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चित्रांकन: राजेश पाण्डेय, उदयपुर |
हिन्दी साहित्य में प्रेमचंद और फणीश्वरनाथ रेणु दोनों ही कथा साहित्य में नया आयाम प्रस्तुत करने वाले रचनाकार रहे हैं। हिन्दी उपन्यास में प्रेमचंद के आगमन से नए युग का प्रारम्भ हुआ था। साहित्य मानव जीवन से पृथक होकर अपने अस्तित्व का निर्माण नहीं कर सकता और स्त्री मानव जीवन का प्रमुख अंग है। इसीलिए कहा जा सकता है कि स्त्री और साहित्य का शाश्वत सम्बन्ध है। स्त्री किसी भी वर्ग की हो उसकी समस्याएं उन्हें एक ही बिन्दु पर लाकर जोड़ देती है। "स्त्री समाज एक ऐसा समाज है जो वर्ग, नस्ल, राष्ट्र आदि संकुचित सीमाओं के पार जाता है और जहाँ कहीं दमन है, चाहे जिस वर्ग, जिस नस्ल की स्त्री त्रस्त है-वह उसे अपने परचम के नीचे लेता है।" (स्त्रीत्व का मानचित्र, अनामिका पृ.सं. 15, सारांश प्रकाशन, दिल्ली, 1999) इसीलिए कहा जा सकता है कि स्त्री और साहित्य का शाश्वत सम्बन्ध है। साहित्य की अन्य विधाओं से ज्यादा उपन्यास में स्त्री-जीवन को विस्तारपूर्वक अभिव्यक्ति प्राप्त हुई है।
उपन्यास के प्रारम्भ से ही स्त्री-जीवन के विभिन्न पक्षों को लक्षित किया जाने लगा था। इस संदर्भ में मैनेजर पाण्डे का कहना है-"उपन्यास ने अपने उदयकाल से ही स्त्री की पराधीनता के बोध और स्वतन्त्रता की अवश्यकता की ओर संकेत किया है।" (आलोचना की सामाजिकता, पृ.सं. 253, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्र.सं. 2005) हिन्दी में उपन्यास का उदय ही समाज में स्त्री की स्थिति के बोध के साथ हुआ था। परन्तु प्रारम्भिक दौर में स्त्री-जीवन के चित्रण में उपन्यासकारों को विशेष सफलता प्राप्त नहीं हुई क्योंकि उपन्यासकारों की स्त्री-दृष्टि पर मुख्यतः सामन्ती प्रवृत्ति हावी थी। इसीलिए अधिकांश उपन्यासकार सुधारवाद, मनोरंजन, उपदेश एवं कल्पनाओं की तर्ज़ पर स्त्री-जीवन के प्रश्नों को उठा रहे थे। जिस प्रकार प्रेमचंद के आगमन से उपन्यास विधा को परिपक्वता प्राप्त हुई उसी प्रकार स्त्री-जीवन का सजीव, आदर्श एवं यथार्थ रूप भी प्रेमचन्द के उपन्यासों से उत्कृष्टता प्राप्त कर सका। प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों में हर वर्ग की स्त्री के जीवन संघर्ष को प्रस्तुत किया है लेकिन ग्रामीण स्त्री के संघर्षों को उन्होंने अधिक मार्मिकता से उठाया है।
कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद |
पारम्परिक भारतीय समाज में आधुनिकता
के तत्त्वों एवं गुणों के समावेश, समायोजन एवं आत्मसात्करण
की प्रक्रिया को तीव्र करने में 19वीं सदी से ही लेखकों की
सक्रिय भूमिका रही है। इस सक्रियता की जो परम्परा स्थापित हुई वह आज तक गतिशील है।
प्रायः सभी प्रसिद्ध रचनाकारों ने आधुनिक संस्कृति की धारा के साथ अपने आपको
जोड़कर राष्ट्रीयता, मानवीयता, व्यक्तिगत
स्वतन्त्रता सामाजिक-वैज्ञानिक मानसिकता जैसे आधुनिक मूल्यों को अपनी रचनाओं में
ग्रहण किया। प्रेमचंद और फणीश्वरनाथ रेणु ने इस परम्परा को आत्मसात करने के
साथ-साथ समाज की जड़ों में जाकर जीवन के सर्वांगीण गहन अवलोकन का नया कीर्तिमान
स्थापित किया। इसीलिए उनके साहित्य में स्त्री-जीवन का भी सर्वांगीण और सूक्ष्म
अवलोकन मिलता है।
दोनों रचनाकारों ने स्त्री सम्बन्धी
जिन विषयों को प्रस्तुत किया वे समग्रतः स्त्री-प्रश्न के रूप में सामने आते हैं। ‘स्त्री-प्रश्न’
को स्पष्ट करते हुए जॉन स्टुअर्ट मिल ने कहा है- "परिवार,
मातृत्व और शिशुपालन सहित समस्त सामाजिक गतिविधियों एवं संस्थाओं
में स्त्रियों की भूमिका, अन्य सामाजिक, आर्थिक शोषण उत्पीड़न और स्त्री-मुक्ति से जुड़ी सभी समस्याओं का जटिल
समुच्च है- स्त्री- प्रश्न।" (स्त्रियों की पराधीनता, पृ.सं.10,
राजकमल विश्व क्लासिक, प्र.सं. 2002, पहली आवृत्ति, 2003) आज विमर्शों के दौर में स्त्री
प्रश्न स्वयं महिलाएं सशक्त वाणी में उठा रही हैं। जिस समय प्रेमचंद और रेणु अपने
उपन्यासों का सृजन कर रहे थे,तब स्त्री समस्याएं और जटिल थी।
ग्रामीण स्त्री अपनी स्थिति को नियति मानकर जी रही थी। मध्यगर्वीय स्त्री तो
स्वतंत्रता की ओर अग्रसर हो रही थी, लेकिन ग्रामीण स्त्री अब
भी अपने खोल में सिमटी हुई थी। प्रेमचंद का महत्त्व यह है कि अपने पूर्ववर्ती
लेखकों से विषयवस्तु लेकर भी वे उसे उसी तरह से प्रस्तुत नहीं करते जैसे उनके
पूर्ववर्ती लेखक करते थे। इनसे पहले लेखक सनातन हिंदू आदर्शों के समर्थन में
भारतीय समाज में पुरुष वर्चस्व को ही महत्त्व दे रहे थे। यह मूलतः सामन्ती दृष्टि
थी, जो स्त्री की पराधीनता को ही उसके जीवन का सबसे बड़ा
सत्य मानकर चलती थी। प्रेमचंद ने भारतीय समाज में नारी की व्यापक पराधीनता के सवाल
को उठाया था। साहित्य में प्रेमचंद के आगमन से जहाँ उपन्यास विधा को परिपक्वता
प्राप्त हुई, वही साहित्य से स्त्री संबंधी सामन्ती दृष्टिकोण की पकड़ भी शिथिल होने
लगी थी। प्रेमचंद ने स्त्रियों को पुरुषों के समकक्ष रखा। पारिवारिक स्तर पर उसका
शोषण भले ही कम न हुआ हो, परन्तु आर्थिक संघर्ष में वह पुरुष
की सहगामी बनी जैसे गोदान की धनिया। जिस समय प्रेमचंद रचना कर रहे थे उस समय देश
व्यापी स्वतंत्रता-आंदोलन छिड़ा हुआ था। प्रेमचंद ने स्वाधीनता आन्दोलन को गति
देते हुए, इन आन्दोलनों में स्त्री की भूमिका को महत्त्व
दिया। प्रेमचंद की सबसे बड़ी विशिष्टता यह थी कि इन्होंने हर वर्ग की स्त्री की
समस्या को उठाया। भारतीय स्त्री को पारम्परिक अर्थों में परिभाषित कर उनके शोषण और
संघर्ष को अभिव्यक्ति दी।
मिला आँचल के सर्जक फणीश्वरनाथ रेणु |
प्रेमचंद का मानना है कि एक
ही स्थान पर त्याग, सेवा और पवित्रता का केन्द्रित होना ही
नारी का आदर्श है। वह बिना फल की आशा के त्याग करे। जबकि रेणु ने सीमोन द बोउवार
के कथानुसार "औरत को औरत होना सिखाया जाता है"( द सेकंड सेक्स -अनुवाद स्त्री
उपेक्षिता-प्रभा खेतान, पृ.सं. 19
हिन्दी पॉकेट बुक्स, नवीन संस्करण, 2002, पहला रिप्रिंट 2004) की तर्ज़ पर स्त्री समुदाय को
प्रस्तुत किया। प्रेमचंद और फणीश्वरनाथ रेणु दोनों ही दो प्रमुख युगों का प्रतिनिधित्व
करते हैं। प्रेमचंद स्वतंत्रता पूर्व स्त्री को सामने लाने के प्रयास में थे,वहीं रेणु स्वातन्त्रयोत्तर समाज के स्त्री की स्थिति को उजागर कर भारतीय समाज के समक्ष प्रश्न
खड़ा कर रहे थे। इस संदर्भ में मैनेजेर पाण्डे का कहना है-"प्रेमचंद अपने
उपन्यासों में वर्तमान के बोध के आधार पर भारत में लोकतंत्र के भविष्य की
सम्भावनाओं के अन्त के साथ और संदेहों की अभिव्यक्ति कर रहे थे। रेणु उन
सम्भावनाओं के अंत के साथ और संदेहों को सच होता देख रहे थे |" (आलोचना की
सामाजिकता, पृ.सं. 256, वाणी प्रकाशन,
दिल्ली, प्र.सं. 2005)
वहीं रामविलास शर्मा ने ‘प्रेमचंद की परम्परा और आंचलिकता’
शीर्षक लेख में कहा है कि ‘प्रेमचंद ने
ग्रामीण जीवन को साहित्य में प्रस्तुत तो किया है, परन्तु
उनकी अन्दरूनी गाँठों को नहीं खोल पाए जिन्हें रेणु ने खोला। प्रेमचंद ने लोकजीवन
का जो आधार साहित्य को दिया रेणु ने उसकी तहों तक पहुँचने का प्रयास किया है।"
(मैला आँचल-पुनर्पाठ/पुनर्मूल्याकंन, सं. परमानंद श्रीवास्तव,
पृ.सं. 7, अभिव्यक्ति प्रकाशन, सं. 2001) भारत यायावर ने इस अन्तर को और अधिक स्पष्ट
करते हुए कहा है- "प्रेमचंद और रेणु दोनों के पात्र निम्नवर्गीय हरिजन,
किसान, लोहार, बढ़ई,
चर्मकार, कर्मकार आदि हैं। दोनों कथाकारों ने
साधारण पात्रों की जीवन कथा की रचना की है, पर दोनों के
कथा-विन्यास, रचना-दृष्टि और ट्रीटमेंट में बहुत फर्क है।
प्रेमचंद की अधिकांश कहानियों में इन उपेक्षित और उत्पीडि़त पात्रों का आर्थिक
शोषण या उनकी सामन्ती और महाजनी व्यवस्था के फंदे में पड़ी हुई दारुण स्थिति का
चित्रण है, जबकि रेणु ने इन सताए हुए शोषित पात्रों की
सांस्कृतिक सम्पन्नता, मन की कोमलता और रागात्मकता तथा
कलाकारोचित प्रतिभा का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया है।"(रेणु रचनावली,
भाग-1, पृ.सं. 17, सं. भारत
यायावर, राजकमल प्रकाशन) ‘स्त्री’
को केन्द्र में रखकर देखा जाए तो जहाँ प्रेमचंद स्त्री शोषण,
उत्पीड़न और उस उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष को उठाते नज़र आते हैं,
वहीं रेणु स्त्री-जीवन के संघर्ष के साथ-साथ स्त्री मन की कोमलता,
प्रतिभा, सांस्कृतिक सम्पन्नता आदि उसके जीवन
के तमाम पहलुओं को टटोलते नजर आते हैं।
फणीश्वरनाथ रेणु साहित्य में
आँचलिकता के उद्घाटन के लिए प्रसिद्ध हैं। आँचलिकता केवल साहित्यिक प्रवृत्ति नहीं
है। वह एक राजनैतिक विचार भी है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत सरकार ने विकास
की तमाम योजनाएं बनाई, जिनसे भारत के विकास का मॉडल तैयार
किया गया है। पश्चिमी देशों के अनुकरण और इस दौर में उभरते नए मध्यवर्ग के मद्देनज़र
विकास की योजनाएँ बना तो ली गई, परन्तु इन योजनाओं से
ग्रामीण जन कितना लाभ उठा पा रहा था, इस पर विशेष ध्यान नहीं
दिया जा रहा था। रेणु ने अपनी रचनाओं के माध्यम से इस स्थिति को प्रस्तुत किया।
उन्होंने किसी समस्या या किसी विषय को नहीं उठाया बल्कि उन्होंने भारतीय गाँव को
विकास के इस दौर में जिस रूप में उपस्थित है उसे प्रस्तुत कर दिया। इससे उन्होंने
सवाल खड़ा किया कि विकास की इस योजना में गाँव कहाँ हैं? साथ
ही उन्होंने इस बात पर ध्यान आकर्षित किया कि तेजी से उदित होता मध्यवर्ग जो
भारतीय समाज का बहुत छोटा-सा हिस्सा था, क्या वही इतने बड़े
तबके का नियामक है? क्या उसी के आधार पर योजनाएँ बनाना
ग्रामीण समाज को उपेक्षित करना नहीं है? स्त्री-दृष्टि के
संदर्भ में देखा जाए तो रेणु ने यह भी स्पष्ट किया है कि ग्रामीण स्त्री किस
प्रकार विकास की इस प्रक्रिया से बाहर हैं। पितृसत्तात्मक व्यवस्था के सामने स्त्री
की भूमिका नगण्य होती है। पुरुष समाज में
जहाँ मध्यगवर्गीय स्त्रियाँ अपने अस्तित्त्व को लेकर सजग दिखाई दी वहीं ग्रामीण स्त्री
के लिए उसके अस्तित्व का नियामक पुरुष ही रहा। पुरुष समाज द्वारा बनाई गई
विकास-योजनाओं में स्त्री की भूमिका और जरूरत को नज़र अंदाज किया गया। रेणु ने
आंचलिकता के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप से इन प्रश्नों को खड़ा किया है।अतः दोनों उपन्यासकारों ने स्त्री
शोषण, उत्पीड़न की अभिव्यक्ति के तरीकों, समाज में स्त्री का स्थान और ग्रामीण स्त्री का सत्य, स्वतन्त्रता प्राप्ति और स्वतन्त्रता के दौर में स्त्री की स्थिति
लोक-संस्कृति में स्त्री की भूमिका जैसे विषयों पर पाठकों का ध्यान आकर्षित किया
है।
सन्दर्भ
v आलोचना
की सामाजिकता,मैनेजर पांडेय, वाणी प्रकाशन, दिल्ली,
प्र.सं. 2005
v द सेकंड
सेक्स-सिमोन द बोउवार,अनुवाद-स्त्री उपेक्षिता-प्रभा खेतान,हिन्दी पॉकेट बुक्स,नवीन संस्करण,2002,पहला रिप्रिंट 2004
v मैला
आँचल-पुनर्पाठ/पुनर्मूल्याकंन, सं. परमानंद श्रीवास्तव,
अभिव्यक्ति प्रकाशन, सं. 2001
v रेणु
रचनावली, भाग-1, सं. भारत यायावर,
राजकमल प्रकाशन
v स्त्रियों
की पराधीनता, जॉन स्टुअर्ट मिल, राजकमल विश्व
क्लासिक, प्र.सं. 2002, पहली आवृत्ति,
2003
स्त्रीत्व
का मानचित्र, अनामिका ,सारांश प्रकाशन,
दिल्ली प्रेस, 1999
रेणु के कथा-साहित्य में स्री पात्र की स्थिति को और गहराई से पड़ताल करने की जरूरत है।
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