अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-2, अंक-18, अप्रैल-जून, 2015
१.
न द्रुत, न विलंबित
न तीन ताल, न झप ताल
हड़ताल है स्थायी ताल
कलकत्ता के संगीत में
कभी बारह
कभी चौबीस घण्टे का
हड़ताल बजता ही रहता है
बन्द बन्द बन्द
कहता है कोई
और अपनी साँसे रोककर
एक पैर पर खड़ा हो जाता है
पुरनिया शहर कलकत्ता।
२.
नींद नहीं आती है कलकत्ता को
दिन ढले उगते हैं गाछ सोने के
शहर की बदनाम गलियों में
अपनी यशोधराओं को
उनींदा छोड़ निकल पड़ते हैं सिद्धार्थ
देर रात तक अंगड़ाइयाँ लेता
शहर जब पा लेता है निर्वाण
अपनी देह से
सुबह मुर्गे की बाँग के साथ
बरामद होते हैं गलियों से
अपनी खुशबू लुटा चुके
मोगरे के फूल, खाली शीशियाँ
और लैटेक्स के बने रंगीन गुब्बारे ।
३.
एम्बुलेंस गाड़ी को भी
करना पड़ेगा इंतज़ार
इस वक़्त कलकत्ते का दिल
धड़क रहा है बीच सड़क
कलकत्ता इस वक़्त
ऐसे घोड़ों की तरह चलता है दुलकी चाल
जिनके पैरों में ठोंकी जा चुकी है नाल
और जिन्हें पहनाई जा चुकी है नकेल
कलकत्ते में, संयत क्रोध का
उत्कृष्ट प्रदर्शन है, जुलूस
जैसे हुगली हो जाती है मंथर
और शांत, जाकर खाड़ी में
जुलूस को भी अंततः
होना होता है मौन
पहुँच कर मेट्रो चैनल
शहीद मीनार या अधिक से अधिक
ब्रिगेड परेड ग्राउण्ड पर।
४.
डबल-डेकर बस है यह
जिसकी ऊपरी मंज़िल पर
बिलकुल सामने की तरफ बैठा
सोच रहा हूँ मैं, कि कितनी
जल्दी निबट गया काम
विक्टोरिया-हाउस में आज
बहुत थोड़े लोग ही थे
जो आए थे जमा करने
अपने-अपने बिजली के बिल
यह क्या
यह कैसी भीड़ है खड़ी
सड़क के बीचों-बीच अड़ी
चेतावनी देती हुई कि खाली करो
बिलकुल अभी खाली करो बस को
डबल-डेकर बस की खिड़की वाली
सीट पर बैठा, मैं सोचता हूँ
अभी तो आगे जाना है मुझे
और टिकट भी ले चुका हूँ
क्यूँ खाली करूँ अभी बिलकुल अभी
और ये कौन लोग हैं
अपनी सीट पर बैठा है
ड्राइवर भी अविचल, किसी सोच में डूबा
कि तभी शीशों के टूटने की आवाज़ें
आती हैं कानों तक
डबल-डेकर से निकल कर
किसी मकान की तरफ भागते हैं हम
दस-पैसे बढ़े किराए का गुस्सा
झेल रही है डबल-डेकर
इस गुस्से में छिपा बैठा
प्रतिवादों का शहर कलकत्ता
बात-बेबात जो उठा लेता है
पत्थर, अपने हाथों में और
उछाल देता है उन्हें हर उस चीज़ की तरफ़
जिसमें दिखता है उसे सरकार का चेहरा ।
५.
पान की दुकानें हैं
लस्सी है, पेड़े हैं
तंग गलियाँ हैं
गलियों में मंदिर हैं
रिक्शे हैं, गाड़ियाँ हैं
लुंगी है साड़ियाँ हैं
कई भाषाओं का वज़न
सिर पर उठाए हिन्दी ज़ुबान है
ठेले को धक्के देता पुरबिया जवान है
गंगा के घाट न सही, सड़कों पर
कल-कल करता गंगा का जल है
अजी बनारस है,
“बड़ा-बाज़ार” का भेष धरे
कलकत्ते के भीतर छिपा
यह चकाचक बनारस है ।
६.
आदमी नहीं रहते
रंग रहते हैं कलकत्ता में
आदमी नहीं लड़ते
रंग लड़ते हैं कलकत्ता में
लाल रंग वाली मशहूर इमारत से
झक्क सफ़ेद धोती के ऊपर
कड़क इस्तरी वाली कमीज़ पहन
बोलता है जनता का नायक
और जनता बँट जाती है रंगों में
लाल और हरा रंग
एक-दूसरे को करते रहते
अक्सर लहू-लुहान, कलकत्ता में ।
७.
धर्मतल्ला से चलती है
पाँच नंबर की ट्राम
श्यामबाज़ार के लिए
दचके खाती, टुन-टुन करती
हड़-हड़ गड़-गड़ बजती
धर्मतल्ला चौराहे पर
खड़े लेनिन की चिट्ठी
पहुँचती है पाँच नंबर की ट्राम
श्याम बाज़ार पाँच-माथा मोड़ पर
घोड़ा सवार सुभाष बोस के नाम
पाँच नंबर की ट्राम
अनवरत यात्रा पर है
इतिहास के एक अध्याय से
दूसरे अध्याय के बीच
होते जो “बाबा”
तो खुश होते
कि पहना हुआ है
कलकत्ता ने जनेऊ
आज भी अपनी छाती पर।
८.
सिमला स्ट्रीट में
सितार के तार छेड़ता है
भविष्य का परिव्राजक सन्यासी
तो काँपती हैं हवाएँ
जोड़ासांकों की गलियों तक
जोड़ासांकों में
हारमोनियम पर बैठता है
भविष्य की कविता का नायक
तो थिरकती हैं सेमल की पत्तियाँ
सिमला स्ट्रीट के आखि़री छोर तक
जॉब चारनॉक के शहर में
अलग-अलग बजते हैं
दुनिया के सबसे खूबसूरत वाद्य
नहीं देखी कलकत्ते ने
सिमला स्ट्रीट- जोड़ासांकों की जुगलबंदी
एक-दूसरे की तरफ़ पीठ किए हुए
गाते रहे दो संगतकार कलकत्ते में ।
९.
बड़ी आसानी से
मिल जाता है “दिल्ली होटल”
वैसे न पसंद आए दिल्ली तो
कमी नहीं “पंजाब होटल” या
“बॉम्बे होटल” की इस शहर में
“मारवाड़ी होटल” भी
मिल ही जाता है ढूँढने पर
नहीं मिलता आसानी से
“कलकत्ता होटल” कलकत्ते में ।
१०.
एक टाँग पर
बैसाखियों के सहारे खड़ा है
शहर का बूढ़ा लाइब्रेरियन, दीप्ति-दा
कोई नहीं जानता, कैसे
कब और कहाँ खो गई
उसकी दूसरी टाँग
वह कौन सी तारीख थी
कौन सा दिन और वार था
जब थामी थी उसने यह
काठ वाली बैसाखी
मुहल्ले के पुराने अड्डेबाज़
बताते हैं, सन सतहत्तर तक
देखा गया था दोनों टाँगों पर
साबुत चलते हुए, दीप्ति-दा को ।
११.
टुन-टुन टुन-टुन की धुन पर
नाचता है तीन-सौ-साल प्राचीन शहर
टुन-टुन बोलती है घण्टी
चरित्तर के हाथ जब-जब
थिरकते हैं काठ के आयताकार हैंडिल पर
महारानी विक्टोरिया के जमाने के नहीं हैं
पर चलाते हैं चरित्तर उसी जमाने का रिक्शा
“ओ नीलम परी”, आवाज़ देते हैं चरित्तर
बड़े से बड़ा रईश “इस बखत” नहीं बैठ सकता रिक्शे में
कि यह नीलम परी के “इसकूल का टेम है”
कैसा भी, किसी भी रुतबे का भद्रलोक
कैसी भी, किसी भी रुतबे की भद्रमहिला
चाहे कोई भलेमानुष खड़ा हो, इस बखत तो
कुबेर का खज़ाना भी छोड़ दे चरित्तर रिक्शेवाला
पाँच साल की “नीलम परी” को लिए
महारानी विक्टोरिया के जमाने वाले रिक्शे में नधा
दौड़ रहा है चरित्तर पद्म-पोखर रोड पर
उसे पहुँचना है “खालसा इंगलिश इसकूल”
बृहद व्यास वाले काठ के पहिये की
गुड़ुर-गुड़ुर ध्वनि के साथ, टुन-टुन
टुन-टुन का संगीत बजता रहता है
कलकत्ता के कानों में देर तक ।
१२.
कोयले के टुकड़ों पर
एक स्त्री करती है चोट
और पृथ्वी की कोख में सोये
जीवाश्मों में होती है हरकत
चूल्हा तैयार हो रहा है
कुछ सूखी लकड़ियाँ, थोड़ा काठ कोयला
और पत्थर कोयला सजा कर रखे जाते हैं
कलकतिया चूल्हे में
चूल्हे को सुलगाते हुए बराबर
खनकती हैं हाथों में काँच की चूड़ियाँ
एक-बारगी आँखों में
उतर आता है छल्ल से पानी
बहुत धुँआ करता है यह चूल्हा
पड़ोसियों की आँखेँ जलती हैं धुँए से
मकान-मालिक की सख्त हिदायत है
की ले आना चाहिए एक स्टोव
अब मकान के आँगन से उठकर
चूल्हा आ गया है सड़क पर
सड़क आखिर सरकार की है
सरकारी जगहों पर धुँआ करने पर
नहीं है रोक-टोक कलकत्ते में
हवा पाकर धधकता है चूल्हा
कोयला बदल चुका अंगारों में
लौट आता है चूल्हा रसोई में
स्त्री चुपचाप अदहन रख देती है
चूल्हे पर धीरे-धीरे खदबदाता है
पानी कलकत्ते का, कोयले की आंच पर ।
१३.
आधे मन से नकारता पूंजीवाद
आधे मन से स्वीकारता साम्यवाद
आधा बुर्ज़ुआ, आधा रिवोल्यूशनरी कलकत्ता
आधा सड़क पर, आधा अंदरमहल में
आधा प्रेम में डूबा, आधा विद्रोह के गीत गाता
अंततः
एक बाउल जो लौट लौट आता
अपनी प्यास के साथ “इच्छामती” के तट पर ।
१४.
तेरह पर्व
बारह महीनों में निबटाता
एक हाथ से सजाता नई रंगोली, तो
दूसरे से पोंछता सिंदूर के दाग
(जिस) धर्म को अफीम
कह गए कार्ल मार्क्स
उसे ही खाता पचाता
रोज़ ही विसर्जित करता
स्वयं को इच्छाओं के जल में
और जीवित हो जाता, रोज़ ही
अतृप्त वासनाओं के साथ
उत्सवधर्मी कलकत्ता।
१५.
हुनरमंद हाथों के लिए
काम की तलाश पूरी होती है यहाँ
तनी मुट्ठियों को
पुकारता है हाथ-लहराता जुलूस
हर सुरीले गले के लिए
एक वाद्य है इंतज़ार करता
मेहनत के पसीने को यह
बदल देता सिक्के में
गुरबत में भी यहाँ
सिर उठा कर जीता है आदमी
यूं ही नहीं कहते “डोमिनिक दा”
खुशियों का शहर, कलकत्ता ।
(“डोमिनिक दा”, डोमिनिक लैपियर, “द सिटी ऑफ ज्वाय” के लेखक)
१६.
कवि तिरलोचन की ‘चम्पा’
से हम सब रहते डरे डरे ।
जाने कब वो दिन आए जब
कलकत्ते पर ‘बजर गिरे’ ।
‘काले अक्षर’ चीन्ह ले चम्पा
लिखना पढ़ना सीख ले चम्पा ।
बालम संग आजा अलबत्ता
नहीं बुरा है यह कलकता ।
रोटी रोज़ी हो मजबूरी
तो कलकत्ता बहुत ज़रूरी ।
‘बजर गिरे’ तो बोलो चम्पा
मजबूरी पर बजर गिरे ।
१७.
गर्मियों की
एक उमस भरी दोपहर
लाल-बाज़ार पुलिस हेड-क्वार्टर से
ब-मुश्किल सौ मीटर की दूरी पर
कृष्णचूड़ाओं से जंग छेड़ रखी है
अकेले सेमल के इस दरख्त ने ।
जबकि लाल-लाल गुच्छों में
गदराया है शहर का मौसम
ये उजले नर्म फ़ाहे
पंखों से भी हल्के
उड़ने लगे हैं हवा में
जैसे उजले बगुलों का
एक झुण्ड कहीं दूर-देश से
उड़कर चला आया हो ।
कलकत्ता पुलिस की
लाल बत्ती वाली काली-वैन
अभी-अभी गुज़री है बगल से
बिलकुल अभी-अभी एक
दूध-सा उजला रुई का फ़ाहा
उड़ता हुआ आकर बैठ गया है
मेरे कंधे पर ।
अभी-अभी, बिलकुल अभी-अभी
कौंधा यह विचार मन में
कितनी रुई काफ़ी होगी
आने वाली सर्दियों के लिए
एक गुनगुनी रज़ाई की खातिर ।
१८.
‘असभ्य’
सबसे बड़ी गाली है
कलकत्ता के शब्दकोश में
अनियंत्रित क्रोध में भी
अधिक-से-अधिक किसी ‘पशु’
का नाम लेते हैं कलकत्ता वाले
जहाँ भीड़ हो वहीं
कतारबद्ध खड़े हो जाते हैं
अपनी बारी की प्रतीक्षा करते हैं
पाँच रुपये की टिकट
खरीद कर बस में सवार
हर आदमी है ‘भद्रलोक’
हर औरत है ‘भद्रमहिला’
कलकत्ता की तहज़ीब में
माँ-बहनों को नहीं पुकारा जाता
यहाँ आपसी झगड़ों में ।
१९.
तीन गाँव आज भी
रहते हैं कलकत्ता में
कंपनी बहादुर के जाने के बाद भी
जैसे महीन खुशबूदार चावल में
रहते हैं अदृश्य कंकड़
गोविन्दपुर
सुतानुति
कलिकाता
गाहे-ब-गाहे
दाँत के नीचे आ ही जाते हैं
बिगड़ जाता है ज़ायका
काले लाट के मुँह का ।
२०.
बरिसाल को सदा के लिए कह कर विदा
वह हो गया अंततः कलकत्ता का
कलकत्ता, जहाँ बदी थी मौत
एकदिन, इस तरह कि
कवि था अनमना-सा सड़क पर
मौत की तरह घरघराती एक ट्राम थी
और थीं क्षत-विक्षत
‘धूसर पाण्डुलिपि’ की कविताएं
क्षत-विक्षत ‘रूपसी बांग्ला’
क्षत-विक्षत ‘वनलता सेन’
एक नक्षत्र के टूटने की
दुख भरी कथा है कलकत्ता,
कलकत्ता एक कवि की मौत का
गुनहगार भी है ।
(जीवनानन्द दास के लिए)
२१.
इतिहास बनाते हैं जो
इतिहास उन्हें याद रखता है
बुतों की तरह ।
एक नहीं
दो नहीं
तीन-तीन बुत
जिनके हाथ आज भी
उठे रहते हैं, ‘राईटर्स बिल्डिंग’ की ओर ।
विनय
बादल
दिनेश
के नामों पर नगर निगम ने
सजा रखा है एक बाग
कलकत्ता के बीचों-बीच ।
२२.
जो होता, कलकत्ता का, कोई स्थायी चेहरा
तो वह होता ‘उत्तम कुमार’ जैसा ।
हू-ब-हू उत्तम कुमार के जैसा
करिश्माई शहर कलकत्ता
‘सात सागर तेरह नदी पार’ से
आतीं सुंदर राजकन्याएँ जिसके सपनों में ।
प्रेम में डूबे शहर की
स्मृतियों में आज भी ताज़ा है,
बालीगंज सर्कुलर रोड का तिलिस्म
जहाँ रहती आईं ‘मिसेज़ सेन’
नज़र-बंद एक अपार्टमेंट में ।
कलकत्ता में प्रेम में डूबी
हर लड़की दिखती है ‘सुचित्रा’ ।
कलकत्ता में जब-जब
थमती है बुज़ुर्गों की दमे की खांसी
वे गाते हैं ‘उत्तम-सुचित्रा’ के युगल-गीत;
‘एई पथ जोदि न शेष होय’ ।
(उत्तम-सुचित्रा के लिए)
२३.
कलकत्ता के खूबसूरत चेहरे का
काला तिल है, ‘पातीराम बुकस्टाल’ ।
यहीं मिला था मुझे
बांग्ला का अद्भुत कवि कार्तिक देवनाथ
एक लिटिल मैगज़ीन के आवरण में
छिपकर हाथ हिलाता, जिस पर छपा
था ‘कविता कविता’ ।
एकदम कॉलेज-स्ट्रीट जंक्शन पर
छोटा-सा तीर्थ यह साहित्य का ।
ठीक इसके बगल में
कॉफी-हाउस में जब-जब उठे तूफ़ान
किसी प्याले में तो झाग यहीं देखा गया
सबसे पहले ।
कई बार तो
सचमुच के तूफ़ान भी उठे
इसी छोटे से बुकस्टाल से,
‘कल्लोल’ का संगीत
‘भूखी पीढ़ी’ का वाद्य
कई सुखद स्मृतियों का संग्रहालय
यह ‘पातीराम बुकस्टाल’ ।
जितनी भी खूबसूरत जगहें हैं दुनिया में
होना चाहिए वहाँ एक ‘पातीराम बुकस्टाल’
हर खूबसूरत चेहरे पर चाहिए एक काला तिल ।
२४.
पता नहीं उस दिन
तापमान कितना था, कलकत्ता का
कितनी थी आर्द्रता, कलकत्ता की हवा में
रोज़ की तरह ही घाट पर आकर
लगी थी ‘लॉन्च’,
रूठकर चला गया वह सदा के लिए,
हुगली की धार में उतरती चली गईं साँसें ।
ऐसी भी क्या नाराज़गी कि
शाम के झुटपुटे में अलविदा कह दिया जाए
ज़िंदगी को एक ही झटके में, और इस तरह ?
रेडियो पर उद्घोषिकाएँ, मधुर आवाज़ में
आज भी बताती हैं म्यूज़िक-ट्रैक बजने से पहले
‘कथा-ओ-सुर पुलक बंद्योपाध्याय’ ।
कलकत्ता के होठों पर पूरी नमी के साथ
आज भी चिपकी है एक पहेली,
जिसने धरण किया ‘पुलक’ नाम
कैसे हार गया जीवन के दुखों से ।
एक अति-संक्षिप्त सुसाइड-नोट
छोड़कर चला गया था गीतकार
हार की जिम्मेदारी खुद ही लेते हुए ।
‘आबर होबे तो देखा’ दृ एक उदास धुन
बजती है आज भी मन्ना दे की आवाज़ में ।
(पुलक बंद्योपाध्याय बांग्ला फिल्म-जगत के जाने-माने गीतकार और संगीतकर थे, जिन्होंने अवसाद में, ‘लॉन्च’ से कूद कर हुगली नदी में आत्म हत्या कर ली थी)
२५.
न जाने कब से
झुका हुआ है एक बूढ़ा
अपनी पीठ के ऊपर से
गुज़र जाने देता, हर एक को
स्वागत करता हर एक का, अक्लांत ।
यह बूढ़ा पुल हावड़ा का
जिसका दुख बहता रहता
ठीक उसके पेट के नीचे से ।
पीली-पीली गाड़ियाँ
निकल जाती हैं दौड़ती
हावड़ा के पुल से, ज्यों
हल्दी के बाद खुश-खुश
लड़कियाँ, पूरब के किसी गाँव की ।
उस पार है कलकत्ता
उस पार है कलिम्पांग ब्रेड
उस पार है मदर-डेयरी दूध
उस पार है गरम लूची-तरकारी
उस पार है दार्जिलिंग चाय
और आनंद-बाज़ार पत्रिका
साईकिल सवार के हाथ से
उछलती किसी बालकनी की ओर ।
१.
चित्रांकन संदीप कुमार मेघवाल |
न तीन ताल, न झप ताल
हड़ताल है स्थायी ताल
कलकत्ता के संगीत में
कभी बारह
कभी चौबीस घण्टे का
हड़ताल बजता ही रहता है
बन्द बन्द बन्द
कहता है कोई
और अपनी साँसे रोककर
एक पैर पर खड़ा हो जाता है
पुरनिया शहर कलकत्ता।
२.
नींद नहीं आती है कलकत्ता को
दिन ढले उगते हैं गाछ सोने के
शहर की बदनाम गलियों में
अपनी यशोधराओं को
उनींदा छोड़ निकल पड़ते हैं सिद्धार्थ
देर रात तक अंगड़ाइयाँ लेता
शहर जब पा लेता है निर्वाण
अपनी देह से
सुबह मुर्गे की बाँग के साथ
बरामद होते हैं गलियों से
अपनी खुशबू लुटा चुके
मोगरे के फूल, खाली शीशियाँ
और लैटेक्स के बने रंगीन गुब्बारे ।
३.
एम्बुलेंस गाड़ी को भी
करना पड़ेगा इंतज़ार
इस वक़्त कलकत्ते का दिल
धड़क रहा है बीच सड़क
कलकत्ता इस वक़्त
ऐसे घोड़ों की तरह चलता है दुलकी चाल
जिनके पैरों में ठोंकी जा चुकी है नाल
और जिन्हें पहनाई जा चुकी है नकेल
कलकत्ते में, संयत क्रोध का
उत्कृष्ट प्रदर्शन है, जुलूस
जैसे हुगली हो जाती है मंथर
और शांत, जाकर खाड़ी में
जुलूस को भी अंततः
होना होता है मौन
पहुँच कर मेट्रो चैनल
शहीद मीनार या अधिक से अधिक
ब्रिगेड परेड ग्राउण्ड पर।
४.
डबल-डेकर बस है यह
जिसकी ऊपरी मंज़िल पर
बिलकुल सामने की तरफ बैठा
सोच रहा हूँ मैं, कि कितनी
जल्दी निबट गया काम
विक्टोरिया-हाउस में आज
बहुत थोड़े लोग ही थे
जो आए थे जमा करने
अपने-अपने बिजली के बिल
यह क्या
यह कैसी भीड़ है खड़ी
सड़क के बीचों-बीच अड़ी
चेतावनी देती हुई कि खाली करो
बिलकुल अभी खाली करो बस को
डबल-डेकर बस की खिड़की वाली
सीट पर बैठा, मैं सोचता हूँ
अभी तो आगे जाना है मुझे
और टिकट भी ले चुका हूँ
क्यूँ खाली करूँ अभी बिलकुल अभी
और ये कौन लोग हैं
अपनी सीट पर बैठा है
ड्राइवर भी अविचल, किसी सोच में डूबा
कि तभी शीशों के टूटने की आवाज़ें
आती हैं कानों तक
डबल-डेकर से निकल कर
किसी मकान की तरफ भागते हैं हम
दस-पैसे बढ़े किराए का गुस्सा
झेल रही है डबल-डेकर
इस गुस्से में छिपा बैठा
प्रतिवादों का शहर कलकत्ता
बात-बेबात जो उठा लेता है
पत्थर, अपने हाथों में और
उछाल देता है उन्हें हर उस चीज़ की तरफ़
जिसमें दिखता है उसे सरकार का चेहरा ।
५.
पान की दुकानें हैं
लस्सी है, पेड़े हैं
तंग गलियाँ हैं
गलियों में मंदिर हैं
रिक्शे हैं, गाड़ियाँ हैं
लुंगी है साड़ियाँ हैं
कई भाषाओं का वज़न
सिर पर उठाए हिन्दी ज़ुबान है
ठेले को धक्के देता पुरबिया जवान है
गंगा के घाट न सही, सड़कों पर
कल-कल करता गंगा का जल है
अजी बनारस है,
“बड़ा-बाज़ार” का भेष धरे
कलकत्ते के भीतर छिपा
यह चकाचक बनारस है ।
६.
आदमी नहीं रहते
रंग रहते हैं कलकत्ता में
आदमी नहीं लड़ते
रंग लड़ते हैं कलकत्ता में
लाल रंग वाली मशहूर इमारत से
झक्क सफ़ेद धोती के ऊपर
कड़क इस्तरी वाली कमीज़ पहन
बोलता है जनता का नायक
और जनता बँट जाती है रंगों में
लाल और हरा रंग
एक-दूसरे को करते रहते
अक्सर लहू-लुहान, कलकत्ता में ।
७.
धर्मतल्ला से चलती है
पाँच नंबर की ट्राम
श्यामबाज़ार के लिए
दचके खाती, टुन-टुन करती
हड़-हड़ गड़-गड़ बजती
धर्मतल्ला चौराहे पर
खड़े लेनिन की चिट्ठी
पहुँचती है पाँच नंबर की ट्राम
श्याम बाज़ार पाँच-माथा मोड़ पर
घोड़ा सवार सुभाष बोस के नाम
पाँच नंबर की ट्राम
अनवरत यात्रा पर है
इतिहास के एक अध्याय से
दूसरे अध्याय के बीच
होते जो “बाबा”
तो खुश होते
कि पहना हुआ है
कलकत्ता ने जनेऊ
आज भी अपनी छाती पर।
८.
सिमला स्ट्रीट में
सितार के तार छेड़ता है
भविष्य का परिव्राजक सन्यासी
तो काँपती हैं हवाएँ
जोड़ासांकों की गलियों तक
जोड़ासांकों में
हारमोनियम पर बैठता है
भविष्य की कविता का नायक
तो थिरकती हैं सेमल की पत्तियाँ
सिमला स्ट्रीट के आखि़री छोर तक
जॉब चारनॉक के शहर में
अलग-अलग बजते हैं
दुनिया के सबसे खूबसूरत वाद्य
नहीं देखी कलकत्ते ने
सिमला स्ट्रीट- जोड़ासांकों की जुगलबंदी
एक-दूसरे की तरफ़ पीठ किए हुए
गाते रहे दो संगतकार कलकत्ते में ।
९.
बड़ी आसानी से
मिल जाता है “दिल्ली होटल”
वैसे न पसंद आए दिल्ली तो
कमी नहीं “पंजाब होटल” या
“बॉम्बे होटल” की इस शहर में
“मारवाड़ी होटल” भी
मिल ही जाता है ढूँढने पर
नहीं मिलता आसानी से
“कलकत्ता होटल” कलकत्ते में ।
१०.
एक टाँग पर
बैसाखियों के सहारे खड़ा है
शहर का बूढ़ा लाइब्रेरियन, दीप्ति-दा
कोई नहीं जानता, कैसे
कब और कहाँ खो गई
उसकी दूसरी टाँग
वह कौन सी तारीख थी
कौन सा दिन और वार था
जब थामी थी उसने यह
काठ वाली बैसाखी
मुहल्ले के पुराने अड्डेबाज़
बताते हैं, सन सतहत्तर तक
देखा गया था दोनों टाँगों पर
साबुत चलते हुए, दीप्ति-दा को ।
११.
टुन-टुन टुन-टुन की धुन पर
नाचता है तीन-सौ-साल प्राचीन शहर
टुन-टुन बोलती है घण्टी
चरित्तर के हाथ जब-जब
थिरकते हैं काठ के आयताकार हैंडिल पर
महारानी विक्टोरिया के जमाने के नहीं हैं
पर चलाते हैं चरित्तर उसी जमाने का रिक्शा
“ओ नीलम परी”, आवाज़ देते हैं चरित्तर
बड़े से बड़ा रईश “इस बखत” नहीं बैठ सकता रिक्शे में
कि यह नीलम परी के “इसकूल का टेम है”
कैसा भी, किसी भी रुतबे का भद्रलोक
कैसी भी, किसी भी रुतबे की भद्रमहिला
चाहे कोई भलेमानुष खड़ा हो, इस बखत तो
कुबेर का खज़ाना भी छोड़ दे चरित्तर रिक्शेवाला
पाँच साल की “नीलम परी” को लिए
महारानी विक्टोरिया के जमाने वाले रिक्शे में नधा
दौड़ रहा है चरित्तर पद्म-पोखर रोड पर
उसे पहुँचना है “खालसा इंगलिश इसकूल”
बृहद व्यास वाले काठ के पहिये की
गुड़ुर-गुड़ुर ध्वनि के साथ, टुन-टुन
टुन-टुन का संगीत बजता रहता है
कलकत्ता के कानों में देर तक ।
१२.
कोयले के टुकड़ों पर
एक स्त्री करती है चोट
और पृथ्वी की कोख में सोये
जीवाश्मों में होती है हरकत
चूल्हा तैयार हो रहा है
कुछ सूखी लकड़ियाँ, थोड़ा काठ कोयला
और पत्थर कोयला सजा कर रखे जाते हैं
कलकतिया चूल्हे में
चूल्हे को सुलगाते हुए बराबर
खनकती हैं हाथों में काँच की चूड़ियाँ
एक-बारगी आँखों में
उतर आता है छल्ल से पानी
बहुत धुँआ करता है यह चूल्हा
पड़ोसियों की आँखेँ जलती हैं धुँए से
मकान-मालिक की सख्त हिदायत है
की ले आना चाहिए एक स्टोव
अब मकान के आँगन से उठकर
चूल्हा आ गया है सड़क पर
सड़क आखिर सरकार की है
सरकारी जगहों पर धुँआ करने पर
नहीं है रोक-टोक कलकत्ते में
हवा पाकर धधकता है चूल्हा
कोयला बदल चुका अंगारों में
लौट आता है चूल्हा रसोई में
स्त्री चुपचाप अदहन रख देती है
चूल्हे पर धीरे-धीरे खदबदाता है
पानी कलकत्ते का, कोयले की आंच पर ।
१३.
आधे मन से नकारता पूंजीवाद
आधे मन से स्वीकारता साम्यवाद
आधा बुर्ज़ुआ, आधा रिवोल्यूशनरी कलकत्ता
आधा सड़क पर, आधा अंदरमहल में
आधा प्रेम में डूबा, आधा विद्रोह के गीत गाता
अंततः
एक बाउल जो लौट लौट आता
अपनी प्यास के साथ “इच्छामती” के तट पर ।
१४.
तेरह पर्व
बारह महीनों में निबटाता
एक हाथ से सजाता नई रंगोली, तो
दूसरे से पोंछता सिंदूर के दाग
(जिस) धर्म को अफीम
कह गए कार्ल मार्क्स
उसे ही खाता पचाता
रोज़ ही विसर्जित करता
स्वयं को इच्छाओं के जल में
और जीवित हो जाता, रोज़ ही
अतृप्त वासनाओं के साथ
उत्सवधर्मी कलकत्ता।
१५.
हुनरमंद हाथों के लिए
काम की तलाश पूरी होती है यहाँ
तनी मुट्ठियों को
पुकारता है हाथ-लहराता जुलूस
हर सुरीले गले के लिए
एक वाद्य है इंतज़ार करता
मेहनत के पसीने को यह
बदल देता सिक्के में
गुरबत में भी यहाँ
सिर उठा कर जीता है आदमी
यूं ही नहीं कहते “डोमिनिक दा”
खुशियों का शहर, कलकत्ता ।
(“डोमिनिक दा”, डोमिनिक लैपियर, “द सिटी ऑफ ज्वाय” के लेखक)
१६.
कवि तिरलोचन की ‘चम्पा’
से हम सब रहते डरे डरे ।
जाने कब वो दिन आए जब
कलकत्ते पर ‘बजर गिरे’ ।
‘काले अक्षर’ चीन्ह ले चम्पा
लिखना पढ़ना सीख ले चम्पा ।
बालम संग आजा अलबत्ता
नहीं बुरा है यह कलकता ।
रोटी रोज़ी हो मजबूरी
तो कलकत्ता बहुत ज़रूरी ।
‘बजर गिरे’ तो बोलो चम्पा
मजबूरी पर बजर गिरे ।
१७.
गर्मियों की
एक उमस भरी दोपहर
लाल-बाज़ार पुलिस हेड-क्वार्टर से
ब-मुश्किल सौ मीटर की दूरी पर
कृष्णचूड़ाओं से जंग छेड़ रखी है
अकेले सेमल के इस दरख्त ने ।
जबकि लाल-लाल गुच्छों में
गदराया है शहर का मौसम
ये उजले नर्म फ़ाहे
पंखों से भी हल्के
उड़ने लगे हैं हवा में
जैसे उजले बगुलों का
एक झुण्ड कहीं दूर-देश से
उड़कर चला आया हो ।
कलकत्ता पुलिस की
लाल बत्ती वाली काली-वैन
अभी-अभी गुज़री है बगल से
बिलकुल अभी-अभी एक
दूध-सा उजला रुई का फ़ाहा
उड़ता हुआ आकर बैठ गया है
मेरे कंधे पर ।
अभी-अभी, बिलकुल अभी-अभी
कौंधा यह विचार मन में
कितनी रुई काफ़ी होगी
आने वाली सर्दियों के लिए
एक गुनगुनी रज़ाई की खातिर ।
१८.
‘असभ्य’
सबसे बड़ी गाली है
कलकत्ता के शब्दकोश में
अनियंत्रित क्रोध में भी
अधिक-से-अधिक किसी ‘पशु’
का नाम लेते हैं कलकत्ता वाले
जहाँ भीड़ हो वहीं
कतारबद्ध खड़े हो जाते हैं
अपनी बारी की प्रतीक्षा करते हैं
पाँच रुपये की टिकट
खरीद कर बस में सवार
हर आदमी है ‘भद्रलोक’
हर औरत है ‘भद्रमहिला’
कलकत्ता की तहज़ीब में
माँ-बहनों को नहीं पुकारा जाता
यहाँ आपसी झगड़ों में ।
१९.
तीन गाँव आज भी
रहते हैं कलकत्ता में
कंपनी बहादुर के जाने के बाद भी
जैसे महीन खुशबूदार चावल में
रहते हैं अदृश्य कंकड़
गोविन्दपुर
सुतानुति
कलिकाता
गाहे-ब-गाहे
दाँत के नीचे आ ही जाते हैं
बिगड़ जाता है ज़ायका
काले लाट के मुँह का ।
२०.
बरिसाल को सदा के लिए कह कर विदा
वह हो गया अंततः कलकत्ता का
कलकत्ता, जहाँ बदी थी मौत
एकदिन, इस तरह कि
कवि था अनमना-सा सड़क पर
मौत की तरह घरघराती एक ट्राम थी
और थीं क्षत-विक्षत
‘धूसर पाण्डुलिपि’ की कविताएं
क्षत-विक्षत ‘रूपसी बांग्ला’
क्षत-विक्षत ‘वनलता सेन’
एक नक्षत्र के टूटने की
दुख भरी कथा है कलकत्ता,
कलकत्ता एक कवि की मौत का
गुनहगार भी है ।
(जीवनानन्द दास के लिए)
२१.
इतिहास बनाते हैं जो
इतिहास उन्हें याद रखता है
बुतों की तरह ।
एक नहीं
दो नहीं
तीन-तीन बुत
जिनके हाथ आज भी
उठे रहते हैं, ‘राईटर्स बिल्डिंग’ की ओर ।
विनय
बादल
दिनेश
के नामों पर नगर निगम ने
सजा रखा है एक बाग
कलकत्ता के बीचों-बीच ।
२२.
जो होता, कलकत्ता का, कोई स्थायी चेहरा
तो वह होता ‘उत्तम कुमार’ जैसा ।
हू-ब-हू उत्तम कुमार के जैसा
करिश्माई शहर कलकत्ता
‘सात सागर तेरह नदी पार’ से
आतीं सुंदर राजकन्याएँ जिसके सपनों में ।
प्रेम में डूबे शहर की
स्मृतियों में आज भी ताज़ा है,
बालीगंज सर्कुलर रोड का तिलिस्म
जहाँ रहती आईं ‘मिसेज़ सेन’
नज़र-बंद एक अपार्टमेंट में ।
कलकत्ता में प्रेम में डूबी
हर लड़की दिखती है ‘सुचित्रा’ ।
कलकत्ता में जब-जब
थमती है बुज़ुर्गों की दमे की खांसी
वे गाते हैं ‘उत्तम-सुचित्रा’ के युगल-गीत;
‘एई पथ जोदि न शेष होय’ ।
(उत्तम-सुचित्रा के लिए)
२३.
कलकत्ता के खूबसूरत चेहरे का
काला तिल है, ‘पातीराम बुकस्टाल’ ।
यहीं मिला था मुझे
बांग्ला का अद्भुत कवि कार्तिक देवनाथ
एक लिटिल मैगज़ीन के आवरण में
छिपकर हाथ हिलाता, जिस पर छपा
था ‘कविता कविता’ ।
एकदम कॉलेज-स्ट्रीट जंक्शन पर
छोटा-सा तीर्थ यह साहित्य का ।
ठीक इसके बगल में
कॉफी-हाउस में जब-जब उठे तूफ़ान
किसी प्याले में तो झाग यहीं देखा गया
सबसे पहले ।
कई बार तो
सचमुच के तूफ़ान भी उठे
इसी छोटे से बुकस्टाल से,
‘कल्लोल’ का संगीत
‘भूखी पीढ़ी’ का वाद्य
कई सुखद स्मृतियों का संग्रहालय
यह ‘पातीराम बुकस्टाल’ ।
जितनी भी खूबसूरत जगहें हैं दुनिया में
होना चाहिए वहाँ एक ‘पातीराम बुकस्टाल’
हर खूबसूरत चेहरे पर चाहिए एक काला तिल ।
२४.
पता नहीं उस दिन
तापमान कितना था, कलकत्ता का
कितनी थी आर्द्रता, कलकत्ता की हवा में
रोज़ की तरह ही घाट पर आकर
लगी थी ‘लॉन्च’,
रूठकर चला गया वह सदा के लिए,
हुगली की धार में उतरती चली गईं साँसें ।
ऐसी भी क्या नाराज़गी कि
शाम के झुटपुटे में अलविदा कह दिया जाए
ज़िंदगी को एक ही झटके में, और इस तरह ?
रेडियो पर उद्घोषिकाएँ, मधुर आवाज़ में
आज भी बताती हैं म्यूज़िक-ट्रैक बजने से पहले
‘कथा-ओ-सुर पुलक बंद्योपाध्याय’ ।
कलकत्ता के होठों पर पूरी नमी के साथ
आज भी चिपकी है एक पहेली,
जिसने धरण किया ‘पुलक’ नाम
कैसे हार गया जीवन के दुखों से ।
एक अति-संक्षिप्त सुसाइड-नोट
छोड़कर चला गया था गीतकार
हार की जिम्मेदारी खुद ही लेते हुए ।
‘आबर होबे तो देखा’ दृ एक उदास धुन
बजती है आज भी मन्ना दे की आवाज़ में ।
(पुलक बंद्योपाध्याय बांग्ला फिल्म-जगत के जाने-माने गीतकार और संगीतकर थे, जिन्होंने अवसाद में, ‘लॉन्च’ से कूद कर हुगली नदी में आत्म हत्या कर ली थी)
२५.
न जाने कब से
झुका हुआ है एक बूढ़ा
अपनी पीठ के ऊपर से
गुज़र जाने देता, हर एक को
स्वागत करता हर एक का, अक्लांत ।
यह बूढ़ा पुल हावड़ा का
जिसका दुख बहता रहता
ठीक उसके पेट के नीचे से ।
पीली-पीली गाड़ियाँ
निकल जाती हैं दौड़ती
हावड़ा के पुल से, ज्यों
हल्दी के बाद खुश-खुश
लड़कियाँ, पूरब के किसी गाँव की ।
उस पार है कलकत्ता
उस पार है कलिम्पांग ब्रेड
उस पार है मदर-डेयरी दूध
उस पार है गरम लूची-तरकारी
उस पार है दार्जिलिंग चाय
और आनंद-बाज़ार पत्रिका
साईकिल सवार के हाथ से
उछलती किसी बालकनी की ओर ।
कोलकाता 700070 ,मो-09433123379
neel.kamal1710@gmail.com
नील कमल की यह कविता कोलकाता की छोटी-छोटी तस्वीरें हैं। एक संजीदा चित्रकार की तरह अंकित हर कविता एक कथा कहती है, एक ऐसी कथा जिसमें इतिहास, वर्तमान और भविष्य का त्रिलोक झांकता है। नील कमल ऐसे कवि हैं जो अपनी कविताओं की मार्फत एक ऐसे लोक में ले जाते हैं, जहाँ रंग हैं, उदासी है, भूख है, मृत्यु और आत्म हत्या है। कोलकाता में रहते हुए भी नील कमल कवि बनारस को नहीं भूलता - यह कवि कह भी चुका है कि - कोलकाता की रगों में दौड़ता बनारस हूँ।
जवाब देंहटाएंदो संग्रहों का यह कवि अपनी कविता की ताकत से आज श्रेष्ठ युवा कवियों का श्रेणी में खड़ा है - उसे हमारा सलाम है।
Excellent poetry.
जवाब देंहटाएंकलकत्ता की जिन छवियों आपने अपने शब्दों से उकेरा वह शानदार है। ये छोटी-छोटी तस्वीरें जाने कितनी ही पुरानी यादों को ताज़ा कर देती हैं। बड़ा बाजार हो या हुगली का स्टीमर या आनंदो आश्रम में उत्तम कुमार। पढते-पढते सात साल पीछे वक्त चला गया।
जवाब देंहटाएंस्वयं शून्य
नील कमल जी को पढ़ते हुए कोलकाता की कौन कौन सी गलियों में घुम आया पता ही नहीं चला।एक ऐसी यात्रा जो हमें कोलकाता के रगों में खून की तरह दौड़ता हुआ प्रतीत होता है।कोलकाता शहर को कवि जिस दृष्टि से देखता है एक चित्रकार की भाँति उसका एक सजीव चित्र कविता के कैनवस पर उतार देता है।अपनी संवेदना की गहराई में जाकर कवि इस शहर के हर अच्छे बुरे पहलु को बखूबी बयां करता है।कवि को इन कविताओं के लिए बधाई।
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