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वो जाते जाते
वो जाते जाते
खिड़की पर अपना चश्मा भूल गयी थी शायद।
घंटो इस खिड़की पर खड़ी रह-के
पता नहीं क्या देखा करती थी ?
मेरे ऑफिस जाते वक़्त भी वो खिड़की पर होती थी
और ऑफिस से लौटू तब भी
वो वहीं हुआ करती थी।
बीच बीच में चश्मा निकालकर
पोंछा करती कांच भी और आँख भी
कल रात उसको गाँव छोड़ आने के बाद
सुबह सुबह खिड़की पर मैंने यह चश्मा देखा ,
वो भूल गयी थी जाते जाते, शायद
जिज्ञासा हुई तो मैंने वो चश्मा लगाकर देखा
खिड़की के बाहर
'पता तो चले वो खिड़की के बाहर क्या ताकती रहती थी घंटो ?'
चश्मा लगा कर खिड़की के बाहर देखा तो -
पुराने दिन दिख रहे थे
हाईवे की जगह कच्ची सड़क थी,
स्ट्रीट लाइट कि जगह, पेड़ों कि कतारें थी
साइकिल पे मेरे बाबूजी फैक्ट्री जा रहे थे
और पीछे मूड कर हाथ हिला रहे थे।
मैंने भी फिर चश्मा निकल कर साफ़ किया -
कांच भी और आँख भी
(2)तेरे इंतज़ार में …
छुटकारा हमसे पाकर
कहाँ चैन तुम्हे मिलेगा ?
कि दीवाने और भी है शहर में,
बेकरार तेरे इंतज़ार में।
एक भगतसिंह को सूली चढ़ाकर
कहाँ इंक़लाब खत्म होगा ?
कि करोड़ों और भी शहर में,
तेरे जुल्म के इंतज़ार में।
खत तोहफे जलाकर मेरे
कहाँ सबूत दफन कर दोगे ?
कि डाकखाने और भी है शहर में,
डाकिये के इंतज़ार में।
मजहब बदल बदल कर अपने
कहाँ ठिकाने बदलते रहोगे ?
कि दंगाई और भी है शहर में,
मंदिर मस्जिद टूटने की इंतज़ार में।
संतोष कदम
मसकत , ओमान
ई-मेल:santoshak74g@gmail.com
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