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समकालीन हिन्दी कविता
में लोक चेतना विषय से जुड़कर कुछ मुद्दे साहित्यकार और आस्वादकों के सामने एक
चुनौती के रूप में उभर कर आते हैं। विज्ञान और तकनीकी के युग में क्या यह चेतना
नष्टप्राय होती जा रही है? क्या वह धारा आज चुनौतियों का सामना कर रही है? क्या वह एक पूरक तत्व है
या विरोधी? क्या विश्वग्राम का वैचारिक पहलू हमारी लोकचेतना को झकझोर कर डालेगी या साथ
लेकर चलेगी? क्या आज के युग में साहित्य की लोकचेतना केवल संग्रहालय की चीज बनकर रह गई है?
क्या वह आस्था और
जीवनमूल्य का अटूट हिस्सा है? साहित्यकार उसको बिकाऊ चीज के रूप में मानते हैं या टिकाऊ?
केवल दिमागी कसरत
के रूप में लोकचेतना को साहित्य में जगह देती है तो उसमें ऊर्जा और उन्मेष की
गुंजाइश न रहेगी।
साहित्य की लोकचेतना की
अपनी खूबियाँ अवश्य होती हैं। पतन के पड़ाव पर पहुँचने के अवसर पर साहित्य की कमजोर
विधाओं के शक्तिकरण के बारे में सक्रियसतर्क चर्चाएं सबल बन जाती हैं। यह साहित्य
की लोकचेतना के लिए भी लागू होती है। शुरू में ही यह संकेत देना उचित होगा कि हमारी
समाज में ‘लोक’ शब्द
के अर्थ की कई छवियाँ हैं। उसको विशेषण के रूप में रखकर कई शब्द प्रचलित हैं- जैसे
लोकगीत, लोककथा,
लोकभाषा, लोकवाणी, लोकमत, लोकतंत्र, लोकजीवन, लोकलाज, लोकप्रियता। लोकचेतना के
पोषक तत्वों की तलाश भी आज अनुसंधान का विषय है। नेतृत्व विज्ञान, समाज विज्ञान, मिथक, आदिबिंब आदि उनमें शामिल
हैं। लोक साहित्य को पहले दूर दराज के गाँवों के निरक्षरों के जीवन निरीक्षण के
नमूने के रूप में समाज ने मान लिया था। लेकिन आज वह विशेषज्ञों के लिए गहन अध्ययन
की विधा बन गई है।
नव उपनिवेशवाद, उत्तराधुनिकता और
भूमंडलीकरण की चकाचौंध आज साहित्य की सहजता को प्रदूषित कर रही है। नाना प्रकार की
व्यस्तताएं जीवन को यंात्रिक बना रही है। दिल को दिल्लगी मिलने के क्षण कम हो रहे
हैं। इसलिए लोकचेतना की धड़कन आज की कविता में अधिक अनुभूत नहीं होती। फिर पाठकीय
अभिरूचि भी उस ओर अधिक उन्मुख नहीं है। आलोचकों के इन निष्कर्षों को एकदम
बेबुनियाद ठहराना भी ठीक नहीं लगता।
विघ्न बाधाएं आ जाना और प्रवृत्तियों का रूक जाना अलग-अलग बातें हैं।
प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपने सहज अभिरूचि को दंाव पर रखकर रास्ते से न हटने
वाले कुछ कवि आज भी रचनारत हैं। इनकी एकलव्य साधना को महत्व और प्रोत्साहन देना
सहृदय पाठकों का दायित्व है। लोक संपृक्ति से कविता अधिक प्राणवान होगी। लोकानुराग
की रचनाएं हमारी अभिरूचियों का परिमार्जन कर सकती हैं। मानवीय संबंधों को मधुर
बनाने में भी वह सहायक निकलेगी। संस्कृति और मूल्यों की जड़ें तब अधिक मजबूत बन
जाएंगी। रासयनिक खादों से साहित्य को बचाने की मांग आज अधिक सख्त बन रही हैं। निज
संस्कृति को बचाने से ही निज भाषा की उन्नति संभव होगी। वह चेतना विकास की विराट
प्रक्रिया है। आशा है कि इस प्रकार की विचारगोष्ठी या सहृदय संवादांे के फलस्वरूप
नए सिरे से सोचने की प्रेरणा भी हमें मिलेगी। तब साहित्य की लोकचेतना को
प्रौद्योगिकी के इस युग में अहल्या मोक्ष मिलेगा। उपभोक्ता संस्कृति के विश्वग्राम
में तब हमारे ग्राम की आवाज स्पष्ट सुनाई पड़ेगी।
लोक काव्य के लिए आज अलग
विधा और विधान नहीं है। वर्तमान युग को प्रवृत्तियों के साथ लोकचेतना घुल - मिल
जाती है। आज की कविता से लोकचेतना को पृथक करके देखना मुश्किल है। उसकी धारा पहले
के समान अजस्र और अनुस्युुत नहीं हैं लेकिन वह एकदम बंद हो गई है ऐसा सोचना भी
समीचीन नहीं होगा।
समकालीन हिन्दी कविता क®
केन्द्र में रखकर
लोक चेतना पर आधारित इस चर्चा में सारी विधाओं को समेटना मुश्किल होगा। सुविधा के
लिए कविता पर बल देना उचित होगा। चूंकि समकालीनता पर भी प्रश्रय देने का सुझाव
मिला है इसलिए सन् 1990 के बाद की कुछ कविताओं को नमूने के रूप में स्वीकार कर सोच
विचार किया है।
विश्वनाथ त्रिपाठी के काव्यसंकलन ‘आखर अनंत’ में माँ के बारे में कुछ कविताएँ संग्रहीत हुई हैं।
माँ और गाँव के प्रति कवि का प्रेम इस कविता को मार्मिक बना देता हैं। लोक
संस्कृति की अमिट छाप इस कविता पर पड़ी है। कुछ पंक्तियाँ यहाँ उद्धृत हैं।
“दिखेंगे नाग पंचमी के साँप
दशहरे के नील कंठ
क्वार के खंजन
बस माँ नहीं दिखेगी
फिर कभी इस
रूप में।“
उपेन्द्रनाथ मिश्र की
कविता ‘गाँव’
में लोकचेतना
स्पन्दित होती है। मनुष्यता को मिटाने वाले उत्तर आधुनिक औजरों से कवि मुक्ति
चाहते हैं। बचपन में देखे गाँव को बचाने की इच्छा उनके मन में प्रबल बन जाती है।
”शहर से दूर
लौटना चाहता हूँ गाँव की पगडंडियों पर
गाना चाहता हूँ, अश्र आस्था के गीत
जगाना चाहता हूँ प्रेम देवता की ऊर्जा को
पीपल की छांव में बतियाना चाहता हूँ
बचाना चाहता हूँ विलुप्त हो रही लोक धुनों को।”
आदिवासी स्वर को मुखरित करने के उद्देश्य प्रकाशित
पत्रिका है ‘युद्धरत आम आदमी’। इसमें कवयित्री ग्रेस कुजूर कहती है कि लोक संस्कृति से जुड़े सारे प्रतीक आज
नष्टप्राय हैं। वह पूछती है-
“कहाँ गया वह सुगंध
महुआ और डोरी की
गूलर और केयोंद की
कहाँ खो गया बांसों का संगीत
और न जाने कहाँ उड़ गयी
संघना की सुगंध।“
लोकानुराग की चेतना यहाँ
प्रस्फुटित होती है। मंगलेश डबराज की कविता ‘दादा की तस्वीर’ में पुरानी यादों को
जीवंत बनाने की कामना देख सकते हैं। एक पिता के स्तर पर खड़े होकर दादा की
स्मृत्तियों को वे यहाँ सहलाते हैं।
”दादा को तस्वीरें खिंचवाने का शौक नहीं था।
या उन्हें समय नहीं मिला
उनकी सिर्फ एक तस्वीर
गंदी पुरानी दीवार पर टंगी है
वे शांत और गंभीर बैठे हैं
पानी से भरे हुए बादल की तरह।
हम जो देखते हैं।”
प्यार को आज भी कविता का
मुख्य तत्व बनाने वाले कवि अत्यल्प हैं। प्यार को कविता से भगाने का कारण दूसरा
विषय है। लोकचेतना को पसन्द करने वाले कवि प्यार को भी पसंद करेंगे। निर्मल गर्ग
की कविता ‘कहा असंख्य तारों ने’ की कुछ पंक्तियाँ हैं।
”तिनके से भी हल्का क्या होता है
प्यार कहा
असंख्य तारों ने
लोहे से भी भारी क्या होता है
प्यार फिर कहा असंख्य तारों ने।”
बलदेव वंशी की ‘तो मधुमास हो’ कविता में हिरन और मोर का वर्णन मिलता है। यहाँ
लोकजीवन की कल्पना तथा झाँकी है। भावना और यथार्थ में तालमेल न होने की बात पर कवि
का ध्यान पड़ा है। कविता की आरंभिक पंक्तियाँ हैं-
”जानकर सब लोगों को पता है
कि हिरन अपने सीगों के
भव्य ताज पर
विराट आकाश को उठाकर
चौकड़ी भरता है उत्फुल्लता में
और पाँवों के यथार्थ को देख
आठ आठ आँसू रोता है।”
अरूण कमल की कविता ‘मातृभूमि’ में लोकबिंब का आकर्षक
रूप मिलता है। कवि को लगता है कि मैं मेले में खोये बच्चे के समान हूँ। धान के
पौधों ने इतना ढँक दिया है कि रास्ता तक नहीं सूझता। ये पंक्तियाँ लोकमानस के
चिंतन के अनुरूप हैं-
”वे बकरियाँ जो पहली बूँदें गिरते ही
भागी और छुप गयी पेड़ की ओट में
सिंधु घाटी का वह साँढ
खूब चौड़े, पट्टेवाला जो भीगे जा रहा है
पूरी सड़क छेंके।”
‘तीज पुजाई’ शीर्षक जगदीश विकल की कविता रिश्तों के रेशों को
उजागर करती हैं। बेटी की चिट्टी मिलने पर माँ के मन में उभर आती चिंताएँ यहाँ
वर्णित हैं।
”आहत अबोध कबूतर की तरह
माँ के हाथ में
काँप रही है बेटी की चिट्टी
अक्षर अक्षर से झरते हैं
दुःख और आँसू
पहली बार गयी है
बेटी ससुराल
और गयी नहीं तीज पुजाई।”
वह चिट्टी बहुत कुछ छिपा
लेती है। फिर भी बहुत कुछ बोलती है। वह माँ छटपटाती प्राण से आँखों के पुतली बेटी
की याद करती है। कृष्णकुमार यादव की कविता ‘गौरया’ कंक्रीट शहर, फ्लैट और इंटरनेट के युग
में आए परिवर्तनों पर विचार करती है। आज के बच्चे प्रकृति को कुतूहलता से नहीं
निहारते हैं। सुबह दिखाई पड़ी गौरया कवि के मन में कुछ नए विचार लाते हैं कवि की
आशंका है-
”वही गौरया
जो हर आंगन में
घोंसला लगायी करती है
जिसकी फुदक के साथ
हम बढ़े हुए।
क्या हमारे बच्चे
इस प्यारी व नन्हीं सी चिड़िया को
देखने से वंचित रह जाएंगी।”
श्रीमती रमणिता गुप्ता
की ‘पेकची
के पत्ते सा’ कविता में कई लोकबिंबों की प्रभावशाली प्रस्तुति हुई है। प्रकृति के दृश्य उनके
मन में मधुर यादें लाते हैं। कुछ पंक्तियाँ हैं।
”सूरज के चूल्हे पे
सागर बिरजाता है
उफन उफन जात है
देगची में भात-सा
उबल उबल
माड गिरी जा रही
घर आंगन की याद है जला रही
मोर मितवा की
याद मोहे आ रही।”
चूल्हा, देगची और माड़ पाठकों के
मन में लोक चेतना को स्पन्दित करने में सक्षम है। लोक चेतना के प्रस्फुटन
को केवल भाव तक सीमित रखना ठीक नहीं जंचता है। भाषा से भी उसका सरोकार है। लोकभाषा
को कुछ कवि तथा समीक्षकों ने जनपदीय भाषा के रूप में व्यवहृत किया है। हिन्दी की
जनपदीय कविता शीर्षक संकलन की भूमिका में डॉ0 विद्यानिवास मिश्र ने यह राय
प्रकट की थी एक तरह से हिन्दी की जनपदीय भाषाएँ हिन्दी को चारों दिशाओं से ऊर्जा
प्रदान करती हैं। यह ऊर्जादान की प्रक्रिया चलती रहती है। उन्होंने आगे लिखा है कि
साहित्य, कोश
रखकर नहीं लिखा जाता, न कोई साँचा रखकर लिखा जाता है। साहित्य की भाषा साँचों को तोड़ती है, नये साँचे बनाती है।
साहित्य की भाषा ही जीवंत मानकों का नक्शा देती है।
आज भाषाई बहुरूपता मिटती
जा रही है। इसका असर लोकचेतना पर पड़ रहा है। एकरूपता को उचित मानने की प्रवृत्ति
प्रबल बन रही है। बोलियों के वैविद्य पर बुलडंॉजर का प्रयोग हो रहा है। इससे
लोकचेतना की भाषाई छवि कमजोर बन जाएगी। इस चुनौती के बारे में सोचकर लोकपक्ष के
कुछ समर्थक उदास नहीं बनते। लोक साहित्य के मर्मज्ञ डॉ0 नर्मदा प्रसाद उपाध्याय का अभित
है- लोक केवल भाषा से परिभाषित नहीं होता, वह परिभाषित होता है युगों से चली आ रही परंपराओं से
जन्मे संस्कारों से। लोक की अनुभूति बड़ी सहज है। वह गढ़ी हुई नहीं है, तराशी हुई नहीं है,
शिल्पित नहीं है।
यह अनुभूति जिसे लोक का भाव कह सकते हैं, नर्मदा के उस कंकट की तरह है जो सदियों के निरंतर
प्रवाह के स्पर्श से शंकर हो जाता है।
छोटे लाल गुप्ता
शोधार्थी
जयप्रकाश विश्वविद्यालय, छपरा (बिहार),
मो.-9085210732
ई-मेल:chhotebabu777@gmail.com
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लोकॉ मति कै भोला रे,
जो कबीर कासी मरे तो रामहि कौन निहोरा रे। (कबीर)
जो कबीर कासी मरे तो रामहि कौन निहोरा रे। (कबीर)
कहबि लोकमत वेदमत। (तुलसी)
देस देस के पंछी बैठे एकै ठॉव
आपनी आपनि
भाषा लेयँ दइश का नॉव। (जायसी)
आज हम परिवर्तन की कामना
में वैश्विकता के पीछे पड़े हैं। इंटरनेट, ईमेल, एस.एम.एस. के युग में लोकानुराग को कुछ लोग गौण
मानते हैं। किन्तु परिवर्तन का अर्थ परंपरा, विरासत और धरोहर को रद्दी टोकरी
में डालना नहीं है। लोकचेतना हमें परंपरा और सामाजिकता से जोड़ती है। निरंतरता की
कड़ी को वह मजबूत करती है। सांस्कृतिक वैविद्य और जीवन रस को पाथेय मानकर आगे बढ़ाने
के लिए यह हमारी मार्ग प्रशस्त करती है।
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