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हिंदी में अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान पर प्रामाणिक लेखन करने वाले विद्वानों में प्रोफेसर दिलीप सिंह किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। व्यावसायिक हिंदी (1983), भाषा साहित्य और संस्कृति शिक्षण (2007), पाठ विश्लेषण(2007), भाषा का संसार (2008), हिंदी भाषा चिंतन (2009), अनुवाद की व्यापक संकल्पना (2011) कविता पाठ विमर्श (2013) उनकी मौलिक भाषा विज्ञान आधारित पुस्तकें हैं। उन्होंने अपनी विभिन्न कृतियों के माध्यम से भारतीय और पाश्चात्य भाषावैज्ञानिकों के विचारों का गहन अध्ययन करके उन्हें हिंदी के संदर्भ में विश्लेषित,व्याख्यायित प्रतिपादित किया है। अन्य भाषा शिक्षण के क्षेत्र में उनकी पुस्तक ‘अन्य भाषा-शिक्षण के बृहत संदर्भ’(2010) एक महत्वपूर्ण एवं अनुकरणीय पुस्तक है। इस पुस्तक में उन्होंने भाषा शिक्षण संबंधी नवीन संदर्भों को बहुत ही विस्तृत रूप में वैश्विक परिप्रेक्ष्य को रेखांकित करने का कार्य किया है। उन्होंने अन्य भाषा शिक्षण के परिपाटीगत अध्ययन एवं विश्लेषण की तुलना में यह कृति भाषिक-सामाजिक एवं संस्कृति संप्रेषणीयता पर बल देते हुए बहुत से सिद्धांतों को वर्तमान संदर्भों में व्याख्यायित करती है।
प्रो. दिलीप सिंह लंबे समय से हिंदी भाषा और साहित्य के शिक्षण और अध्यापन से जुड़े हुए हैं। चूंकि उनका कार्यक्षेत्र दक्षिण भारत रहा है इसलिए उनके अध्यापन के दौरान उन्होंने हिंदीतर भाषियों को हिंदी सिखाते एवं उन्हें हिंदी सीखते समय जिन कठिनाईयों को महसूस किया, वे उनके अध्ययन एवं विचार विमर्श का आधार बनी और इसी के फलस्वरूप उन्होंने हिंदी शिक्षण में आने वाले व्यवधानों को बहुत बारीकी से न सिर्फ रेखांकित किया है बल्कि उनका समाधान भी प्रस्तुत किया है।
हिंदी को द्वितीय और तृतीय भाषा के रूप में पढ़ाने का व्यापक अनुभव रखने के कारण अन्य भाषा शिक्षण के लिए पाठ्यक्रम निमार्ण, पाठ्यपुस्तकें लिखने-लिखवाने और हिंदीतरभाषी भारतीय तथा विदेशी छात्रों के बीच उन्हें पढ़ाने के उनके अनुभव को पाठकों एवं अध्येताओं के समक्ष प्रस्तुत करने का माध्यम बना है ग्रंथ -‘अन्य भाषा शिक्षण के बृहत् संदर्भ’। विराट ह्रदय के स्वामी जहां अपने अध्ययन, अध्यापन एवं लेखन के प्रति पूर्णरूपेण समर्पित रहे हैं वहीं अपने परिवारिक दायित्वों का निर्वहन भी बखूबी करते रहे हैं है। उन्होंने यह पुस्तक अपने पिताजी को समर्पित करते हुए समर्पण वाक्य में लिखा है - ‘‘पापा को - जो माँ भी थे और पिता भी,शिक्षक भी थे और मित्र भी, आदर्श भी थे और संस्कार भी।’’ ये वाक्य उनकी अपने पिता के प्रति अगाध श्रृद्धा दर्शाते हैं।
प्रकाशक: वाणी प्रकाशन
नई दिल्ली–110002
संसकरण: 2010
मूल्य: 250 रुपए
पृष्ठ: 156.
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भाषा सामाजिक व्यवहार का प्रमुख घटक है और सामाजिकों द्वारा भाषा के माध्यम से ही अपने कार्यव्यापारों का संचलन एवं संवर्धन किया जाता है। सिद्धांत किसी भी भाषा को मानक रूप्ा में प्रतिस्थापित करते हैं परंतु सिद्धांतों एवं नियमों की अत्यधिक जटिलता प्रयोक्ताओं को उससे दूर करती है और प्रयोक्ता एक वैकल्पिक मार्ग तलाश लेता है। विश्व की अधिकांश आधुनकि भाषाओं के विकास के कारणों में से यह भी एक कारण रहा है। जब भाषा अत्यधिक व्याकरणिक नियमबद्ध हो जाती है तो वह सामान्य प्रयोक्ता की पहुंच से बाहर हो जाती है और उसका अपभ्रंश रूप विकसित होने लगता है। नियमों की आबद्धता जरूरी है परंतु भाषा की संप्रेषणीयता पर भी पर्याप्त ध्यान दिया जाना आवश्यक है क्योंकि यदि कोई प्रयोक्ता अपनी भाषा के माध्यम से अपने विचारों के संप्रेषण में असफल रहता है तो उसका भाषा ज्ञान कभी भी पूरा नहीं कहा जा सकता है। प्रयोग के व्यावहारिक पक्षों पर पर्याप्त ध्यान दिया जाना चाहिए ताकि वह सुगमतापूर्वक प्रयोग में लाई जाती रहे। हिंदीतर भाषियों के लिए हिंदी के व्यावहारिक रूप पर विचार करते हुए ही प्रोफेसर दिलीप सिंह ने इस ग्रंथ में व्यावहारिक पक्षों पर पर्याप्त बल देते हुए लिखा है कि ‘‘अन्य भाषा शिक्षण (द्वितीय और विदेशी) के इसी परिवर्तनशील स्वरूप को इस पुस्तक में प्रस्तुत किया गया है। बातें यहाँ सैद्धांतिक कम, व्यावहारिक अधिक हैं। अन्य भाषा शिक्षण में इलेक्ट्रानिक मीडिया और कंप्यूटर की भूमिका पर चर्चा के साथ साथ संप्रेषणपरक द्वितीय भाषा शिक्षण पर यहाँ सम्यक विचार किया गया है। साहित्य भाषा शिक्षण के लिए इकबाल के ‘तराना-ए-हिंदी’का विश्लेषण उस नई प्रविधि का एक नमूना है जिसे भाषा शिक्षण के लिए अपनाने पर आज विशेष बल दिया जा रहा है। साहित्यिक पाठ के माध्यम से भाषा दक्षता को बढ़ावा देनेवाला यह ढाँचा अन्य भाषा शिक्षण के प्रमुख सिद्धांतों को भी सामने ले आता है।’’ (अन्य भाषा शिक्षण के बृहत् संदर्भ, पृष्ठ 7-8)।
विजेन्द्र प्रताप सिंह
सहायक प्रोफेसर (हिंदी)
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय
जलेसर,एटा, उत्तर
प्रदेश
चलभाष- 7500573935
Email-vickysingh4675@gmail.com
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अधिकांश लोगों में धारणा व्याप्त है कि मातृभाषा बृहद संप्रेषण में सक्षम नहीं होती है जबकि सत्य तो यह है कि व्यक्ति जब भी किसी मातृभाषातर भाषा को सीखता है तो मातृभाषा का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। सीखने के पश्चात् भी नवीन सीखी गई भाषा के प्रयोग में भी मातृभाषा का प्रभाव रहता है क्योंकि मातृभाषा नैसर्गिक होती है और व्यक्ति अपनी नैसर्गिकता का परित्याग पूर्णरूप्ोण कभी नहीं कर सकता है। मातृभाषा के महत्व पर विचार करते हुए प्रो. दिलीप सिंह ने जोर देकर इस धारणा का खंडन किया है कि मातृभाषाएँ आधुनिक या अंतरराष्ट्रीय संप्रेषण व्यापार के लिए अपर्याप्त एवं सीमित हो जाती हैं। उनके अनुसार अपर्याप्तता की यह समाज-राजनैतिक मिथक भर है। इसे कुछ लोगों द्वारा केवल इसलिए गढ़ा गया है ताकि वे एकजुट और जागरूक सामान्य जन को ज्ञान-विज्ञान और सत्ता से वंचित रख सकें। प्रत्येक भाषा अपने आप में सक्षम होती है आवश्यकता संदर्भानुसार उसके प्रयोग की होती है। किसी भी व्यक्ति द्वारा अपनी भाषा के लिए शर्मिंदा होना सामाजिक एवं सांस्कृतिक पतन की निशानी है। भारत में एक धारणा आम प्रचलित है कि अंग्रेजी जानने वाले श्रेष्ठ होते हैं और इसलिए वे लोग जो अंग्रेजी का प्रयोग नहीं जानते हैं उसका प्रयोग कर स्वयं श्रेष्ठता की श्रेणी में लाना चाहते हैं और उपहास का पात्र बनते हैं। व्यक्ति को संप्रेषण उसी भाषा में करना चाहिए जिसमें वह अपने विचार व्यक्त करते समय सहज महसूस करता है । प्रो. सिंह मानते हैं कि कोई भी भाषा अपने में असक्षम, असमर्थ या अपघटित नहीं होती। उनकी अवधारणा हैकि जिस शिक्षार्थी को अपनी ही भाषा के प्रति शर्मिंदगी महसूस करने को बाध्य किया जाता है या जिसे अपनी भाषा आदत के प्रति शर्मसार बनाया जाता है वह कभी एक पूर्ण मानव के रूप में विकसित नहीं हो सकता। ‘‘किसी को भी विशेषकर एक बच्चे को अपनी ही भाषा के प्रति हीन भावना से भरना उतना ही अक्षम्य अपराध माना जाना चाहिए जितना कि किसी को उसकी त्वचा के रंग के कारण हीन घोषित करना। अतः द्वितीय भाषा शिक्षण और भाषा प्रकार्यों के संदर्भ में किसी भाषा की अक्षमता अथवा हीनता की चर्चा आज निरर्थक ही मानी जानी चाहिए। कहना यह है कि हर भाषा किसी भी भाव संदर्भ को व्यक्त कर पाने में पूरी तरह सक्षम होती है।’’ (अन्य भाषा शिक्षण के बृहत् संदर्भ, पृ. 78)। संप्रेषण तभी प्रभावी हो सकता है जब उसे सजहतापूर्वक बोधगम्य भाषा में प्रस्तुत किया जाय, नहीं तो बनावटी भाषा कभी भी अच्छी संप्रेषक नहीं हो सकती है । प्रसंगानुकूल अभिव्यक्ति ही अच्छे भाषा प्रयोक्ता की पहचान होती है । उचित अभिव्यक्ति के लिए सटीक एवं सरल शब्द चयन पर बल देते हुए डॉ. सिंह ने इस पुस्तक को भाषा शिक्षण की दिशा में बहुत ही महत्वपूर्ण कलेवर प्रदान किया है ।
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