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(1)नासूर
चित्रांकन: राजेश पाण्डेय, उदयपुर |
कभी- कभी
खुरचना चाहता है;
हर आदमी
पुराने जख्मों को
उनको लीलने से
मिलता है
अनोखा सा आनन्द
जिन पर जमी होती है
अवसादों की
हल्की सी पपड़ी
महत्वाकांक्षाओं की
मीठी सी जलन....
और यादों के नाखुनों की
हल्की सी चुभन
पैदा करती है..
मखमली टीस
वह खुरचता है तब तक।
जब तक न बहे
कुछ भावनाओं का नया खून
इस तरह गहराता है
हर ज़ख्म
और बन जाता है
एक "रिश्ता "नासूर
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(2)जीवन का प्रमाण
शब्दों की
नाड़िया छूकर
अर्थों की
संवेदित
धडकन सुनना
कि जैसे
धूप मे बैठकर
सूरज को छूना
टीले पर चढकर
हवाओं को पीना
सारी की सारी
स्पन्दन की भाषा.....
तुम जीवित तो हो न?
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(3)धर्म-दर्शन
राग-विराग
सब उचित है
प्रेम -विरह
एक दूसरी दुनिया
धर्म-जात
उन्माद का परिणाम
अमीर-गरीब,
विधाता का पक्षपात
मगर
एक स्थिति है
भूख....
जब सब गौण हो जाते है
तब शेष रहता है
मात्र एक ही
धर्म- दर्शन
रोटी
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