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संत साहित्य में गुरु की महत्ता को प्रधान रूप से स्वीकारा गया है। समस्त संत ईश्वर प्राप्ति हेतु गुरु महिमा का बखान करते हैं ‘गुरु गोविंद दोउ खड़े‘ वाली उक्ति तो साहित्य जगत् में अति प्रसिद्ध है। संत साहित्य के पुरोधा कबीर ने तो सतगुरु की महिमा का बखान इन शब्दों में किया -
‘‘सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपगार।
लोचन अनंत उघाड़िया, अनंत दिखावणहार।।''
इस प्रकार संत कबीर यह मानते है कि ईश्वर प्राप्ति का मार्ग गुरु के माध्यम से ही जाता है। सतगुरु के पास सुविद्या रूपी ऐसा हथियार होता है। जिसके एक ही प्रहार से शिष्य का ‘मैं‘ अर्थात् अहंकार तŸव समाप्त हो जाता है।
गुरु ही महत्ता को संत दादूदयाल भी स्वीकारते हैं। वे कहते हैं कि सतगुरु मुझे सहज में ही मिल गए और मुझ पर इतनी कृपा की, कि मैं निर्धन प्राणी उनकी कृपा से धनवान बन गया अर्थात् राम नाम रूपी बहुमूल्य धन की प्राप्ति हो गई। उनकी कृपा से ही अंधकार नष्ट हुआ और ज्ञान रूपी दीपक प्रदीप्त हो पाया है। दादूदयाल कहते हैं कि यह तो सद्गुरु की ही कृपा है कि जिससे मुझे दयाल (दयालु ईश्वर) के दर्शन हो पाये हैं-
‘‘दादू देषू दयाल की, गुरु दिषाई बाट।
ताला कूंची लाई करि, षोले सबै कपाट।‘‘
दादूदयाल जी |
‘‘संत मत वालों ने उपासना का मार्ग बताने वाला एक मात्र गुरु को माना है। गुरु का माहात्म्य इनमें इतना अधिक है कि पंथों का नाम आदिगुरु के नाम पर चलता है। आगे चलकर फिर कोई विशेष आचार पर ध्यान देने वाला नया गुरु हो जाता है तो एक पंथ से दूसरा पंथ फूट निकलता है।‘‘ संत दादूदयाल कहते हैं गुरु, ईश्वर प्राप्ति का वह सरल-सहज मार्ग बता सकते हैं जो वेद कुरान आदि ग्रंथों में भी वर्णित नहीं है। अर्थात् केवल शास्त्रों का अध्ययन ही पर्याप्त नहीं, सद्गुरु की कृपा भी अनिवार्य है। दादूदयाल का कहना है कि सद्गुरु की कथनी को जो शिष्य अपने जीवन में नहीं उतारता है तो समझिए की वह काल के पास जा रहा है और जो साधक सच्चे दिल से स्वीकारता है वह बिना किसी भय के अमर पद को प्राप्त करता है -
‘‘दादू बरजै सिष करै, क्यूं करि वंचै काल।
दह दिष दैषत बहि गया, पाणी फोड़ी पाल।।
दादू सतगुरु कहै सुसिष करै, सब विधिकारज होई।
अमर अभै पद पाइये, काल न लागे कोई।।‘‘
संत हिंसा के प्रबल विरोधी थे। वे संसार के प्रत्येक पशु-प्राणी और मानव मात्र के प्रति प्रेम पूर्ण अहिंसक व्यवहार के पक्षधर थे। वे किसी को भी मन-वचन-कर्म से पीड़ा नहीं पहुंचाने का संदेश देते हैं। संत दादूदयाल का मत है कि -
‘‘दादू कोई काहू जीव की, करै आतमा घात।
साच कहौ संसै नहीं, ते प्राणी दोजग जात।।‘‘
संत दादूदयाल का मानना है कि मांसाहारी व्यक्तियों के हृदय से दयाभाव नष्ट हो जाता है और दयाहीन हृदय में कभी भी राम का वास नहीं हो सकता -
‘‘मांस अहारी मद पिवे, विषय विकारी सोई।
दादू आतम राम बिन, दया कहां थी होइ।।‘‘
सभी संतों ने ईश्वर प्राप्ति एवं सफल जीवन जीने लिए सत्संगति की महत्ता को स्वीकारा है। लोक की मान्यता है कि व्यक्ति जिसकी संगति में रहता है उसके गुण अवश्य ही ग्रहण करता है। कहा भी गया है -
‘‘कदली सीप भुजंग मुख, स्वाति एक गुण तीन।
जैसी संगति बैठिए तैसों ही फल दीन।।’’
स्वयं कबीर ने भी संत्संगति की महत्ता को स्वीकारा है एवं बुरी संगति का विरोध किया है। कबीर कहते हैं कि -
‘‘कबीर तन षंषी भया, जहाँ मन तहाँ उड़ि जाई।
जो जैसी संगति करै, सो तैसे फल खाई।।’’
दादूदयाल भी कहते हैंं कि जहाँ संत जन हैं अर्थात् सज्जनों की संगति है, वहाँ ईश्वर का वास होता है। सत्संगति से ही ईश्वर की प्राप्ति संभव हैं। दादू की दृष्टि में सच्चा सत्संग वही है जिसमें व्यक्ति सांसारिक विषय-वासनाओं से मुक्त होकर ईश्वर की ओर गमन करता है। वे कहते हैं -
‘‘दादू भाव भगति उपजै नहीं, साहिब का परसंग।
विषै विकार छूटै नहीं, सो कैसा सत्संग।।’’
व्यक्ति जिसकी संगति में रहता है उसका गुण अवश्य ग्रहण करता है। इसी कारण सभी संतों ने सत्संग की महत्ता का प्रतिपादन किया है। संत कबीर का भी मानना है कि -
‘‘कबीर संगति साध की, कदे न निरफल होई।
चंदन हौसी बावना, नीब न कहसी कोई।।
कबीर संगति साध की, बेगि करीजैं जाई।
दुरमति दूर गँवाइसी, देसी कुमति बताई।।’’
संतों का ईश्वर अवतारी ईश्वर नहीं है, वह घट-घट और कण-कण में समाया होता है। उसकी प्राप्ति का मार्ग बाहर संसार से होकर नहीं जाता उसके लिए मनः परिष्कार अनिवार्य है। जब तक हमारा मन काम, क्रोध लोभ, मद और मोह आदि विकारों में रमता है तब तक ईश्वर से साक्षात्कार संभव नहीं हैं। जीवन के इसी सत्य के साक्षी होने के कारण संतों ने धर्म के मार्ग पर मनः परिष्कार की महत्ता का प्रतिपादन किया है।
संत दादूदयाल ने मन रूपी माला को फेरने पर बल दिया। उनका मानना था कि ईश्वर के समस्त स्थान तो हमारे घट में ही हैं इसलिए ईश्वर का वास भी हमारे मन में ही है अतः बाहरी भटकाव की अपेक्षा मनः परिष्कार का कार्य करना चाहिए। वे कहते हैं-
‘‘दादू मंझे चेला, मंझि गुरु, मंझे ही उपदेश।
बाहरि ढूंढे बावरे, जहा बँधाये केस।।
मनका मस्तक मूंडिये, काम क्रोध के केस।
दादू विषै विकार सब, सतगुरु के उपेदस।।’’
संत दादूदयाल का कहना था कि जिस व्यक्ति का मन रूपी दर्पण उज्ज्वल है, वही व्यक्ति साहिब का दीदार कर सकता है। यदि मन मैला हो तो कितने ही सांसारिक प्रयास किए जाएं ईश्वर प्राप्ति संभव नहीं है। उनका मानना था कि यदि मन रूपी हाथी यदि एक बार अंकुश हीन हो जाए तो फिर उसे बंधन में बाँधना कठिन है। सैकड़ों महावत मिलकर भी उसे बाँधने में सक्षम नहीं हो पाते हैं इसलिए मन पर नियंत्रण रखना बहुत आवश्यक है। उनका मानना है कि जब तक मन के विकार नष्ट नहीं हो जाते तब तक ध्यान लगाने से कोई लाभ नहीं। वे कहते हैं -
‘‘दादू ध्यान धरै का होत है, जे मन नहिं निर्मल होय।
तो बग ही सब उद्धरै, जे इहि, विधि सीझे कोय।।’’
संत सदैव जन कल्याण करते थे और समाज को भी जनकल्याण का संदेश देते थे। संत रैदास कहते हैं कि -
‘‘संतन के मन होत है, सब के हित की बात।
घट-घट देखें अलख को, पूछें जात न पात।।’’
संतों ने समाज को भी यही संदेश दिया कि हमें जात-पाँत में विश्वास किए बिना सभी के साथ समभाव से व्यवहार करना चाहिए। दादू एक मात्र ईश्वर तत्व में विश्वास करते हैं और पूरे मन, वचन और कर्म से उसकी ही आराधना करते हैं-
‘‘दादू एक सगा संसार में, जिनि हम सिंरजे सोई।
मनसा वाचा क्रमनां, और न दूजा कोई।।‘‘
सदाचरण की शिक्षा देते हुए दादूदयाल पतिव्रता एवं व्यभिचारिणी का रूपक लेकर पतिव्रत धर्म निर्वहन का संदेश देते हैं। संत दादूदयाल कहते हैं कि जो जीवात्मा पतिव्रता है उसका स्वामी एक ही परमात्मा है और वही उसका सब कुछ है। वह अन्य सांसारिक विषयासक्तियों की ओर भटकती नहीं है-
‘‘करामात कलंक है, जाके हिरदे एक।
अति आनंद व्यभिचारिणी, जाके खसम अनेक।।
दादू पतिव्रता के एक है, व्यभिचारिणी के दोय।
पतिव्रता व्यभिचारिणी, मेला क्यों कर होय।।’’
अहंकारी लोगों को भी दादू यह समझाते हैं कि इस संसार से कुछ भी साथ नहीं जाता है अतः हमें अनावश्यक अहंकार नहीं करना चाहिए। रूप धन आदि सभी इस संसार में रह जाते हैं। बड़े-बडे़ राजाओं को भी यहाँ से खाली हाथ ही लौटना पड़ा है अतः किसी भी व्यक्ति को इन बातों का लोभ नहीं रखना चाहिए। दादूदयाल कहते हैं कि सज्जन पुरुषों को काम, क्रोध से दूर रहते हुए ईश्वर नाम का स्मरण करना चाहिए। उनका मानना था कि संसार के गमन का मार्ग और साधु (सज्जन) पुरुषों का मार्ग भिन्न होता है। सज्जनों को सद्मार्ग का ही चयन करना चाहिए-
‘‘नृपष रहणां रामं रामं कहणां, काम क्रोध में देह न धरणां
जैणे मारगि संसार जाइला, तैणे प्राणी आप वहाइला।।
जे जे करणि जगत करीला, सो करणी संत दूर धरीला।।
जैणें पंथै लोग राता, तेणैं पंथै साध न जाता।।
ढाइ रांम रांम अैसे कहिये, रांम रांम रमत रामहि मिलि रहिये।।‘‘
इस प्रकार संतों एवं भक्तों ने कर्म की महत्ता को स्वीकार किया है। संत निष्काम कर्म के पक्षधर थे। उनका मानना था कि हमें कर्म करते रहने चाहिए और फल की कामना के प्रति विशेष आग्रह नहीं रखना चाहिए। कर्म के अनुसार फल की प्राप्ति हमें सहज रूप से ही हो जाती है। गीता में श्रीकृष्ण ने भी निष्काम कर्म का संदेश दिया है-
‘‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्म फल हेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्तवकर्मणि।।’’
अर्थात् कर्म की महत्ता की बात हमारे आर्ष ग्रंथ भी करते हैं। हमारे संतों ने भी कर्म की महत्ता स्वीकार की है। वे भी निष्काम कर्म के अभिलाषी थे। संत दादूदयाल स्वार्थी और निस्वार्थ की चर्चा करते हुए बताते हैं कि एक मात्र राम या फिर साधु पुरुष ही संसार में ऐसे हैं जो अपना मन निर्मल रखते हुए निस्वार्थ एवं निष्काम प्रेम से बंधे होते हैं -
‘‘दादू आप सवारथ सब सगै, प्राण सनेही नांहि।
प्राण सनेही राम है, कै साधू कलि मांहि।।’’
ईश्वर के मार्ग पर बढ़ने से पहले जो कर्म सांसारिक भौगादि साधक को प्रिय लगते थे उन्हीं सांसारिक भोगादि से मानव का मोह घटता जाता है जब वह ईश्वर के पथ पर अग्रसर होता है-
‘‘जब विरहा आया दरद सौं, तब मीठा लागा राम।
काया लागी काल ह्वै, कड़वे लागे काम।।’’
दादूदयाल बताते हैं कि साधु पुरुष सदैव राम नाम के ध्यान में निरत रहता है जबकि संसारी माया का ध्यान करते हैं। किंतु जीवन के यथार्थ का मान साधु पुरुष को ही हो पाता है जबकि संसारी माया के आवरण में ही उलझा रहता है। यदि निष्काम भाव से कोई साधक कर्म करे तो उसका सगुण भी धीरे-धीरे निर्गुण होने लगता है। निष्काम कर्म से साधक के कोटि विघ्न टल जाते हैं-
‘‘दादू सांई कूं संभालता, कोटि विघन टल जांहि।
राई मान विसंधरा, केते काठ जलाहिं।।’’
संत साहित्य समर्पण का साहित्य है। यहाँ साधक अपना संपूर्ण जीवन ईश्वर के भरोसे छोड़ देता है। सत् कर्मों में संलग्न रहने वाला साधक सुख में सुखी और दुःख में अपने को दुःखी नहीं मानता है। वह जानता है कि ईश्वर उसे जिस दशा में रखना चाहता है उसे उसी हालत में रहना है। अतः संत कवि ईश्वरीय सत्ता के समक्ष मन, वचन और कर्म से पूरी तरह समर्पित रहते थे। उनका मानना था कि जब तक पूर्णरूपेण समर्पण नहीं तब तक ईश्वर से साक्षात्कार संभव नहीं है।
संत दादूदयाल को लगता है कि इस संसार में राम नाम के बिना जो कुछ भी है वह सब व्यर्थ का है। संसार में सुख-दुख तो आते-जाते रहते हैं किंतु राम नाम शाश्वत है और जो इस शाश्वत सत्य को स्वीकारता है वह भवसागर से पार जाता है। जो सहज रूप से उस राम की शरण में जाता है उसके विकार स्वतः ही नष्ट हो जाते हैं और उसका मन निर्मल हो जाता है। दादूदयाल कहते हैं कि-
‘‘दादू राम नाम निज वोषदि, काटै कोटि विकार।
विषम व्याधि थैं ऊबरै, काया कंचन सार।।
राम के चरणों में समर्पित होते हुए दादूदयाल तो इतना तक कह देते हैं कि-
‘‘दादू कहतां सुनतां राम कहि, लेतां देतां राम।
षातां पीतां राम कहि, आतम कवल विश्राम।।’’
ईश्वर की सामर्थ्य का वर्णन करते हुए दादूदयाल कहते हैं कि वो परम ब्रह्म ईश्वर इतना शक्तिशाली है कि पलभर में हाथी को चींटी और चींटी को हाथी कर सकता है। अर्थात् सामर्थ्यवान को कमजोर और कमजोर को सामर्थ्यवान कर सकता है। उनको इतना विश्वास है कि जब ईश्वर ने उन पर कृपा कर दी तो अब कलियुग के कुप्रभाव उस पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकते हैं। वह राम इतनी सामर्थ्य वाला है कि सच्चा साधक उनके सम्मुख जो मांग रखता है, वह अवश्य ही पूरी हो जाती है। संत दादूदयाल का अपने आराध्य के प्रति समर्पण का भाव हम निम्नलिखित उदाहरण से भी समझ सकते हैं -
‘‘साई तेरे नाम पर, शिर जीव करूँ कुरबाण।
तन-मन तुम पर वारणे, दादू पिंड परांण।।’’
विभिन्न उदाहरणों का सहारा लेकर भी संत दादूदयाल ईश्वर के प्रति अपने सच्चे समर्पण को अभिव्यक्ति देते हैं। वे कहते हैं कि मछली एक क्षण के लिए भी पानी के बिना नहीं रह सकती ठीक वैसे ही वे हर समय प्रभु भक्ति में लीन रहना चाहते हैं। जैसे पतंगा दीपक को ही सर्वस्व मानकर उसमें गिर जाता है, ठीक वैसे ही दादू ब्रह्म के ध्यान में लीन रहना चाहते हैं। समर्पण की इस श्रेष्ठ दशा में पहुँचने पर उन्हें सारी दृष्टि ही राममय दिखती है। वे कहते हैं -
‘‘तनही राम मनही रांम, राम रिदै रमि राषी लै।
मनसा राम सकल परिपूरण, सहजि सदा रष चाषी ले।।
नैना राम वैना राम, रसनां राम संभारी लै।
श्रवणा राम सनमुष राम, रनिता राम बिचारी लै।।‘‘
इस प्रकार कहा जा सकता है कि संतों के यहाँ समर्पण प्रमुख है। वे अपने आराध्य के चिंतन स्मरण को ही सब कुछ मानते हैं। उसके बिना यह सारा संसार उनके लिए व्यर्थ है।संत साहित्य जीवन को व्यापकता से देखने का साहित्य है। वह यह मानता है कि धर्म के मार्ग पर चलने वाले साधक को जब गुरुकृपा रूपी अमृत तत्त्व की प्राप्ति हो जाती है तो वह निश्चित ही ईश्वर को प्राप्त करता है। अहिंसा का आचरण उसके मन में दया के भाव संचरित करता है जिससे कि ईश्वर के प्रति उसका समर्पण बढ़ता है। यही पूर्ण समर्पण साधक को ईश्वर की प्राप्ति में सहायक सिद्ध होता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि संतों का धर्म व्यापक था। वह विविध संकीर्णताओं और आडम्बरों से पूरी तरह मुक्त था।
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