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भारतीय गाँवों की सामाजिक संरचना बुनियादी तौर पर
सामंती है, जो मुख्यतः प्रभुत्व शाली, भूमिहारों के बल तथा पराधीन खेतिहर वर्ग की बुनियाद पर आझ
भी टिकी हुई है। सामाजिक, आर्थिक असमानता न केवल निम्न वर्ग तक सीमित है बल्कि समाज
का उच्च वर्ग भी इससे ग्रस्त है। बहुत हद तक आज भी भारतीय गाँवों की सामाजिक
संरचना अपनी प्कृति में मध्ययुगीन कही जा सकती है। कवि त्रिलोचन किसान जीवन के
वास्तविक सुख-दुख, आशा, निराश,
और संघर्ष की
कविता लिखते हैं। कल्पना उल्लास और विजय की नहीं। काव्य रचना के क्षेत्र में
जनजीवन को लेकर जो लोग अत्यांतिक आशावाद की व्याधि से ग्रस्त है उनकी ओर इंगित
करते हुए त्रिलोचन लिखते हैं-
“धरती के पुत्र की
|
“अगर ना हो हरियाली
कहाँ दिखा सकता हूँ? फिर आँखों पर मेरी
चश्मा हटा नहीं है, यह नवीन ऐयारी
मुझे पसंद नहीं है, जो इसकी समझने-कहने का
मुझको है अधिकार ”1
रामविलास शर्मा ने त्रिलोचन
के काव्य के बारे में बिलकुल ठीक ही लिखा है कि “नयी कविता शहर और देहात के
गरीबों से जितनी ही दूर है, त्रिलोचन की कविता उतनी ही पास है। त्रिलोचन जिस खास अर्थ में आधुनिक है वह यही गहीबों से उनकी कविता का नाता है। नयी कविता ने अपने लिए जो
परिधि बनाई, उसने जनता के दुःख दर्द को उससे बाहर रखा। त्रिलोचन की कविता इस परिधि को
तोड़ती है।”2
क्योंकि समाज का विकास
कितना भी हो सके किसान एवं ग्रामीण जनता की हालत तो बदलती नहीं। किसान हमेशा के
लिए व्यवसायदारों के द्वारा शोषण का शिकार होते जा रहे है। यह भी सच है कि फ़सल बेचने
के वक्त उनके बारे में सोचने वाला कोई भी व्यक्ति नहीं है। गॉव का मज़दूर एवं
निम्न वर्गों के जीवन और निम्न दृष्टि में देखा जाता है। इन सबका उदाहरण त्रिलोचन
ने अपनी कविताओं में स्पष्ट रूप में समाज के सामने रखा है।
त्रिलोचन के काव्य में
ग्रामीण जीवन के विभिन्न पक्षों का चित्रण है। वे चित्रण अलग-अलग होने के बावजूद
परस्पर संबद्ध है। मध्यवर्गीय मानसिकता के कवियों की कविता में किसान बहुत कुछ
करता है, लेकिन
वह खेती करता नहीं दिखाई देता। त्रिलोतचन सबसे पहले किसान के रूप में जीवन केलिए प्रकृति से लड़ते
हुए किसान के रूप में चित्रित करते हैं-
“है धूप कठिन सिर ऊपर
थम गयी हवा है जैसे
दोनों ढुबों के ऊपर
रख पैर खींचते पानी”3
इससे भिन्न एक चित्र में
किसान जीवन का दूसरा पक्ष है। ऊपर चित्र में पति के साथ-साथ धाम-शीत हुई जो स्त्री
खेत में पानी दे रही है वह किसी दिन बहु बनकर पति के घर आई होगी। ऐसे अवसर पर
किसान के जीवन में और घर में जो उत्सव और उल्लास होता है उसकी अभिव्यक्ति त्रिलोचन
ने की है। लेकिन उनकी सहृदयता भीड़-भाड़ से अलग आशंका, भय और संकोच में डूबी हई बहु के
पास पहुँच जाती है-
“कोपती सुख से कही बैठी अकेली
साधती होगी बहु कुछ भाव के स्वर
आज मन सा इन सबो गीत की पहली कड़ी हो
गा रही है गा रही है गा रही है।”4
ऐसे तो गीबी किसी एक देश
की ही नहीं बल्कि पूरे विश्व की सम्या है। किन्तु ग्रामईण गरीबों का अधिकांश भाग
सामंती किसान, कृषक मजदूर, जनजाति मछुआरों का है। भारत वर्ष में सन् 1975 में तत्कालीन प्रधान मंत्री
श्रीमती इंदिरा गाँधी ने “गरीवी हटाओं” का नारा् दिया था। तत्पश्चात ही देश में गरीबी पर
जोरदार हमला करने के लिेए एकीकृत ग्रामीण विकास की योजना शुरू की गई। विज्ञान एवं
तकनीकी के उपर्युक्त प्रयोग से क्षेत्र विकास की यह पहली शुरूआत थी। तब से आज तक
यह ग्रामीण विकास की मूल नीति रही है।
गाँव के परिवर्ति हीन
जीवन का एक विशेष विषाद से भरा हुआ यह एक मार्मिक चित्र है। प्रगतिशील कविता ने
ग्राम्य जीवन के यथार्थ-चित्र खींचा है, उसे गुप्त जी की तरह (अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है,
क्यों न इसे सब का
मन चाहे) गौरवान्वित नहीं किया। ग्राम्य जीवन की कुत्सा का एक वास्तविक चित्र इस
प्रकार है कि-
“ऐसे ग्राम भरा है जिनमें, आह अगाध अज्ञान भयंकर
मंडराती है जहाँ भूख की उत्कट ज्वालाएँ प्रलयंकर
निज हत-भाग्य राष्ट्र के ये सब ग्राम समूह कुचैले
मैले
जन कृति के उपहास चिह्न ये, ये मानव के सदन विषैले
ग्राम नहीं है ये सदियों की आहें पुंजीभूत हुई हैं
मानव की वेदना व्यथाएँ, बन कर ग्राम प्रसूत हुई हैं।”5
इसी प्रकार भगवतीचरण
वर्मा की भैंसगाड़ी भी ग्रामीण यथार्थ को इसी तरह चित्रित करती है :
“उस ओर क्षितिज के कुछ आगे कुछ पाँच कोस की दूरी पर
भू-की छाती पर फोडों से हैं उठे हुए कुछ कच्चे घर
मैं कहता हूँ खंडहर उसको, पर वे कहते हैं उसे ग्राम
जिसमें भर देती निज घुंधलापन, असफलता की सुबह शाम
पशु बनकर नर पिस रहे जहाँ, नारियाँ जन रही हैं गुलाम
पैदा होना फिर मर जाना, बस यह लोगों का एक काम”6
लेकिन प्रगतिशील कविता
ने ग्रामीण जीवन की केवल कुत्सा और विषाद को ही देखा हो, ऐसी बात नहीं है, उसने उसकी उन्मुक्तता और
मस्ती को भी चित्रित किया है। उदाहरण के लिए पंत जी की ग्राम्य में संकलित धोबियों
का नृत्य, चमारों का नाच, ग्राम्य युवती आदि कविताएँ देखी जा सकती है। ग्राम्य जीवन में स्थित मनुष्यत्व
के मूल तत्वों और भावी संस्कृति के अविकृत ुपादानों को भी प्रगतिशील कविता ने
रेखांकित किया है।
खेत, किसान की भूख का दलाल है,
यह सत्य स्वीकार
करना कितना मुश्किल है परंतु यह सच्चाई भी है। जी-तोड मेहनत के पश्चात् किसान वह
फसल उगाता है जिसे विचौलिए औने-पौने खरीदते हैं, जिस पर किसान लगान देता है और
जिसे उगाने में किसान का खून पसीना ही नहीं महंगी खाद भी प्रयोग होती है। जब किसान
खेतों से ‘फसलों की लोथ’ लेकर लौटता है तब उसकी हताश शब्दों से परे होती है। किसान में समझ की कमी नहीं
वह प्रकृति से शिक्षा ग्रहण करता रहा है परंतु यह काफी नहीं है। धूमिल किसनों को
शिक्षा प्राप्त करके अपने को बदलने की प्रेरणा देते हैं। शिक्षित किसान ही
स्वाभिमान के साथ जी सकता है। धूमिल, किसान को संबोधित करते हुए कहते हैं –
“इसलिए मैं फिर कहता हूँ कि हर हाथ में
गीली मिट्टी की तरह-हां-हां-मत करो
तनों अकड़ो
अमरबेलि की तरह मत जियो,
जड़ पकड़ों ”7
धूमिल ने किसान की सबसे
बड़ी कमजोरी अशिक्षा को माना है। शिक्षा के अभाव में किसान गूंगा है, शोषित होने के लिेए अभिशप्त
है, शब्दजाल
में भटक जाने के लिए विवश है। किसान की सारी समस्याएँ अशिक्षा से ही प्रारंभ होती
है। इस कारण से सब लोग इन पर अधिकार चलते रहे हैं। इसलिए धूमिल ने किसानों को अपने
अधिकारों के लिए आंदोलन में भाग लेने के लिए आवाज़ देती है। इनकी ‘हरित क्रांति’ कविता आर्थिक शोषण एवं
व्यवसायियों की धोखाबाजी को व्यंग्यात्मक दृष्टि से कहा है कि-
“इतनी हरियाली के बावजूद
अर्जुन को नहीं मालूम गालों की हड्डियां क्यों
उभर आयी है
उसके बाल
सफेद क्यों हो गये हैं।
लोहे की छीटी-सी दुकान में बैठा वह आदमी
सोना और इतने बड़े खेत में खड़ा आदमी
मिट्ठी क्यों हो गया है।”8
चमनलाल का कहना है कि,
“हरियाली का
स्वाभाविक परिणाम यह होना चाहिए या कि खेतों का मालिक अर्जुन समृद्ध होता परंतु
उसके गालों की हड्डियाँ निकली है और बाल सफेद हो गए है। यहाँ पर परिस्थितिगत
विडंबना उभरती है। ‘लोहे’ की दुकान में बैठा आदमी ‘सोना’ हो गया है और सुनहली फसलों में खड़ा आदमी ‘मिट्ठी’ हो गया है।”9 मोचीराम कविता भी ग्रामीण-बोध की सशक्त कविता
है। इस कविता का मोचीराम निश्चय ही शहरी मोची नहीं है जो कि देहाती को प्यार से
बुला कर उसकी फटी जूती में मरम्मत के नाम पर ‘फूलियाँ’ जड़ देता है और उससे डांटकर पैसे
वसूल करता है। जिन्दगी के पीछे किसी तर्क का होना जरूरी मानने को बचाने के लिए
गरीब के जूते का ध्यान रखता है। मोचीराम की समझ साफ है, वह कहता है-
“न कोई छोटा है
न कोई बड़ा है
मेरे लिए हर आदमी एक जोड़ी जूता है
मरम्मत के लिए खड़ा है।”10
मोचीराम की यह सपाट
बयानी सचमुच आकर्षक है। गरीब मोचीराम बसन्त की मस्ती का आनन्द नही ले सकता क्योंकि
उसे रोजी-रोटी की चिन्ता रहती है। मोचीराम भी निर्धन ग्रामीणों की मूल समस्या
अशिक्षा को ही मानता है क्योंकि –
“जब कि असलियत यह है कि आग
सबको जलाती है सच्चाई
सबसे होकर गुजरती है
कुछ हैं जिन्हें शब्द मिल चुके हैं
कुछ है जो अक्षरों के आगे अन्धे हैं
वे अन्याय को चुपचाप सहते हैं
और पेट की आग से डरते हैं।”11
मोचीराम का यह मानना है
कि अशिक्षित लोग भूखों मरने के डर से निरंतर अन्याय को सहते जाते हैं। किसान किस
गाँव के अधिकारियों द्वारा सताया जाता है इसका मार्मिक चित्रण भी धूमिल की कविताओं
में हुआ है। लेखपाल यह पटवाली किसान के लिए भगवान बन जाता है क्योंकि अनपढ़ किसान
की भाग्य-रेखा उसके सरकारी रोजनामचों में कैद रहती है। धूमिल के अनुसार –
“लेखपाल की
भाषा के लम्बे सुनसान में
जहाँ पालों और बंजर का फर्क
मिट चुका है चन्द खेत
हथकड़ी पहने खडे हैं।”12
अनपढ़ किसान लेखपाल की
भाषा के आगे अन्धा है इसलिए लेखपाल उपजाऊ और बंजर भूमि को बराबर सिद्ध कर सकता है
और मनमाना लगान ठोक सकता है। यहाँ भी अशिक्षा ही किसान की शत्रुता दिखाई पड़ती है।
ग्रामीण जीवन के कारुणिक दुःख प्रसंगो को काव्य का विषय बनाकर रामविलास शर्मा ने
किसानों की एवं ग्रामीण मज़दूरों के जीवन को सही ढंग से अपने काव्य में प्रस्तुत
किया है। कविता ने समाज के शोषक जमींदारों और पूँजीपतियों के नृशंस अत्यचारों को
वर्णित किया है जो उनके श्रम का उचित पारिश्रामिक नहीं देते हैं। उनका तन सूख गया
है और जीवन के झनझावतों से संघर्ष करते उनकी देह में शक्ति नहीं रही है। उनके सारे
परिश्रम का मिूल्य केवल सीला ही है-
“इस धरती पर जो श्रम करते हैं
उनके तन के परती में अब सूख गया है
खत, रेत पर गिरी हुई जल की बूंदों सा।
सभी जमिंदारों के ‘जन’ है सब कोटी चबार
करते हैं जो नीत ही बेगार
सीला भर जिनका पगारा।”13
लेकिन अंत में कवि देखता
है कि व्यवस्था का नरक भोगने को अभिशप्त इस शोषित व निर्धन जनता में भी आजादी की
लहर दौड़ रही है। वे अपनी स्वतंत्रता के पर्ति उत्साहित व प्रफुल्लित है-
“आज अबध के जन गीतों में
सुन पड़ते है आजादी के नियते जाने
कोयल व पपीहा के स्वर में घुल मिलकर
सुन पडती हैं घर-घर आवाज नई यह
इनकलाब की, आजादी की।”14
अर्थात् अंत में कवि ने
आशा व उत्साह के स्वरों को स्थान दिया है। इसी प्रकार ‘कार्यक्षेत्र’ कविता में कवि प्रकृति
की चित्रों को उपस्थित करते हुए प्रकृति के सान्निध्य में रहने वाले वर्तमान
भारतीय किसान की दयनीय दशा का वर्णन भी मर्मस्पर्शी ढंग से उपस्थित करता है-
होगी कौन जाति, कौन मत, कहो-कौन धर्म
धूली भरा धरती का पुत्र है,
जोतता है, बोता है जो किसान इस धरती को
मिट्टी का पुतला है, मिट्टी के चिर संसर्ग में
किंतु मिट्टीलेपन में –
“छिपी है विभिन्नता, विचित्रता, विषमता विश्व की,
रूढियों की नियमों की, अस्पष्ट विचारों की,
सदियों के पुरातन मृत संस्कारों की
चिह्नित है प्रेत रूप छायाये मटिले मूह पर”15
लेकिन अंत में कवि किसान की कुसंस्कृत भूमि पर
असंतोष के अतिरिक्त बीज बोकर नये साल
फाल्गुन में क्रांति की फसल काटना चाहता है-
“बोना माहा तिवत वह बीज असंतोष का,
काटनी है नये साल फाल्गुन में फसल जो क्रांति की।”16 अर्थात् किसानों को शोषण से मुक्त करने का एक
ही उपाय है क्रांति और समाजवादी समाज की स्थापना।
संदर्भ सूची :-
1. त्रिलोचन के बारे में – गोविंद प्रसाद. पृ.150
2. त्रिलोचन के बारे में – गोविंद प्रसाद. पृ.55
3. त्रिलोचन के बारे में – गोविंद प्रसाद. पृ.55
4. त्रिलोचन के बारे में – गोविंद प्रसाद. पृ.55
5. नवीन : आज क्रांति का शंख बज रहा, हम विष पायी जनम के – त्रिलोचन के बारे में गोविंद प्रसाद.पृ.470
6. नवीन : आज क्रांति का शंख बज रहा, हम विष पायी जनम के – त्रिलोचन के बारे में गोविंद
प्रसाद.पृ.470
7. संसद से सड़क तक (प्रौढ़शिक्षा) –सुदामापाँडे धूमिल. पृ.46
8. संसद से सड़क तक –पत झड़ - सुदामापाँडे धूमिल. पृ.60
9. संसद से सड़क तक – पत झड़ –सुदामापाँडे धूमिल. पृ.135
10. संसद से सड़क तक -(मोचीराम) –सुदामापाँडे धूमिल. पृ.36
11. संसद से सड़क तक -(मोचीराम) –सुदामापाँडे धूमिल. पृ.40
12. संसद से सड़क तक -(नक्सल वाडी) –सुदामापाँडे धूमिल. पृ.68
13.रूप रंग, बैंसवाडा शीर्षक कविता. पृ.70
14.रूप रंग बैंसवाडा शीर्षक कविता.
पृ.71
15.रूप रंग परिचय :रघुनाथ विनायक –पृ.109
16.रूप रंग : कार्यक्षेत्र –
रामविलास शर्मा.
पृ.38
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