शोध आलेख:‘जोक’ का सामाजिक प्रकार्य एवं मीडिया में हास्य की उपयोगिता/डॉ.मनीषा

त्रैमासिक ई-पत्रिका 'अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati)वर्ष-2, अंक-17, जनवरी-मार्च, 2015
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चित्रांकन: राजेश पाण्डेय, उदयपुर 
साहित्य के समाजशास्त्र में डॉ. नगेन्द्र ने लिखा था कि ‘‘सामान्य रूप से समाज से अभिप्राय सामुदायिक जीवन की ऐसी अनवरत एवं नियामक व्यवस्था से है, जिसका निर्माण व्यक्ति पारस्परिक हित तथा सुरक्षा के निमित्त जाने-अनजाने कर लेते हैं। आरंभ में इस सामुदायिक व्यवस्था का स्वरूप सरल और व्यापक होता है, परंतु विकास के साथ वह क्रमशः जटिल होकर वर्ग-व्यवस्था में परिणत हो जाता है।’’

व्यक्ति का हँसना, रोना, अपना परिवेश तैयार करना, अलग-अलग ढंग से जीवन व्यतीत करना - ये सब बातें किसी न किसी तरह समाज से ही जुड़ी हुई हैं क्योंकि ये सभी कार्य व्यक्ति की परिस्थितियों और उसके समाज से प्रभावित होते हैं। इन्हें परिस्थितियों और उसके समाज का ही एक परिणाम कहा जा सकता है। एरिक फ्रॉम ने भी माना कि मानव के मानसिक विकास पर सामाजिक एवं सांस्कृतिक पर्यावरण का अत्यधिक प्रभाव रहता है। फ्रॉम की दृष्टि में अंतर्द्वन्द्व मानव के समाज के साथ असामंजस्य के परिणाम हैं। ऐसी अवस्था में व्यक्ति स्वयं को शक्तिहीन एवं एकाकी अनुभव करने लगता है जिसके परिणामस्वरूप उसमें पलायन की मनोवृत्ति विकसित हो जाती है। इस स्थिति से बाहर आने के लिए उसे हल्के मूड में वापस आने की ज़रूरत पड़ती है और ‘जोक’ यहाँ कामगार सिद्ध होते हैं।

पहली महत्वपूर्ण बात यह है कि ‘जोक’ कहने का कारण अधिकांशतः सुनाने वाले व्यक्ति को प्रसन्न करना और उसके एकाकीपन और अंतर्द्वन्द्व से उसे मुक्त करना होता है। ‘जोक’ के माध्यम से व्यक्ति के मूड में जो परिवर्तन आता है, वह उसे पुनः समाज से जुड़ जाने का आधार देता है। ‘जोक’ की कल्पना समाज के बगैर करना ही निरर्थक है। ‘जोक’ को सुनने, पढ़ने या कहने के लिए श्रोता, पाठक या वक्ता की आवश्यकता अनिवार्य है और ये समाज का अभिन्न हिस्सा हैं। ‘जोक’ में जो विषय चुने जाते हैं, वे भी व्यक्ति के सामाजिक संबंधों व घटनाओं पर आधारित होते हैं। इस तरह यदि ये सभी प्रमुख स्तंभ ही ‘जोक’ से निकाल दिए जाएं, तो ‘जोक’ का आधार और लक्ष्य दोनों ही समाप्त हो जाएगा।

किसी भी ‘जोक’ पर हम तभी हंसते हैं, जब हम ‘जोक’ को ठीक ढंग से समझ जाते हैं और उस ‘जोक’ में व्याप्त असंगति को भी जान जाते हैं। यह कहा जाता है कि सत्य हमेशा कड़वा होता है क्योंकि उसमें भी असंगति होती है। वह असंगति, जो कई बार हमारे सोचे हुए से परे होती है। यह बात खास तौर पर ध्यान देने वाली है कि जो बात हम गंभीरता के साथ नहीं कह पाते, वही बात हम बड़ी आसानी से मज़ाक में कह जाते हैं। प्राकृतिक रूप से घटित हास्य हमारी गलतियों, गलत विचारधाराओं व गलत निर्णयों का कई बार संकेत कर जाते हैं और तभी जाकर हम उन पर विचार करते हैं। इसी तरह जब हम किसी घटना को हंसी में ले जाकर उसका मज़ाक बनाते हैं, तो अप्रत्यक्ष ढंग से हम उस महत्वपूर्ण घटना का महत्व कम या हल्का कर देते हैं।

‘जोक’ का चाहे निजी हो या सामाजिक, दोनों ही तरह का महत्व है। निजी तौर पर इसका प्रकार्य सुनने या पढ़ने वाले व्यक्ति को हल्का महसूस ;फीलद्ध कराना होता है और उसकी शक्तिहीनता, एकाकीपन और उसके दुःख को कुछ क्षणों के लिए भुलाकर उसे राहत देना होता है। साथ ही ‘जोक’ सुनाने वाला या उसका निर्माता इसके माध्यम से लोगों के बीच वाहवाही लूटता है। मसखरे की हाज़िरजवाबी, कल्पना- दोस्तों को जीतने और लोगों को प्रभावित करने के लिए इस्तेमाल की जाती है। निजी तौर पर इससे लोगों के बीच घनिष्ठता बढ़ती है, मित्रता हो जाती है और शत्रुता की भावनाओं और तनावों में भी कमी आती है। 

‘जोक’ दो विपरीत विचारों को अपने में संजोता है। मान लीजिए कि एक ‘जोक’ किसी ऊपरी विषय को इंगित कर रहा है, जो कि एक हल्का विषय है लेकिन उसी हल्के विषय की आड़ लेकर वह एक अत्यधिक गंभीर विषय का भी इशारा दे रहा है। ऐसी स्थिति में, यदि ‘जोक’ सुनने वाला व्यक्ति उस संदेश की गंभीरता को लेकर बुरा मान जाता है या उसकी निंदा करता है तो उस समय ‘जोक’ सुनाने वाला व्यक्ति उस ‘जोक’ के हल्के विषय वाले अर्थ का बेइमानी से पूरा-पूरा फायदा उठाता है और दावा करता है कि उसका विषय और उद्देश्य तो अगंभीर था। इस तरह ‘जोक’ सुनाने वाला जोक की द्वियर्थता का लाभ उठा सकता है।

उपहासात्मक ‘जोक’ के माध्यम से व्यक्ति अपनी मन की भड़ास को शांत कर सकता है। ‘जोक’ में अनेकार्थता होती है। यह दो तरह की होती है- गंभीर और तुच्छ। पहले जोक की शुरुआत कर ‘जोक’ सुनाने वाला इस बात की जांच कर सकता है कि ‘जोक’ सुनने वाले लोग ‘जोक’ के किस अर्थ को ज़्यादा महत्व दे रहे हैं। यदि उसके ‘जोक’ पर लोग हंसते हैं, तो उसे आश्वासन हो जाता है कि वह इन्हें पसंद करने वाले लोगों के बीच है और यही बात उसे इस बात का संकेत देती है कि वह अपने ‘जोक’ के माध्यम से धीरे-धीरे प्रत्यक्ष निंदा की ओर बढ़ सकता है। इस तरह जो संदेश सामाजिक रूप से अस्वीकार्य होने की वजह से हम व्यक्त नहीं कर पाते, हम वह तुरंत हास्य के पुलिंदे तैयार कर कह सकते हैं। जैसे ‘यौनाकर्षण विषयक जोक्स’। 
अनेकार्थता रखने वाले पूर्वनियोजित ‘जोक’ का प्रयोग करके व्यक्ति खुले तौर पर वह बातें कह सकता है जिसे कहने में झेंप या शर्म महसूस होती है। वह सुनने वालों के बीच इससे जुड़े आकर्षण को द्योतित कर सकता है और मनोवेगों को संतुष्ट कर सकता है। चर्चा के लिए उस विषय का सुझाव देकर उस विषय से जुड़ी चिंताओं को सूचित कर सकता है। 

इस तरह से हास्य को अराजक और विनाश या उग्र भी कहा जा सकता है क्योंकि ये उन विषयों को भी अपने में समेट लेते हैं, जो गंभीरतापूर्वक कहने पर स्वीकार नहीं किए जा सकते। जोक अपने राजनीतिक रंगों को छिपाकर भेरूपिए के वेश में बिना डर के प्रगति करते हैं। जोक में विनाशक विचारों की सामग्री मिली होती है। वे सामान्य और आशापूर्ण बातों से परे होते हैं फिर भी वे विश्व के स्थापित दृष्टिकोणों को मजबूत करते हैं। हालांकि वे इस तरह से तैयार किए गए होते हैं कि वे हमारी मान्यताओं, सत्ता, लोकाचारों को भीतरी तौर पर खोखला व्यक्त करते दिखाई पड़ते हैं।

सामाजिक समूहों में निर्दोष हास्य की अभिव्यक्ति से चिंताएं और शत्रुता की भावना काफी हद तक कम हो जाती हैं और घनिष्ठता पैदा होती है। क्रिस्टोफर पी. विल्सन ने अपनी पुस्तक ‘जोक: फॉर्म, कन्टेन्ट, यूज़ एंड फंक्शन’ में लिखा है कि ‘‘जिस तरह बंद पड़ी मशीन को चलाने के लिए तेल डालने की आवश्यकता पड़ती है, उसी तरह व्यक्ति की नीरस होती जा रही ज़िन्दगी को चलाने के लिए भी हास्य रूपी तेल की आवश्यकता परिहार्य है। सामूहिक उपहास लोकाचार को प्रभावी बनाने के लिए किया जाता है। हास्य तब भी काम आता है जब कोई अपना पक्ष रखते हुए विरोध दर्शाना चाहता है। किसी बात के लिए निजी विरोध की अभिव्यक्ति हेतु हास्य सामाजिक रूप से अनुमोदित साधन बन जाता है।  

इस तरह ‘हास्य’ मनोभाव वस्तुतः व्यक्ति के शरीर पर दैहिक एवं मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालने की क्षमता रखता है। विचारों के प्रवाह में तारतम्य स्थापित करने और शारीरिक व मानसिक विकारों को नष्ट करने के लिए हास्य की आवश्यकता अनिवार्य है। शारीरिक राहत शरीर और मन दोनों को आराम पहुंचाती है। लेकिन इसका प्रभाव शरीर को अधिक और मन को अपेक्षाकृत कम प्रभावित करता है। लेकिन जो चीज़ आपको अच्छा और हल्का महसूस कराए और आपकी मानसिक स्थिति को राहत दे, वह चीज़ अप्रत्यक्ष रूप से आपके शरीर के लिए भी अपने आप फायदेमंद सिद्ध होती है और यह काम ‘हास्य’ करता है। यदि ऐसा न होता तो हास्य हमारे जीवन में उतना महत्वपूर्ण स्थान नहीं ले पाता जितना कि आज यह ले चुका है। आज की भागमभाग भरी ज़िंदगी में इसका हमारे लिए क्या महत्व है इस बात का अनुमान तो यह सोचकर ही लगाया जा सकता है कि आजकल मीडिया में इस वृत्ति को एक विशेष फैक्टर के रूप में ग्रहण किया जा रहा है। 

हिन्दी में ‘नवभारत टाइम्स’, ‘हिन्दुस्तान’, ‘दैनिक जागरण आदि और अंग्रेज़ी का ‘द हिन्दुस्तान टाइम्स’, ‘द टाइम्स ऑफ इण्डिया’, ‘इण्डियन एक्सप्रेस’ आदि अखबारों में आपको एक विशेष कॉलम पढ़ने को मिलेगा जिस पर ‘हैपी मार्निंग’, ‘आज का एस.एम.एस.’, ‘एस.एम.एस. जोक्स’, ‘जोक ऑफ द डे’ आदि शीर्षक से कई ‘जोक’ प्रकाशित किए जाते हैं। इन ‘जोक्स’ में ‘निजी विषयक जोक’ को मुख्य तौर पर शामिल किया जाता है। इसके साथ ही कार्टून चित्रों को भी छापा जाता है। इसका भी अपना ही महत्व है। ये कार्टून और इसके साथ छापी जाने वाली व्यंग्यपूर्ण बातें सामाजिक मुद्दों और विशेष तौर पर राजनीतिक विषयों या मुद्दों पर होती हैं।

कुछ इसी तरह की कोशिश करने में रेडियो एफ.एम. भी पीछे नहीं है। आपको याद होंगे ये कार्यक्रम ‘शर्मा जी से पूछो’, ‘बब्बर शेर’ आदि। ऐसे कार्यक्रम हास्य को केन्द्र बिंदु बनाकर तैयार किए जाते हैं। यही नहीं एफ.एम. के क्रमवार चलने वाले कार्यक्रमों में भी हास्य तत्व को बरकरार रखा जाता है। यहाँ तक कि अधिकतर प्रस्तुतकर्त्ताओं की भाषा भी इसी लहज़े से युक्त होती है। जैसे:-

‘‘रणबीर चाहे कितना भी गिर जाए
लेकिन उसके बाल नहीं गिरेंगे
क्योंकि वो लगाता है क्लीनिक ऑल क्लीयर’’

बाल गिरने की बात के साथ रणबीर ;व्यक्ति के गिरने ;उसके अमानवीय होनेद्ध की बात करके हास्य की स्थिति उत्पन्न की गई है। इसी तरह टेलीविज़न पर प्रसारित किए जाने वाले कार्यक्रमों को देखें। हर टी.वी. चैनल पर इस विषय पर एक विशेष कार्यक्रम देखने को मिलता है। चाहे वह कलर्स पर प्रसारित होने वाला ‘कॉमेडी नाइट्स विद कपिल’ हो या इसी तरह पहले प्रसारित हो चुका ‘द ग्रेट इंडियन लाफ्टर चैलेंज’ हो। ‘द ग्रेट इंडियन कॉमेडी शो’ हो या फिर ‘द कॉमेडी सर्कस’ हो। ये सभी कार्यक्रम हास्य को केंद्र में रखकर बनाए गए हैं। इसी तरह डेली सोप में भी धारावाहिकों की थीम चाहे कोई भी हो लेकिन इस पूरे कॉन्सेप्ट में एक पात्र ज़रूर ऐसा रखा जाता है, जो विशेष तौर पर इसी फैक्टर का प्रतिनिधित्व करता है और दर्शकों द्वारा विशेष तौर पर सराहा भी जाता है। इस तरह के धारावाहिकों में आपको ‘हम पाँच’ याद होगा। इसी तरह पहले दूरदर्शन पर प्रसारित किया जाने वाला ‘फ्लॉप शो’ भी इसी कॉन्सेप्ट पर तैयार किया गया कार्यक्रम था। बच्चों के लिए तैयार किए गए विशेष चैनलों जैसे कार्टून नेटवर्क, पोगो टी.वी. आदि में भी हास्यात्मक कार्यक्रम पेश किए जाते हैं। जैसे इन दिनों बच्चों को खासतौर पर ‘मिस्टर बीन’ और ‘जस्ट फॉर गैग्स’ कार्यक्रम बहुत पसंद आ रहा है। कहने का तात्पर्य यह है कि ‘हास्य’ नाम की यह अवधारणा पहले भी मौजूद थी, लोग पहले भी चुटकुले सुनते थे, धारावाहिक देखकर मज़े लिया करते थे लेकिन अभी कुछ समय से इस विषय पर बहुत ज़्यादा ज़ोर दिया जा रहा है। इतना कि अब टेलीविज़न पर दिखाए जाने वाले समाचार श्ी इस फैक्टर को प्रयोग करने में पीछे नहीं रहना चाहते और उनके पूरे दिन के समाचार प्रसारण में एक कार्यक्रम हास्य पर अवश्य रखा जाता है। इस संदर्भ में पहले प्रसारित किया जाने वाला ;शेखर सुमन की एंकरिंग मेंद्ध ‘पोल-खोल’ शीर्षक कार्यक्रम का नाम लिया जा सकता है। इस कार्यक्रम में राजनीतिक व्याख्यान और खबरें तो सुनाई जाती थीं लेकिन एक अनोखे अंदाज़ में। साथ ही राजनीतिक पात्रों की पोल भी खोली जाती थी। इन वक्तव्यों पर शेखर सुमन अपनी टिप्पणियां भी देते चलते थे। व्यंग्यात्मक लहज़े का प्रयोग इस कार्यक्रम की प्रमुख विशेषता थी। इस तरह विषयवस्तु भी वही रहती और फैक्टर का प्रयोग भी हो जाता। यानि समाचार का समाचार, व्यंग्य का व्यंग्य और हंसी की हंसी। इसी तरह सिनेमा जगत में भी इस फैक्टर पर आधारित कई फिल्में तैयार की गई हैं। इन फिल्मों में ‘क्या कूल हैं हम’, ‘हेरा-फेरी’, ‘पार्टनर’ जैसी फिल्मों का नाम गिनाया जा सकता है। इस कॉन्सेप्ट पर तैयार फिल्मों में अधिकतर ‘सेक्सुअल कॉमेडी’ को आधार बनाया जाता है। पहले भी फिल्मों में कॉमेडी को हिस्सा बनाया जाता था लेकिन उस कॉमेडी का एक दायरा था। प्रश्न उठता है कि चाहे वह प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, आखिर क्यों इस फैक्टर को पहले के मुकाबले इतना विशेष स्थान दिया जा रहा है? समाचार चैनलों और अखबारों का काम तो आमजन तक देश-विदेश की खबरें पहुंचाना होता है फिर क्यों इन चैनलों को इस फैक्टर की आवश्यकता पड़ गई?

दरअसल परिवर्तन प्रकृति का नियम है और समाज प्रकृति का अंग है इसलिए सामाजिक परिवर्तन स्वाभाविक है। व्यक्ति को लाइट फील कराना-इस उद्देश्य से भी हास्य की मांग बढ़ी है और फिर जब समाचार चैनलों में लोगों की आस्थाओं को निशाने पर लगा दिया गया हो, तिलिस्मी तांत्रिक कार्यक्रमों, डरावनी घटनाओं जैसी सामग्रियों को भी न छोड़ा गया हो तो फिर ‘हास्य’ तो आज का हिट फार्मूला है। इस प्रतियोगितात्मक दुनिया में सफलता के फार्मूले को कोई नहीं छोड़ना चाहता और हास्य से जुड़े सफलता के इस फार्मूले को लपकने में इंटरटेंमेंट चैनल भी किसी तरह से पीछे नहीं रहना चाहते। हास्य के डिमांड में होने की एक और वजह हो सकती है। हर एक व्यक्ति समय के अनुसार कुछ नया करना चाहता है। हो सकता है कि इस कॉन्सेप्ट को जब ज़हन में उतारा गया और एक प्रयोग के तौर पर इसे प्रस्तुत किया गया हो, तब इसे अच्छी खासी सफलता मिली हो और श्रोताओं, पाठकों, व दर्शकों की इसने अच्छी संख्या बटोरी हो। किसी कार्यक्रम की टी.आर.पी. को ध्यान में रखकर प्रायोजक भी प्रयत्न करते हैं कि वह भी उसी फैक्टर को ग्रहण करें, जो सफलता दिला सकता हो। कुछ ऐसा ही कारण हास्यपरक कार्यक्रमों की बढ़ती हुई डिमांड का भी हो सकता है।

अखबारों को पढ़ने का उद्देश्य यही होता है कि वह देश में घटित घटनाओं की जानकारी पढ़ने वालों को दें। अखबारों में कार्टूनों और ‘एस.एम.एस. जोक’ शीर्षक के माध्यम से इस फैक्टर को उपयोग में लाए जाने का कारण भी व्यक्ति के जीवन की बढ़ती वही नीरसता, भाग-दौड़ और समय की कमी है। समाचार-पत्र प्रकाशकों को ज्ञात है कि व्यक्ति के जीवन में समय का कितना अभाव है और जो समाचार व्यक्ति को समाचार-पत्रों के माध्यम से प्राप्त होते हैं देश-विदेश और अन्य वही जानकारियाँ उसे रेडियो या फिर टी.वी. या इंटरनेट ;और आजकल तो फेसबुक और वॉट््सएप ने दुनिया को जोड़ दिया हैद्ध के माध्यम से आसानी से प्राप्त हो सकती हैं और फिर एक दो को छोड़कर वही घिसी-पिटी खबरों को पढ़ने, वही चोरी, डकैती, लूटमार, बाढ़, बलात्कार, क्रमवार एक ही तरह की चीज़ों से भी पाठक ऊब सा जाता है। ये ऊबाऊपन, व्यक्ति के जीवन में बढ़ती नीरसता और भाग-दौड़ की वजह से अब और ज़्यादा महसूस की जा रही है। इसलिए अखबारों में बॉलीवुड की चटपटी खबरों की तरह एक बड़ा न सही लेकिन मनोरंजनपूर्ण कॉलम ‘एस.एम.एस. जोक्स’ के रूप में रखा गया है और इसीलिए बीच के पृष्ठों मे कार्टूनों को छापकर या फिर आरंभ या अंत में ‘एस.एम.एस. जोक’ को प्रकाशित कर लोगों को हल्का महसूस कराने की कोशिश की जाती है। हर 3 में से 2 विज्ञापन भी मज़ाकिए अंदाज़ को पेश करते हैं। रेडियो पर तो जोक को समझना एक चुनौतीपूर्ण कार्य होता है क्योंकि हम उस चीज़ को देख नहीं सकते सिर्फ सुन सकते हैं। सिर्फ बोलकर श्रोताओं को उस वातावरण में बांधना बहुत मुश्किल काम होता है। लेकिन फिर भी वे ये काम करते हैं क्योंकि यदि कोई माध्यम एक सफल कुंजी को जानते हुए भी उसका इस्तेमाल न करे, तो उसके लिए यह अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसी बात ही होगी।

इस तरह मीडिया में हास्य की क्या उपयोगिता है इस संदर्भ में दो बातें उभर कर आती हैं। एक यह कि वह लोगों का इस तरह के कार्यक्रमों के माध्यम से मनोरंजन करना चाहता है। व्यक्ति की ज़िंदगी की नीरसता, काम की भागदौड़ इन सभी हालातों को वह समझ रहा है और इस फैक्टर का प्रयोग कर वह आम व्यक्ति के जीवन में स्फूर्ति जगाना चाहता है। लेकिन दूसरी सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आज की तारीख में मीडिया एक बाज़ार है। ऐसा बाज़ार जहां होड़ है- एक दूसरे से आगे बढ़ जाने की। इसी एवज में अधिकाधिक लाभ कमाने और अपने साम्राज्य का यथासंभव विस्तार करने के लिए टिकाऊ संघटकों यथा विवादास्पद घटना और विशिष्ट व्यक्तियों के जीवन की चटपटी रिपोर्टिंग ;फिल्म जगत कीद्ध आदि बातों को प्रमुखता देना, जातीय एवं साम्प्रदायिक तनाव बढ़ाने वाली सनसनीखेज़ खबरों तथा सेक्स फार्मूलों का इस्तेमाल बहुतायत से किया जाने लगा है। हास्य का एक कार्यक्रम जब टी.आर.पी. रेटिंग में काफी हद तक ऊंचा चढ़ जाता है तो बाकी चैनलों व माध्यमों ;रेडियो, समाचार-पत्रोंद्ध में भी उसे अपनाया जाता है ताकि यह हिट फार्मूला उन्हें भी हिट कर दे और वे भी उनमें अर्थदोहन कर सकें। मीडिया बाज़ारवाद की प्रवृत्ति को ग्रहण किए हुए है। बाज़ार जहां लाभ देगा वहां वह स्वयं भी मुनाफा कमाएगा। हास्य के कार्यक्रमों में कोई बंधन नहीं रखा जाता। सुनाने वाला जब सामने बैठे मुख्य अतिथि को ही ‘जोक’ के माध्यम से गाली देता है, तब भी लोग हंसते हैं।

डॉ. मनीषा
सहायक प्रबंधक
भारतीय रिज़र्व बैंक, मुम्बई
ई-मेल:manishakumari82@rediffmail.com
भारतीय समाज परंपराओं में बंधा समाज है। परंपरागत समाज सदैव लक्ष्य प्रेरित होते हैं। अतः ऐसे समाज में बोरियत, अकेलेपन जैसी कोई चीज़ नहीं होती। ऐसे समाज मानवीय भावनाओं से संग्रहित होते हैं। वहाँ मानव जीवन का विशिष्ट अर्थ होता है। लेकिन इसी समाज में व्यक्ति को एकाकीपन महसूस कराया गया और उसके लिए ऐसी स्थितियां बनाई गई जिससे वह उत्पादों के आदि हो जाएं। उसे व्यस्त बनाया गया है। और अब जब व्यक्ति की ज़िंदगी में ज़रा भी फुर्सत नहीं बची तो हास्य को प्रयोग करके उपाय के रूप में प्रस्तुत किया गया और अप्रत्यक्ष रूप से उसी फैक्टर से हर तरह के विषयों को समेटकर ;स्त्रियों पर, सेक्स संबंधी ‘जोक’द्ध अपनी टी.आर.पी. रेटिंग को बढ़ाने का हिट फार्मूला इस्तेमाल किया गया। अतः मीडिया में हास्य की उपयोगिता यदि व्यक्ति को लाभ देती है तो उनसे मुनाफा भी कमाती है। 

  
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  • विल्सन, क्रिस्टोफर पी., ‘जोक्सः फॉर्म, कन्टेन्ट, यूज़ एंड फंक्शन’, प्रथम संस्करण 1979, अकादमी प्रेस लंदन।             

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