अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-2, अंक-18, अप्रैल-जून, 2015
“गोदना” सौंदर्य की नई परिभाषा गढ़ता है और इस सौंदर्य की सबसे बड़ी
विशेषता उसकी शुद्धता में है। शुद्धता की यह कसौटी देने के कारण ही भारतीय
स्त्रियों को “गोदना” लुभाता रहा है। मुझे अभी भी याद है जब हमारे बचपन(199-95 के आसपास तक) गीत “गोदना” करने वाली औरतें आती थी। कठिन पीड़ा और दुख सहकर भी बेटी बहने गुदना गुदवाती थी । रोती थी, चीखती थी और छटपटाती थीं पर ख़त्म
होते ही आह्लादित होती थीं। किसी पवित्रता का भाव उनकी आत्मा के किसी कोने
में उतर जाती थी। वहीं आस-पास हम खड़े होकर यह दृश्य देख रहे होते और “गोदना” गाने वाली औरतों का हमारी घर की औरतों से चुहल करता यह मधुर गीत कानों में
उतर जाता- “आजमगढ़ में आम बिकला, गोरखपुर में धनियाँ
चित्रांकन संदीप कुमार मेघवाल |
हम ऐसे आवारा और लुटेरे दौर में जी रहे हैं जिसका केंद्र बाज़ार है। तकनीक के अति
प्रभाव ने ‘लोक’ के वास्तविक स्वरूप को लगभग ख़त्म कर दिया। उसे रंग-रोगन करके मुँह मांगी
कीमत पर बेचा जा रहा है। दुखद यह है कि जिन लोक-कलाकारों की मेहनत से सब तैयार होता उनकी
हालत वैसी कि वैसी ही है, जैसे वर्षों पहले हुआ करती थी। हमारे बुजुर्गों ने भारतीय लोक के
जो कुछ विशाल-वृक्ष लगाया था उसे से बाज़ार और उत्तर-आधुनिकता कि चकाचौंध ने लील लिया परंतु उनके बीज
आज भी इधर उधर-उधर बिखरें पड़े हैं। जरूरत हैं तो बस उसे तलाशने कर रोपने की, खाद-पानी देने की जिससे उन्हे पल्लवित-पुष्पित किया
जा सके और लोक की एक ताज़ी फसल तैयार की सके जिसमे कोई मिलावट न हो। जो अपने वास्तविक रूप में हो।
लोकमन की मौखिक-वाचिक परंपराएँ, लोकनृत्य, लोकगीत और अन्य कला माध्यम इतने रूपों, बोलियों-भाषाओं और इतनी मात्रा में फैली हुई हैं कि उन्हें किसी लेख बल्कि
कहें- पुस्तक के एक भाग में समेट पाना संभव ही नहीं है। लिहाज़ा मेरे लेख के केंद्र
में “गोदना गीत” ही है। अक्सर यही होता कि ‘लोक’ पर जब भी बात होती है तो वह उसके किसी एक पक्ष पर ही
केंद्रित हो जाती है। लोक का यह ‘एक पक्ष’ भी इतना विस्तृत
है कि बात अधूरी रह जाती है। एक तरह से देखें तो यह मजबूरी भी है और चुनौती भी।
उससे बड़ी समस्या यह है कि, जो लिखा गया है
उसी पर ही बात हो पाती है जबकि भारत के लोक की मौखिक-वाचिक परंपरा की कथा-
“ज्यों-ज्यों बूढ़े स्याम रंग, त्यों-त्यों उजवल होय” जैसी है। जो मौजूद है उसे खोज निकालने, उसे आडिओ-वीडियो और पुस्तकों-पत्रिकाओं में
संग्रहित तो किया ही जा सकता है साथ ही जो खो गया है या ख़त्म हो चुका है उसे
पुनर्जीवित करना चुनौतीपूर्ण है।
“गोदना” उत्तर प्रदेश की मुख्यधारा की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति नहीं होते हुये भी उस
समाज की जड़ों से अंदर तक जुड़ी हुई हैं। थोड़े से लोकचेतना सम्पन्न लोगों को पता है होगा
“लोक कला” कभी अभिजात्य वर्ग से जन्म नहीं लेती न ही उससे विकसित होती हैं। वह मात्र
उनके मनोरंजन का साधन भर है। “गोदना” गीत हमारी भारतीय संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। विवाह के उपरांत
पहली बार अपने ससुराल से लौटी महिलाएँ अपने देह के तमाम हिस्सों में अपने पति के
साथ अपना नाम गुदवाती थी, जिसे मिथक रूप मे देखें तो साथ नाम
गुदवाना सात जन्मों के साथ होने किवंदन्ती की पुष्टि करता है। उसके साथ ही औरतें देवी
देवताओं के चित्र भी गुदवाती हैं जिससे सुरक्षा की भावना से जुड़ा हिय देखा जाता है। “गोदना” को लेकर एक दिलचस्प जनश्रुति यह
भी है। “आदिवासियों में मान्यता है कि एक राजा बहुत ही कामुक प्रवत्ति
का था। उसे हर रात एक नई लड़की चाहिए होती थी। एक बार जिस लड़की का वह उपभोग कर लेता उसके शरीर पर
गोदने की सुई से निशान बना देता। अपनी बेटियों और बहनों को उस नरपिशाच के चंगुल से
बचाने के लिए लोगों ने उनके शरीर पर गोदने गुदाने शुरु कर दिए। बाद में यह देहकला विस्तृत होती चली गई।”
बौद्धिकता के छोर पर खड़े कुछ विद्वान
इसे बेशक अंधविश्वास कह सकते हैं परंतु विवाहित स्त्रियों के जीवन में गुदना इस
अर्थ में अनिवार्य रहा है कि, वह उनकी पवित्रता का सूचक है। विवाह बाद गोदना न करवाले वाली
स्त्रियों को अपवित्र मन लिया जाता था। अपवित्रता भी इतनी भयानक कि उनके हाथ में
पानी तक न पिया जाए। हमारे भारतीय समाज मे स्त्रियाँ तमाम बंधनों में जन्म से बांध
जी जाती हैं, जिसका कोई सामाजिक सरोकार न होते
हुये उन्हें परंपरा के नाम पर स्वीकार करना पड़ता है। नए अर्थ में देखें तो “गोदना” स्त्री मुक्ति से भी जुड़ता है, जिसे गुदवाकर वह पवित्र समाज में शामिल होने का दावा करती हैं।
दूसरे
अर्थ में देखें तो गोदना का स्त्री सौंदर्य का भी प्रतीक है। ज़ाहिर है समाज का वह
हिस्सा जिसके लिए रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी चीजें का भी अभाव हो वे सौंदर्य
को विकसित करने वाले प्रसाधन और गहने कहाँ से ला सकते हैं, लिहाज़ा
“गोदना” ही उनका सौंदर्य होता था। यह बिडम्बना ही है कि हमारे घरों की स्त्रियों के
देह पर पवित्रता का प्रमाण पत्र चिन्हित करने वाली इन “गोदना” गोदने वाली औरतों को अपवित्र समझा जाता रहा है। उन्हें हमेशा घर के ओसारे या
द्वार तक ही सीमित रखा गया। कभी आँगन तक नहीं आने दिया गया और न ही सम्मान दिया
गया। वजह यही कि वह निम्न जाति की होती हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड आदि प्रदेशों में “गोदना” की समृद्ध परंपरा रही जो अब ख़त्म हो चुकी है। “गोदना” का कारी करने वाली औरतें “नट” या “बंजारा” समुदाय की होती हैं जिनका कोई मुकम्मल ठिकाना
नहीं होता। ऊपर जिस रोटी, कपड़ा और मकान की बात मैं कर रहा था वह पूर्णता में उनके जीवन
में कभी नहीं रहा। उनका ठिकाना कभी झुग्गी-झोपड़ी से अधिक नहीं हुआ। न उनकी कोई
अस्मिता और अधिकार है क्यूंकी वह हमारे मतदान सूची से हमेशा बाहर रहे। अधिक दिन नहीं
हुये जब एक परंपरा के रूप में इसका निर्वाह किया जाता था। शादी विवाह और उत्सवों
में इन्हें बुलाकर गीत गवाया जाता था। इसके पीछे भी यही मान्यता होती थी कि ऐसे
अवसरों पर ये गीत शुभ होते हैं। अमीर और पूंजीपति वर्ग के उत्सवों को पवित्रता और
खुशियों को मानसिक संबल देने वाले गुदना गायक समाज की आज कोई पूछ नहीं है। न
उन्हें किसी उत्सव में बुलाया जाता है। बाज़ार बड़े चालाकी से लोक का फैंटेसी रच
लेता है। जो हमे लुभावने तो लगते हैं पर निम्न समाज के यथार्थ से उनका कोई लेना
देना नहीं होता। जब बाज़ार लोक के खिलाफ अपना उत्पाद लांच करता है तो सबसे पहले लोक
के लिए दुष्प्रचार करता है। “गोदना” के साथ भी यही हुआ। टिटनेस जैसी बीमारी का खौफ दिखाकर इस जमीनी कला को बाज़ार
ने पूरी तरह से ख़त्म कर दिया। जबकि अभी हुये एक शोध में पता चला
कि “गोदना” का जुड़ाव एक्यूप्रेसर विधि से भी
है। बाज़ार ने यह भी दुष्प्रचार किया कि जिन रंगों का प्रयोग “गोदना” में किया जा रहा है वह कई तरह के चरम रोगों को जन्म देता है जबकि
छत्तीसगढ़ में आज भी जो कलाकार यह कारी करते हैं उनका कहना है कि ऐसा नहीं उसके लिए
वृक्षों कि छाल और पलाश के फूलों के साथ कुछ उत्कृष्ट फूलों को सुखाकर बाक़ायदा यह
रंग बनाया जाता है। आज मशीन से शहरी युवाओं में “गोदना” का जबर्दस्त क्रेज है। आधुनिक यंत्रों द्वारा “टैटू” जैसा विकल्प पूंजीपति वर्ग ने पैदा कर लिया है। शहरी युवा ऊँची कीमत देकर “टैटू” गुदवा रहा है।
बाज़ारी व्यवस्था ने लोकप्रिय कलाओं
को थोड़ा आधुनिक बनाकर बेचने कि अद्भुत कला विकसित कर ली है। “ट्रेडीशनल को फैशन” बनाकर बेचना बाज़ार का सबसे बड़ा हुनर है। इसकी एक वजह और
भी है कि भूमंडलीकरण के प्रभाव में हमारे समाज का बहुत हिस्सा शहरों में जा कर बस
गया जो अपनी सभ्यता, संस्कृति और परंपरा से वर्षों कटा रहा।
गाँव-घर की वस्तुएं उनके लिए विदेशों में मिलना भावनात्मक रूप से जोड़ता भी है।
बाज़ार बहुत चालाकी से लोक को सुंदर बनाकर उन्हें बेच रहा है। लोग खरीद भी रहे हैं।
हमारी वह कलाएँ जो कभी हमारे घर की स्त्रियों ने अपनी भावनाओं को अभिव्यक्ति देने
के लिए चित्र के माध्यम से कभी घर की दीवारों और कपड़ों पर अभिव्यक्त किया
उसे भी आज बाज़ार बड़े स्तर पर प्रिन्ट करके बेच रहा है। मेट्रो सिटी में रहने वाले लोगो में यह शौक खूब फलीभूत
हुआ है। ग्रामीण जीवन को अभिव्यक्त करने वाले चित्रों को कपड़ों पर प्रिन्ट कर बेचने
का प्रचलन इधर तेजी से बढ़ा है। दुखद यह है की जिस समाज ने उनका ढाँचा
तैयार किया उन्हे कुछ नहीं मिलता।
शहरी लोगों में लोक के प्रति यह आकर्षण काफी हद
तक 1990 के बाद का वैश्वीकरण से निकले सिनेमा ने ही पैदा किया। जाहिर है सिनेमा
हमारे जीवन का सबसे बड़ा सम्मोहन है। उसने फिल्मों में जिस ग्रामीण परिवेश को दिखाया वह हमारे असली गाँव नहीं है।
यह सिनेमा का दुर्भाग्य ही है कि समाज का सच दिखाने का दावा करने वाला हमारा सिनेमा हमारी भावनाओं को बेचता रहा है। गाँव के नाम
पर हमेशा पंजाब की हरियाली दिखाई गई।
विवशता और निरीहता को छुपा लिया गया।
बाज़ारी संस्कृति की चाबुक “गोदना” समाज को भी पड़ा। “गोदना” को लेकर एक दृढ़ मान्यता यह भी रही है कि अंततः व्यक्ति के साथ यही जाता है।
बाकी यहीं रह जाता है। लोक हमारे इतिहास और मिथक का सबसे सही व्याख्या करता है। वह अभाव में भी जीने के तमाम
साधन धुंध लेता है बिना। लोक की जीवतता को जब भी याद करता हूँ
मुनव्वर राणा का एक शेर बड़ी शिद्दत से याद आता है- “भटकती है हवस दिन रात सोने की दुकानों में, गरीबी कान छिदवाती है तिनका डाल लेती है। ”
महेंद्र प्रजापति,
शोधार्थी, आंबेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली
संपादक- “समसामयिक सृजन”
संपर्क- 09871907081, 08802831072
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अरे। कहाँ भऊजी
पाय गइलू, दूल्हा नचनियाँ”
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