बातचीत:बौद्ध साहित्य, दलित साहित्य का प्रस्थान है/प्रो.तुलसीराम से रविकांत

अपनी माटी             (ISSN 2322-0724 Apni Maati)              वर्ष-2, अंक-18,               अप्रैल-जून, 2015


(सुप्रसिद्ध दलित चिंतक तुलसीराम अगस्त 2014 में लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ में एक व्याख्यान देने के लिए आये थे। उस समय उनका यह साक्षात्कार लिया गया था। वे लम्बे समय से गम्भीर बीमारी से पीड़ित थे। 13.02.2015 को उनका देहान्त हो गया। यह साक्षात्कार उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि है।. रविकांत)

चित्रांकन
संदीप कुमार मेघवाल
रविकांत:- दलित विमर्ष और दलित साहित्य की वैचारिकी क्या है? महात्मा बुद्ध या डॉ॰ अंबेडकर कहाँ से इस विचारधारा का प्रस्थान माना जाए, जबकि कुछ दलित चिंतन मक्खली गोषाल को दलित चिंतन का प्रेरक कह रहे है। आप की क्या राय है?
प्रो॰ तुलसीराम:- दलित साहित्य मूलतः वर्ण-व्यवस्था विरोधी साहित्य है। जाति व्यवस्था के चलते पूरे समाज को बहुत अत्याचार सहने पड़े हैं। दलित साहित्य में इसी की अभिव्यक्ति हो रही है। यह कोई नया साहित्य नहीं है। बौद्ध परम्परा से यह धारा दिखाई देती है। उस युग में भी वर्ण-व्यवस्था का विरोध हो रहा था। बौद्ध साहित्य इसी विरोध की उपज है। इसीलिए मैं मानता हूँ कि बौद्ध साहित्य दलित साहित्य का प्रस्थान है। मध्यकालीन संत साहित्य पर बुद्ध का सीधा प्रभाव है। लेकिन, हाँ यह जरूर है कि किसी भी संत ने बुद्ध का नाम नहीं लिया। दरअसल उस जमाने में ब्राह्मण परंपरा के पोषक बौद्ध मतावलम्बियों का संहार कर रहे थे। दलित संतांे पर भी अत्याचार हो रहे थे। इसका प्रमाण नाभादास के भक्तमाल में मौजूद है। आधुनिक दलित साहित्य की उत्पत्ति का मूल कारण डॉ॰ अंबेडकर थे। इस प्रकार मैं मानता हूँ कि दलित साहित्य का प्रारम्भ बौद्ध साहित्य के रूप में होता है।

इतिहास के तीन कालखण्डों की तरह दलित साहित्य भी तीन भागों में विभाजित है। आदिकाल में बौद्ध साहित्य, मध्यकाल में संत साहित्य और आधुनिक काल में दलित साहित्य। रही बात मक्खली गोषाल की तो इसका कोई इतिहास नहीं मिलता कि उसने दलित के लिए कभी कोई कल्याण किया हो। ‘विनय पिटक’ के अनुसार एक विद्यार्थी/षिष्य अपने गुरू के साथ जा रहा था। बुद्ध रास्ते में मिल गये। वह बुद्ध से प्रष्न कर रहा था। षिष्य ब्रह्मदत्त, बुद्ध की बात नहीं मान रहा था। उसके बारे में छोटी-सी टिप्पणी राहुल सांकृत्यायन ने की है। ‘विनय पिटक’ का अनुवाद करते हुए उन्होंने लिखा है कि मक्खली गोषाल एक नंग-धडंग साधुओं का नेता था, और उसी का षिष्य ब्रह्मदत्त बुद्ध से प्रष्न कर रहा है। मक्खली गोषाल के बारे में ‘विनय पिटक’ में ये टिप्पणी राहुल सांकृत्यायन की है। नंग-धडंग साधुओं का कोई नेता दलितों का नेता कैसे हो सकता है? उनका अलग सम्प्रदाय था। बहुत सारे षिव भक्त होते थे। नंग-धडंग साधुओं के बारे में कई बातें कर्नाटक में प्रचलित हैं। मैं मक्खली गोषाल को दलित परम्परा का किसी भी तरह से दार्षनिक नहीं मानता हूँ। वह बुद्ध का विरोध करता था। इसीलिए इस समय जो बुद्ध विरोधी हैं; वे मक्खली गोषाल के माध्यम से अपना विरोध करना चाहते हैं। मैंने अपने जीवन के इतने सालों में ऐसा कोई चरित्र नहीं देखा जिसने बुद्ध और अम्बेडकर के समतावादी मूल्यों की बात की हो।

रविकांतः- हमारा दूसरा सवाल अस्मितावादी विमर्ष से जुड़ा हुआ है। अस्मितावादी विमर्षों को उत्तर-आधुनिकता की परिणति माना जा रहा है। जबकि हाषिए के वर्ग ठीक से आधुनिक भी नहीं हुए हैं। तब क्या इसे विरोधाभासी माना जाए?
प्रो॰ तुलसीरामः- देखिए, पष्चिम से बहुत सारे ‘टर्म’ (षब्दावली) आए हैं। हिन्दी साहित्य में आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता। ये ‘टर्म’ फिट नहीं बैठते हैं। भारत की विकास परंपरा में यह स्थिति विमर्ष और उस आधुनिकता की देन नहीं है बल्कि भारत में एक पूरी परंपरा है विमर्षों की। वैदिक युग में बौद्ध विमर्ष था, वर्ण व्यवस्था के खिलाफ। इसी तरह विभिन्न धर्मों के लोग भारत में आते गए तो विमर्ष भी बदलते गये। मध्ययुग में सुल्तानों और मुसलमानों का शासन आया। उसके बाद ईरान और दूसरे देषों से सूफी संत आए। आज भी जितनी प्रसिद्ध मजारें है; ये हिन्दू मुसलमान दोनों के लिए बहुत ही प्रिय हैं। वस्तुतः जैसे निजामुद्दीन औलिया की अजमेर की दरगाह या ऐसी ही तमाम मजारे; ये सभी सूफी संत बाहर से आये थे, उनके प्रभाव में  सूफी लिट्रेचर और सूफीज्म (सूफीवाद) का विकास हुआ। सूफीवाद के प्रभाव में ही एक तरह से एक अलग संत-साहित्यकारों की धारा आई जिसमें कबीर, रैदास, तुकाराम और पलटूदास आदि हैं। इन दलित संतो की तमाम बातों में एक चीज समान रही। इसमें भाईचारे का प्रसार, समानता का प्रचार, जाति व्यवस्था का विरोध हैं। ये विमर्ष स्त्रियों और दलितों से संबंधित था। उसके लिए उत्तर-आधुनिकता या कोई और टर्म दिया जाता है, वह बेमानी है। वास्तव में यह विमर्ष उसका न होकर हमारे देष की पुरानी ‘रेषनल’ परम्परा के तहत विकसित होता रहा। हर युग में समानता की बात की गयी। जाति व्यवस्था के विरोध की बात की गयी। वह चाहे बौद्ध काल (आदिकाल) हो, मध्यकाल हो या आधुनिक काल, दलित साहित्य और स्त्री विमर्ष का उद्गम हुआ है। नये संविधान के लागू होने के बाद जब पहली पीढ़ी दलितों की षिक्षित हुई, उसने आगे चलकर लिखना शुरू किया। इसीलिए आधुनिक दलित साहित्य जिसमें ‘हम’ रहते हैं, उसका इतिहास मूलतः अम्बेडकर के संघर्षों का परिणाम है। वास्तव में, निरंतरता बनी हुई है बौद्धकाल से लेकर अब तक। जातीय आधारित भेदभाव और धर्म आधारित भेदभाव के खिलाफ ये लड़ाई आज भी  जारी है। ये सदियों से हैं और आज भी चल रही है।

रविकांतः- इतिहास लेखन की विभिन्न विचारधाराओं में, हाषिए के वर्गों में खासकर दलित वर्ग की किसी भी भूमिका को दर्ज नहीं किया गया। सबाल्टर्न हिस्ट्री राइटिंग द्वारा दलितों, शूद्रों के सांस्कृतिक प्रदेय और उनकी भूमिकाओं को रचने का प्रयास हो रहा है। लोक परम्परा में दलितों का महत्त्व अभिजन, सांमत या सत्तावर्ग से अधिक रहा है। आपकी क्या राय है? क्या इतिहास इस सन्नाटे को चीरकर दलितों-षूद्रों की भूमिका को महत्त्व देगा और देगा तो किस रूप में?
प्रो॰ तुलसीराम:- ये बात तो सही है कि दलितों का इतिहास बिल्कुल दरकिनार किया गया। पूरे समाज में, एक ही गाँव में तरह-तरह की जातियों के लोग रहते हैं। एक जाति किस तरह से रहती है, कितना अत्याचार सहती है देखते है लोग, लेकिन कोई रिआलाइज नहीं करता। उसको मान्यता नहीं देता क्योंकि वह एक परम्परा का अंग है। शोषण भी परम्परा बन गयी थी। जहाँ किसी भी तरह का शोषण परम्परा बन जाए तो वह एकदम अमानवीय हो जाता है। फिर उसके प्रति किसी का ध्यान नहीं जाता। सबाल्टर्न हिस्ट्री को यह श्रेय तो जाता है। सबाल्टर्न स्टडी करने वाले लोगों से शुरू हुआ कि जो सामाजिक तौर पर बहिष्कृत लोग हैं, उनके लेखन को उनके समाज को दुनिया के सामने उघोड़कर रखने की परम्परा शुरू हुई। जाहिर है उसका असर भारत पर भी पड़ा है और ये जो सामाजिक भेदभाव को उजागर करके सामने लाया जा रहा है यूरोप और अमेरिका में सबाल्टर्न कहा जाता है। भारत में वस्तुतः दलित आत्मकथाओं में ये चीजें रिफलेक्ट हो रही हैं। अभी भी उस तरह से सीधे-सीधे इतिहास नहीं लिखा जा रहा है। जो अत्याचार से पीड़ित समाज का सही-सही यथार्थ आत्मकथाओं में आ रहा है, उसे लोग अल्टर्नेटिव सोषलिस्ट बता रहे हैं। जबकि अभी जो इतिहास की मुख्य धारा है, उसमें ये चीजें नहीं आ पाई हैं। ये सिर्फ विकल्प प्रदान कर रहे हैं। अभी भी गैर दलित लेखकों में बहुत कम लोग हैं जो लिख रहे हैं। यह शुरूआती दौर में है। भारत में अगर कोई विषय सबसे ज्यादा डिस्टार्टेड है तो वह है इतिहास। इतिहास के पुनर्लेखन की आवष्यकता है। बड़े-बड़े इतिहासकार हमारे देष में हुए हैं; जिसमें मॉडर्न हिस्ट्री में विपिन चन्द्रा हैं। एंषियंट हिस्ट्री में आर॰ एस॰ शर्मा हैं, रोमिला थापर हैं। ये तमाम लोग हैं पर किसी ने भी अम्बेडकर के योगदान को कहीं भी नहीं दर्षाया है। ‘मॉडर्न इंडिया’ सबसे प्रसिद्ध पुस्तक है विपिन चंद्रा की। उस किताब में एक पंक्ति अम्बेडकर के बारे में है। वह भी इसलिए कि पूना एैक्ट पर उन्होंने साइन किया। बस एक लाइन, और कोई बात अम्बेडकर के बारे में नहीं। ऐसे इतिहास लिख रहे है लोग। इसीलिए मैंने कहा कि इतिहास सबसे ज्यादा डिस्टार्टेड है। इस वजह से इतिहास का पुनर्लेखन करने की जरूरत हैं। इस क्षेत्र में अभी दलित बहुत पिछड़े हुए हैं। जो कुछ इतिहास आ रहा है वह मॉडर्न जमाने के उत्पीड़न से प्रभावित होकर। यद्यपि उसका संबंध बहुत अतीत में जाता है, और पुराना है। यह कोई आधुनिक जमाने की बात नहीं है, ये तो सदियों से चला आ रहा है, लेकिन आधुनिक काल में यह दलितों की आत्मकथाओं में रिफलेक्ट होकर आ रहा है। दलितों का इतिहास इसी रूप में आ रहा है। वैकल्पिक इतिहास आत्मकथाओं के माध्यम से। हालांकि जिसे इतिहास कहते हैं उसकी व्यापकता इसमें नही है।

रविकांत:- दलित आत्मकथाओं में मुर्दहिया ने अपना मुकाम बनाया और पूरे भारतवर्ष प्रसिद्ध हुई है। इसकी इतनी प्रसिद्धि और व्यापकता की क्या वजह लगती है आपको?
प्रो॰ तुलसीराम:- देखिए, मुर्दहिया पर पहला कमेंट तभी आया था जब किताब आयी भी नहीं थी। उसकी एक-दो किस्तें आई थीं। चार-पाँच साल पहले समाजषास्त्री पी॰ सी॰ जोषी ने फोन करके मुझे सबसे पहले बताया कि जो काम हम जैसे सोषियोलॉजिस्ट और एन्थ्रोपॉलजिस्ट को करना चाहिए था, वह काम भारत में किसी ने नहीं किया। वह काम मुर्दहिया के माध्यम से शुरू हुआ है। इस तरह से उन्होंने कहा तो मैं चौंका और उन्होंने ये कहा कि यह एंथ्रोपोलॉजी का काम हैं। मुझे उनकी बात से प्रेरणा मिली कि जीवन के यथार्थ को एकदम उसी रूप में लाना चाहिए। मैंने उसी रूप में कोषिष की उसको लाने की। सौ सवा सौ समीक्षाएं तो अब तक आ चुकी हैं। करीब पचास विद्यार्थी देष भर के विष्वविद्यालयों में मुर्दहिया पर एम॰ फिल॰, पी-एच॰ डी॰ कर रहे हैं। ये संख्या मणिकर्णिका के आने पर और बढ़ेगी। ये मैंने खुद नहीं सोचा था कि मुर्दहिया शोध का विषय बन जाएगी, वह भी इतने बड़े पैमाने पर। वर्धमान विष्वविद्यालय देष का पहला विष्वविद्यालय है जिसने किताब आने से पहले, दो-तीन किस्तों के आधार पर ही एम॰ ए॰ और एम॰ फिल के कोर्स में मुर्दहिया को लागू किया था। ये बात है सन् 2010 की। इस तरह से मैंने देखा कि तमाम विष्वविद्यालयों में, जे॰ एन॰ यू॰ में भी अलग-अलग विषयों में इस पर शोध हो रहे हैं। समाजषास्त्र में, राजनीति विज्ञान में और हिन्दी साहित्य तथा एक अंग्रेजी का विद्यार्थी भी शोध कर रहा है। केवल हिन्दी में नहीं बल्कि तमाम विषयों में शोध हो रहे हैं। बड़ी हैरत हुई थी, व्यक्तिगत तौर पर मुझे। मैं नहीं समझता था कि इसका इतना व्यापक असर पड़ेगा। खुद नामवर सिंह ने लोकार्पण कार्यक्रम में बोलते हुए कहा था ‘‘कि ग्रामीण जीवन का सही चरित्र-चित्रण जो मुर्दहिया में मिलता है वो प्रेमचन्द की रचनाओं में भी नहीं मिलता।’’ लेकिन बहुत सारे लोगों ने कहा कि उसी कार्यक्रम में नामवर सिंह ने यह भी कहा कि इसे पढ़ते हुए औपन्यासिक अनुभूति होती है। इस पर नामवर सिंह की बहुत आलोचना हुई कि वे दलित लेखन को सीमित करते हैं। आत्मकथा को उपन्यास कहते हैं। ‘मुर्दहिया’ को जिस तरह से लोगों ने लिया और जो प्रसिद्धि मिली, हर वर्ग में और पहली बार अलग तरह से समीक्षाएँ आईं इसकी, वह अचरज है मेरे अपने लिए। लोगों के बीच ईर्ष्या भाव बहुत है। ये मैंने देखा है। कई लोग जो अपने को बड़ा साहित्यकार मानते थे, उनको ‘मुर्दहिया’ के कारण बड़ी तकलीफ हुई। उनके लेखन की इतनी चर्चा लोग क्यों नहीं करते हैं? पर मुर्दहिया के लिए तो कई लोग यही कहते हैं कि वह साहित्यकार तो है ही नहीं। कई लोग और तर्क देते हैं। उन लोगों को ये बुरा लगता है कि कई लोगों ने मुर्दहिया के एस्थेटिक्स की बहुत प्रषंसा की है। वे सभी सवर्ण हैं। इस आधार पर वे इसको खराब रचना बताते हैं कि जब सवर्ण लोग इसकी तारीफ कर रहे हैं तो जरूर गड़बड़ है। हर एक समीक्षक ने, और ये समीक्षक नब्बें प्रतिषत गैर दलित ही हैं, ने ये बात कही है कि सामाजिक समरसता को बढ़ावा देने वाली आत्मकथा है ‘मुर्दहिया’। सबने इस बात की तारीफ की है। लेकिन लखनऊ विष्वविद्यालय में यह तर्क दिया गया कि अगर यह किताब पढ़ाई गई तो सामाजिक समरसता को खतरा है। मुंषी जी द्वारा मेरे सहपाठी मिसिर बाबा की पिटाई का जो जिक्र आया है उसके पीछे कोई अपमान का भाव नहीं है। दया का भाव है। जब मैं लिख रहा था तो मेरे सामने वो पूरा दृष्य आ गया। मैंने इसलिए उसका उल्लेख कर दिया। भाई, वह जीवन का एक पार्ट था। उसमें अष्लीलता डालने का कोई उद्देष्य नहीं था। लेकिन लोगों की अपनी व्याख्या है। मैं हमेषा यही कहता हूँ कि किसी भी व्यक्ति का कोई लेखन जब प्रकाषित हो जाता है तो वह ‘पब्लिक प्रापॅर्टी ’ हो जाता है। पब्लिक को ये अधिकार है, और होना भी चाहिए कि वह उसको जिस रूप में चाहे, रखे। लोग क्रिटिसाइज करते हैं। मैं उसका स्वागत करता हूँ। तारीफ करते हैं तो भी उसका स्वागत करता हूँ। मुझे बुरा नहीं लगता है क्योंकि मैं ये मानकर चलता हूँ कि ये पब्लिक प्रॉपर्टी है। उस पर अब मेरा अधिकार नहीं है, समाज का है। मुर्दहिया अब मेरी व्यक्तिगत प्रॉपर्टी नहीं, समाज की प्रॉपर्टी है। इसकी प्रसिद्धि ने मुझे अचरज में डाला है। मैं नहीं समझता था कि इसका इतना व्यापक असर होगा। मुझे देषभर से फोन आते हैं, उसमें महिलाएँ भी हैं और पुरूष भी। यहाँ तीन महिलाओं के फोन का जिक्र करूँगा; नाम नहीं बताऊँगा। इसमें एक 81 साल की बुजुर्ग महिला इलाहाबाद विष्वविद्यालय से रिटायर्ड प्रोफेसर हैं। एक बनारस में अभी पढ़ा रही हैं। एक केरल एर्नाकुलम में है। इन तीनों ने लगातार एक ही प्रतिक्रिया दी। ‘काष ! मैं आपकी क्लॉस फेलो होती (हँसते हुए) आपकी समकालीन होती ।’

रविकांत:- मुर्दहिया में आपकी जीवन यात्रा हाईस्कूल तक की है और मणिकर्णिका में आपका बनारस तक का सफर है। वस्तुतः मणिकर्णिका जीवन के किस भाग पर केन्द्रित है?
प्रो॰ तुलसीराम:- ‘मणिकर्णिका’ 26-27 की उम्र तक का सफर है। 1949 से 1964-65 तक तो आजमगढ़ है। 1966 से 76 तक दस साल बनारस का है। आजमगढ़ से बस द्धारा मैं बनारस जा रहा था। एक लाष गाड़ी बस के साथ-साथ जा रही थी। कुतुहल मेरे दिमाग में था। दूसरे दिन बनारस में मणिकर्णिका देखने गये। इसीलिए वो मणिकर्णिका शीर्षक रख दिया। मणिकर्णिका समानार्थी है मुर्दहिया का। मुर्दहिया में मुर्दे जलाए और गाढ़े जाते हैं। मणिकर्णिका में मुर्दे जलाए जाते हैं। इस तरह दस साल तक वहीं बी॰ए॰, एम॰ए॰ किया। पीएच॰ डी॰ भी मेरी वहीं से हुई। चार महीने और रूकता तो वहाँ मुझे डी॰ लिट् मिल गयी होती। छोड़कर चला आया कम्युनिस्ट पार्टी में काम करने। वह इमरजेंसी का दौर था।

रविकांत:- आखिरी सवाल, ये दोनों आपके टाइटिल है वो स्थान से जुड़े हुए हैं-मुर्दहिया और मणिकर्णिका। इसके पीछे क्या वज़ह है? स्थान क्यों लिया, खास कर मरघट।
रविकांत
सहायक प्रोफेसर,हिंदी विभाग
लखनऊ विश्वविद्यालय,
पता- 24, मिलिनी पार्क,
लखनऊ विश्वविद्यालय परिसर,
लखनऊ - 226007

संपर्क मो-9451945847,
ई-मेल:rush2ravikant@gmail.com
प्रो॰ तुलसीदास:- मुर्दहिया जो मैंने लिया वह अपने गाँव की बहुत ही स्टेªटजिक लोकेषन थी। मुर्दहिया के पष्चिम तरफ सटा हुआ एक-डेढ़ फर्लांग दूरी पर दलितों की बस्ती थी। इसके बाद ब्राह्मणों की बस्ती फिर अहीर होते थे। ये तीन कम्युनिटी के लोग थे और करीब एक किलोमीटर के दायरें में बसे हुए थे। मुर्दहिया से हमारी बस्ती शुरू होती थी और फिर 2-3 किलोमीटर लम्बा जंगल पड़ता था। मुर्दहिया की स्टेªटजिक लोकेषन ये थी कि कही भी कोई भी काम हो मुर्दहिया होकर के ही जाना होता था। गाय, भैंस चराना ़स्कूल जाना वहीं मुर्दहिया से होकर ही रास्ता था। कोई दुकान जाना हो या बाजार, सारे रास्ते मुर्दहिया से गुजरते थे। इसलिए हर व्यक्ति का मुकाबला मुर्दहिया से था। कम से कम हमारी दलित बस्ती के हर आदमी का। मजदूर जा रहे हैं खेत में काम करने तो वहीं से होकर जाना होता है। इस तरह मुर्दहिया एक अभिन्न अंग की तरह हो गयी थी। इसीलिए हमने नाम मुर्दहिया रखा। मुर्दहिया एक व्यक्ति की आत्मकथा नही हैं बल्कि हमारे गाँव में किसी की भी आत्मकथा लिखी जाती तो भी उसका नाम मुर्दहिया ही होता मुर्दहिया कई मायने में आकर्षक थी जहाँ बहुत सारे काम सम्पन्न होते थे-खेती से लेकर चारवाही तक। वहीं पर मुर्दे दफनायें भी जाते थे और जलाए भी जाते थे और यहाँ तक जानवरों की खाल भी वहीं निकाली जाती थी। खाल निकल जाने के बाद हजारों की संख्या में गिद्ध वहाँ इकट्ठा हो जाते थे। बहुत गिद्ध होते थे। मांस खाकर गिद्ध उस कंकाल के पास घण्टों बैठे रहते थे। मुझे बड़ा आकर्षक लगता था। चुपचाप उनका बैठे रहना बड़ा आकर्षक लगता था। इसीलिए काफी लिखा है मैंने गिद्धों के बारे में। सच पूछिए जिस समय मैं लिख रहा था, गिद्धों के बारे में तो मेरे दिमाग में बार-बार खटखा आ रहा था कि लोग क्या सोचेंगे कि ये आदमी पागल है गिद्धों के बारे में लिख रहा है; आत्मकथाओं में। बाद में मैंने देखा कि वही सबसे ज्यादा प्रचलित हुआ। लोगों ने बड़ी तारीफ की है उसकी। तो मुर्दहिया कुछ इस तरह से आया। दूसरा जब मैं बनारस जा रहा था आजमगढ़ से। आकस्मिक रूप से ऐसी ही घटना हुई। बस में टिकट लेकर बैठा तो पास ही में काली-सी मिनी बस थी उसमें एक मुर्दा। उसका नाम ही था स्वर्गवास मेल। हमारी बस चली तो साथ-साथ, पीछे-पीछे मुर्दा गाड़ी भी चल दी। बस के साथ-साथ वह बनारस तक गयी। कभी आगे, कभी पीछे। इसकी भी कल्पना हरदम मेरे साथ उस यात्रा में चलती रही और ये तो सुन रखा था कि मणिकर्णिका घाट में जिसको जलाया जाता है उसको मुक्ति मिल ही जाती है और न जाने क्या-क्या। तो बनारस में, मैं उस दिन जिस दोस्त से परिचय हुआ था उन्हीं के वहाँ ठहरा, और दूसरे दिन मैं मणिकर्णिका ही गया पूछते-पूछते, देखने के लिए। वहाँ देखा कि गंगा की तलहटी तक मुर्दे जल रहे थे तो मुझे बड़े ही रोचक ये सब दृष्य लगे। मुर्दहिया और उसमें (मणिकर्णिका में) समानता लगी। बनारस का वह हिस्सा तो लीजंेड था ही। इसीलिए मेरे दिमाग में आया कि मुर्दहिया का दूसरा भाग मणिकर्णिका ही होगा।

बहुत-बहुत धन्यवाद।

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