दिया है जो
जन-जीवन को स्पर्श कर
सके।’’[13]
गोगाजी का गोरखनाथ की
कृपा से जन्म, गोगा का
सर्प का डंक चूसना, गर्भ में से गोगा का
वार्तालाप, उड़नखटोला, पाबूजी और
गोगाजी का क्रमशः दुर्दुर तथा सर्प बनना, पद्प नागण, गोगा का सशरीर पृथ्वी प्रवेश आदि लोकमानसीय प्रवृतियों की
अभिव्यक्ति है। गोगाजी की
ऐतिहासिकता से जनमानस का
कोई संबंध नहीं, वह तो
अपनी प्रवृतियों के
सन्दर्भ में ही गोगाजी को प्रस्तुत करता है।
लोकमानस चमत्कारी पुरुष का
जन्म अलौकिक शक्ति से
मानता है। गोगाजी की उत्पत्ति विषयक मान्यता में यही
विश्वास व्यक्त हुआ है।
सरिता विश्नोई
जे.आर. एफ. शोधछात्रा
हिन्दी विभाग,
वनस्थली विद्यापीठ
|
सन्दर्भ:
[1] राजस्थान का सांस्कृतिक इतिहास, डाॅ. पेमाराम, राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर, 1995, पृ.108
[2] भोजपुरी लोकगाथा, डाॅ. सत्यव्रत सिन्हा, हिन्दुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद, 1957, पृ. 202-203
[3] गोगाजी चैहान री राजस्थानी लोकगाथा, सं. चन्द्रदान चारण, भारतीय विद्या मन्दिर शोध प्रतिष्ठान, बीकानेर, 1962, पृ.24-25
[4] राजस्थानी लोकगाथा का अध्ययन, डाॅ. कृष्णकुमार शर्मा, राजस्थान प्रकाशन, जयपुर, 1972, पृ. 77
[5] गोगाजी चैहान री राजस्थानी गाथा, चन्द्रदान चारण, पृ.45
[6] वहीं, पृ.46
[7] वहीं, पृ. 48
[8] वहीं, पृ. 50-51
[9] राजस्थानी लोकगाथा का अध्ययन, डाॅ. कृष्णकुमार शर्मा, राजस्थान प्रकाशन, जयपुर, 1972, पृ. 174
[10] गोगाजी चैहान री राजस्थानी गाथा, चन्द्रदान चारण, पृ. 65
[11] वहीं, पृ.71-72
[12] वहीं, पृ.73
[13] वहीं, पृ. 36
[14] वहीं, पृ.28
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