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इस बार की सम्पादकीय के नाम पर मेरा मन हुआ कि आपसे मेरी नर्मदा डायरी ही साझा करूं जिसे मैंने फेसबुक पर रोजाना लिखा है। असल में नर्मदा के किनारे के जीवन को ठीक से उकेरती है। -अशोक जमनानी
नर्मदा यात्रा : अमरकंटक
दोस्तों ने कहा कि मैं बकबक बंद करूँ और नर्मदा यात्रा की कुछ तस्वीरें साझा करूँ। आदेश का पालन करते हुए अमरकंटक से डिण्डोरी तक की लगभग 100 किलोमीटर की यात्रा के कुछ पड़ावों के चित्र साझा कर रहा हूँ। शुरुआत अमरकंटक से करते हैं जहाँ नर्मदा एक बहुत छोटे से कुण्ड से अपनी यात्रा आरम्भ करतीं हैं। नर्मदा के उद्गम स्थल का निर्धारण आदि शंकराचार्य द्वारा किया गया था जहाँ पर कलचुरि राजवंश द्वारा ग्यारहवीं शताब्दी में बहुत सुन्दर मंदिर बनवाए गए थे। कालांतर में नर्मदा का उद्गम स्रोत कुछ दूरी पर बहने लगा वहीं पर वर्तमान उद्गम कुण्ड है। पुराने और नए दोनों स्थानों पर स्थित मंदिर और उद्गम कुण्ड के चित्र के साथ यात्रा का आरम्भ करते हैं …… नर्मदे हर।
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मझियाखार
सिवनी संगम से आगे बढ़ते हैं तो कुछ किलोमीटर बाद एक छोटा सा गाँव है - मझियाखार। नर्मदा के प्रवाह के साथ आदिवासियों का गहरा रिश्ता है लेकिन तीन आदिवासी जातियां यहाँ प्रमुख रूप से निवास करती हैं। बैगा, गोंड और भील। नर्मदा के पूर्व अर्थात आरम्भ में बैगा मध्य में गोंड और पश्चिम अर्थात अंतिम सिरे पर भील।मझियाखार भी इन्हीं आदिवासियों के गीतों की तरह सौंदर्य रचता है। मेरी कहानी में इस तट पर पात्रों को रात में रुकना था इसलिए मैं भी रुक गया। जन विहीन अरण्य में कल-कल बहती नर्मदा, आकाश में पूर्णता की ओर बढ़ता चन्द्रमा, नदी में प्रवाहित दीप और वन गंध से महकती धरती। कभी-कभी वातावरण गुनगुनाने के लिए विवश कर देता है , मैं भी गुनगुनाया … बड़े अच्छे लगते हैं ये धरती ये नदिया ये रैना और ....... और … चलिए छोड़िये ……… ।
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मड़ियारास
चंदन घाट से आगे बढ़ते हैं तो एक बहुत सुंदर स्थान रुकने के लिए विवश कर देता है। मड़ियारस का सौंदर्य किसी कविता की तरह बांधता है वैसे नर्मदा का जन्म हुआ तो भगवान शंकर ने यह भी वरदान दिया कि कल्पांत में जब प्रलय होगा तब भी नर्मदा नष्ट नहीं होगी इसलिए नर्मदा न मृता है ; अमृता है और कविता को भी तो अमृता ही कहते हैं।
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जोगी टिकरिया
डिण्डोरी पीछे छूटता है तो एक छोटा सा गांव आता है - जोगी टिकरिया। यह नर्मदा के उत्तर तट पर है। कुछ दिन पूर्व मैंने यहाँ रह रहे कोमलदास बाबा के बारे में लिखा था जो प्रतिदिन 12 घंटे घाटों की सफाई करते हैं और इसे ही भजन मानते हैं। उनके श्रम को नमन करता हूँ तो सोचता हूँ कि क्यों हमारे देश का श्रम से रिश्ता कमज़ोर हो रहा है ? फिर नर्मदा की ओर देखता हूँ तो नर्मदा के जन्म की कहानी याद आती है। भगवान शंकर ने माँ पार्वती के साथ मिलकर कठिन तप किया और उनके कठिन तप के कारण जो पसीने की बूंद उनके माथे से गिरी वो नर्मदा बन गयी। कुछ वर्ष पूर्व मैंने एक उपन्यास लिखा था 'छपाक-छपाक' उसमें इस कहानी को कुछ इस तरह लिखा था .......
नर्मदा पहचानती है
पसीने की हर एक बूँद को
वो शिव के माथे से गिरी
पसीने की एक बूँद ही थी
जो नदी बन गयी
जो नर्मदा बन गयी .......।
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खरमेर- देवनाला
रमपुरी से खरमेर संगम तक चलें तो इस यात्रा में नर्मदा तट से कुछ दूरी पर दो बेहद खूबसूरत नज़ारे भी क़ाबिले ज़िक्र हैं। पहला है देवनाला और दूसरी है खरमेर जो आगे चलकर नर्मदा में मिलती है। देवनाला एक पहाड़ी प्रवाह की छलांग का साक्षी है जो एक ऐसी गुफा के ठीक सामने गिरता है जिसका विस्तार अपार है। कहते हैं इस गुफा के दुसरे सिरे तक जाना असंभव है। वैसे इस खूबसूरत प्रपात से पहले देवनाला की धारा नर्मदा की तरह सौंदर्य समेटे चलती है और सौंदर्य तो खरमेर का भी कम नहीं है कहीं कहीं तो लगता है कि कहीं यह नर्मदा ही तो नहीं है ? घाटी में से गुजरती खरमेर को सुबह सुबह कोहरे की चादर लपेटे देखा तो देखता ही रह गया। आगे चलकर खरमेर नर्मदा में खो जाती है लेकिन यही इसकी सार्थकता है। देवनाला और खरमेर नर्मदा का-सा सौंदर्य लेकर चलते हैं पर खरमेर नर्मदा की दिशा में ही चलती है इसलिए स्वयं नर्मदा हो जाती है देवनाला नर्मदा से उल्टी दिशा में बहता है शायद इसीलिए देव 'नाला' है ....... ।
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खरमेर संगम
देवनाला और खरमेर दोनों का रास्ता सक्का से होकर जाता है। सक्का बड़ा कस्बा है लेकिन खरमेर संगम जिस गाँव कवलारी के पास है उसकी आबादी बहुत कम है। संगम तक जाने के लिए खेतों से जाती पगडंडियां रास्ता बनाती भी हैं और कभी-कभी रास्ता भूलने में भी बड़ी भूमिका निभा देतीं हैं। पर खरमेर संगम पर नर्मदा और खरमेर का जल इतना साफ़ था कि किनारों के पत्थरों तक के प्रतिबिम्ब पानी में साफ़-साफ़ दिखायी देते थे और दोनों किनारों पर बैठे बगुलों को भी भगत बनने की ख़ास ज़रुरत नहीं थी लेकिन आदत से मज़बूर थे इसलिए साधना ज़ारी थी। गाँव में लौटकर आया तो देवेन्द्र और दीनदयाल धुर्वे ने बहुत अपनेपन के साथ स्वागत किया। जिनके साथ कोई रिश्ता तो छोड़िये परिचय तक नहीं वे भी मेरे लिए बहुत कुछ करते तो उनसे कारण पूछने पर वे मुस्कराकर याद दिलाते कि क्यों न करेंगे आखिर मैं उनकी ( मेरी भी ) नर्मदा मैया के तट का यात्री जो हूँ ....।
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सिद्धो-मालपुर- कन्हैया संगम
खरमेर संगम का दृश्य कुछ ओझल होता ही है कि एक और संगम मन को बांध लेता है। दक्षिण तट पर एक छोटा-सा गांव है- सिद्धो, और उत्तर तट पर है - मालपुर। इन दोनों के बीच बहती नर्मदा में कन्हैया आकर मिलती है या कहूँ मिलता है क्योंकि नाम से तो कन्हैया नदी नहीं नद ही हुआ जैसे नर्मदा के उद्गम के पास से निकलने वाला सोन, नदी नहीं नद है। बहुत प्रसिद्ध कहानी है कि नर्मदा और सोन का विवाह होने वाला था। लेकिन बस कुछ देर के लिए सोन नर्मदा की दासी जुहिला पर मोहित हुआ तो नर्मदा उसे ठोकर मारकर विपरीत दिशा में चल पड़ी और सदा कुंवारी रही। सोन को ठुकराने वाली नर्मदा अनेक नद-नदियों को अपने भीतर समाहित कर लेती है। नर्मदा ने सबको शरण दी पर फिर भी अकेली रही। जिसमें सब कुछ समाहित वो विराट चिर एकाकी चिर प्रसन्न सदा सर्वदा नर्म दा।
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सारसडोली- कोसमघाट- कनेरी
कन्हैया संगम की आभा और प्रवाह तो अद्भुत है पर मार्ग पहाड़ी है जो आगे भी पहाड़ों से होकर ही सारसडोली पहुँचता है। सारसडोली बड़ा गांव है लेकिन नर्मदा तट वहां से काफी दूर है। पास ही कोसमघाट है और नर्मदा के उस पार है छोटा-सा गाँव कनेरी। सफ़र में कई गाँव ऐसे मिले जहाँ जगह का नाम पूछा तो जवाब मिला- कछारा टोला। मैं हैरान था कि एक ही नाम के कितने गाँव हैं ! बाद में पता चला कि गाँवों के नाम तो अलग-अलग हैं लेकिन जो टोले ( कुछ घरों के समूह ) नर्मदा के कछार में स्थित हैं वे सब कछारा टोला हैं। नाम एक है लेकिन सौंदर्य जगत सबका अपना-अपना है। नर्मदा के कछार बहुत उपजाऊ हैं … वहां सौंदर्य उपजता है।
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बकछेरा-अन्नकूट कुटी-किन्दरी
नर्मदा के उत्तर तट पर ही हैं बकछेरा और किन्दरी। दोनों बहुत छोटे गांव हैं पर बकछेरा में नर्मदा का प्रवाह एक लपेटा लगाता है और पश्चिम की ओर जाते-जाते कुछ दूरी तक पूर्व मुखी हो जाता है। इस पूर्वमुखी होते प्रवाह के पास ही निरंजनी अखाड़े के महाराज जी का एक सुन्दर आश्रम है जिसका नाम है अन्नकूट कुटी। मैंने महाराज जी से पूछा कि अन्नकूट कुटी क्यों तो उन्होंने अद्भुत जवाब दिया। उन्होंने कहा कि जैसे दीवाली के बाद अन्नकूट के अवसर पर भगवान को छप्पन भोग चढ़ाते हैं वैसे ही वे चाहते हैं कि नर्मदा भक्तों को छप्पन भोग खिलाएं। अभी वे छप्पन भोग तो नहीं खिला पाते लेकिन आश्रम में रुकने वाले यात्रियों को जो भोजन मिलता है उसमे कई पकवान शामिल रहते हैं। बहुत आग्रह के बावज़ूद मैं भोजन के लिए नहीं रुक पाया लेकिन फिर वहां गया तो ज़रूर रुकूंगा क्योंकि भगवान को छप्पन भोग चढ़ाने वाले तो बहुत हैं पर भक्तों को छप्पन भोग खिलाने वाले तो वे शायद अकेले ही हैं ......।
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रामनगर
यात्रा आगे बढ़ती है तो दक्षिण तट पर कुछ खंडहरों के साथ रामनगर रोक लेता है। इतिहास के साथ जीता हुआ एक छोटा सा कस्बा जो कभी गोंड राजाओं की राजधानी था। वैसे तो समूचे नर्मदा क्षेत्र का इतिहास विभिन्न राजवंशों से जुड़ता है परन्तु कलचुरि और गोंड राजवंश तो नर्मदा तट पर ही फले फूले। गोंड राजवंश के आरम्भ के सूत्र मध्यप्रदेश के बैतूल में खेड़ला तक जाते हैं। वहां तो नर्मदा नहीं है लेकिन गोंड राजवंश की शेष गौरव गाथाएं नर्मदा ही सुनाती है। हृदयशाह ने रामनगर को राजधानी बनाया और 1667 तक यहाँ कई महलों का निर्माण करवाया जो अब खंडहरों में तब्दील हो चुके हैं। नर्मदा को वरदान प्राप्त है कि कल्प के अंत में जब प्रलय होगा तब भी वह नष्ट नहीं होगी। साम्राज्य बनते हैं, मिटते हैं और नर्मदा इन बनते-बिगड़ते साम्राज्यों की मौन साक्षिणी है। मेरी नर्मदा पर लिखी एक लंबी कविता की आरम्भिक पंक्तियां हैं …
बहो निरंतर बहो नर्मदा कल्प नहीं बाधा प्रवाह में
सृष्टि के उत्थान पतन की चिर साक्षिणी शेष रहे।
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मंडला
बंजर संगम नर्मदा के दक्षिण तट पर है और सामने के उत्तर तट पर है मंडला। यह नगर गोंड राजवंश की राजधानी 1680 में बना। हृदयशाह का प्रपोत्र नरेंद्रशाह राजधानी रामनगर से मंडला ले आया। इतिहास के सुनहरे पन्नों को सजाने के साथ-साथ कुछ चिर परिचित सियासी रक्तरंजित अध्याय मंडला ने भी लिखे हैं । आपसी कलह और युद्ध के अनेक किस्से मंडला का किला सुनाता है । जिन्हें हम फिर कभी कहेंगे-सुनेंगे। अभी तो हम मंडला के हरिहर घाट और देवधारा के गऊघाट को प्रणाम करते हुए सहस्त्रधारा की ओर बढ़ते हैं जहाँ नर्मदा इस दौर के अपने बड़े बदलाव की कथा सुनायेगी .......।
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सहस्त्रधारा
मंडला से चलकर हम सहस्त्रधारा की ओर बढ़ें उससे पहले मंडला के माहिष्मती होने न होने पर भी कुछ बात करते चलें। प्राचीन नगरी माहिष्मती महेश्वर थी या मंडला इस बात पर विद्वानों में विवाद है। दोनों के पास अपने-अपने तर्क हैं लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि मध्यप्रदेश का इतिहास लेखन अभी भी शैशव काल में ही है। शायद कभी कुछ गंभीर शोध सारे विवादों का अंत कर सकें । लेकिन हमें तो सहस्त्रधारा के बारे में कुछ बात करनी है और यह भी संयोग ही है कि सहस्त्रधारा मंडला और महेश्वर दोनों के पास है और दोनों ही अपने सबसे बुरे दिनों से गुज़र रही हैं। सहस्त्रधारा के पास ही सहस्त्रबाहु और रावण का युद्ध हुआ था जिसमें रावण पराजित होकर बंदी बना और पुलस्त्य मुनि के कहने पर मुक्त हुआ। सहस्त्रबाहु हैहय वंश का सबसे प्रतापी राजा था। हैहय शब्द अहि हय का अपभ्रंश है । इन्हीं सहस्त्रबाहु से कलचुरि राजवंश का आरंभ होता है जो मध्य भारत के इतिहास का अत्यंत महत्वपूर्ण अध्याय है इसके बारे में कुछ और बात हम भेड़ाघाट पहुंचकर करेंगे । अभी तो हम सहस्त्रधारा के खो चुके सौंदर्य की कल्पना करें क्योंकि जहाँ सहस्त्रधारा है वहां काली चट्टानों के मध्य नर्मदा की एक दुर्बल धारा बह रही थी लेकिन चंद क़दमों की दूरी पर थी विपुल जलराशि। यह अद्भुत दृश्य था एक ही स्थान पर एक ओर नर्मदा की क्षीण धारा और दूसरी ओर विपुल जलराशि। असल में यहाँ से बरगी बांध का जल संग्रहण क्षेत्र शुरू होता है और यहीं से नर्मदा नदी के स्थान पर झील बनना आरम्भ होती है जिसके बारे में हम कल बातें करेंगे। अभी तो हम सहस्त्रधारा के बदले हुए रूप को देखें जिसके मूल रूप को देखकर रावण ने कहा था - अरे, यह तो गंगा है ....... ।
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बरगी
बरगी तक पहुंचने से पहले दक्षिण तट के कुछ गांव मिले लेकिन उनके बारे में बात हम बरगी की बात करने के बाद करेंगे । बरगी में नर्मदा पर पहला बड़ा बाँध बना और यह बाँध नर्मदा और उसकी सहायक नदियों पर बनने वाले बांधों की श्रृंखला का एक हिस्सा है । बड़े बांधों के कई सकारात्मक और नकारात्मक बिंदु हैं जिन पर बहुत बातें हो चुकी हैं.अब तो ये बांध एक ऐसी सच्चाई हैं जिसे नकारा नहीं जा सकता। नर्मदा पर बने बांधों ने बहुत कुछ बदला है लेकिन सबसे अधिक बदलाव उनके जीवन में आया जो आस-पास के गांवों में रहते थे। हम उन गाँवों से भी मिलेंगे अभी तो हम बरगी बाँध को देखें जिसके उस पार नर्मदा अपने विराट रूप में है। उस पार का चित्र कल देखेंगे अभी ज़रा इस बाँध को देखें क्योंकि यहाँ से नर्मदा की आगे की यात्रा में प्रवाह कितना होगा यह तय करने का हक़ आजकल इन हुज़ूर के पास है …।
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बरगी-2
किसी भी बांध के दो चेहरे होते हैं। सामने का चेहरा बारिश में बांध भर जाने पर प्रवाह की पराकाष्ठा का प्रतीक बनता है परन्तु शेष समय सूखा रह जाता है। लेकिन बांध के पीछे का चेहरा बहुत पानीदार होता है। बरगी में बांध के पीछे का दृश्य देखा तो अवाक् रह गया। 300 किलोमीटर पहले जो नर्मदा एक छोटे से कुण्ड में समायी थी फिर जिसके प्रवाह ने नदी का सारा सौंदर्य संजोया और रुकने लगी तो झील सी लगी वही नर्मदा बरगी में समुद्र के किसी टुकड़े की तरह विशाल हो चुकी थी। जहाँ तक नज़र जा सकती थी वहां तक पानी ही पानी था। दूर क्षितिज तक जल ही जल। वहां छायावाद के महाकवि जयशंकर प्रसाद याद आये और उनकी यह कविता याद आयी .......
ले चल वहां भुलावा देकर
मेरे नाविक धीरे-धीरे
जिस निर्जन में सागर लहरी
अम्बर के कानों में गहरी
निश्छल प्रेम कथा कहती हो
तज कोलाहल की अवनि रे
जिस गंभीर मधुर छाया में
विश्व चित्रपट चल माया में
विभुता विभु सी पड़े दिखायी
दुःख सुख वाली सत्य बनी रे
सचमुच इस विश्व चित्रपट चल माया में कहीं कहीं विभुता विभु सी दिखायी पड़ती है .. सचमुच..... ।
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बरगी 3 : पायली
बरगी के आस पास कई गाँव हैं। बल्कि यूँ कहें कि छोटी-छोटी बस्तियां हैं, जहाँ 300-400 लोगों की आबादी रहती है। ऐसा ही एक गाँव है पायली। नर्मदा के तट से बिलकुल सटा हुआ एक गाँव जहाँ के अधिकांश पुरुष नौकरी करने बाहर चले गए हैं। गाँव में बूढ़े, महिलाएं और बच्चे हैं जिनका जीवन भी बांध की तरह ठहर गया है। नर्मदा यहाँ विशाल है और इसके एक टापू पर पुराना रेस्ट हॉउस है जहाँ कभी नेता और अधिकारी रुका करते थे। सभी पुराने रेस्ट हॉउस की तरह यह भी बहुत ऊंचे स्थान पर बना। बाँध बंनने पर बहुत कुछ डूबा लेकिन यह नहीं डूबा। डूबता भी कैसे, कभी यहाँ मुल्क के हुक्मरान रुका करते थे। कोई भी बांध जंगल, खेत, घर, गाँव, शहर डुबा सकता हैं लेकिन हुक्मरानों के डेरे डूबा सके इतनी ताकत किसी बाँध में नहीं होती । सब कुछ डुबा चुके बरगी के पानी में पायली के टापू पर सुरक्षित मुल्क के मालिकों का यह पुराना डेरा बहुत कुछ समझाता है अब हम ही न समझें तो नर्मदा का क्या दोष !!
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बरगी 4 : मगरधा
मगरधा एक अद्भुत गाँव है। इस बहुत छोटे से गाँव को नर्मदा का पानी तीन और से घेरे हुए है। लगभग सभी घरों से लगकर नर्मदा चलती है। घर के पीछे नर्मदा, दायें-बायें नर्मदा और सामने से जंगल में जाता हुआ रास्ता। वहां एक छोटे से घर में एक लड़की गाँव के छोटे-छोटे बच्चों को पढ़ा रही थी। मैंने बच्चों से सवाल पूछे तो सारे जवाब हाज़िर। मैं हैरान था उस छोटे से गाँव में बच्चों की प्रतिभा देखकर। कुछ देर में उस लड़की की माँ भी आ गयी। सुविधाओँ के शून्य में वो लड़की पुष्पा और उसकी माँ लाटो बाई कोशिश कर रहीं हैं कि उनके गाँव के बच्चे भी खूब पढ़े-लिखे हों। मैं बरगी क्षेत्र के गाँवों की पीड़ा से व्यथित था लेकिन इन सबसे मिलकर लगा कि ज़िंदगी हर हाल में रास्ता बना ही लेती है। कभी-कभी कोई फ़िल्मी गीत बहुत सार्थक लगता है तो उसे गुनगुनाता हूँ। वहां से लौटते हुए देर तक गुनगुनाता रहा …।
ज़िंदगी तेरे ग़म ने हमें रिश्ते नए समझाये
मिले जो हमें धूप में मिले छाँव के ठंडे साये
तुझसे नाराज़ नहीं ज़िंदगी हैरान हूँ मैं ... हैरान हूँ मैं।
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तूनिया
बरगी बाँध से कुछ दूरी पर है तूनिया। मार्ग के सौंदर्य को निहारता हुआ आगे बढ़ रहा था तभी एक छोटे-से टीले पर बैठे अकारण बड़बड़ाते एक बूढ़े व्यक्ति की ओर ध्यान गया। पास जाकर देखा तो पाया कि उसकी हालत बेहद ख़राब थी। आँखों की रोशनी बहुत कम हो चुकी थी और ग़रीबी जो कुछ करती है वो सब उसके साथ हो रहा था । मैंने कुछ सहायता करनी चाही तो वो रो पड़ा। उसने बताया कि उसके बेटे शहर चले गए हैं। मैंने पूछा कि वो ख़ुद क्यों नहीं गया तो उसने बताया कि पास के गाँव में उसकी ज़मीन थी जो बाँध में डूब गयी। फिर उसने रोते-रोते बताया कि वो ज़मीन देखता है इसलिए अपने बेटों के पास नहीं जा रहा। मैंने आश्चर्य के साथ कहा कि ज़मीन कहाँ दिखायी देती है वहां तो पानी है। उसकी रोशनी खो चुकी आँखों में अचानक चमक उभरी उसने कहा " दिखायी देती है साहब ,पानी के नीचे दिखायी देती है।"मैं क्या कहता, उसकी आँखों की नमी थोड़ी-सी मेरे भीतर उतरी और मैं वहां से चला आया। आज यह पोस्ट लिखने से पहले अखबारों के कोनों में घुसा समाचार पढ़ कर आया हूँ कि सरकार ने भूमि अधिग्रहण का रास्ता साफ़ करने का अध्यादेश पास कर दिया है । संसद हंगामे की भेंट चढ़ गयी। जिस मुद्दे पर सबसे अधिक बहस होनी थी उस पर कोई बहस नहीं हुई। बुद्धिजीवी पीके की चिंता में दुबले हो रहे हैं, विपक्ष है नहीं और मीडिया के बारे में तो कुछ कहना भी बेमतलब हो चुका है। फिर भी मैं मूर्खों की तरह यह लंबी पोस्ट इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि घर लौटने के बाद भी विकास के महा प्रतीक बाँध की भेंट चढ़ चुकी एक बहुत बूढ़े की ज़मीन की दास्तां याद आती है। और याद आतीं हैं वे आँखें जिनमें रोशनी नहीं है पर उन्हें विकास के नाम पर डूबी अपनी ज़मीन दिखायी देती है, पानी के नीचे दिखायी देती है …साहब !!
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सालीवाड़ा
बरगी क्षेत्र के गाँवों से जुड़े बहुत से अनुभव हैं। लेकिन यात्रा को आगे बढ़ाना है इसलिए सालीवाड़ा में कुछ देर रुककर आगे चलेंगे। इस छोटे से गाँव तक पहुंचते-पहुंचते बहुत से लोगों की दर्द और गुस्से से भरी बातें सुन चुका था । मन क्लांत था लेकिन सालीवाड़ा के पास एक ऊंचे टीले पर बेफ़िक्र बच्चों को सूर्यास्त के वक़्त पतंग उड़ाते देखा तो मुस्कराहट से राबिता हो चला। नर्मदा के असीम विस्तार से जुड़े टीलों पर वे बच्चे कितने खुश थे । सूर्य को पतंग भी कहते हैं। आसमान में पतंग डूब रहा था पर बच्चों की पतंग आसमान की ओर बढ़ रही थी। आज जब इस वर्ष का सूर्यास्त हो रहा है तब नई पीढ़ी से जुड़ी नई उम्मीदों को आसमान की ओर बढ़ते देखना चाहता हूँ और यह भी चाहता हूँ कि वे तरक्की की जो दास्तां लिखें वो दास्तां चंद लोगों की न होकर सबकी हो ..... सबकी .... ।
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एक कविता बरगी से
नर्मदा
तुम्हें निहारने के लिए
पूरे चाँद वाली रात में
मैंने चाँद बोया
बरगी के आसमान में
जैसे ज़िद करने पर अम्मा
रख देती थी सिक्के
मेरी हथेली पर
अपने आँचल के सिरे की
गांठें खोलकर
वैसे ही तुमने अपने
फैले आँचल के सिरे पे बंधे
किनारे रख दिए
मेरी हथेली पर
कहती थी अम्मा
सिक्के
खर्च करना सोच समझकर
तुमने भी कहा शायद मन ही मन
किनारे
खर्च करना सोच समझकर
पर कब सुनी बात
बचपन ने सयानों की
हमेशा की तरह मैं
रंग बिरंगी चीज़ों पर
कर दूंगा खर्च सब कुछ
फिर लौटकर
गोद में तुम्हारी
रखकर सिर
चाहूंगा
तुम सुनाओ लोरी
या कोई कहानी
नई पुरानी
ताकि मैं मूंदकर आँखें अपनी
देख सकूं तुम्हें सपनों में भी
पूरे चाँद वाली रात में
इसीलिए चाँद बोया है मैंने
बरगी के आसमान में
नर्मदा … माँ …
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अशोक जमनानी |
जबलपुर : ग्वारीघाट
बरगी से चलकर नर्मदा मध्यप्रदेश के अन्न क्षेत्र में प्रवेश करती है। जबलपुर से लेकर हंडिया तक का मैदानी क्षेत्र अलूवियल मैदान कहलाता है यह नर्मदा से जुड़ा सर्वाधिक उपजाऊ क्षेत्र है। हमें लगभग 350 किलोमीटर की इसकी यात्रा में बहुत से मौके मिलेंगे इसके बारे में बातें करने के; अभी तो हम जबलपुर के ग्वारीघाट को देखें। पुराने घाट के स्थान पर यह नया घाट कुछ वर्ष पूर्व ही बना है। जबलपुर कई सदियों के इतिहास का बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। गोंड राजवंश और कलचुरि राजवंश की त्रिपुरी शाखा के अनेक अध्याय हैं जिनकी दस्तानों को ज़मीन जबलपुर ने दी । शायद इसी समृद्ध इतिहास के कारण ही मध्यप्रदेश के गठन के वक़्त जबलपुर को राजधानी बनाने का प्रस्ताव सबसे आगे था लेकिन राजनैतिक कारणों से जबलपुर के स्थान पर भोपाल मध्यप्रदेश की राजधानी बना। जबलपुर उस वक़्त भी बहुत बड़ा शहर था और भोपाल तो जिला भी नहीं था बल्कि सिहोर जिले की एक तहसील मात्र था। एक तहसील राजधानी बन गयी और जबलपुर को संस्कारधानी की उपमा मिली क्योंकि वहां नर्मदा जो बहती है।
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तिलवारा - तेवर
ग्वारी घाट से आगे बढ़कर नर्मदा तिलवारा घाट पहुंचती है। उत्तर तट पर मुख्य घाट है और दक्षिण तट पर एक छोटा-सा घाट है। नगर से जुड़े घाटों की जो स्थिति अन्य स्थानों पर है वही स्थिति तिलवारा घाट की भी है। गंदगी और अतिक्रमण से जूझता घाट नर्मदा की लगभग बेजान धारा के साथ जैसे तैसे दिन काट रहा है शायद कभी इसके दिन बदलें। वैसे इस क्षेत्र ने दिनों का हेर-फेर कई बार देखा है। यहाँ से कुछ दूरी पर है तेवर गाँव। कभी यह छोटा-सा गांव पुराणों में वर्णित और बाद में मध्यप्रदेश के इतिहास के बहुत महत्वपूर्ण कलचुरि राजवंश की राजधानी; त्रिपुरी था। अब इस गाँव को देखकर कोई नहीं कह सकता कि यह स्थान कई सदियों तक इस देश का एक बहुत महत्वपूर्ण नगर था। इतिहास और पौराणिक काल से भी पहले यह स्थान बेहद महत्वपूर्ण घटनाओं का साक्षी रहा है। कभी यहाँ डायनोसोर रहा करते थे। वैज्ञानिकों ने इस क्षेत्र के डायनोसोर को नाम दिया है - नर्मदेसिस राजासोरस। अब डायनोसोर नहीं हैं। पुराणों और इतिहास की प्रसिद्ध नगरी त्रिपुरी भी नहीं है पर नर्मदा अब भी बहती है .... कई कथाएँ कहती है।
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यात्रा के कुछ यादगार चित्र
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