अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-2, अंक-18, अप्रैल-जून, 2015
जीवन वस्तुतः परस्पर विरोधी तत्वों में लय का परिणाम है। इस लय में लोलक की भाँति भावनाएँ चढ़ती उतराती हैं। यहाँ प्रतिपल कुछ ना कुछ बदलता रहता है। हर पल कुछ मिटता है और स्मृतियों में दर्ज हो जाता है तो कुछ नया सांसें लेता है। इसी संदर्भ में निर्मल वर्मा कहते हैं कि एक कलाकृति अहम् के अनिश्चय और शाश्वत् के सम्मोहन दोनों को अपने में समाहित करती है इसलिए हर उत्कृष्ट कलाकृति में हमें एक अद्भुत स्थिर आवेग के दर्शन होते हं। ‘प्रेम गिलहरी और दिल अखरोट’ पर ज्ञानपीठ द्वारा नवलेखन पुरस्कार से सम्मानित बाबुषा की कविताएँ इन्हीं स्थिर आवेगों को समेटे एक कलकल बहती नदी सी लगती हैं। उनके लिखे में ह्रदय के सहज उद्गार है, अनिर्वचनीय अहसास है और एकांत का आलाप है जहाँ हर शब्द दिर दार दारा की ध्वनि करता नजर आता है। आज जहाँ जीवन की दुरूहता में भावनाएँ जटिल हो चुकी है वहीं बाबुषा की कविताई प्रकृति सी ही सहजता लिए हुए सीधे दिल में उतरती है। सूरज, चाँद और तारों पर थिरकते उसके भाव सृष्टि की चिर यात्रा पर यूँ निकल पड़ते हैं मानो कोई ख्वाबों का सौदागर रूपहले ख्वाब बटोरने चला हो। बाबू को पढ़ने पर ऐसा ही लगता है जैसे कोई प्रेम में डूबी हुई आपादमस्तक नायिका अपने प्रेम को पल पल जीती हुई गहरी उच्छवासें छोड़ रही हो। उसकी कविताएं इन्हीं उच्छवासों की प्रतिध्वनि है मानो कोई रमता जोगी इश्क की धुनी रमता हुआ चिर यात्रा पर निकला हो। प्रेम अनुभूत करने की विषय वस्तु है उसे लिपिबद्ध तब ही किया गया है जब या तो उसे जिया गया हो या उसे जीने में बहुत कुछ दरक गया हो। बाबुषा की कविताएँ प्रेम के इन उजले और धुंधले दोनो पक्षों को छूती है। शब्दों की इस उकेरन में जाने कितने मेघ कवि मन के भीतर बरसे होंगें इसकी प्रतीति अभिव्यक्ति के स्तर पर सहज ही हो जाती है। उसकी कविताएँ नींद और जाग की ढ्योढी पर जलाए हुए दिए हैं जो अहर्निश जलते रहते हैं।
बाबुषा की कविताओँ में ब्रेक अप सर्वथा नई किस्म की प्रेम कविता है जिसमें एक व्यक्तित्व की अहंता से अस्तित्व की यात्रा तक के सफर को बखूबी उकेरा गया है। प्रेम की पहली अनुभुति, उसका विकसना,पंख पसारना और कुछ जादुई सा अद्भुत घटित होना इस कविता को एक विशेषता प्रदान करता है। बिम्ब विधान इस कविता का प्राण तत्व है ,यथा- “ हम दूर से देख सकते थे पानी पर प्यासे रह जाते/ हमारे भीतर के तन चुप थे/ और तन के भीतर और मन /फिर एक दिन हम अपने अपने मन की और लौट गए/ बची हुई नौ उंगलियों के साथ जीने को/ सारा जादू उस बंद दरवाजे में है/ ताला खुले तो चाबी कहीं खो जाती है।” प्रेम ऐसा ही है जितना घटता है उतना ही अघटा रह जाता है। जितना खुलता है उतना ही छिपा भी रह जाता है। तन के भीतर मन का बिम्ब कितना प्रभावी है। प्रेम में तन और मन दोनों ही सामीप्य पाते हैं। प्रेम जब केवल भावुकता ओढे हो और आँखों पर पट्टी बाँधे हो तब सही गलत का भान किसे रहता है। रिश्तों का जुड़ना और टूटने के बाद उसकी टीस मन को आहत कर देती है। स्त्री मन टूटकर बिखरने की पीड़ा को जानता है। प्रेम का बीज जब दरख्त बन जाता है ,फिर उसके उखड़ने की असह्य पीड़ा की अभिव्यक्ति ही है ब्रेक अप कविता। प्रेम चोट करता है, फिर भी एक प्रेयसी उस प्रेम की वकालत करती है “क्योंकि उसने प्यार किया था, चाहे पल भर को ही सही”। ब्रेक अप कविता में प्रेम है, संवाद है और दर्द है। मन पर किसी सांकल का पड़ा होना और किसी रूह के साझेदार की आहट से उसका खुल पड़ना बड़ा ही खुबसूरत काव्य बिम्ब है।
“एक दिन वो मेरा हाथ अपने सीने तक ले गया
और दाएँ हाथ की उँगली से ताला खोल दिया
मेरे मन पर भी रही होगी कोई साँकल शायद
उसने खट खट की और बस !
एक उँगली की ठेल से मन खुल गया।”
प्रेम जब होता है तो प्रेमी युगल अनहद नाद सा आनंदित अनुभव करता है। सम्पूर्ण प्रकृति उस मन को अपने भावों के अनुरूप आचरण करती हुई लगने लगती है। वहाँ एक तिलिस्म रचने लगता है। ठीक उसी तरह बाबूषा के रचे को पढ़कर जादू पर भी यकीं होता हे। यह तिलिस्म वह केवल भावों की बुनावट में ही नहीं डालती वरन् उसका कला पक्ष भी उतना ही सुदृढ है। प्रेमावस्था में अपनी सुध बुध खो बैठी बिरहनों को सटीक उपमा देती हुई वह कहती है कि वह निश्चित ही रूमी की बौराई हुई सी चक्करघिन्नियाँ हैं। मन की कोरी स्लेट पर जो कुछ भी लिखा जाता है वो अमिट होता है। बाबुषा की कविताएँ खुद मन की ज़मीन गढ़ती है और यूँ बरस पड़ती है ज्यों कि पहली बारिश। जिस तरह कोई औघड़ कभी अपने खिलंदड़पन से तो कभी आवारगी से तो कभी रूहानी संपर्कों से उस अव्यक्त को खोजने का प्रयास करती है उसी खोज में निरन्तर रत हैं बाबूषा की कविताएँ। हर शब्द वहाँ मानों सिद्ध होना चाहता हो।
आज जहाँ हर कोने में भयावहता हावी है, संवेदनाएँ कहीं चुक गई है और हर चेहरा वैचारिकता का खोखला आडम्बर ओढे है उस समय ये कविताएं शीतल बयार सी सांमने आती हैं। ऐसा नहीं है कि ये कविताएँ केवल प्रेम के ककहरे का एकल प्रलाप ही करती नजर आती हैं वरन् वे सामाजिक सरोकारों से भी उतनी ही अधिक रूबरू हुई जान पड़ती हैं। ‘वसीयत’, ‘ओ मेरे देश’, ‘हमको मन की शक्ति देना’’ इन्हीं सरोकारों की कविताएँ हैं। बाबुषा की वसीयत कविता उन तमाम आक्षेपों पर लगाम लगाती है जो उनकी कविताओं को प्रेम के एक साँचें में गढ़ी हुई मानते हैं। इस कविता में हर उस वर्ग की संवेदना है, पीड़ा है, जो आहत है ,जिसने दर्द झेला है और अपनी ज़िंदगी अपनों के लिए ही होम कर दी है। यहाँ उस स्त्री की चिन्ता है जो घर की चारदीवारी में रहकर अपनी आज़ादी का ख्याल रखना जानती है, अपने सपनों को सिर्फ रसोई तक सिमट कर रखना जानती है। सारे विमर्श मानो इस कविता में सिमटकर आ गए हों । इस कविता में सूक्ष्म संवेदनाएँ है, चिंताएँ है औऱ एक संवाद है उन समस्त भावनाओं के प्रति जो पूरी होने की तलाश में जिए जा रही है। कवि मन अपने ख्वाब उन सारी स्त्रियों को दे देना चाहता है जो जीवन की आपाधापी में यंत्रवत हो चली है और ख्वाब देखना बहुत पहले छोड़ चुकी है। यही इस कविता की उपलब्धि है कि वह इस स्तर पर आकर सार्वजनीन हो उठती है -
“वो ख्वाब देखती है पर औरों के लिए /दे देना मेरे ख्वाब उन तमाम स्त्रियों को/जो किचन से बेडरूम और बेडरूम से किचन की भागीदारी में भूल चुकी है/सालों पहले ख्वाब देखना. ”(वसीयत कविता से) बाबूषा का कवि मन पूरे होश औ हवास में अपनी वयीसत तैयार करता है। वह अपनी शोखी, हँसी ,मस्ती उन तमाम उदासियों में बिखेर देना चाहती है जहाँ हँसी के रंग किसी ना किसी कमी के कारण फीके पड़ गए हो। यहाँ न केवल उत्साह के उत्तराधिकारी गढ़े गए हैं वरन् आँसुओं और भूख की वसीयत भी तैयार की गई है- “आँसु मेरे दे देना तमाम शायरों को/हर बूँद से होगी गज़ल पैदा/मेरा वादा है/मेरी गहरी नींद और भूख दे देना अंबानियों औ मित्तलों को/बेचारे ना चौन से सो पाते है/दीवानगी मेरी हिस्से में है उस सूफी के/निकला हे जो सब छोड़कर/खुदा की तलाश मं । ”
बाबुषा का व्यक्तित्व अगर उसकी कविताओं के माध्यम से उकेरा जाए तो वह किसी दरवेश का है जो किसी खोज में रत है इसीलिए वह अपने शब्दों से एक तिलिस्म रचती हैं । यही कारण है कि उनमें व्यक्त भावों को शब्दों में नहीं बाँधा जा सकता, रागों में नहीं खोजा जा सकता। वह आत्ममुगधता से विलग है। ऐसी कोई माप नहीं है, ऐसा कोई सांचा नहीं है जिसमें उसके शब्दों को बाँधा जा सके। वह तो गहरे अहसास रचती है , कल्पना की उड़ानों में जीती है। उसकी कविताएँ स्त्रीमन की सर्वाेत्तम व्याख्याएं हैं जो कुहासे के बादलों को उघाड़ स्त्री मन के उन मौसमों को व्याख्यायित करती है जो आवारा हैं, अपनी ही मौज में गुम है और खुद को ही ढूँढने में रत है। वह लिखती है- “ मत ढूँढों मुझे शब्दों में /मैं मात्राओं में पूरी नहीं / व्याकरण के लिए चुनौति हूँ / न खोजो मुझे रागों में /शास्त्रीय से दूर आवारा स्वर हूँ / एक तिलिस्मी धुन हूँ / मेरे पैरों की थाप महज़ कदमताल नहीं / एक आदिम जिप्सी नृत्य हूँ/स्वप्न हूँ ,भ्रम हूँ ,मरीचिका में/सत्य हूँ, सागर हूँ /मैं अमृत।”
इतनी खूबसूकती से स्त्री मन को अभिव्यक्त एक स्त्रीमन ही कर सकता है। इस कविता के भाव विन्यास को ही लिजिए इसमे भाव विन्यास और शब्द योजनाएँ बेजोड़ है, सारे अलंकार वहाँ श्रेष्ठत्व पाते हैं। बाबुषा का कहना भी है कि वो कविता सिर्फ लिखने को नहीं लिखती वरन् वह उसे भावनाओं की केसर से रंगती ह । वे कहती हैं मैं कविता के शिल्प पर बहुत मेहनत करती हूँ। निःसदेह उनकी यह मेहनत दिखाई भी देती है। लेखिका की कविताओं को पढ़ते हुए हम पाते हैं कि उसका मन परिवेश से संवेदनाएं ज़ज्ब करता है और यही वह बिंदु है जहाँ उसके लिखे में सामाजिक संदर्भ उतर आते हैं। परन्तु उन सामाजिक संदर्भों में खुद को जोड़कर एक प्रत्यक्षद्रष्टा की तरह खुद को प्रस्तुत करना बाबुषा की उपलब्धि है। एक कविता को ही लिजिए जिसमें वह स्त्री के लिए जितनी सीमाएँ तय की गई है उन्हें सर्वथा अलग तरह से तोड़ते हुए अपना प्रतिरोध बयां कर देती है। स्त्री अस्तित्व को एक फ्रेम में बाँधना आसान नहीं है इसीलिए वह पितृसत्तामक मानसिकता पर भी बड़ी ही मासूमियत से तंज कसती है-
“समय मास्साब की छड़ी से डर कर
झुट्ठे ही बना देते हो मेरे लिए सड़कें
हैं तो वो चलने को ही
संकरी है क्यों इतनी ?
कि मानो डामर और कंक्रीट से नहीं
तुम्हारी सोच से बनी”
वे इस कविता में अनेक प्रश्नों को उठाती है कि स्त्री से क्यों हमेंशा मूल्य आधारित जीवन जीने की बात की जाती है क्यों उस पर रस्मों रवायतों की जंजीरें कसी जाती है ,आखिर क्यों उसे बिना किसी गलती के सलीब पर चढा दिया जाता है। वह उसी सोच को अपनी कविता में सर्वथा नए उपमान गढ़ती हुई धता बताती है और अपनी अस्मिता की आड़ में आए तमाम पहरों को बड़ी ही आसानी से हटा देती है।
“महज़ माता मरियम का उजला अवतार नहीं
एक साँवला अल्बर्ट पिंटो भी रहता है मेरे भीतर
बड़े आराम से पिकनिक मनाता ।”
रस और सौन्दर्य कविता का प्राण है और इन तत्वों से बाबुषा की कविताएँ पूरी तरह रससिक्त है। वह शब्दकोश में से बड़ी ही आसानी से बेहतरीन शब्द ढूँढ लाती है। ये कविताएँ शब्दों का महाकुंभ है जहाँ अरबी, फारसी ,उर्दू और हिन्दी सभी स्थान पाते हैं। जहाँ कविताओं में स्व की खोज है वहाँ अध्यात्मिक संदर्भ बेआवाज हौले से यूँ उतर आते हैं जैसे वे कहीं गए ही कब थे। इन संदर्भों में वह रहस्यवाद में उतरकर शब्द चुन कर लाती है और वहाँ मन छायावादी हो उठता है। वहाँ प्रकृति ,प्रेम और सौन्दर्य इतने कल्पनातीत होते हैं कि वे पाठक को समाधि अवस्था में पहुँचाने का सामर्थ्य रखते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि इन्हें रचते हुए कवयित्री ने किंचित किसी अलग लोक में जाकर डेरा जमाया होगा और वहाँ से कल्पनाओं के सारे रंग चुराकर अपने शब्दों का इन्द्रधनु रचा होगा। यह बात अतिशयोक्ति लग सकती है परन्तु बाबुषा इस घोर अवसाद काल में उत्साह को रचने वाली अकेली लेखिका है। आज समकालीन कविता जब दोहराव से गुजर रही है उस समय बाबुषा की कविताएं अपने नएपन से चौंकाती है, उसके बिम्ब, उपमान ,प्रतीक सब ताज़ातरीन है , बेहद अपने से है यही कारण हे कि पाठक उनसे एक जुड़ाव का अनुभव करता है। बालकनी में बरसी बारिशें हो या फिर किसी यात्रा को पल पल जीना ,हँसना हो या रूदालियाँ सभी उसकी कविताओँ में थिरकती नजर आती ह। वहाँ प्रीती के पलाश है,फाग के दाह हैं और वासंती बयारें हैं। उसकी कविताएं ऐसे विषयों पर होती है जिनके बारे में बस एक सम्वेदनशील कवि मन ही सोच सकता है। ‘इलाज’ कविता की बात की जाए तो इस साधारण से दिखने वाले असाधारण विषय पर भी वे बड़ी ही चालाकि से कृष्ण और बुद्ध को बाँह पकड़ कर उतार लाती है। वक्त को सबसे बड़ा किमियागर बताते हुए वे लिखती हैं-
“ यूँ तो हर मरीज का एक हकीम होता है कहीं/बुद्ध और कृष्ण से चारागर जिसे नसीब ना हो/उसका भी एक गायब हकीम होता है /वक्त अपनी ही तरह से हौम्योपैथी करता है।/” समय हर मर्ज की दवा है जैसा साधारण विचार भी पूरी कलात्मकता से अभिव्यक्त करना बाबुषा की विशेषता है। वहाँ कोरी संवेदनाएँ ही नहीं है वरन् विचार भी है कि “ दीमकों के नाश्ते के लिए ही नहीं बचाए जाने चाहिए फलसफ/दुनिया बचा ले जाना ज्यादा ज़रूरी है।‘’(इलाज)
सृष्टि,प्रेम,और सृजन के ताने-बाने के इर्द गिर्द घुमती हुई बाबुषा की ये कविताएँ कभी कनुप्रिया की प्रश्निलता की याद दिलाती हैं तो कभी कामायनी के रहस्यवाद की। बेहद साधारण सी बातों,भावों को, जिन्हें हमने बार-बार पढ़ा सुना है, जिन्हें बेहद करीब से अनुभूत किया है बाबुषा उनको बिलकुल ही नया कलेवर प्रदान करती है। भावनाएँ उसकी कविताओं में प्यासी रूहों की भाँति आ खड़ी होती है और बाबुषा उन्हें शब्दों के ताने बाने से बुनकर एक नया शरीर दे देती है, एक नयी व्याख्या कर देती हैं,तृप्त कर देती हैं। शब्द इन अर्थों से पूर्णता पाते हैं , ये अर्थ हर बार ख़ुद की गवाही देते हुए से मालूम होते हैं कि मानों उन्हें इसी तरह बयां होना ही अभीष्ट हों। उन्हीं के लफ्जों में हम यह बात आसानी से समझ सकते हैं- “हर बात पहली बार होती है/ठीक वैसे ही जैसे गिनती में सौ का आना।”
पहली बार होता है।” ठीक यही उनकी कविताओं का स्थायी भाव है। अद्भुत बिम्ब और शब्दों का चयन ही इस लेखनी की विशेषता है। वह बार बार कहती है कि स्त्री मन को समझने के लिए देह के भूगोल को नहीं बल्कि मन के भूगोल को पढ़ना आवश्यक होता है। प्रेम की इससे बेहतर व्याख्या शायद ही अब तक हुई होगी कि..
“मैंने तन पर बस प्रेम पहना है
खुरदुरा
फिर भी महीन,
यह एक टुकड़ा प्रेम
कभी फैल कर आकाश ढंक लेता है
कभी इतना सिकुड़ जाता है कि
निर्वस्त्र कर देता है”...
यह मन की सिकुड़न और खुलापन वस्तुतः उसी प्रेमी मन की है जो कभी पूरी तरह मुक्त छोड़ देता है तो कभी बाँध लेता है अपने मोहपाश में अनेक आशंकाओं से भयभीत होकर। यही प्रेम में भावनाओं की अस्थिरता है जो कुछ क्षणों में ही आधुनिकता से आदिम युग की दूरी तय करा देता है।
बहरहाल ब्रेक अप , यात्रा ,बावन चिट्टियाँ , हमको मन की शक्ति देना, गद्य गीत हों या लोक से संवाद करती हुई अन्य कविताएं बाबुषा की कविताएँ अपना शिल्प खुद तय करती हैं। बुनावट का कोई विशेष आग्रह वहाँ नहीं दिखाई पड़ता। उसकी कविताओँ को किसी तय खाँचे में नहीं बाँधा जा सकता। कवयित्री की स्वीकारोक्ति भी है कि “वह मात्राओं में पूरे व्याकरण के लिए चुनौति है।” बहती नदी अपना रास्ता खुद तय करती हैं, ये कविताएँ भी ऐसी हैं जिनकी कोई माप नहीं है। वहाँ हिज्र का मुक्कमल रंग है और भावशबलता के सारे प्रयोजन मानो शब्द दर शब्द बिखेरे हुए है। कविता के सृजन को लेकर उसके बीज रूप से विकसने तक की प्रक्रिया को लेकर बाबुषा कहती है कि कविता के रचाव की बात कहूँ तो कभी कोई कविता एक कौंध सी उपजती है और चंद लम्हों में समाप्त हो जाती है वहीं कोई कविता साल से भी अधिक का प्रसव समय ले लेती है। इस प्रक्रिया में सतत मंथन चलता रहता है परन्तु जब वो पूर्ण होकर कागज पर उतरता है तो अनिर्वचनीय आनंद की अनुभूति होती है। हालांकि बाबूषा की कविताओँ की एक फांक ही अभी हमारे सामने आ पाई हैं परन्तु वह पूरे फल की मिठास को बयां करने का सामर्थ्य रखती है। उसकी कविता में दसों भाव थिरकते हैं ,वहाँ सारे मौसम बरसते हैं परन्तु सहजता का दामन ओढ़े हुए । वस्तुतः उसकी कविताओं की व्याख्या शब्दों से परे हैं औऱ उन पर लिखना इतना आसान नहीं। अंततः उनकी कविताओँ के लिए उन्हीं के शब्दों के साथ सृजन पथ पर यूँही अनवरत ताजातरीन उकेरते रहने की अनंत शुभकामनाएँ!
“वह राह
डॉ. विमलेश शर्मा
कॉलेज प्राध्यापिका (हिंदी)
राजकीय कन्या महाविद्यालय
अजमेर राजस्थान
ई-मेल:vimlesh27
|
नहीं जाती
मक्क़ा को ;
लेकिन
पहुंचाती है
आख़िर में -
मक्क़ा ही !”३.(मक्का कविता से)
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