त्रैमासिक ई-पत्रिका 'अपनी माटी' (ISSN 2322-0724 Apni Maati), वर्ष-2, अंक-16, अक्टूबर-दिसंबर, 2014
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छायाकार:ज़ैनुल आबेदीन |
हमारे गाँव, कस्बों और शहरों को इस तरह
नियोजित किया जाता है कि चमक-दमक दिखाई पड़े, भूख और गलाज़त नहीं। मासमीडिया
को इस तरह संचालित किया जाता है कि अय्याशी दिखाई पड़े, अभाव और अन्याय नहीं। विद्यालयों, विश्वविद्यालयों, नीति-संस्थाओं, पाठ्यक्रमों आदि को इस
प्रकार गढा जाता है कि हमें 'मेरा भारत महान दिखाई' पड़े , दुनिया के भुखमरों का अग्रणी कब्रिस्तान नहीं। इंटरनेशनल फ़ूड पॉलिसी रिसर्च
इंस्टीच्यूट के आंकड़ों के मुताबिक़ दुनिया
के भूख-सूचकांक के लिहाज से 2013 में भारत 78 देशों में 63 वें नम्बर पर था, जबकि चीन छठे, पाकिस्तान
57वें और
बंगलादेश 58वें पर। वही भारत, जिसे हम चीन के बाद
दूसरे नम्बर की सब से तेज बढती अर्थव्यवस्था मानने लगे हैं।इसी भारत में चालीस फीसद बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। यही सूरतेहाल गुजरात जैसे 'माडल'-राज्य में भी है जिसके लिए वहाँ के एक भूतपूर्व
मुख्यमंत्री ने फैशनपरस्त लड्कियों की डायटिंग की आदत को जिम्मेदार ठहराया था।
ज़ैनुल आबेदिन |
ज़ैनुल आबेदिन के पहले की भारतीय चित्रकला पर भी यही
बात लागू होती थी। आधुनिक भारतीय चित्रकला, नवबंगाल कला या नवभारतीय कला के नाम पर चित्रकारों ने देवी-देवताओं,
राजा-रानियों,
नायक-नायिकाओं के
खूब चित्र बनाए अथवा भारत की लोकसंस्कृति का सजावटी चित्रंण किया।लेकिन भारत की दारुण गरीबी, अंग्रेजीराज के जुल्मोसितम और और हक के लिए लड़ने वाली जनता के
आंदोलनों की छाया तक अपने चित्रों पर न पड़ने दी। राजा रवि वर्मा,
अवनींद्र नाथ राय,
यामिनी राय,
नंदलाल बोस जैसे
तमाम महान चित्रकारों के चित्र उठाकर देख लीजिये।
बेहद बारीकी से, लेकिन उतनी ही मजबूती से सत्ता
दृश्य और अदृश्य का विधान करती है। यह
विभाजन शहरों -बाज़ारों से ले कर चित्रकला और साहित्य तक में ज्यों का त्यों उतार
दिया जाता है ताकि हम आप सिर्फ वह देख सकें, जो 'वे' हमें दिखाना चाहते हैं, ताकि हम
सिर्फ 'उन्हें
' देख सकें, खुद को
नहीं।
9 दिसम्बर 1914 को मैमनसिंह (अब बांग्लादेश) के किशोरगंज गाँव में जन्मे
और कलकत्ते के सरकारी कला विद्यालय में प्रशिक्षित ज़ैनुल आबेदिन कलाकारों की उस
दूसरी कतार के अग्रणी थे, जिहोने दृश्य और अदृश्य के इस विधान को पलट दिया। उनके साथ
इस कतार में शामिल कुछ अन्य कलाकार हैं- चित्तो प्रसाद , कमरुल हसन , सादेकैन, सोमनाथ होड़, रामकिंकर बैज। इन सभी
ने अपने चित्रों में उस अदृश्य को चित्रित
किया जिसे
सत्ता हमें देखने देना नहीं चाहती और जिसे देख कर हम खुद भी नजरें फेर लेना बेहतर
समझते हैं। सुन्दरता के झूठे नजारों को
उन्होंने अपने चित्र फलक से बाहर निकाल दिया। ज़ैनुल आबेदिन के चित्रों में ब्रह्मपुत्र के किनारे किसानों की ज़िन्दगी, संथाल लोकजीवन, अकालपीड़ित मनुष्यता, फिलिस्तीन
का संघर्ष और बांग्लादेश मुक्तियुद्द है।मालदार फुरसतिया तबके के मनोरंजन की सामग्री नहीं।
विभाजन के बाद ढाका पहुंचे ज़ैनुल आबेदिन ने वहाँ कला
महाविद्यालय की स्थापना की। यह एक ऐसा कदम था जिसका नवनिर्मित पाकिस्तान के
कट्टरपंथियों ने घोर विरोध किया। लेकिन इसी कला महाविद्यालय ने बांग्लादेश मुक्तियुद्द
में अपने नैतिक और सृजनात्मक सहयोग से महत्वपूर्ण योगदान दिया। बांग्लादेश की
कृतज्ञ जनता ने ज़ैनुल आबेदिन को शिल्पाचार्य कह कर पुकारा।भुखमरी और तबाही को चित्रफलक पर उतारना एक नाज़ुक काम
है। चित्रफलक पर आ कर विनाशलीला भी 'लीला' में बदल सकती है। ऊबे-अघाए लोगों के लिए सनसनी और
उत्तेजना का सामान बन सकती है इसीलिये तबाही की तस्वीरों और फोटोग्राफ की बाज़ार में मांग होती है।
ज़ैनुल
आबेदिन जैसे कलाकारों की सिद्धि इस बात में है कि उनके चित्र तकलीफ को मनोरंजन का
ज़रिया नहीं बनने देते। उनके चित्रों कोदेख कर आप गुस्से से पागल हो सकते हैं,
आप अनेक मुश्किल
सवालों से घिर जा सकते हैं, आपके दिलोदिमाग में सोचविचार की एक गहरी प्रक्रिया शुरू हो
सकती है, आप हालात को समझने और बदलने के लिए बेचैन हो सकते हैं।लेकिन दया, करुणा और छल-छल भावुकता
से आप कोसो दूर रहेंगे। ज़ैनुल आबेदिन के अकाल -चित्र अकाल की अमानवीय हकीकत से हमारा सामना कराते हैं, और यह भी दिखा जाते हैं कि यह कोई प्राकृतिक आपदा
नहीं, मानव निर्मित 'राजनीतिक 'अकाल है। 'अकाल की कला और ज़ैनुल
आबेदिन' नामक
किताब में अशोक भौमिक ने लिखा है कि किसी
ने ज़ैनुल आबेदिन से पूछा, आपने अकाल को चित्रित किया, लेकिन बाढ़ को बिलकुल छोड़ दिया,
ऐसा क्यों। आबेदिन ने कहा - इसलिए कि बाढ़ एक
प्राकृतिक विपत्ति है, जबकि अकाल मानवनिर्मित है। उनका मंतव्य
स्पस्ट है -कलाकार का असली काम मनुष्य के द्वारा मनुष्य के खिलाफ रचे जा रहे षड्यंत्र को उजागर करना है।यह अलग बात है कि आज हम मनुष्य निर्मित बाढ़ से भी परिचित हैं।
ज़ैनुल आबेदिन के चित्रों में अक्सर एक निचाट खाली,
सुनसान, चित्रफलक पर उकेरी हुयी
आकृतियाँ दिखाई देती हैं। पृष्ठभूमि का
सन्नाटा मौजूद कुरूपता को अनायास उजागर कर देता है। उसे छुपाने और धुंधला करने
वाली कोई चीज वहां नहीं होती। इन मानव-आकृतियों के चेहरों को निकट से देखने का
अवसर आपको नहीं मिलगा। गोया वे अपने चेहरे
जाहिर करने से इनकार कर रही हों।गोया वे चित्र के बाहर खड़े दर्शक से कह रही हों,
जाओ, अपना रास्ता नापो,
इधर दया-दृष्टि
फेरने की जरूरत नहीं है। इन चित्रों में आपको वैसी ही भारी स्थिर रेखाएं मिलेंगी, जैसी कि पिकासो की गुएर्निका में
आपने देख रखी है. इन रेखाओं में चंचलता
और बारीक लहरें नहीं होंगी। इनमें हाहाकार के संगीत की सरलता दिखाई पड़ेगी,
श्रृंगार की
रागिनियों की वक्रता नहीं।
अशोक भौमिक की किताब में उल्लेख है कि ज़ैनुल आबेदिन
ब्रह्मपुत्र और गंगा के किनारे गाये जाने वाले लोकगीतों के बीच के बारीक फर्क को
समझाते हुए कहा करते थे कि ब्रह्मपुत्र के किनारे के गीत उसके स्वभाव के अनुरूप
स्थिर, भारी
और दीर्घ स्वरों में गाये जाते हैं, जबकि गंगा के किनारे के गीत उसकी लहरों के तरह
चपल-चंचल होते हैं। आबेदिन के चित्रों की रेखाएं भी ब्रह्मपुत्र की लहरों की तरह स्पस्ट और गहरी हैं। नजर से सीधे दिल में उतर जाने वालीं। अकाल की राजनीति इन चित्रों में हर जगह मौजूद
स्वस्थ-सुडौल कौओं और कहीं कहीं मनुष्य के साथ कचरे से भोजन तलाशते कुत्तों में
भी दिखाई देगी। आसमान में उड़ने वाले कौओं
की सेहत इंसानी लाशों की बहुतायत पर निर्भर करती है। कुत्ते तो हर जगह इंसान के साथी
हैं, उनका
जीना मरना इंसान के साथ ही है। लेकिन ये मोटे-मोटे गगनविहारी कौए कभी सात समन्दर पार से उड़ आये हुक्मरान
व्यापारियों की याद दिलाते हैं, कभी शहर से गाँव तक उड़ते फिरते हिन्दुस्तानी जमाखोरों-सेठों-महाजनों की।
इन चित्रों में ड्राइंग रूम में लटकाने वाली
सुन्दरता कहीं नहीं मिलेगी। सहस्त्राब्दियों में जो सभ्यता हमने बनाई, उसकी सारी कुरूपता इन
चित्रों से झांकती हुई दिखाई देगी। जैसे पूछते हुए कि सुंदरता कहाँ है, उसे क्यों देशनिकाला दे
दिया गया, उसे किन खोहों में जंजीरों से जकड़ कर डाल दिया गया।जैसे ललकारते हुए कि हे
दर्शकों जाओ, कहीं से भी ढूंढ कर लाओ और हमारी सुंदरता वापिस करो।ठीक उस पगलाए बाप की तरह,
जो ज़ैनुल आबेदिन
को उनके बचपन में मिलता था, जिसका बेटा खो गया था, और जो हर मिलने वाले से सिर्फ
अपने बेटे के बारे में पूछा करता था। अशोक भौमिक की किताब में यह प्रसंग भी दर्ज है।
आशुतोष कुमार ज़ैनुल आबेदीन जनशताब्दी समारोह के राष्ट्रीय संयोजक और जसम के वरिष्ठ कार्यकर्ता दिल्ली मो-09953056075 ई-मेल:ashuvandana@gmail.com |
या उस कोयल के तरह, जिसके बारे में ज़ैनुल आबेदिन कहते थे कि वो दरअसल एक तलाश है,
एक विकल पुकार उस
अपने घर के लिए, जो कोयल के पास कभी रहा ही नहीं। ज़ैनुल आबेदिन खुद को भी उसी कोयल की जगह रखते थे। तो क्यों न कहा जाए कि
ज़ैनुल आबेदिन की तस्वीरें सुंदरता का अपना घोंसला तलाशती कोयल की पुकार है,
जो कहीं दिखता
नहीं, लेकिन
है। कहीं न कहीं है।हमारी आंखें क्या कुछ देख पाती हैं, और क्या नहीं देख पातीं,
यह यकीनन हमारे
ऊपर भी निर्भर करता है।
(इस आलेख के अंश 'उदयपुर फ़िल्म सोसायटी' द्वारा 'दूसरे फ़िल्म फेस्टिवल' के आयोजन पर प्रकाशित स्मारिका में छप चुके हैं. हम वहीं से साभार पाठक हित में यहाँ छाप रहे हैं-सम्पादक )
(इस आलेख के अंश 'उदयपुर फ़िल्म सोसायटी' द्वारा 'दूसरे फ़िल्म फेस्टिवल' के आयोजन पर प्रकाशित स्मारिका में छप चुके हैं. हम वहीं से साभार पाठक हित में यहाँ छाप रहे हैं-सम्पादक )
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