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विकास क्रम में उपेक्षित पर वर्गीय/जातीय राजनीति के लिहाज से उर्वर स्वातंत्र्योत्तर ग्रामीण भारत से मुखातिब इस लघु उपन्यास में इतने बखेड़े हैं कि लेख ने इसका नाम ही बखेड़ापुर रख दिया है। ‘अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है’ की रोमेंटिक छवि तो गोदान तदनन्तर मैला आँचल, राग दरबारी और शिवमूर्ति के लघु उपन्यासों में आई विरूपित सच्चाईयों के आईने में पहले ही ध्वस्त हो चुकी थी। यह उपन्यास ग्रामीण जटिल यथार्थ के ताजा रंग-रेशो की कथा कहता है। मंडलोत्तर गाँवो में अस्मिताओं का नए सिरे से उभार, गठजोड़ एवं उनका पारस्परिक तनाव केन्द्र में है। साथ ही उपन्यास की परिधि में मालिक-मजदूर संघर्ष, स्वर्ण महावीर सेना, जवाबी नक्सल आहट, शिक्षा और स्त्री के सवाल भी हैं। बखेड़ापुर पढ़कर डॉ. अम्बेडकर के इस कथन की पुष्टि होती है ‘गाँव जात-पाँत और छूआछूत के गढ़ हैं और उनकी यह कामना कि गाँवों को नष्ट हो जाना चाहिए-समझ में आती है।
उपन्यास का आरंभ ऊँची जात के, धीरू और नान्ह जात-अन्य पिछड़ावर्ग के सुदामा की बालमै़त्री से होता है।‘लरिकाई का प्रेम’ लगभग अंत में, बाइसवें परिच्छेद में फिर सामने आता है। अब धीरू पत्रकार धीरेन्द्र पांडेय बन चुके हैं और सुदामा बैंक मैनेजर। दोस्ती बरकरार है बल्कि कहना चाहिए और गाढ़ी है। इस धरमवीर की न टूटने वाली जोड़ी का क्या यह अर्थ निकाला जाय कि स्वातंत्र्योत्तर भारत में जातिगत ऊँच नीच का लोप हो चुका है? जी नहीं, यह लोहिया के स्वप्न जातिविहन समाज की दिशा में बढ़ा हुआ कदम नहीं है प्रत्युत सवर्ण और ओ.बी.सी. का संयुक्त मोर्चा है जो दलित रूप चौधरी के खिलाफ ताल ठोंके है। मंडल कमीशन की सैद्धांतिकी और उसकी सिफारिशों का उलटा असर है कि पूर्व आरक्षित दलित और मंडल प्रसूत नव पिछड़ा का जोड़ लगने के बजाय नव आरक्षित और सवर्ण का जोड़ लग गया। ‘‘महावीर सेना का भी ऐलान है कि संगीता वर्मा को मदद किया जाये’’ (तद्भव - 27, प्र. 213)। महावीर सेना का मतलब है भूस्वामियों, अगड़ों का सशस्त्र बल, संगीता वर्मा का मतलब है -ओबीसी और कुल मिलाकर उस नई जुगलबंदी का नतीजा है- विधानसभा चुनाव में दलित रूप चौधरी की हार। उपन्यास के अंत में धीरेन्द्र पांडेय और सुदामा दारू में डूबकर संगीता वर्मा की चुनावी जीत का जो जश्न मनाते हैं उसका निहितार्थ है मंडल का कमंडलीकरण। यदि चुनाव-प्रसंग और बारीक राजीनतिक चालों का उपन्यास में और अधिक विस्तार होता तो कोई ताज्जुब नहीं कि दलित का भी ब्राह्मणीकरण हो जाता। समांतर, वैकल्पिक या यो कहें प्रतिरोध वाली प्रति संस्कृति का यह राजनीतिक रूप से कारूणिक अंत है।
उपन्यास की एक उपकथा भूस्वामियों-भूमिहीनों के पारस्परिक तनाव और विलगाव की है। खेत मालिक ऊँची जात के भी हैं और सम्पन्न भी। उन्होंने मजदूरी की जो रेट तय कर रखी है, जरा उस पर नजर डाली जाय - ‘भाड़े पर महुआ बीनने पर एक चौथाई हिस्सा मजदूर का और गेहूं की कटनी के मामले में सोलह बोझे काटने पर एक बोझा मजदूर का। दलहन, तेलहन जैसी नकदी फसलें काटने का काम तो मजदूरों के हवाले किया नहीं जा सकता क्योंकि ‘‘गरीब लोग क्या जानें दाल भी क्या चीज होती है’’ (पृ.199) यानी गरीब की नीयत में खोट आना तय है। चलिये माना कि अभावग्रस्तता मनुष्य का अपराधी बना सकती है पर अब इसे आप क्या कहेंगे कि ‘‘बाबू लोगों को जब महुआ की दारू और दूसरे की मेहरारू दिखती है तो सब वैर भाव भुलाकर परमात्मा बन जाते है’’ बड़टोल के ऊँची जात के बाबू लोगों के इस परमात्मापन की शिकार भुअर दुसाध की बेटी परबतिया सहित दलित रेज टोला की महिलाएँ होती ही रहती है।
ऐसे में उपन्यासकार की सहानुभूति राजबल राम, रूप चौधरी और नक्सलियों के साथ होनी चाहिए जो कि है भी। जाहिर है ये मजदूर नेता, दलित नेता अन्याय के विरूद्ध स्वाभाविक प्रतिक्रिया की उपज हैं पर हरे प्रकाश उपाध्याय के इस दृष्टिगत संतुलन की प्रशंसा की जानी चाहिए कि उन्होनें एक तरफा फैसला नहीं दिया है। मजदूरों के नक्सलवादी सुझावों के परिस्थितिगत औचित्य को बताते हुए भी उन्होंने इस धारा की पथभ्रष्टता, इस आंदोलन के बिखराव को न तो छिपाया है और न ही न्यायसंगत ठहराया है। ‘‘आरे दू बीघा खेत नहीं त्रिपुरारी पंडित के, तो ऊ कैसे सामंत हो गये? उनके बेटा को भी नहीं छोड़ सब नीच। दौड़ा के गोली मार दिया। वह तो हम लोग के सेना में भी नहीं था.......(पृ. 224) यह विवेक आधारित विरोध नहीं अपितु जातीय विद्वेष है। लेखक ने यह भी नोटिस किया है कि मजदूरों के हिमायती नक्सली संगठन का चंदावसूली का तरीका भी अपनी विरोधी भूस्वामी संगठन महावीर सेना के समान ही है और यह भी कि नक्सलियों में आपसी अहंगत फूट है- ‘‘ई सखा सब अपने में एक नहीं है- विनोद मिश्रा गुट, पार्टी यूनिटी, नंदी-राणा गुट, सत्यनारायण गुट.........................(पृ. 203)। भूस्वामी या मालिक या महावीर नेता ने कम्युनिस्ट आंदोलन की भीतरी तोड़फोड़ भाँप ली है, इसीलिए कुछ हद तक निश्चिन्त है। ऐसे में सोचना हमें चाहिए कि ‘जो हमसे टकराएगा.......’, इंकलाब, लाल निशान नारे हवाई नारे बनकर क्यों रह जाते है?
ज़मीनी स्तर पर लेखक का बहुस्तरीय यथार्थ-बोध उपन्यास के स्त्री चरित्रों मे दिखाई देता है। एक तरफ रामदुलारे मध्य विद्यालय शिक्षिका बनकर आई स्त्री होने का सुख उठाती संगीता वर्मा है तो दूसरी ओर बखेड़ापुर की मूलवासिनी और स्त्री होने का दुख उठाती दलित निरक्षर परबतिया है। संगीता वर्मा और परबतियां को स्त्रीवाद के पाले में एक साथ न रखकर उन्हे आमने-सामने रखा है और तुलनात्मक अध्यन की पृष्ठभूमि तैयार की है। यहाँ स्त्री-विमर्श को आलोचनात्मक विवेक से देखने का लेखकीय आग्रह है। संगीता वर्मा स्कुल शिक्षिका बनकर बच्चों को रामभरोसे छोड़कर स्वेटर बुनती हुई, गृहशोभा पढ़ती हुई काल-यापन करती है पति अमित और प्रेमी डॉ. अखिलेश के साथ समानान्तरण दाम्पत्य और प्रेम संबंध का मजा लेती है। स्त्री देह का सांकेतिक इस्तेमाल करती, पुरूषों की लोलुप दृष्टि का सीढ़ियों की तरह इस्तेमाल करती - विधायक पद तक पहंचती है। दूसरी तरफ दलित, गरीब, असहाय परबतिया है। कत विधि सृजी नारि जग माहीं की तर्ज पर उसकी तकलीफ है कि भाई आदमी होने से अच्छा था हम चिरिया चुरूंग होते, कम से कम जिस पेड़ पर चाहते बैठते। जहां पक्का फल मिलता खाते (पृष्ठ-212) परबतिया के लिए पराधीनता से मुक्ति का अवसर ईमानदार दलित नेता रूप चौधरी के सम्मानजनक साथ के रूप में आता है। स्त्री अस्मिता का प्रमाणीकरण कांटेदार संघर्ष का रास्ता अपनाकर करती है। समझौतावादी संगीता वर्मा का चरित्र अन्ततः पिृतसत्ता के पारंपरिक मानकों को ही तुष्ट करने वाला है जबकि परबतिया असमझौतवादी है और उन मानकों को चुनौती देने वाली है।
यहीं पर साहित्य की दुनिया में कथित मुख्यधारा के उस स्त्रीवाद, स्त्री-मुक्ति पर नजर डालनी चाहिए जिसने देहवाद अथवा देह मुक्ति को स्त्री स्वतंत्रता का पर्याय बना दिया है। उपन्यासकार ने इसी मंशा से संगीता वर्मा में लेखकत्व को नियोजित किया है। जन चेतना, प्रगतिशीलता का दावा करने वालों की मांग के अनुरूप संगीता वर्मा जो कहानियां परोस रही है वे कामकला के सर्वोत्तम विवरण हैं। पुरूषों को और क्या चाहिए? पर प्रगतिशील पुरूषों को भी स्त्री से सिर्फ यही चाहिए और यही आुधनिक स्त्री के लक्षण है। क्या यह स्त्री मुक्ति का कुपाठ नहीं है? प्रगतिशीलता के खोल में लिपटे इस नव रीतिवाद रतिवाद को उपाध्याय ने उचित ही प्रश्नांकित किया है।
बखेड़ापुर का रामदुलारे मध्य विद्यालय भारत की ग्रामीण शिक्षा का वह घेरा है जिसे तोड़कर ही कोई शिक्षित नागरिक बन सकता है, उसमें रहकर नहीं। इस मध्य विद्यालय में ‘‘मास्टर कुल तीन, कमरे कुल चार और कक्षाएं कुल आठ, पढ़ने वाले छात्रो की संख्या कुल सौ’’
ढाँचागत अभाव है यह सही है और उनकी शिकायत भी वाजिब पर खुद शिक्षक समुदाय का रवैया? ध्यान देना चाहिए कि आजका सरकारी शिक्षक नागार्जुन की प्रेत का बयान कविता वाला अल्प वेतनभोगी कृशकाय शिक्षक नहीं है अपितु सुविधापूर्ण, संरक्षित, सुरक्षित आर्थिक हैसियत वाला शिक्षक है पर पढ़ाना चाहिए उसकी ड्यूटी में शामिल नहीं है बकौल परचमा माहसाब ‘आरे किसान के लड़के हैं, किसान बनेंगे................राम जी की दया से आगे दिन तो इन्हें हल में जुतना ही है, कलम नहीं चलाना है (पृ.163) एक अकेले उगना मास्साब में कर्तव्य बोध अवश्य है और इसी कारण ट्रांसफर झेलने की अभिशप्त भी।
बखेड़ापुर का रामदुलारे मध्य विद्यालय भारत की असमान शिक्षा जो कि अन्ततः विभेदकारी सिद्ध होती है, का संकेतक है। इस स्कूल की बदहाली पर सवाल उठाने वाला दलित नेता रूप चौधरी है पर उसकी आवाज बेअसर है क्योंकि पंचायीराज में प्रधान का पद पाये ज्वालासिंह का संरक्षण अपनी जाति के मास्टरों को है ‘‘कोई भी हो का कर लेगा मस्टरवन के जब तक हम रिपोर्ट नहीं देंगे। असली ताकत तो हमारे हाथ में है न (पृ.178) तब क्या ज्वालासिंह जजैसों के बच्चों को इस स्कूूली व्यवस्था में कोई नुकसान नहीं होता? अजी नुकसान तो तब हो, जब से बखेड़ापुर में पढ़ते हो। बकौल रूप चौधरी इन्होंने ‘‘अपना परिवार भेज दिया है, शहर में और अपने बच्चों को पढ़ा रहा है। डी.ए.भी में, दुनिया जाये तेलहांडा में।’’
ये वही ज्वालासिंह है जो सर्वण भी है ब्लॉक प्रमुख भी दबंग भी और बी.पी.एल. कार्डधारी भी। छः भाइयों वाला ज्वालासिंह का परिवार लोकतंत्र का असली मजा लूट रहा है (पृ.183) और शेष लोगों के लिए लोकतंत्र/आजादी कहर के तौर पर है-लकुड़ीसिंह का कहना है -लोकतंत्र माने फोद। अंगरेजवने के राज अच्छा था बबुआ। एतना अनेत नहीं नू था....................(पृ. 190) जब अंग्रेजी राज मौजूदा देशी राज की तुलना में बेहतर लगने लगे तो इसे दृष्टिभ्रम मानकर टालना नहीं चाहिए अपितु देशी राज के छिद्रों को ज्यादा गहराई से देखा जाना चहिए।
यह उपन्यास बखेड़ापुर की मार्फत भारतीय ग्राम समाज की जातीय, आर्थिक संरचना को सामने लाता है जहां आजादी और लोकतंत्र के मायने बदल जाते है। रूप चौधरी और उगना मास्साब की उपन्यास में उपस्थिति इसके वैकल्पिक स्वरूप के तौर पर है, किंचित आश्वस्तकारी भी। विनम्रता सहित यह निवेदन का मन है कि उपन्यास में साक्षी-सुदामा-लोटन-बहू-भैरव चाचा के प्रसंग सिर्फ मजा बढ़ाने की नीयत से रखे गए हैं-मूलकथा के साथ उनका स्वाभाविक, तार्किक अन्तर्सबंध नजर नहीं आता। जब उपन्यासकार संगीता वर्मा की कहानियों के बिकाऊ नुस्खों को अवांछित मान रहा हो तो यह ज्यादा जरूरी हो जाता है कि बखेड़ापुर में ऐस नुस्खे न होते। उम्मीद की जानी चाहिए कि आगामी रचनाओं में ऐस नुस्खे न होगें।
तद्भव- 27 बखेड़ापुर पृ. 155-233
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उपन्यास का आरंभ ऊँची जात के, धीरू और नान्ह जात-अन्य पिछड़ावर्ग के सुदामा की बालमै़त्री से होता है।‘लरिकाई का प्रेम’ लगभग अंत में, बाइसवें परिच्छेद में फिर सामने आता है। अब धीरू पत्रकार धीरेन्द्र पांडेय बन चुके हैं और सुदामा बैंक मैनेजर। दोस्ती बरकरार है बल्कि कहना चाहिए और गाढ़ी है। इस धरमवीर की न टूटने वाली जोड़ी का क्या यह अर्थ निकाला जाय कि स्वातंत्र्योत्तर भारत में जातिगत ऊँच नीच का लोप हो चुका है? जी नहीं, यह लोहिया के स्वप्न जातिविहन समाज की दिशा में बढ़ा हुआ कदम नहीं है प्रत्युत सवर्ण और ओ.बी.सी. का संयुक्त मोर्चा है जो दलित रूप चौधरी के खिलाफ ताल ठोंके है। मंडल कमीशन की सैद्धांतिकी और उसकी सिफारिशों का उलटा असर है कि पूर्व आरक्षित दलित और मंडल प्रसूत नव पिछड़ा का जोड़ लगने के बजाय नव आरक्षित और सवर्ण का जोड़ लग गया। ‘‘महावीर सेना का भी ऐलान है कि संगीता वर्मा को मदद किया जाये’’ (तद्भव - 27, प्र. 213)। महावीर सेना का मतलब है भूस्वामियों, अगड़ों का सशस्त्र बल, संगीता वर्मा का मतलब है -ओबीसी और कुल मिलाकर उस नई जुगलबंदी का नतीजा है- विधानसभा चुनाव में दलित रूप चौधरी की हार। उपन्यास के अंत में धीरेन्द्र पांडेय और सुदामा दारू में डूबकर संगीता वर्मा की चुनावी जीत का जो जश्न मनाते हैं उसका निहितार्थ है मंडल का कमंडलीकरण। यदि चुनाव-प्रसंग और बारीक राजीनतिक चालों का उपन्यास में और अधिक विस्तार होता तो कोई ताज्जुब नहीं कि दलित का भी ब्राह्मणीकरण हो जाता। समांतर, वैकल्पिक या यो कहें प्रतिरोध वाली प्रति संस्कृति का यह राजनीतिक रूप से कारूणिक अंत है।
उपन्यास की एक उपकथा भूस्वामियों-भूमिहीनों के पारस्परिक तनाव और विलगाव की है। खेत मालिक ऊँची जात के भी हैं और सम्पन्न भी। उन्होंने मजदूरी की जो रेट तय कर रखी है, जरा उस पर नजर डाली जाय - ‘भाड़े पर महुआ बीनने पर एक चौथाई हिस्सा मजदूर का और गेहूं की कटनी के मामले में सोलह बोझे काटने पर एक बोझा मजदूर का। दलहन, तेलहन जैसी नकदी फसलें काटने का काम तो मजदूरों के हवाले किया नहीं जा सकता क्योंकि ‘‘गरीब लोग क्या जानें दाल भी क्या चीज होती है’’ (पृ.199) यानी गरीब की नीयत में खोट आना तय है। चलिये माना कि अभावग्रस्तता मनुष्य का अपराधी बना सकती है पर अब इसे आप क्या कहेंगे कि ‘‘बाबू लोगों को जब महुआ की दारू और दूसरे की मेहरारू दिखती है तो सब वैर भाव भुलाकर परमात्मा बन जाते है’’ बड़टोल के ऊँची जात के बाबू लोगों के इस परमात्मापन की शिकार भुअर दुसाध की बेटी परबतिया सहित दलित रेज टोला की महिलाएँ होती ही रहती है।
ऐसे में उपन्यासकार की सहानुभूति राजबल राम, रूप चौधरी और नक्सलियों के साथ होनी चाहिए जो कि है भी। जाहिर है ये मजदूर नेता, दलित नेता अन्याय के विरूद्ध स्वाभाविक प्रतिक्रिया की उपज हैं पर हरे प्रकाश उपाध्याय के इस दृष्टिगत संतुलन की प्रशंसा की जानी चाहिए कि उन्होनें एक तरफा फैसला नहीं दिया है। मजदूरों के नक्सलवादी सुझावों के परिस्थितिगत औचित्य को बताते हुए भी उन्होंने इस धारा की पथभ्रष्टता, इस आंदोलन के बिखराव को न तो छिपाया है और न ही न्यायसंगत ठहराया है। ‘‘आरे दू बीघा खेत नहीं त्रिपुरारी पंडित के, तो ऊ कैसे सामंत हो गये? उनके बेटा को भी नहीं छोड़ सब नीच। दौड़ा के गोली मार दिया। वह तो हम लोग के सेना में भी नहीं था.......(पृ. 224) यह विवेक आधारित विरोध नहीं अपितु जातीय विद्वेष है। लेखक ने यह भी नोटिस किया है कि मजदूरों के हिमायती नक्सली संगठन का चंदावसूली का तरीका भी अपनी विरोधी भूस्वामी संगठन महावीर सेना के समान ही है और यह भी कि नक्सलियों में आपसी अहंगत फूट है- ‘‘ई सखा सब अपने में एक नहीं है- विनोद मिश्रा गुट, पार्टी यूनिटी, नंदी-राणा गुट, सत्यनारायण गुट.........................(पृ. 203)। भूस्वामी या मालिक या महावीर नेता ने कम्युनिस्ट आंदोलन की भीतरी तोड़फोड़ भाँप ली है, इसीलिए कुछ हद तक निश्चिन्त है। ऐसे में सोचना हमें चाहिए कि ‘जो हमसे टकराएगा.......’, इंकलाब, लाल निशान नारे हवाई नारे बनकर क्यों रह जाते है?
ज़मीनी स्तर पर लेखक का बहुस्तरीय यथार्थ-बोध उपन्यास के स्त्री चरित्रों मे दिखाई देता है। एक तरफ रामदुलारे मध्य विद्यालय शिक्षिका बनकर आई स्त्री होने का सुख उठाती संगीता वर्मा है तो दूसरी ओर बखेड़ापुर की मूलवासिनी और स्त्री होने का दुख उठाती दलित निरक्षर परबतिया है। संगीता वर्मा और परबतियां को स्त्रीवाद के पाले में एक साथ न रखकर उन्हे आमने-सामने रखा है और तुलनात्मक अध्यन की पृष्ठभूमि तैयार की है। यहाँ स्त्री-विमर्श को आलोचनात्मक विवेक से देखने का लेखकीय आग्रह है। संगीता वर्मा स्कुल शिक्षिका बनकर बच्चों को रामभरोसे छोड़कर स्वेटर बुनती हुई, गृहशोभा पढ़ती हुई काल-यापन करती है पति अमित और प्रेमी डॉ. अखिलेश के साथ समानान्तरण दाम्पत्य और प्रेम संबंध का मजा लेती है। स्त्री देह का सांकेतिक इस्तेमाल करती, पुरूषों की लोलुप दृष्टि का सीढ़ियों की तरह इस्तेमाल करती - विधायक पद तक पहंचती है। दूसरी तरफ दलित, गरीब, असहाय परबतिया है। कत विधि सृजी नारि जग माहीं की तर्ज पर उसकी तकलीफ है कि भाई आदमी होने से अच्छा था हम चिरिया चुरूंग होते, कम से कम जिस पेड़ पर चाहते बैठते। जहां पक्का फल मिलता खाते (पृष्ठ-212) परबतिया के लिए पराधीनता से मुक्ति का अवसर ईमानदार दलित नेता रूप चौधरी के सम्मानजनक साथ के रूप में आता है। स्त्री अस्मिता का प्रमाणीकरण कांटेदार संघर्ष का रास्ता अपनाकर करती है। समझौतावादी संगीता वर्मा का चरित्र अन्ततः पिृतसत्ता के पारंपरिक मानकों को ही तुष्ट करने वाला है जबकि परबतिया असमझौतवादी है और उन मानकों को चुनौती देने वाली है।
यहीं पर साहित्य की दुनिया में कथित मुख्यधारा के उस स्त्रीवाद, स्त्री-मुक्ति पर नजर डालनी चाहिए जिसने देहवाद अथवा देह मुक्ति को स्त्री स्वतंत्रता का पर्याय बना दिया है। उपन्यासकार ने इसी मंशा से संगीता वर्मा में लेखकत्व को नियोजित किया है। जन चेतना, प्रगतिशीलता का दावा करने वालों की मांग के अनुरूप संगीता वर्मा जो कहानियां परोस रही है वे कामकला के सर्वोत्तम विवरण हैं। पुरूषों को और क्या चाहिए? पर प्रगतिशील पुरूषों को भी स्त्री से सिर्फ यही चाहिए और यही आुधनिक स्त्री के लक्षण है। क्या यह स्त्री मुक्ति का कुपाठ नहीं है? प्रगतिशीलता के खोल में लिपटे इस नव रीतिवाद रतिवाद को उपाध्याय ने उचित ही प्रश्नांकित किया है।
बखेड़ापुर का रामदुलारे मध्य विद्यालय भारत की ग्रामीण शिक्षा का वह घेरा है जिसे तोड़कर ही कोई शिक्षित नागरिक बन सकता है, उसमें रहकर नहीं। इस मध्य विद्यालय में ‘‘मास्टर कुल तीन, कमरे कुल चार और कक्षाएं कुल आठ, पढ़ने वाले छात्रो की संख्या कुल सौ’’
ढाँचागत अभाव है यह सही है और उनकी शिकायत भी वाजिब पर खुद शिक्षक समुदाय का रवैया? ध्यान देना चाहिए कि आजका सरकारी शिक्षक नागार्जुन की प्रेत का बयान कविता वाला अल्प वेतनभोगी कृशकाय शिक्षक नहीं है अपितु सुविधापूर्ण, संरक्षित, सुरक्षित आर्थिक हैसियत वाला शिक्षक है पर पढ़ाना चाहिए उसकी ड्यूटी में शामिल नहीं है बकौल परचमा माहसाब ‘आरे किसान के लड़के हैं, किसान बनेंगे................राम जी की दया से आगे दिन तो इन्हें हल में जुतना ही है, कलम नहीं चलाना है (पृ.163) एक अकेले उगना मास्साब में कर्तव्य बोध अवश्य है और इसी कारण ट्रांसफर झेलने की अभिशप्त भी।
बखेड़ापुर का रामदुलारे मध्य विद्यालय भारत की असमान शिक्षा जो कि अन्ततः विभेदकारी सिद्ध होती है, का संकेतक है। इस स्कूल की बदहाली पर सवाल उठाने वाला दलित नेता रूप चौधरी है पर उसकी आवाज बेअसर है क्योंकि पंचायीराज में प्रधान का पद पाये ज्वालासिंह का संरक्षण अपनी जाति के मास्टरों को है ‘‘कोई भी हो का कर लेगा मस्टरवन के जब तक हम रिपोर्ट नहीं देंगे। असली ताकत तो हमारे हाथ में है न (पृ.178) तब क्या ज्वालासिंह जजैसों के बच्चों को इस स्कूूली व्यवस्था में कोई नुकसान नहीं होता? अजी नुकसान तो तब हो, जब से बखेड़ापुर में पढ़ते हो। बकौल रूप चौधरी इन्होंने ‘‘अपना परिवार भेज दिया है, शहर में और अपने बच्चों को पढ़ा रहा है। डी.ए.भी में, दुनिया जाये तेलहांडा में।’’
ये वही ज्वालासिंह है जो सर्वण भी है ब्लॉक प्रमुख भी दबंग भी और बी.पी.एल. कार्डधारी भी। छः भाइयों वाला ज्वालासिंह का परिवार लोकतंत्र का असली मजा लूट रहा है (पृ.183) और शेष लोगों के लिए लोकतंत्र/आजादी कहर के तौर पर है-लकुड़ीसिंह का कहना है -लोकतंत्र माने फोद। अंगरेजवने के राज अच्छा था बबुआ। एतना अनेत नहीं नू था....................(पृ. 190) जब अंग्रेजी राज मौजूदा देशी राज की तुलना में बेहतर लगने लगे तो इसे दृष्टिभ्रम मानकर टालना नहीं चाहिए अपितु देशी राज के छिद्रों को ज्यादा गहराई से देखा जाना चहिए।
डॉ. राजेश चौधरी
प्राध्यापक (हिन्दी)
महाराणा प्रताप राजकीय महाविद्यालय,
चित्तौड़गढ़-312001,राजस्थान
ईमेल:
rajeshchoudhary@gmail.com
मोबाईल नंबर-09461068958फेसबुकी संपर्क |
तद्भव- 27 बखेड़ापुर पृ. 155-233
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