अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-2, अंक-18, अप्रैल-जून, 2015
परिवर्तन
सभी चिन्तित परेशान
समाज, संस्कृति, शिक्षा
जागरूकता, सामर्थ्य, दृढ़ता के लिये
उथल पुथल मची सब ओर।
सोई हुई युवा शक्ति
थका हुआ बुद्ध
धर्मों की मर चुकी आत्मा
उथले पानी में बाल धोने से उछले छींटों से नहीं जागेंगे।
युगलों का गला रेतने से उठी चीखें
चकलों में रोटी सी बिछी आत्माओं की चित्कारें
सुन सकने से कुछ नहीं होगा
बुद्ध और गहरी नींद में सो जायेगा।
लक्ष्मी को विष्णु के पैर में चिकोटी काटनी होगी
बुर्का हटा फैंकना होगा
मर्दानगी के झूठे कपड़े फाड़ देने होंगे
मत सोचो कुछ बदल जायेगा
ये तो बस शुरुआत होगी।
खुद में उतरकर
एक दूसरे के सामने नंगे होकर
गहराई में उतरना होगा
जब तक फेफड़ों में हवा का पानी ना बन जाये।
ऊपर बैठे समाज के ठेकेदार
कपड़े ना उतार फेंकें
तुम्हें बचाने को खुद को बचाने सा ना देखें
तब तक गहराई के उस पार जाना होगा।
समय की नीयति के पार, तुम्हें दुनिया बदली हुई मिलेगी
पहली उबासी के बाद का सपना
उपभोक्तावाद में अब काम सुबह से शाम का ही है
बाकि सब ओवर टाइम है
नदी को बड़े घर की नौकरानी बनाने में
इसी तनख्वाह का तो हाथ है .
अल-सुबह निकल गोधुली तक
दुनिया तो हम बदलते हैं
पर ऐसे, जैसे नदी पार करते
हाथ धोना भूल गये .
गाँव में काम नहीं करूँगा
शहरों के पेड़ शालीन इंटेलेक्चुअल
ग्रामीण पेड़, एक गंवार पाँच जीवन
विज्ञान जिन्हें पैरासाइट कहता है .
कागज़ और स्याही को घोलने वाला पानी
गाँव शहर के पेड़ों को बराबर चूमता है
धूप के टुकड़े भी कोई बेईमानी नहीं करते
ईमान तो सिर्फ़ मेरा और तुम्हारा ही नहीं है .
आओ दुनिया बदलने से पहले
हाथ धोयें, आँखें साफ़ करें, आजीवन उपवास रखें .
आलिंगन।
श्गर जो मिल जाये कोई पेड़ जंगली
गले लगाना खामोश होकर
पत्तों की सांसें जीवन्त लगेंगी
चींटों की बाम्बी घर सी लगेगी।
मिलेंगे तुम्हें दीमकों के घरौंदे
करारी सी छाल मकड़ी के जाले
पतझड़ का मौसम
दुपहरी का ताव।
तुम यों गले लगाना
गले लगने को नये सिरे से परिभाषित करना
वो फांसी के फंदे सी डाल में
झूलती बचपन की सूखी हंसी भी तुम्हारी होगी।
रोटी को खुद में जलाती लकड़ी
तने की पगडण्डी, पड़ोसी सांप
सब तो तुम्हारे हो गये एक आलिंगन में
और वो कहते हैं शहरों में खुला वातावरण है।
चित्रांकन संदीप कुमार मेघवाल |
परिवर्तन
सभी चिन्तित परेशान
समाज, संस्कृति, शिक्षा
जागरूकता, सामर्थ्य, दृढ़ता के लिये
उथल पुथल मची सब ओर।
सोई हुई युवा शक्ति
थका हुआ बुद्ध
धर्मों की मर चुकी आत्मा
उथले पानी में बाल धोने से उछले छींटों से नहीं जागेंगे।
युगलों का गला रेतने से उठी चीखें
चकलों में रोटी सी बिछी आत्माओं की चित्कारें
सुन सकने से कुछ नहीं होगा
बुद्ध और गहरी नींद में सो जायेगा।
लक्ष्मी को विष्णु के पैर में चिकोटी काटनी होगी
बुर्का हटा फैंकना होगा
मर्दानगी के झूठे कपड़े फाड़ देने होंगे
मत सोचो कुछ बदल जायेगा
ये तो बस शुरुआत होगी।
खुद में उतरकर
एक दूसरे के सामने नंगे होकर
गहराई में उतरना होगा
जब तक फेफड़ों में हवा का पानी ना बन जाये।
ऊपर बैठे समाज के ठेकेदार
कपड़े ना उतार फेंकें
तुम्हें बचाने को खुद को बचाने सा ना देखें
तब तक गहराई के उस पार जाना होगा।
समय की नीयति के पार, तुम्हें दुनिया बदली हुई मिलेगी
पहली उबासी के बाद का सपना
उपभोक्तावाद में अब काम सुबह से शाम का ही है
बाकि सब ओवर टाइम है
नदी को बड़े घर की नौकरानी बनाने में
इसी तनख्वाह का तो हाथ है .
अल-सुबह निकल गोधुली तक
दुनिया तो हम बदलते हैं
पर ऐसे, जैसे नदी पार करते
हाथ धोना भूल गये .
गाँव में काम नहीं करूँगा
शहरों के पेड़ शालीन इंटेलेक्चुअल
ग्रामीण पेड़, एक गंवार पाँच जीवन
विज्ञान जिन्हें पैरासाइट कहता है .
कागज़ और स्याही को घोलने वाला पानी
गाँव शहर के पेड़ों को बराबर चूमता है
धूप के टुकड़े भी कोई बेईमानी नहीं करते
ईमान तो सिर्फ़ मेरा और तुम्हारा ही नहीं है .
आओ दुनिया बदलने से पहले
हाथ धोयें, आँखें साफ़ करें, आजीवन उपवास रखें .
आलिंगन।
श्गर जो मिल जाये कोई पेड़ जंगली
गले लगाना खामोश होकर
पत्तों की सांसें जीवन्त लगेंगी
चींटों की बाम्बी घर सी लगेगी।
मिलेंगे तुम्हें दीमकों के घरौंदे
करारी सी छाल मकड़ी के जाले
पतझड़ का मौसम
दुपहरी का ताव।
तुम यों गले लगाना
गले लगने को नये सिरे से परिभाषित करना
वो फांसी के फंदे सी डाल में
झूलती बचपन की सूखी हंसी भी तुम्हारी होगी।
रोटी को खुद में जलाती लकड़ी
तने की पगडण्डी, पड़ोसी सांप
सब तो तुम्हारे हो गये एक आलिंगन में
और वो कहते हैं शहरों में खुला वातावरण है।
वरुण शर्मा, अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय में शिक्षा का छात्र हैं । आप फ़िलहाल यूथ फॉर इंडिया फ़ेलोशिप के तहत ग्रामविकास नाम की संस्था के साथ उड़ीसा में कार्यरत हैं. ई मेल varun.sharma13@apu.edu.in पर संपर्क कर सकते हैं.
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