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आधुनिक काल में व्यक्तिवाद के बढ़ते
प्रभाव ने ऐसे गद्यरूपों के सृजन को बढ़ावा दिया जो अकाल्पनिक न हों, आत्मकथा इनमें प्रमुख है। यह विधा
रचनाकार द्वारा स्वयं अपने विषय में तटस्थ भाव से दिया गया विवरण है, लेकिन इस विवरण में एक क्रमबद्धता
और गतिमयता होती है। आत्मनिष्ठ विधा होने पर भी इसमें देशकाल का वातावरण सक्रिय रहता
है। इसीलिए कहा जाता है, ‘‘साहित्य
की जो विधाएं जीवन की आलोचना’ का सच्चा
प्रतिनिधित्व करती हैं, उनमें आत्मकथा
का स्थान सर्वोपरि है।’’1 आत्मकथा
जिए हुए जीवन की पुनःसृषि्ट है,
इसलिए यह विधा रचनाकार को अपने व्यक्तित्व के प्रकाशन की पूरी छूट देती है। रचनाकार समकालीन व्यक्तियों और परिवेश के
माध्यम से अपने आत्म को प्रकट करता है। इस तरह आत्म को पुष्ट करने के लिए बाह्य तत्व भी आत्म का हिस्सा
बनकर प्रकट होते हैं। यह एक ऐसा साहित्य रूप है जो आत्म से शुरू होकर परिवार, समाज, राष्ट्र, विश्व सब को अपने घेरे में ले लेता है। आत्मकथा
में ‘‘व्यक्ति समूचे समय
और समाज के संदर्भ में रखकर अपने शब्द और कर्म, अपनी वैचारिकता और व्यक्तित्व की गहन और
पारदर्शी पड़ताल करने की रचनात्मक कोशिश करता है।’’2 आधुनिक
साहित्य की इस जटिल विधा के इतिहास में झाँके तो पाएंगे कि आत्मकथा या autobiography शब्द का पहला प्रयोग सन् 1796 ई. में
जर्मनी में हर्डर ने किया था। सन् 1809 ई. में
ब्रिटेन में राबर्ट साउथे ने इसका प्रयोग किया। उल्लेखनीय है कि तब तक आत्मकथा ऐसी
जीवनी मानी जाती थी जिसे कोई व्यक्ति स्वयं लिखता है अर्थात् आत्म जीवनी या self biography। इस तरह अठाहरवीं शताब्दी के अंतिम चरण या उन्नीसवीं
शताब्दी के शुरुआती दौर में आत्मकथा का प्रारंभिक रूप सामने आता है। यद्यपि भारतीय
परम्परा में आत्म के प्रकटीकरण को उपेक्षा की दृषि्ट से देखा गया और आत्म के आवृत पक्षों
की अभिव्यक्ति को भय, संकोच या
अन्य विवशताओं के चलते प्रशंसनीय नहीं माना गया तथापि हिंदी में सन् 1641 ई. में
श्री बनारसीदास जैन की आत्मकथा ‘अर्द्धकथानक’ नाम से मिलती है। उल्लेखनीय है कि
इस समय तक पशि्चम में भी आत्मकथा लेखन का प्रचलन नहीं था। यह आत्मकथा पद्य में
लिखी गई है। इसके अतिरिक्त पूरे मध्यकाल में और कोई आत्मकथा नहीं मिलती। आत्मकथा
लिखने की परम्परा पुनः उन्नीसवीं शताब्दी में शुरू होती है। बीसवीं शताब्दी के
उत्तरार्द्ध में कई महत्वपूर्ण आत्मकथाएं प्रकाश में आईं, जैसे-हरिवंश राय बच्चन की आत्मकथा
चार खण्डों में है, ‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ’, ‘नीड़ का निर्माण फिर’, ’बसेरे से दूर’ और ‘दशद्वार से सोपान तक’, यशपाल जैन की ‘मेरी जीवनधारा’, अमृतलाल नागर की ‘टुकड़े-टुकड़े दास्तान’, डॉ. नगेन्द्र की ‘अर्धकथा’, रामदरश मिश्र की ‘सहचर है समय’, डॉ. रामविलास शर्मा की तीन
भागों में है- ‘अपनी धरती अपने लोग’, ‘मुंडेर पर सूरज’ एवं ‘आपस की बातें’ कमलेश्वर की आत्मकथा तीन खण्डों में है- ‘जो मैंने जिया’, ’यादों का चिराग’ और ‘जलती हुई नदी’, भगवतीचरण वर्मा की ‘कहि न जाय का कहिए’, राजेंद्र यादव की ‘मुड़-मुड़ कर देखता हूँ’, भीष्म साहनी की ‘आज के अतीत’ और विष्णु प्रभाकर की ‘पंछी उड़ गया’ आदि, लेकिन स्त्री आत्मकथाओं
को सामने आने में लंबा समय लगा,
इसके अपने कारण रहे हैं।
जब साहित्य में स्त्रियों को अभिव्यक्ति
करने का अवसर मिला तो स्त्री जीवन का यथार्थ साहित्य की अन्य विधाओं के बनिस्बत आत्मकथा
के माध्यम से प्रामाणिक ढंग से सामने आया। आत्मकथा का यथार्थ से सीधा संबंध है और अपनी
आत्मकथाओं के माध्यम से स्त्री समाज से संवाद करते हुए सवाल उठा रही है। उल्लेखनीय
है कि स्त्री आत्मकथाएं केवल लेखिकाओं के जीवन के तथ्यों और घटनाओं का ब्यौरा भर नहीं
हैं वरन् भारतीय समाज में व्याप्त पितृसत्तात्मक व्यवस्था की व्याख्या भी हैं। स्त्री
जिस समाज में पैदा होती है, उस समाज
में मौजूद विचार, संस्कार, पूर्वाग्रह, मान्यताएं, रीति-रिवाज, विश्वास आदि कैसे उसके व्यक्तित्व
को गढ़ते हैं। पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने स्त्रियों के निजी, सामाजिक एवं सार्वजनिक जीवन को प्रभावित
कर उन्हें कितना कुंठित किया है,
इसको समझने के लिए स्त्री आत्मकथाएं महत्वपूर्ण हैं। ‘‘स्त्री आत्मकथा स्वयं में बारम्बार कहा जाने
वाला अनुवाद रहित, अनकहा संदेश
है, यह संदेश उनके लिए
है जो वर्चस्वशाली संस्कृति के उच्च पदों पर बैठे हैं उन्हें यह संदेश स्त्रियों द्वारा
दिया जा रहा है, हाशिए की
अस्मिताओं द्वारा दिया जा रहा है,
उन सभी की ओर से जो समाज के हाशिए पर स्थित हैं।’’4 इस
वाक्य का आशय यही नहीं है कि स्त्री आत्मकथाएं पूरे समाज को एक चुनौती दे रही हैं
वरन् इसमें यह भी अंतरनिहित है कि ये आत्मकथाएं स्त्री समाज को दिशा देने का जरिया
भी हैं, क्योंकि ‘‘स्व की सीमा का अतिक्रमण करके ‘निज’ का ‘पर’ में परिविस्तार और फिर समाज, इतिहास, वर्ग के संघातों से गुजरती हुई स्त्री जो
एक ‘स्त्री’ मात्र नहीं रह जाती बल्कि लाखों-करोड़ों
की आवाज़ बन जाती है।’’5 स्त्री-आत्मकथाएं
भारतीय समाज में सामाजिक चेतना और स्त्रियों में अस्मिता बोध जगा रही हैं। आत्मकथाओं
के माध्यम से आधी दुनिया के सुख-दुःख और ऐसी भूली-बिसरी बातें सामने आई हैं जिन्हें
अभी तक महत्वहीन समझा गया। स्त्रियों ने आत्मकथाओं में जब अपनी पीड़ा, अनुभव और अपने प्रति समाज के परम्परागत
दृषि्टकोण का विरोध किया तो उन पर तरह-तरह के आरोप लगाए गए, चारित्रिक भर्त्सना की गई लेकिन स्त्री
आत्मकथाओं में जो सवाल उठाए जा रहे हैं उनसे समाज के संवेदनशील लोगों में एक सुगबुगाहट
जागी है, बेचैनी पैदा हुई
है। स्त्रियों के बारे में बहुत से मिथक और भ्रम टूटे हैं। कभी-कभी तो ऐसी सच्चाईयाँ
सामने आ रही हैं, जिनमें
किसी प्रकार का संदेह न होने पर भी संस्कारगत विवशताओं के कारण परम्परागत समाज स्वीकार
करने में हिचकिचा रहा है। स्त्री आत्मकथाएं भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष की यथार्थ
तस्वीर एक स्त्री की दृषि्ट से सामने लाती हैं। किसी भी स्त्री के द्वारा लिखी गई आत्मकथा
उसकी जीवन गाथा के साथ-साथ तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था की पड़ताल भी है। इस दृषि्ट से
वह समाज की भी जीवनगाथा बन जाती है। “उपन्यास
से अधिक दिनों तक आत्मकथा जीवित रहती है, किसी
भी आत्मकथा में एक ‘मैं’ जो
प्रामाणिक रूप से अपनी यात्रा कर रहा है जिसे खारिज करना किसी के लिए संभव नहीं....आत्मकथा
अपने पाठकों को बाध्य करती है कि वे खुद भी अपने आपसे सवाल करें एवं वर्ग, जाति एवं संस्कृति के प्रभाव को समझें।’’6 स्त्री आत्मकथाएं स्त्री जीवन के पल-पल के
इतिहास को समेटने की कोशिश हैं। सदियों से स्त्रियाँ पितृसत्तात्मक संस्कृति के
दोहरे चरित्र की शिकार रही हैं। अब जब उनके अनुभव आत्मकथा के माध्यम से सामने आ रहे
हैं तो समाज को भी स्त्री अनुभवों और समस्याओं को स्त्री दृषि्ट से देखने समझने की
कोशिश करनी चाहिए। हांलाकि आधुनिक काल में साहित्य की अन्य विधाओं में स्त्रियों की
सशक्त उपस्थिति के बावजूद स्त्री आत्मकथाओं की परम्परा क्षीण रही है। सुमन राजे ने
‘हिंदी साहित्य का आधा इतिहास’ में यह प्रश्न उठाया है कि, ‘‘आत्मकथा और समीक्षा का क्षेत्र भी लगभग सूना ही पड़ा है। महिलाओं
की आत्मकथाओं का हिंदी में अभाव अब तो एक मुद्दा बन गया है।’’7 इसके पीछे
बहुत कुछ स्त्री आत्माभिव्यक्ति पर लगे हुए पितृसत्तात्मक शिकंजे हैं।
इस संबंध में मैनेजर पाण्डेय की टिप्पणी उद्धृत करना समीचीन होगा, ‘‘स्त्रियों की आत्मकथाएं तो इसलिए
नहीं हैं कि उन्हें हमारे सामाजिक ढाँचे में सच बोलने की स्वतंत्रता नहीं।’’8 लेकिन अब
जीवन भर पितृसत्ता को पोषित करने और ढोने वाली स्त्रियों ने भी अपने अस्तित्व
को तलाशने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। बीसवीं शताब्दी का अंतिम और विशेषकर इक्कीसवीं
सदी का पहला दशक इस मायने में महत्वपूर्ण है कि कई स्त्री- आत्मकथाएं प्रकाश
में आई हैं जिनमें अमृता प्रीतम की ‘रसीदी टिकट’, कुसुम असंल की ‘जो कहा नहीं गया’, कृष्णा अगि्नहोत्री की ‘लगता नहीं है दिल मेरा’, शीला झुनझुनवाला की ‘कुछ कही कुछ अनकही’, रमणिका
गुप्ता की ‘हादसे’, पद्मा सचदेव की ‘बूँद-बावड़ी’, मन्नू भण्डारी की ‘एक कहानी यह भी’, प्रभा खेतान की ‘अन्या से अनन्या’, मैत्रेया पुष्पा की ‘कस्तूरी कुंडल बसै’ और ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’, कौशल्या बैसंत्री की ‘दोहरा अभिशाप’, चंद्रकिरण
सौनरेक्सा की ‘पिंजरे
की मैना’ तथा सुशीला
टाकभौरे की ‘शिकंजे का दर्द’ आदि उल्लेखनीय हैं। अब स्त्रियों ने अपने अनकहे
को कहने का साहस बाँध लिया है।
(विशेष संदर्भ: ‘एक कहानी यह भी’ और ‘अन्या से
अनन्या’)
|
प्रभा खेतान जी |
भारतीय समाज के सभी कानून, संस्कृति पितृसत्तात्मक व्यवस्था
द्वारा निर्मित एवं पोषित हैं। हमारे शास्त्रों में स्त्रियों की बहुत महिमा गाई गई
है लेकिन वे हमेशा से विजित और शासित रही हैं। प्रागैतिहासिक युग, वैदिक युग में स्त्री की स्थिति भले
ही श्रेष्ठ रही हो लेकिन लैंगिक पूर्वाग्रहों के चलते तब भी उनके साथ भेद-भाव हुआ और
उत्तर वैदिक
युग, स्मृतिकाल, महाकाव्य काल और फिर मध्यकाल तक आते-आते
उनकी स्थिति गिरती ही गई। शास्त्रों, पुराणों और स्मृतियों के माध्यम से स्त्रियों को हमेशा यह मानने
के लिए बाध्य किया गया कि वे पुरुष की आश्रिता हैं, उनका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। कालांतर
में शिक्षा के प्रसार के कारण आई स्त्री चेतना ने स्त्रियों को उनकी वास्तविक स्थिति
से परिचित कराया। उन्नीसवीं सदी में भारत में स्त्री चेतना ने अँगड़ाई ली। शिक्षा के
प्रचार-प्रसार, आधुनिक
तकनीक का प्रभाव और तत्कालीन स्थितियों ने स्त्रियों को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया।
प्रायः साहित्य को समाज का आईना बताया जाता
है लेकिन लंबे समय तक दुनिया की आधी आबादी को आईने में अपना प्रतिबिंब देखने से रोका
गया। उनकी हँसी-पीड़ा मुखर होकर सामने आ ही नहीं सकी। प्रायः स्त्रियों की दयनीय स्थिति
को देखकर उसका सहानुभूतिपूर्ण चित्रण तो किया जाता रहा लेकिन इन अनुभवों को स्त्री
दृषि्ट से देखने, समझने और समझाने का अवसर नहीं दिया गया जबकि
साहित्य समाज को सच का आईना तभी दिखा पाएगा जब पीड़ित को अपनी बात कहने का अवसर मिले।
बदलते समय के साथ-साथ दुनिया में बहुत बदलाव आ गए हैं, लेकिन स्त्रियों की स्थिति पर विचार किया
जाए तो पारिवारिक ढाँचा बदल जाने के बाद भी स्त्री की मूलभूत स्थिति में कोई विशेष
अंतर नहीं आया है। आज भी स्त्री को घर तक सीमित रखने की मानसिकता कायम है। एक कामकाजी
महिला की प्राथमिकता में भी सबसे पहले उसका घर ही आता है, जबकि स्त्री द्वारा घर में किए जाने वाले
श्रम का मूल्य आज भी नगण्य है। यह श्रम उसके अनिवार्य कर्तव्य के खाते में डाल दिया
जाता है। कामकाजी महिला भी आर्थिक रूप से परवश ही है क्योंकि अपनी मेहनत से कमाए गए
पैसों को खर्च करने का अधिकार उसके पास नहीं है। आज भी ‘‘पत्नीत्व और मातृत्व की रूढ़ अवधारणाएं
और कठोर बंधन तथा नारी की चिरन्तन आदर्श छवि के प्रति जकड़न उसे किसी भी स्वतंत्र सोच
से परहेज करना सिखाती है।’’3 यदि
मध्यवर्ग की शिक्षित महिला को केंद्र में रखकर देखते हैं तो आज के बाजारवाद, उपभोक्तावाद, वैश्विकीकरण और पूँजीवाद पर बल देने
वाली सभ्यता के भँवर में फँसकर आज की स्त्री घुटन महसूस करती है। अपनी अस्मिता के तमाम
प्रश्नों से उलझती है। पुराने आदर्श और वर्जनाएं उसको अस्वाभाविक लगते हैं। तार्किक
जबाव और सही राह पाने के लिए वह पितृसत्तात्मक व्यवस्था द्वारा निर्धारित स्त्री मानदण्डों
के सम्मुख सवाल खड़े करती है। आत्मविकास हेतु आत्मनिर्णय का अधिकार पाने की आकांक्षा
करती है। एक मध्यमवर्गीय स्त्री स्वयं को सबसे ज्यादा दुविधा में पाती है। एक ओर अपनी
महत्वाकांक्षाओं, स्वप्नों और अपेक्षाओं को पूरा करने
का दबाव तो दूसरी ओर नैतिकता, मूल्य एवं
मर्यादाओं के पालन के लिए परम्परागत व्यवस्था का दबाव। ऐसे में स्त्री स्वयं को परम्परा
और आधुनिकता के दोहरे शिकंजे में पाती है। संवैधानिक दृषि्ट से भले ही स्त्री-पुरुष
बराबर हैं, लेकिन इन
वैधानिक अधिकारों को सामाजिक मान्यता दिलाने के लिए अभी लंबे संघर्ष की ज़रूरत है क्योंकि
पितृसत्तात्मक संस्कृति और पंरपरा की जड़ें बहुत गहरी हैं और उनसे एकदम
कटना संभव ही नहीं है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था में स्त्री के प्रति व्याप्त
इन्हीं अंतर्विरोधों और असमता के प्रति परिवर्तन लाने का लक्ष्य आज की स्त्री का है।
साहित्य में स्त्री अभिव्यक्ति इसका एक सशक्त माध्यम भी है और प्रतिरोध की संस्कृति
की निर्मिति का भी। वस्तुतः स्त्री अभिव्यक्ति स्वयं को पहचानने और उस पहचान को सामाजिक
स्वीकृति दिलाने की कोशिश है।
मन्नू भंडारी जी |
इक्कसीवीं सदी के पहले दशक में कई स्त्री
आत्मकथाएं सामने आईं जिनमें दो बहुचर्चित और विवादास्पद रहीं। पहली है ‘आपका बंटी’ और ‘महाभोज’ जैसे पठनीय उपन्यासों तथा चर्चित कहानियों
की लेखिका मन्नू भण्डारी की ‘एक कहानी
यह भी’ तथा दूसरी है साहित्य
मनीषी और सफल व्यवसायी प्रभा खेतान की ‘अन्या से अनन्या’।
बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अपनी
आधुनिक दृषि्ट के कारण साहित्य के क्षेत्र में विशिष्ट पहचान बनाने वाली मन्नू भण्डारी
की आत्मकथा दैनिक जीवन के मोर्चों पर अकेले जूझने और उसी पीड़ा में जिजीविषा तलाशने
की कोशिश का बयान है। उल्लेखनीय है कि लेखिका ने प्रारंभ में ही स्पष्ट कर दिया है
कि यह आत्मकथा नहीं वरन् उनके लेखन के विकासक्रम को केंद्र में रखकर लिखी गई एक कड़ी
है।9 मन्नू की
लेखकीय जीवन यात्रा का यह बयान उनके व्यक्तिगत और सांसारिक जीवन के कई पहलुओं को सामने
लाता है। अपनी इस कथा में लेखिका ने अपने बचपन और युवावस्था की कतिपय छवियाँ और एक
प्रतिष्ठित साहित्यकार की पत्नी बनने से लेकर, विवाह के बाद घर-बाहर के दायित्व और इनके
बीच में स्वयं के लेखकीय व्यक्तित्व को संतुष्ट करने के द्वन्द्व को उभारा है। लेखिका
के जीवनानुभवों के साथ-साथ तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक गतिविधियाँ भी दर्ज
हुई हैं।
एक स्वतंत्र पहचान रखने वाली स्त्री को भी
उसके कौमार्य, वैवाहिकता, पारिवारिकता और यौनिकता के विविध
पैमानों से ही नापा-तोला जाता है,
प्रभा खेतान इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। रूढ़िवादी मारवाड़ी परिवार की अविवाहित
प्रभा भावात्मक सुरक्षा की खोज में एक विवाहित और पाँच बच्चों के पिता डॉ सर्राफ से
प्रेम संबंध स्थापित करती है। एक सफल व्यवसायी और प्रतिष्ठित लेखिका प्रभा जब स्वयं
को एक डॉक्टर की रखैल घोषित करती है तब स्त्री की सती-सावित्री या देवी जैसी छवि में
आस्था का ढोंग रखने वाले पितृसत्तात्मक समाज में हलचल मचनी स्वाभाविक थी। इस प्रेम
संबंध के बलबूते पूरे समाज से लोहा लेने वाली प्रभा अंततः खुद को हारा हुआ अनुभव करती
है। धर्म, समाज और
पितृसत्ता की जंजीरों में जकड़ी स्त्री अपने गरिमापूर्ण जीवन के लिए क्या-क्या संघर्ष
करती है, इसी का बयान है
‘अन्या से अनन्या’।
स्त्री प्रश्नों की दृषि्ट से ये दोनों
आत्मकथाएं एक-दूसरे की पूरक हैं। मन्नू की आत्मकथा में एक पत्नी का दर्द है तो प्रभा
खेतान दूसरी स्त्री की व्यथा प्रकट करती हैं। दोनों स्त्रियाँ अपनी-अपनी कथाओं के माध्यम
से पुरुष मनोवृत्ति, पितृसत्तात्मक
संस्कृति में रचे-बसे समाज और उसमें अपनी स्थिति की व्याख्या करते हुए कई प्रश्न खड़े
करती हैं।
समाज में स्त्री-पुरुष के संबंध
को कोई नाम देने और सामाजिक स्वीकृति देने का चलन है। ऐसा ही एक संबंध है
पति-पत्नी का संबंध जो विवाह संस्था के कारण अस्तित्व में आता है, लेकिन विवाह संस्था में बँधते ही स्त्री की सि्थति दोयम हो जाती है और विवाह
संस्था सवालों के घेरे में आ जाती है। जॉन स्टुअर्ट मिल ने ‘द सब्जेक्शन ऑफ विमैन’ में विवाह संस्था पर सवाल उठाते हुए
लिखा है, ‘‘विवाह इकलौती
ऐसी सामाजिक व्यवस्था रह गई है,
जिसे कई मामलों में बंधक व्यवस्था कहा जा सकता है। हर घर की गृहिणी के अलावा अब
कोई गुलाम नहीं बचा है।’’10
इससे स्पष्ट है कि वैवाहिक संबंधों में स्त्री की गरिमा का प्रश्न हमेशा से प्रासंगिक
रहा है। ‘एक कहानी यह भी’ में मन्नू भी इस प्रश्न को उठा रही
हैं। राजेंद्र यादव से विवाह से पूर्व मन्नू भण्डारी एक कहानीकार के रूप में प्रतिष्ठित
हो चुकी थीं। उनके लेखक रूप को मान्यता मिल चुकी थी। राजेंद्र से शादी का फैसला बकौल
मन्नू अपने लेखक रूप को समृद्ध करना था। मन्नू यह भी स्वीकार करती हैं कि उनके लेखक
को राजेंद्र के सान्निध्य और प्रोत्साहन ने हमेशा संबल दिया लेकिन विवाह के बाद वह
एक लेखक के साथ-साथ पत्नी की भूमिका में भी थीं। मन्नू का पत्नी रूप पति राजेंद्र के
व्यवहार से हमेशा आहत रहा जिसकी परिणति पैंतीस साल के वैवाहिक जीवन के बाद अलगाव के
रूप में सामने आई। मन्नू की दृषि्ट में राजेंद्र का अहंपूर्ण, कुण्ठाओं से ग्रस्त व्यक्तित्व और
राजेंद्र के विवाहेतर संबंधों के कारण उनकी स्त्री अस्मिता का यह पक्ष हमेशा त्रस्त
रहा। विवाहेतर संबंधों में पत्नी की स्थिति कितनी दयनीय हो जाती है विशेषकर जब उसने
माता-पिता से विद्रोह करके अन्तरजातीय प्रेम विवाह किया हो। राजेंद्र के साथ विवाह
के बाद अपने लेखकीय जीवन की समृद्धि को लेकर मन्नू की जो अपेक्षाएं थीं वो चकनाचूर
ही नहीं हुईं वरन् राजेंद्र के ‘समानांतर
जिंदगी’ के फलसफे ने एक
स्त्री के परिवार के सपने को ही धराशायी कर दिया। राजेंद्र की समानांतर जीवन की अवधारणा
का सच विवाहेतर संबंध थे, जिन्होंने
मन्नू के पत्नी रूप को हमेशा कुंठित रखा। मन्नू ने ऐसे अनेक प्रसंगों का उल्लेख किया
है जिनमें राजेंद्र मन्नू को तकलीफ में छोड़कर अपने ज़रूरी काम पर चले गए। पहले बच्चे
के जन्म पर राजेंद्र की तटस्थता और उदासनीता उन्हें कटघरे में खड़ा करती है। विवाहेतर
संबंध रखने वाले लेखकों पर सुधा अरोड़ा ने बहुत सटीक टिप्पणी की है, ‘‘एक रोने-कलपने वाली, चिड़चिड़ी बुझी हुई पत्नी कमोबेश
सबके घरों में मौजूद है जो खुद तनाव और बीमारियों से त्रस्त रहते हुए भी, गैर जिम्मेदार पति को बख्शते हुए
बच्चों समेत परिवार के दोनों पहियों को अपने मजबूत कन्धों (!) पर यथासंभव भरसक खींचती
चली जाती है।’’11
सि्त्रयों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाने की शुरुआत परिवार से ही होती है।
परिवार की संरचना में स्त्री की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका होने पर भी उसे निर्णय
लेने का कोई अधिकार नहीं दिया जाता। वस्तुत भारतीय समाज में परिवार एक ऐसी इकाई है
जहाँ स्त्री की स्थिति पुरुष से नीचे रहती है। मन्नू ने ‘एक कहानी यह भी’ में अपनी माँ और पिता की जो
छवियाँ अंकित की हैं वे एक मध्यमवर्गीय भारतीय परिवार का यथार्थ है, “नीचे हम सब भाई-बहिनों के साथ रहती थी हमारी बेपढ़ी - व्यकि्तत्वहीन माँ-सवेरे
से शाम तक हम सबकी इच्छाओं और पिताजी की आज्ञाओं का पालन करने के लिए सदैव तत्पर’’12 तथा “नबावी आदतें, अधूरी महत्वाकांक्षा, हमेशा शीर्ष पर रहने के बाद
हाशिए पर सरकते चले जाने की यातना क्रोध बनकर हमेशा माँ को कँपाती-थरथराती रहती
थी।’’13 सच तो यह है कि ‘‘हमारे गृहस्थ जीवन की नींव जिन मूल्यों पर आधारित है, वे सामाजिक न्याय के मूल्यों के बिल्कुल
विपरीत हैं।’’14 परिवार
में पति-पत्नी की भूमिका किसी कानून द्वारा निर्धारित नहीं है। परिवार में कर्तव्यों
का विभाजन पति-पत्नी की व्यक्तिगत क्षमताओं, आपसी सहमति, व्यक्तिगत रुचि आदि को ध्यान में रखकर किया
जाना चाहिए। भारतीय समाज में प्रचलित मान्यता के अनुसार घर-गृहस्थी की जिम्मेदारी स्त्री
की और घर के बाहर के काम पुरुष के जिम्मे माने जाते हैं। बदलते समय के साथ पुरुष
इन भूमिकाओं में किसी प्रकार के बदलाव का हिमायती नज़र नहीं आता। स्त्री के शिक्षित और कमाऊ
होने पर वह उससे दोहरी जिम्मेदारी निभाने की अपेक्षा रखता है। आज स्त्री
तो घर-बाहर की जिम्मेदारी बखूबी निभा रही है लेकिन पुरुष घर के काम करने में असहज महसूस
करता है। ‘एक कहानी
यह भी’ में मन्नू तो मानसिक
रूप से परिवार बनाने के लिए समर्पित थीं। परिवार चलाने के लिए सभी आर्थिक जिम्मेदारियाँ
और समस्याएं लेखिका के हिस्से में आईं, यहाँ तक कि घर पर रहते हुए बच्ची की देख-रेख में भी राजेंद्र
के अंह को ठेस लगती है। राजेंद्र के इस व्यवहार से न केवल मन्नू का आत्मविश्वास खण्डित
होता रहा वरन् निरंतर मानसिक तनाव झेलते हुए वे अंततः रोगी बनकर लेखकीय कर्म से ही
विलग हो गईं या ऐसे लेखन में रत रहने की चेष्टा करने लगीं जो उनके आत्म को कभी तृप्त
नहीं कर पाया।
विवाहेतर संबंधों में दूसरी स्त्री
की स्थिति को ‘अन्या से
अनन्या’ में बताती हैं, प्रभा, ‘‘मैं बस पति-पत्नी के बीच एक ‘वह’ थी। एक बाहरी तत्व, अनचाही स्वीकृति।’’15 डॉक्टर
सर्राफ के साथ अपने रिश्ते को बेबाकी से स्वीकार करने वाली प्रभा ने सिर्फ प्रेम-भावना
के सहारे पच्चीस वर्ष डॉक्टर और उसके परिवार के लिए काट दिए। भावात्मक निर्भरता की
कीमत यही रही कि प्रभा आजीवन डॉक्टर के परिवार को आर्थिक सुदृढ़ता देती रहीं, उनके सुख-दुःख की साथी बनी रहीं लेकिन
डॉक्टर सर्राफ के साथ वह अपने रिश्ते को कोई नाम नहीं दे पातीं क्योंकि सामाजिक व्यवस्था
में तो यह एक अमानक संबंध है, जिसकी स्वीकृति
किसी तरह संभव नहीं। ‘‘पिछले बीस
सालों से मैं उनके साथ थी मगर किस रूप में---? इस रिश्ते को...... नाम नहीं दे पाऊँगी।
भला प्रेमिका की भूमिका भी कोई भूमिका हुई? प्रेम तो सभी करते हैं। प्रेम करने वाली
स्त्री माँ, बहन, पत्नी वह कुछ भी हो सकती है। या फिर
सीधे-सीधे उसे रखैल कहो न।’’16 लेकिन प्रभा
तो रखैल के साँचे में भी फिट नहीं बैठतीं क्योंकि रखैल वह स्त्री है जिसको पुरुष द्वारा
भरण-पोषण करते हुए रखा जाता है जबकि लेखिका आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर है। लेखिका ने
ऐसे कई प्रसंगों का उल्लेख किया है जहाँ उसे इस रिश्ते के कारण सामाजिक रूप से अपमानित
होना पड़ा। दूसरी स्त्री होने की स्थिति उससे उसकी सभी पहचान छीन लेती है। ‘‘ मैं प्रभा खेतान.....मैं कौन हूँ? क्या मेरी कोई पहचान नहीं है? मैं सधवा नहीं क्योंकि मेरी शादी
नहीं हुई, मैं विधवा
नहीं....क्योंकि कोई दिवंगत पति नहीं, मैं कोठे पर बैठी हुई रंडी भी नहीं….. क्योंकि मैं अपनी देह
का व्यापार नहीं करती। मैं किसी पर निर्भर नहीं करती, स्वाबलंबी हूँ, अपना भरण-पोषण खुद करती हूँ-- स्वेच्छा से
एक जीवन का वरण किया हैं तब मैं क्या हूँ। मैं अबोध हूँ-- अबोध माने मूर्ख।’’17 स्त्री
को हमेशा पुरुष संदर्भों में देखे जाने के कारण प्रभा को कोई पहचान नहीं मिल पाती।
पितृसत्ता द्वारा प्रदत्त पहचान के रूपों से अपने को मुक्त करने का प्रयास बनकर रह
जाती है, प्रभा की कोशिश।
समाज से मिलती निरंतर उपेक्षा हमेशा उसके हिस्से में आती है, ‘‘अपनी तमाम निर्भरता के बावजूद, एक सफल व्यवसायी महिला होते हुए भी
एक इस संबंध के कारण लोगों की ताना बोली और उपेक्षा से मन की सारी कोमलता झुलस जाती
थी। एक तीखी यंत्रणा से मन चीखने लगता था। पर ये बातें किससे कहती, कौन था वहाँ सुनने वाला?’’18 समाज
की उपेक्षा, ताने से परेशान लेखिका से उसके प्रेमी डॉक्टर
सर्राफ का कहना था, ‘‘अब तक
तो तुम्हें आदत पड़ जानी चाहिए।’’19 प्रश्न
यह है कि एक सफल उद्योगपति होने पर भी जीवन भर उम्र के तमाम पड़ावों पर सामाजिक क्रूरताओं
को प्रभा ही क्यों सहती रही? डॉक्टर
सर्राफ क्यों आजीवन सम्मानित रहे?
स्त्री-पुरुष को बराबरी के पलड़े पर रखने की घोषणा करने वाला तथाकथित सभ्य समाज
भी अवैध संबंध की सजा अकेले स्त्री को ही देता है। जो स्त्री पितृसत्ता की दृषि्ट में
‘भली औरत’ का बाना धारण नहीं करती, वह हाशिए पर धकेल दी जाती है भले
ही उसकी व्यक्तिगत उपलब्धियाँ कितनी ही ऊँची हों। स्त्री मुक्ति का ढिंढोरा पीटने वाले
विचारक भी सामंती युग के सामाजिक ढाँचे को बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध हैं। सामाजिक
स्वीकृति के अभाव में पच्चीस सालों का संबंध बेमानी हो जाता है, यहाँ तक कि डॉक्टर सर्राफ की मृत्यु
के बाद आयोजित स्मरण सभा में प्रभा खेतान का नामोल्लेख भी नहीं
होता। “मैं पूछना चाहती थी, आसपास खड़े लोगों से पूछना चाहती थी क्या पच्चीस सालों के संबंध
के बावजूद डॉक्टर साहब मेरे कुछ नहीं लगते?”20 दूसरी स्त्री
का सच अन्ततः अकेलापन ही होता है। प्रभा के शब्दों मे, ‘‘ मैं अकेली थी इतनी अकेली कि मैं किसी का
रोल मॉडल नहीं बन सकी कोई लड़की मेरे जैसी नहीं होना चाहती थी.....मेरी तमाम असफलताएं
सामाजिक कसौटी पर पछाड़ खाने लगतीं। सारी उपलब्धियाँ अपनी चमक खो देतीं।.....जहाँ तनाव
अधिक था, कभी न खुलने वाली
गाँठें थीं। अपनी शर्त पर फलती-फूलती हुई एक प्यार भरी जिंदगी को भीतर से परास्त कर
देने वाली उलझने थीं।’’21 भारतीय
समाज में दूसरी स्त्री का सच यह भी है कि निरंतर सामाजिक और पारिवारिक उपेक्षा के चलते
वह पूरी तरह एक व्यक्ति पर ही निर्भर हो जाती है। यह निर्भरता प्रायः एक रुग्ण निर्भरता
में बदल जाती है। सभी अवहेलनाओं को झेलते हुए व्यक्ति एक ही जगह त्राण पाता है, जैसा कि प्रभा को लगता है, ‘‘डॉक्टर साहब मेरे लिए सुरक्षा के
प्रतीक थे।’’22 सुरक्षा
देने वाला व्यक्ति धीरे-धीरे सत्ता सुख लेने लगता है। प्रभा ने स्वीकार किया है कि
डॉक्टर सर्राफ न केवल उस पर नियंत्रण रखते थे वरन् उसके जीवन के महत्वपूर्ण निर्णय
भी उन्हीं ने लिए। उस सत्ता को बनाए रखने के लिए डॉक्टर सर्राफ ने प्रभा पर चारित्रिक
लांछन तक लगाए। ‘‘डॉक्टर
साहब ने अंदर वाले कमरे से फोन उठा रखा है- मुझ पर नियंत्रण रखने का यह उनका अपना तरीका
है। मेरे नाम की हर चिट्ठी पहले डॉक्टर साहब की मेज पर जाती थी.....मेरे सम्पर्क में
आने वाले हर पुरुष के प्रति वे संदेहग्रस्त रहते और रिश्तों की कैफियत देते-देते मैं
थक जाती।’’23 अन्यत्र
प्रभा लिखती हैं, ‘‘डॉक्टर
साहब मेरे प्रेमी नहीं रह गए थे,
पर मेरे अभिभावक ज़रूर हो गए थे। मैं जो कमाती उनके हाथ में रख देती। जैसे वे सब
बच्चों की फाइल देखते थे, टैक्स भरते
थे, वैसे ही मेरी कमाई
का, विनियोजन का हिसाब
देखते थे।’’24 प्रभा प्रश्न
उठाती है कि पुरुष क्यों चाहता है कि स्त्री उसके अधीन रहे, अपने निर्णय स्वयं न ले। स्त्री की
सफलता पुरुष की ग्रंथि क्यों बन जाती है? ‘‘व्यापार मैं कर रही थी मगर पैसे का कंट्रोल डॉक्टर साहब कर रहे
थे। कहाँ कितना पैसा लगाना है, किसके पास
कितना रुपया जाना है। इसका निर्णय वही लेते थे।”25 दूसरी स्त्री
होने का दर्द यह भी था कि उसकी इच्छा को कोई मान नहीं था बल्कि कहें उसकी इच्छा को
पूछने वाला ही कोई नहीं था, ‘‘किसी ने
मुझसे यह नहीं पूछा कि मैं क्या चाहती हूँ। मुझसे केवल चाहा गया- दूसरों की आशा-प्रत्याशा
का दबाव मुझे तोड़े डाल रहा था।’’26 प्रभा ने
खुद को व्यापार के ज़रिए आर्थिक रूप से तो सुरक्षित कर लिया लेकिन वस्तुतः वह आर्थिक
रूप से डॉ. सर्राफ पर निर्भर श्रीमती सर्राफ की तुलना में ज्यादा असुरक्षित थी। ‘‘स्त्रियाँ अपने को पुरुषों के मन
के अनुकूल ढालें यही पितृसत्ता का स्त्री के लिए पहला और आखिरी पाठ है, सबसे आदिम और अधुनातन भी।’’27 सामाजिक, नैतिक और जन्मगत संस्कारों के कारण
प्रायः स्त्रियाँ यही करती हैं। ‘एक कहानी
यह भी’ में मन्नू के मन
में बसी यह कचोट उभर ही आती है कि वे खुद को राजेंद्र के अनुकूल नहीं ढाल सकीं और वही
कोशिश आजीवन श्रीमती सर्राफ और प्रभा करती रहीं।
‘आपका बंटी’ की प्रतिक्रिया में आए पत्रों का उल्लेख जब मन्नू करती
है तब सहसा ज़हन में यह सवाल कौंधता है कि ‘शकुन’ की पीड़ा को समझने वाली मन्नू निज को क्यों
छलती रही? अंदर-अंदर
घुटते और बाहर से सामान्य व्यवहार करते-करते कब मन्नू अपने ही रचित पात्रों की प्रतिलिपि
बनने लगीं, यह वह स्वयं
भी नहीं जान पाईं। आधुनिक स्त्री की समस्याओं को उपन्यासों और कहानियों में उकेरने
वाली मन्नू को मिला अंततः ‘‘रोगग्रस्त
शरीर......निष्क्रिय जीवन और खंडित आत्मविश्वास की किरचों में लिपटा व्यक्तित्व।’’28 मन्नू लंबे
समय तक अनिर्णय की स्थिति में झूलती रहीं, ‘‘तब बार-बार मन में यही उठता था कि क्यों
नहीं मैं ही इन समानांतर जिंदगियों की छतें भी समानांतर करके पहले वाली जिंदगी में
लौट जाऊँ? पर अपने
प्रति हजार-हजार धिक्कार उठने के बावजूद मैं ऐसा कोई निर्णय नहीं ले पाई।’’29 पुरुष वर्चस्व
से उत्पीड़ित, अपमानित
और उपेक्षित स्त्री धीरे-धीरे अपनी स्वतंत्र पहचान से भी असंतुष्ट रहने लगती है। अपनी
उपलब्धियों को कम करके आँकने लगती है। अपनी लेखकीय यात्रा का बयान करते हुए मन्नू अपने
लेखन के प्रति असंतुष्टि का भाव दर्शाती हैं।30 अन्ततः मन्नू अपने
जीवन की परिणति को अपनी मूर्खता या अपनी पीढ़ी की भारतीय पत्नी की नियति घोषित करती
है।31 प्रभा भी
मन्नू की तरह अपने रिश्ते को लेकर द्वन्द्वगस्त रहीं। अपनी मोहग्रस्तता का कारण ढूँढ़ते
हुए वह लिखती हैं, ‘‘मैं क्यों
सह रही थी यह सब? मुझे लगता, मैं समाज से लड़ सकती हूँ पर डॉक्टर
साहब से नहीं। यों ही लोग मेरे इस अवैध रिश्ते के कारण मुझे बुरी औरत कहते हैं और अब
यदि डॉक्टर साहब से भी लड़ाई ठन जाए तो लोगों की नज़र में मैं एकदम गिर जाऊँगी। डॉक्टर
साहब पुरुष हैं, समर्थ हैं, लोग तो उन्हीं की बातों पर भरोसा
करेंगे, मुझ पर नहीं, लेकिन मैं भूल गई थी कि इस यथार्थ
से बाहर भी जिंदगी है, लोग हैं, उनके अपने नैतिक मापदण्ड हैं।’’32 द्वन्द्वग्रस्त
स्त्री चाहे वह स्वतंत्र पहचान रखती हो, कुंठित होकर अन्ततः उसी व्यवस्था में विकल्प खोजती है, ‘‘मुझे लगता क्या घर, पति और एक बच्चे के बिना मैं अधूरी
हूँ? या मेरे दामन का
दाग दूसरों की नज़र में मेरी प्रत्येक उपलब्धि को तुच्छ ठहराएगा। संपर्क में आने वाले
लोग भी चाहे-अनचाहे मेरी इसी कमी की ओर इशारा करते। मेरी गृहस्थी नहीं थी पर किसी और
की गृहस्थी को उसके सारे बोझ और कर्मकाण्डों को मैं कितनी वफादारी से ढो रही थी, चाहकर भी जिससे मैं निकल नहीं पा
रही थी या फिर भ्रम पाल रही थी कि यह गृहस्थी मेरी भी है।’’33 पुरुष के लिए स्वयं का
उत्सर्ग करती ये महिलाएं क्यों नहीं पुरुष सत्ता से स्वतंत्रता का प्रयास करतीं? दिन-रात छली जाती मन्नू नहीं समझ पातीं कि तमाम अवहेलनाओं, उपेक्षाओं और अपमान को झेलने के बाद भी वह क्यों बार-बार राजेंद्र के साथ बने रहने के आग्रह का मान रखती
रहीं? यही सि्थति प्रभा की भी है, “मुझे डॉक्टर साहब को छोड़ देना चाहिए लेकिन निर्णय की तमाम स्वतंत्रता
के बावजूद डॉक्टर साहब को छोड़ देने के नाम से मैं कातर हो जाती। आँखे
बरसने लगतीं, वापस उसी मुकाम पर डटे रहने के लिए मेरा मन नए-नए नुस्खे
तलाशने लगता।”34 सम्भवत: इसके पीछे भावात्मक निर्भरता और प्रेम ही है। मन्नू के शब्दों में, “मैं जानती हूँ कि आज शकि्त का परचम लहराती, स्त्री विमर्श में पगी सि्त्रयाँ ज़रूर मुझे धिक्कारेंगी, भर्त्सना करेंगी मेरी कि इतना
सब होने के बाद, अलग रहते हुए भी फिर आकर जुड़ने की ज़रूरत क्या थी? उस जुड़ाव का रूप चाहे जो हो, जैसा भी हो, है तो जुड़ाव ही।’’35 प्रभा भी आजीवन कशमकश का शिकार
रहीं, “पर मन? इस मन के सूनेपन का क्या करती?
डॉक्टर साहब के अलावा और किसी से मैं क्यों नहीं जुड़ पाती.....हम औरतें प्रेम को जितनी
गंभीरता से लेती हैं उतनी ही गंभीरता से यदि अपना काम लेतीं तो अच्छा रहता.....मगर समस्या तो यही है कि अपनी तमाम समझ के बावजूद डॉक्टर
साहब के अलावा अन्य किसी से भी मुझे लगाव नहीं था.......क्या मैं यह विश्वास करूँ कि प्रेम का विकल्प तर्क-वितर्क नहीं, कि प्रेम और घृणा, स्वतंत्रता और गुलामी, झूठ और सच, जीवन और मृत्यु....कुछ ऐसे
स्थायी दि्वत्व हैं जिनके बीच कहीं कोई स्पेस नहीं, कोई तीसरा विकल्प है ही नहीं।”36
आत्मकथा
लिखते समय यथार्थ के धरातल पर खड़े होकर, तटस्थ होकर
जब प्रभा इस रिश्ते को देखती हैं तो सोच पाती हैं, ‘‘डॉक्टर साहब और मैं दोनों अपने-आप को बहलाते-फुसलाते
रहे बिना यह समझे कि ऐसे रिश्तों को दुनिया अपनी नज़र, अपने पैमाने, अपनी परम्परा से तौला करती है कि दुनिया
की नज़र में पति-पत्नी के अलावा औरत-मर्द का हर रिश्ता नापाक है, गलत है।’’37 प्रभा आखिर
वही स्वीकार कर लेती है जिसका पाठ स्त्रियों को बचपन से पढ़ाया जाता है। आज की स्त्री
अगर स्त्री-पुरुष सबंधों के पुनर्परिभाषीकरण की बात उठा रही है तो उस पर ध्यान क्यों
नहीं दिया जाना चाहिए? आत्मकथा
के अंत में प्रभा के दिए हुए निष्कर्ष एक हारी हुई स्त्री का स्वीकार नहीं वरन् हमारे
समाज का सच है कि, ‘‘स्त्री-पुरुष
अब भी दोस्त नहीं हुए हैं। पुरुष मुझसे चाहे कितने वायदे करे मगर देर-सबेर पितृव्यवस्था
उस पर हावी हो जाएगी और वह मुझे व्यवस्था की नज़रों से ही तौलेगा। सामाजिक परिवेश की
सामूहिक आवाज़ वहीं की वहीं ठहरी हुई है, जहाँ हजार साल पहले थी।’’38 व्यापार
शुरू करने के लिए प्रभा की जद्दोजहद, निर्यात व्यापार के लिए मुश्किल से डॉक्टर सर्राफ द्वारा दी
गई अनुमति और व्यापार में हिस्सेदारी, व्यापार क्षेत्र में नित नए अनुभव प्रभा को समाज का असली चेहरा
दिखा देते हैं, ‘‘हमारी औरतें
वह चाहे बाल कटी हों या गाँव-देहात से आई हों, कहीं भी सुरक्षित नहीं। उनके साथ कुछ भी
घट सकता हैं सुरक्षा का आश्वासन पितृसत्तात्मक मिथक है। स्त्री कभी सुरक्षित थी ही
नहीं।’’39 एक शिक्षित, परिपक्व एवं अनुभवी स्त्री के जीवनानुभवों
का निचोड़ यही है, ‘‘केवल पढ़ने
से, अध्ययन चिंतन और
लेखन से स्त्री स्वतंत्र नहीं हो जाती, सामाजिक पंगुता के विरुद्ध क्रोध और विद्रोह की भावना से मुक्ति
की यात्रा बहुत लंबी है और बड़ी कठिन। दो पैसे कमा लेने से ही मुझे निर्णय की स्वतंत्रता
मिल जाएगी ऐसा नहीं है। पीढ़ियों से स्त्री की जो छवि बन चुकी है उसको बदलने की शायद
मेरे पास भी शक्ति नहीं है।’’40
आज का शिक्षित पुरुष उस स्त्री को सहधर्मिणी
बनाना चाहता है जिसके पास सोचने,
समझने, खतरे उठाने
और दायित्व निर्वहन की क्षमता हो लेकिन उसे उस पुरुष विशेष के संदर्भ से ही जाना जाए।
स्त्री की कोई निजी दुनिया न हो,
निजी निर्णय न हों, उन सब पर
पुरुष का अधिकार हो। ये आत्मकथाएं सवाल उठाती हैं कि पुरुष समाज ने अपनी सर्वोच्चता
के जो मिथक बना रखे हैं या एक आवरण ओढ़ रखा है, उससे वह कब बाहर आएगा? मन्नू की मानसिक घुटन इसलिए बढ़ती
रही क्योंकि राजेंद्र ने कभी भी अपने व्यवहार में परिवर्तन करने की या परिस्थितियों
से समझौता करने की पृष्ठभूमि तैयार नहीं की।41 ’’स्त्री से मन की बात न कहने, उसे अपनी चिंताओं में शामिल न करने के पीछे
भी पुरुष वर्चस्ववादी मानसिकता ही काम करती है।’’42 राजेंद्र
और डॉक्टर सर्राफ ने अपने जीवन के महत्वपूर्ण फैसले ही नहीं लिए वरन् क्रमश: मन्नू और प्रभा के जीवन के महत्वपूर्ण निर्णय भी स्वयं
ले लिए। प्रभा खेतान ने सीमोन द बोबुआर की पुस्तक ‘द सेकेण्ड सैक्स’ का अनुवाद करते हुए भूमिका में लिखा
है, ‘‘क्या देह के अलावा
औरत की कोई पूँजी नहीं है।’’ अधिकांश
पुरुषों के लिए स्त्री देह से आगे स्वीकार्य क्यों नहीं होती और बार-बार स्त्रियों
को देह को अपनी पूँजी मानने के लिए बाध्य क्यों किया जाता है, जबकि आज की स्त्री देह के सवालों
से आगे जाना चाहती है। स्त्री के लिए अंतरंगता के सभी संबंध सेक्सुअल नहीं होते। आज
की स्त्री पुरुष के साथ अपनी अंतरंगता को बौद्धिक और राजनीतिक स्तर तक ले जाकर शिद्दत
से जीना चाहती है। वह पारम्परिक अर्थों में पुरुष की सहधर्मिणी नहीं बनना चाहती, पुरुष का सहयोग चाहती है, परिवार व्यवस्था में प्रजातांत्रिक
भागीदारी चाहती है। प्रेम, काम और
विवाह को परम्परागत मानदण्डों से पृथक् करके देखना चाहती है।
अपूर्णता के बीच पूर्ण दीखतीं स्त्रियाँ
आखिर क्यों सहती हैं? इन कारणों
की खोज एक पत्नी के रूप में मन्नू और दूसरी स्त्री के रूप में प्रभा यही कर पाती हैं
कि पितृसत्ता ने जो व्यवस्था हमें दी है उससे न तो पढ़ी-लिखी स्त्री मुक्त हो सकी है
और न पुरुष। वे शिकंजे बार-बार दोनों को अपनी गिरफ़्त में लेते रहते हैं। ये आत्मकथाएं
बताती हैं कि सामंती संस्कार अभी तक समाज पर हावी हैं और
आज भी स्त्री एक पौरुषपूर्ण समय में रहने के लिए अभिशप्त है। उसके तमाम प्रश्न पुराने
रूप में बरकरार हैं, जिनके उत्तर
खोजे जाने ज़रूरी हैं, जैसे स्त्री-पुरुष
के मध्य दैहिक एकनिष्ठता की अपेक्षा स्त्री से ही क्यों की जाती है? ‘‘पुरुष कमजोर स्त्री से ही क्यों प्यार
करता है? और सबल स्त्री से
चिढ़ता क्यों है?’’43 औरत जैसे
पुरुष के लिए जीती है पुरुष भी क्यों नहीं औरत के लिए जी पाता?’’44 ‘‘स्त्री
ही क्यों निरंतर निर्मित की जाती रहती है? कुछ सवाल स्वयं से भी हैं जैसे ‘‘क्या हम सभी औरतें खण्डित व्यक्तित्व
की हैं?’’45 ‘‘आखिर हम स्त्रियाँ अपने प्रिय पुरुष
की अहं संतुषि्ट के लिए खुद का अवमूल्यन क्यों करती हैं। किसलिए गुलाम की तरह उस पुरुष
की हर मूर्खता एवं कुंठा को झेलती रहती हैं?’’46 स्त्री
के हिस्से में आँसू ही क्यों आते हैं? ये आत्मकथाएं ‘‘इस सर्व-स्वीकृत मान्यता को भी प्रश्नों के घेरे में खड़ा करती हैं
कि उच्च शिक्षा व आर्थिक स्वाबलबंन स्त्री-मुकि्त
को अनिवार्यत: सुनिशि्चत करता है।”47
-डॉ.प्रीति सागर
एसोशिएट प्रोफेसर, साहित्य विभाग,
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय,
गांधी हिल्स, वर्धा-442005; महाराष्ट्र
मोबाइल नं.- 08055290238
ई मेल- psagarhv@gmail.com
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अभी भी स्त्रियाँ अपनी आत्मकथाओं में जो सवाल
उठा रही हैं उन्हें परम्परागत नजरिये से देखे जाने के कारण अनदेखा किया जा रहा है क्योंकि
जब कभी स्त्री अपनी निजी पहचान और स्पेस के प्रश्नों को लेकर सामने आती है तब या तो
पितृसत्ता स्त्री को महिमामंडित कर बदलना चाहती है या उपेक्षा एवं अवहेलना देकर दुत्कारती
है क्योंकि पितृसत्ता की दृष्टि में एक जागरुक स्त्री की छवि कुछ यूँ बनती है, ‘‘एक स्त्री जब मात्र देह नहीं होती
तो पुरुषसत्तात्मक समाज के लिए चुड़ैल और प्रेतनी होती है जब वह सोचती है तो नतीजे
तक पहुँचने के पहले ही खतरनाक घोषित कर दी जाती है जब वह सवाल उठाती है तो उसे पागल
करार दे दिया जाता है। जब वह अपनी पीड़ा को स्वर या शब्द देती है तो उससे और अधिक रियाज
करने और कलात्मक होने की नसीहत दी जाती है। जब वह चीजों को उनके मर्म को जान जाती है
तो डरावनी हो जाती है और जब वह स्मृतियों से स्वप्नों को और स्वप्नों को परियोजनाओं
से बाहर निकालकर उन्हें शब्द और कर्म में ढालती है तो सहसा रुद्रवीणा पर कोई प्रचण्ड
राग बजने लगता है और यथास्थिति के पक्ष मे खड़ी समस्त शक्तियाँ जड़ता की अपनी पूरी
ताकत के साथ आपके खिलाफ उठ खड़ी होती हैं और लामबंद हो जाती हैं।’’48 अपने स्वरूप
वैशिष्ट्य के कारण आत्मकथाएं स्त्रियों के संघर्षो को बहुत प्रामाणिक ढंग से सामने
ला रही हैं और स्त्री-संघर्ष की प्रक्रिया को गति देने का उपकरण भी बन रही हैं। स्त्रियों
की आत्मकथाओं में बिखरा दुःख-दर्द एक व्यापक भारतीय स्त्री समाज का प्रतिबिंब लगता
है। स्त्री आत्मकथाओं के माध्यम से तथाकथित आधुनिक और उत्तर आधुनिक भारतीय समाज में
स्त्री की दोयम स्थिति ही नहीं उजागर होती वरन् स्त्री प्रगति के झूठे दावों की भी
कलई खुलती है। स्त्री-आत्मकथाओं ने स्त्री जीवन पर नियंत्रण रखने वाली शक्तियों का
कच्चा चिट्ठा बयान किया है और स्वयं को नियंत्रक शक्ति के रूप में पहचाने जाने की पुरजोर
माँग उठाई है। स्त्री-आत्मकथाएं इस यथार्थ से साक्षात्कार कराती हैं कि केवल वैधानिक
अधिकारों से स्त्री को समानता, स्वतंत्रता
और संतुषि्ट नहीं मिली है, ज़रूरी
है कि स्त्री को अपनी भावनाओं और स्वप्नों का पूर्णता तक पहुँचाने का अवसर मिले। वास्तव
में स्त्री-आत्मकथाओं के प्रश्नों से सहमति का साहस पुरुषों में जगाना ज़रूरी है, स्त्रियों के लिए तो ये आत्मविश्वास, आत्मस्वतंत्रता और मुक्ति के द्वार
खोल ही रही हैं।
सन्दर्भ सूची
1. साहित्यिक विधाएं: पुनर्विचार, डॉ. हरिमोहन, पृ. 244
2. आत्मकथा की संस्कृति, पंकज चतुर्वेदी, पृ. 13
3. नारी सशक्तीकरण: विमर्श एवं यथार्थ, सं0 आशा कौशिक, पृ. 96
4. बहुवचन २४, स्त्री-आत्मकथा: सिद्धान्त विचार, गरिमा श्रीवास्तव, पृ. 140
5. वही पृ. 138
6. अन्या से अनन्या, प्रभा खेतान, पृ.256
7. हिंदी साहित्य का
आधा इतिहास, सुमन राजे पृ. 295
8. आत्मकथा की संस्कृति, पंकज चतुर्वेदी, पृ. 57
9. एक कहानी यह भी, मन्नू भण्डारी, पृ. 8
10. द सब्जेक्शन ऑफ विमैन, जॉन स्टुअर्ट
मिल अनु. युगांक धीर, पृ. 87
11. हंस, अगस्त 2010, सुधा अरोड़ा, पृ. 130
12. एक कहानी यह भी, मन्नू भण्डारी, पृ.15
13. वही, पृ.16
14. द सब्जेक्शन ऑफ विमैन, जॉन स्टुअर्ट
मिल अनु. युगांक धीर, पृ. 89
15. अन्या से अनन्या, प्रभा खेतान, पृ. 175
16. वही, पृ. 08
17. वही, पृ. 12
18. वही, पृ. 260
19. वही, पृ. 13
20. वही
21. वही, पृ. 174
22. वही, पृ. 14
23. वही, पृ. 164
24. वही, पृ. 179
25. वही, पृ. 211-212
26. वही, पृ. 261
27. ज्ञान का स्त्रीवादी पाठ, सुधा सिंह, पृ. 300
28. एक कहानी यह भी, मन्नू भण्डारी, पृ. 169
29. वही पृ. 52
30. वही, पृ. 13
31. वही, पृ. 188
32. अन्या से अनन्या, प्रभा खेतान, पृ. 165
33. वही, पृ. 261
34. वही, पृ. 250
35. एक कहानी यह भी, मन्नू भण्डारी, पृ.193
36. अन्या से अनन्या, प्रभा खेतान, पृ.
14-15
37. वही, पृ. 89
38. वही, पृ. 257
39. वही, पृ. 208
40. वही, पृ. 256
41. एक कहानी यह भी, मन्नू भण्डारी, पृ. 58
42. ज्ञान का स्त्रीवादी पाठ, सुधा सिंह, पृ. 319
43. अन्या से अनन्या, प्रभा खेतान, पृ. 214
44. वही, पृ. 223
45. वही, पृ. 279
46. वही, पृ. 213
47. प्रगतिशील वसुधा 86, मर्द सत्ता की घेरेबंदी और स्त्री विमर्श, वीरेंद्र यादव, जुलाई-सितम्बर
2010, पृ. 220
48. पहल, स्त्री रचनाकारों के एक्टीविस्ट होने की ज़रूरत
कात्यायनी, जनवरी 2001, पृ. 79
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