अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-2, अंक-18, अप्रैल-जून, 2015
रास्ते और घर
उम्र कहीं ठिठक गयी थी
शायद
सतरह से तेबीस के बीच
जैसे प्रेम के दरवाज़े पर
अकबकाई सी खड़ी हो
और शायद अनमनेपन में
गलत घर में
बजा दी हो कॉलबैल
दरवाजा खुला था
न भीतर किसी ने पुकारा
न बाहर का रास्ता दिखाया
इसी अनमने से इंतज़ार में
बीतते रहे बरस
और उम्र ठिठकी रही
बस काया थी
जो झरती जाती थी
ढलती जाती थी
मन कैसे बुढ़ाता
तब एक दिन जंग खाए संदूक ने
खोले कुछ राज़
यहां सन्नाटे की सरगम है
अंधेरे हैं
घुटन है
यहां ख्वाब के दरवाज़े बंद हैं
यहां आते हैं भटके हुए राही
तिलिस्म में बंधे
यहां ऊब है अंतहीन
यहां कैद है एक पिशाची आत्मा
जो सोखती जाती है
जीवन जल
उम्मीद के पंछी यहां दम तोड़ देते हैं
मैं बौखलाई सी लौटी दरवाज़े की ओर
यहां सब तरफ दीवारें थीं
रोशनदान अंटा था धूल से
खिड़कियों पर असंख्य जाले थे
मुझे एक डायनामाइट की तलाश थी
जो बुझा पड़ा था मेरे झोले में
तीलियों में सीलन थी
यह अन्यमनस्कता के टूटने की शुरुआत थी
यहां से कहानी में एक नया मोड़ है
अब आगे धूप की तलाश थी
रोशनी की तलाश थी
और धूप और रोशनी बाहर कहीं न थी
फिर क्या था जिससे दहक रहा था
अंधेरा सीलन भरा घर
कहीं कुछ भी जलने की गंध नहीं
बस एक तेज़
बस एक आग
जिससे दिपदिपाता रहता
हर अंधेरा कोना
ऐसा लगने लगा जैसे दीवारें चलने लगी हों
बदलने लगी हों जगह
जैसे रोशनी रोशनदान से नहीं
दीवारों के पार से करने लगी हो प्रवेश
घर के अन्दर ही थे कितने सारे रास्ते
जो सब तरफ जाते थे
और सब तो लौट कर आते थे
घर की ही ओर
दबंग
वे जो अपनी दबंगता के लिए
प्रभावित करते रहे थे मुझे
दरअसल जीवन में सफल
न हो पाने पर
अपनी खीझ में
ऊंचा बोलते थे बहुत
मेरी कलम में स्याही कुछ ज़्यादा थी
मेरी कलम में स्याही कुछ ज़्यादा थी
मेरे कहने को बातें बहुत सारी थी
मेरे हाथों में ऊर्जा कुछ अधिक थी
मेरे कैनवास की लम्बाई कुछ ज़्यादा थी
मेरी सहने की सामर्थ्य कुछ ज़्यादा थी
यह जो लम्बी सी लकीर है
यह महज़ दीवानगी का दस्तावेज़ नहीं है
यह किसी मुल्क की सरहद नहीं
जिसे लांघा न जा सके
इसकी प्रकृति ज़रा विपरीत है
दूर से देखते हो तो बड़ी नज़र आती है
करीब से देखोगे तो जानोगे कितनी महीन है यह
कि यह डराती तो हरगिज़ नहीं है
प्यार से उठाओगे
तो ऊन के धागे सी सरक आयेगी हाथों में
ज़रा नरमाई से लपेटोगे तो
बन जाएगा नर्म मुलायम गोला
जिससे बुना जा सकता है
गुनगुने अहसासों में लिपटा स्वेटर
या डाला जा सकता है गले में मफलर
इससे बुन कर
तुम्हें नहीं खींचनी है बराबर लम्बी रेखा
और यह वो पगडंडी भी नहीं
जिस पर चलना हो तुम्हें जबरन
न यह रेल की पटरी है कोई
कि दो रेखाओं को चलना ही है समान्तर
मन की आंखो से देखो इसे
इसके साथ दौड़ लगाने को जी चाहेगा
कि यह रेखा शुरू होती है ठीक उस बिन्दु से
जिसे मिल कर उकेरा था हमने
एक कोरे कागज पर
दूर नहीं वह दिन
कितनी तो तरक्की कर गया है विज्ञान
वनस्पतियों की होने लगी हैं संकर और उन्नत किस्में
फूलों में भर दिए हैं मनचाहे रंग
देह का कोई भी अंग बदला जा सकता है
मन मुताबिक
हृदय, गुर्दा या आंख, कान
सभी का संभव है प्रत्यारोपण
मर कर भी न छूटे मोह दुनिया देखने का
तो छोड़ कर जा सकते हैं आप अपनी आंख
किसी और की निगाह बन कर
देखते रह सकते हैं इसके कारोबार
बशर्ते बचा रहा हो इस जीवन के प्रति ऐसा अनुराग
हांफने लगा न हो हृदय अगर
जीने में इस जीवन को दुर्निवार
तो छोड़ जाइए अपना हृदय
किसी और सीने में फिर धड़कने के लिए एक बार
फिर शीरीं-फरहाद, और लैला-मजनूं की तरह
धड़कता रहेगा यह
अगर है कोई स्वर्ग
तो वहां से झांक कर देखा करेंगे जिसे आप
जीते जी दूसरे की देह में
लगवा सकते हैं आप अपना गुर्दा
एक से अपना जीवन चलाते हुए
दूसरे से किसी अन्य का जीवन चलता है
यह सोच थोड़ी और गर्वीली हो सकती है आपकी चाल
यह तो कुछ नैतिकता के प्रश्न आने लगे हैं आड़े
वर्ना जितने चाहें उतने अपने प्रतिरूप
बना सकता है मनुष्य
शायद दूर नहीं वह् दिन भी अब
आपकी खोपड़ी का ढक्कन खोल
बदलवा सकेंगे जब आप इसमें उपजते विचार
राजनीतिकों की बात दीगर हैं
जिनके खोखल में अवसरानुकूल स्वतरू
बदल जाते हैं विचार और प्रतिबद्धताएं
आप जो स्मृतियों में जीते हैं
नफा नुकसान की भाषा नहीं समझते हैं
आपके भी हाथ में होगा तब यह उपाय
जगह-जगह होंगे ऐसे क्लिनिक
जिनमें जाकर आप
बारिश की स्मृतियों को बेच सकेंगे औन-पौने दाम
और बदले में रोप दी जाएंगी सफलता की कामनाएं तमाम
जिन चेहरों को भुलाना मुश्किल होगा
सिनेमा की डीवीडी की तरह बदली जा सकेंगी
उनकी छवियां तमाम
टाम क्रूज, जॉनी डेप्प और जेनिफर लोपेज
जिसकी भी चाहेंगे आप
उनकी स्मृतियों से अंटा होगा आपकी यादों का संसार
चित्रांकन संदीप कुमार मेघवाल |
रास्ते और घर
उम्र कहीं ठिठक गयी थी
शायद
सतरह से तेबीस के बीच
जैसे प्रेम के दरवाज़े पर
अकबकाई सी खड़ी हो
और शायद अनमनेपन में
गलत घर में
बजा दी हो कॉलबैल
दरवाजा खुला था
न भीतर किसी ने पुकारा
न बाहर का रास्ता दिखाया
इसी अनमने से इंतज़ार में
बीतते रहे बरस
और उम्र ठिठकी रही
बस काया थी
जो झरती जाती थी
ढलती जाती थी
मन कैसे बुढ़ाता
तब एक दिन जंग खाए संदूक ने
खोले कुछ राज़
यहां सन्नाटे की सरगम है
अंधेरे हैं
घुटन है
यहां ख्वाब के दरवाज़े बंद हैं
यहां आते हैं भटके हुए राही
तिलिस्म में बंधे
यहां ऊब है अंतहीन
यहां कैद है एक पिशाची आत्मा
जो सोखती जाती है
जीवन जल
उम्मीद के पंछी यहां दम तोड़ देते हैं
मैं बौखलाई सी लौटी दरवाज़े की ओर
यहां सब तरफ दीवारें थीं
रोशनदान अंटा था धूल से
खिड़कियों पर असंख्य जाले थे
मुझे एक डायनामाइट की तलाश थी
जो बुझा पड़ा था मेरे झोले में
तीलियों में सीलन थी
यह अन्यमनस्कता के टूटने की शुरुआत थी
यहां से कहानी में एक नया मोड़ है
अब आगे धूप की तलाश थी
रोशनी की तलाश थी
और धूप और रोशनी बाहर कहीं न थी
फिर क्या था जिससे दहक रहा था
अंधेरा सीलन भरा घर
कहीं कुछ भी जलने की गंध नहीं
बस एक तेज़
बस एक आग
जिससे दिपदिपाता रहता
हर अंधेरा कोना
ऐसा लगने लगा जैसे दीवारें चलने लगी हों
बदलने लगी हों जगह
जैसे रोशनी रोशनदान से नहीं
दीवारों के पार से करने लगी हो प्रवेश
घर के अन्दर ही थे कितने सारे रास्ते
जो सब तरफ जाते थे
और सब तो लौट कर आते थे
घर की ही ओर
दबंग
वे जो अपनी दबंगता के लिए
प्रभावित करते रहे थे मुझे
दरअसल जीवन में सफल
न हो पाने पर
अपनी खीझ में
ऊंचा बोलते थे बहुत
मेरी कलम में स्याही कुछ ज़्यादा थी
मेरी कलम में स्याही कुछ ज़्यादा थी
मेरे कहने को बातें बहुत सारी थी
मेरे हाथों में ऊर्जा कुछ अधिक थी
मेरे कैनवास की लम्बाई कुछ ज़्यादा थी
मेरी सहने की सामर्थ्य कुछ ज़्यादा थी
यह जो लम्बी सी लकीर है
यह महज़ दीवानगी का दस्तावेज़ नहीं है
यह किसी मुल्क की सरहद नहीं
जिसे लांघा न जा सके
इसकी प्रकृति ज़रा विपरीत है
दूर से देखते हो तो बड़ी नज़र आती है
करीब से देखोगे तो जानोगे कितनी महीन है यह
कि यह डराती तो हरगिज़ नहीं है
प्यार से उठाओगे
तो ऊन के धागे सी सरक आयेगी हाथों में
ज़रा नरमाई से लपेटोगे तो
बन जाएगा नर्म मुलायम गोला
जिससे बुना जा सकता है
गुनगुने अहसासों में लिपटा स्वेटर
या डाला जा सकता है गले में मफलर
इससे बुन कर
तुम्हें नहीं खींचनी है बराबर लम्बी रेखा
और यह वो पगडंडी भी नहीं
जिस पर चलना हो तुम्हें जबरन
न यह रेल की पटरी है कोई
कि दो रेखाओं को चलना ही है समान्तर
मन की आंखो से देखो इसे
इसके साथ दौड़ लगाने को जी चाहेगा
कि यह रेखा शुरू होती है ठीक उस बिन्दु से
जिसे मिल कर उकेरा था हमने
एक कोरे कागज पर
दूर नहीं वह दिन
कितनी तो तरक्की कर गया है विज्ञान
वनस्पतियों की होने लगी हैं संकर और उन्नत किस्में
फूलों में भर दिए हैं मनचाहे रंग
देह का कोई भी अंग बदला जा सकता है
मन मुताबिक
हृदय, गुर्दा या आंख, कान
सभी का संभव है प्रत्यारोपण
मर कर भी न छूटे मोह दुनिया देखने का
तो छोड़ कर जा सकते हैं आप अपनी आंख
किसी और की निगाह बन कर
देखते रह सकते हैं इसके कारोबार
बशर्ते बचा रहा हो इस जीवन के प्रति ऐसा अनुराग
हांफने लगा न हो हृदय अगर
जीने में इस जीवन को दुर्निवार
तो छोड़ जाइए अपना हृदय
किसी और सीने में फिर धड़कने के लिए एक बार
फिर शीरीं-फरहाद, और लैला-मजनूं की तरह
धड़कता रहेगा यह
अगर है कोई स्वर्ग
तो वहां से झांक कर देखा करेंगे जिसे आप
जीते जी दूसरे की देह में
लगवा सकते हैं आप अपना गुर्दा
एक से अपना जीवन चलाते हुए
दूसरे से किसी अन्य का जीवन चलता है
यह सोच थोड़ी और गर्वीली हो सकती है आपकी चाल
यह तो कुछ नैतिकता के प्रश्न आने लगे हैं आड़े
वर्ना जितने चाहें उतने अपने प्रतिरूप
बना सकता है मनुष्य
शायद दूर नहीं वह् दिन भी अब
आपकी खोपड़ी का ढक्कन खोल
बदलवा सकेंगे जब आप इसमें उपजते विचार
राजनीतिकों की बात दीगर हैं
जिनके खोखल में अवसरानुकूल स्वतरू
बदल जाते हैं विचार और प्रतिबद्धताएं
आप जो स्मृतियों में जीते हैं
नफा नुकसान की भाषा नहीं समझते हैं
आपके भी हाथ में होगा तब यह उपाय
जगह-जगह होंगे ऐसे क्लिनिक
जिनमें जाकर आप
बारिश की स्मृतियों को बेच सकेंगे औन-पौने दाम
और बदले में रोप दी जाएंगी सफलता की कामनाएं तमाम
जिन चेहरों को भुलाना मुश्किल होगा
सिनेमा की डीवीडी की तरह बदली जा सकेंगी
उनकी छवियां तमाम
टाम क्रूज, जॉनी डेप्प और जेनिफर लोपेज
जिसकी भी चाहेंगे आप
उनकी स्मृतियों से अंटा होगा आपकी यादों का संसार
अज़ीम प्रेमजी फाउन्डेशन जयपुर में कार्यरत हैं.राजस्थान में कविता का युवा स्वर हैं. संपर्क- 9828112994,ई-मेल:devyani.bhrdwj@gmai.com
शानदार कवितायेँ।
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