स्मृति शेष:एक लंपट दुनिया में अच्छे दिन कब आते हैं/डॉ. ललित श्रीमाली

अपनी माटी             (ISSN 2322-0724 Apni Maati)              वर्ष-2, अंक-18,               अप्रैल-जून, 2015


   
चित्रांकन
संदीप कुमार मेघवाल
अशोक वाजपेयी ने ’फिलहाल’ में एक स्थान पर लिखा है कि हिंदी में कवि के बुजुर्ग होने का सीधा मतलब अप्रासंगिक हो जाना है, लेकिन ब्रजभाषा से आरंभ कर सात दशकों तक निरंतर कवि - कर्म से जुड़े नंद बाबू समय की धार और उसके बदलते संदर्भ के प्रति अत्यंत सजग और संवेदनशील रहे हैं। उनकी कविताओं की प्रासंगिकता तो आज भी उतनी ही है जितनी उनके प्रकाशन के समय थी। ’वे सोये तो नहीं होंगे’ कविता संकलन सन 1997 में प्रकाशित हुआ। उसकी कविता की पंक्तियाँ हमें कवि की वर्तमान समय में प्रासंगिकता का बोध कराती है-

मलबे के ढेर पर
इस अच्छे दिवस की
तमाशबीन बातें कर रहे थे
अँधेरे की सीढ़ियों पर बुढ़ियायें
ना उम्मीद बैठी थी, विलाप करतीं
एक लंपट दुनिया में अच्छे दिन कब आते  हैं।
(पृष्ठ 12)

21 अप्रेल, 1923 को झालावाड़ (राजस्थान) मे जन्में नंद बाबू के काव्य रचना का प्रारंभ ब्रजभाषा में समस्यापूर्ति से किया था। उनकी निजी दिलचस्पी कभी ज्यादा छपने-छपाने पर नहीं रही। इस कारण से उनकी कविताओं का पहला व्यवस्थित संग्रह ’यह समय मामूली नहीं’ उनके जीवन के साठ वर्ष पूरे कर लेने के बाद सन 1983 में प्रकाशित हुआ। उन्होंने राष्ट्र की स्वाधीनता और समाज में आर्थिक गैर बराबरी जैसे विषयों पर घनाक्षरी, सवैया, पद, दोहा आदि छंदों में लिखा। उनका लेखन का यह सिलसिला अनवरत जारी रहा।

नंद बाबू ने ’सप्तकिरण’, ’राजस्थान के कवि’ (भाग-1), ’इस बार’ (काब्य संग्रह), जय हिंद’ (समाजवादी साप्ताहिक) से लगाकर ’जनमत’, ’मधुमती’ तथा चिंतन प्रधान साहित्यिक पत्रिका ’बिंदु’ का संपादन किया। देश की अग्रणी पत्र-पत्रिकाओं तथा साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थानों से लेखन - वैचारिक संबंध रहे। कविता के साथ - साथ गद्य लेखन की आवश्यकता अनुभव करते हुए समीक्षाओं के साथ शिक्षा, दर्शन, राजनीति पर भी प्रतिबद्धता के साथ लेखन किया। साहित्यिक निबंधों के संग्रह ’शब्द संसार की यायावरी’ के लिए राजस्थान साहित्य अकादमी ने उन्हें ’मीरां पुरस्कार’ से सम्मानित किया और ’ये समय मामूली नहीं’ पर के. के. बिडला फाउंडेशन ने बिहारी पुरस्कार से अलंकृत किया। उनकी चर्चित काव्य कृतियाँ - ’यह समय मामूली नही’, ’ईमानदार दुनिया के लिए’, ’वे सोये तो नहीं होंगे’, ’उत्सव का निर्मम समय’, ’जहाँ एक उजाले की रेखा खिंची है’ और ’गा हमारी जिंदगी गा’ है। संस्कृति के अहम मसलों पर अनेक लेख  ’शब्द संसार की यायावरी’, ’अतीत राग’, ’यह हमारा समय’ प्रकाशित है। संस्मरणात्मक निबंधों का संग्रह ’जो बचा रहा’ पिछले वर्ष ही राजकमल से प्रकाशित हुआ है।

माधव हाड़ा लिखते है, ’’भाषा की घोर अराजकता और अवमूल्यन के दौर में भी उनकी कविता सहज कलात्मक अनुशासन के अधीन संतुलित और सुगठित रही है। ..... एक कंेद्रीय विचार या अनुभूति को वह एक के बाद एक बिंब और वक्तव्य से विस्तृत और सघन करते हुए आगे बढते हैं। इस तरह उनकी कविताएँ प्रायः बिंबों और वक्तव्यों का मिला - जुला रूप होती है’’। (तनी हुई रस्सी पर, (पृष्ठ 24) जैसे वे लिखते हैं - 

                                   बोलनेे या लिखने से 
क्या होता है
उनके पास खड़े रहो
जो सिंहासन पर हैं
मरने वाले मर गए हैं।
     (वे सोये तो नहीं होंगे, पृ. 22) 

उपर्युक्त पंक्तियों में हमें हमारी सोच में हो रहे बदलाव और समाज में गिरते मूल्य स्तर का पता चलता है। नंद बाबू की कविताओं में मनुष्य की बाहरी दुनिया को बेहतरीन बनाने की चिंता के साथ-साथ उसकी भीतरी आत्मा की तब्दीली पर ज्यादा प्रखरता से विचार किया गया है। वरिष्ठ समालोचक नवल किशोर लिखते हैं कि, ’’नंद बाबू की कविता भाषा के एक सच्चे साधक की कविता भी है, जहाँ संदेश (कथ्य) शब्दों से नहीं आता, शब्दों में होता है - जहाँ भाषा अर्थ खोलती है तो उसका विखंडन भी करती है।’’

उसने एक कविता लिखी
राष्ट्र भक्ति की
जब वह पढ़ी गयी
तब वेे सब लोग खडे़ हो गये
काले, कलूटे, दुबले, भूखे, अनपढ़
उम्मीद के खिलाफ
वे खडे़ हो गए।
तब अफसर ने कवि के कान में 
कहा इसे न सुनाएँ
यह कोई कविता नहीं है
कवि डर कर बैठ गया।
(वे सोये तो नहीं होंगे, पृ. 94)


युवा समीक्षक
डॉ. ललित श्रीमाली 
याख्याता (हिन्दी शिक्षण)
एल.एम.टी.टी. कॉलेज,
डबोक, उदयपुर 
51, विनायक नगर, मण्डोपी, 
रामा मगरी,
 बड़गाँव जिला उदयपुर (राज.) 
मो-09461594159
ई-मेल:nirdeshan85@yahoo.com
 हमारे समय की विद्रूपता की ओर इस कविता में इशारा किया गया है। नंद भारद्वाज लिखते है, ’’नंद बाबू जन पक्षधरता के सच्चे और खरे रचनाकार हैं, जो अपनी रचना के माध्यम से यह संघर्ष जारी रखते हुए कभी थकान नहीं महसूस करते। एक बेहतर मानवीय और लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति उनकी प्रतिबद्धता कभी क्षीण नहीं होती।’’ (नया ज्ञानोदय, फरवरी 2015) वर्तमान में जब लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार भी उदारीकरण और विकास के नाम पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों को देश के संसाधन लूटने की खुली छूट दे रही है। चारों तरफ मनुष्यता समाप्त होती जा रही है। ऐसे समय में नंद बाबू जैसे कवि हमेशा हमारा पथ - प्रदर्शन करते रहेंगे। जिन्होंने हमेशा ही वंचितों और उत्पीड़ितों के साथ अपने काव्य - कर्म को जोडे़ रखा है-

इन दिनों
उनके पास रास्ते ही कौन से हैं
कहाँ जगह
सोये तो नहीं होंगे
सड़क बीचों बीच
मरने के लिए
बचा खुचा जीवन
व्यर्थ नहीं है
वे सोये तो नहीं होंगे। (पृ. 8)

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