अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-2, अंक-19,दलित-आदिवासी विशेषांक (सित.-नव. 2015)
उपन्यास में रुचि न होने के
कारण, मैं
हिन्दी के बहुत-से अच्छे उपन्यासकारों को नहीं पढ़ा। उनमें भीष्म साहनी भी एक हैं।
पर जब मैंने उनका “कबिरा खड़ा बजार में” नाटक पढ़ा, जिसे पढ़ने का सुझाव मुझे रेखा अवस्थी जी ने दिया था,
तो उसे पढ़ने के
बाद मुझे लगा कि मैंने इसे पढ़ने में सचमुच देर कर दी है। ‘कबिरा खड़ा बजार में’ बाजार के कई अर्थ खुलते
हैं। वह सिर्फ माल बेचने और खरीदारी करने भर का केन्द्र नहीं है, बल्कि वह सामाजिक और
धार्मिक गतिविधियों को संचालित करने वाला केन्द्र भी है। उसमें साधुओं के अखाड़े
भी जोर-आजमाइश करते हैं, मुल्ला-पंडितों के प्रवचन भी चलते हैं और तद्नुसार सामाजिक
दंगे भी होते हैं। और हाँ उस बाजार में
जालिम कोतवाल भी है, जो यथास्थिति कायम रखने के लिए है। कुल मिलाकर बाजार समाज के कई क्षेत्रों को
एक साथ नियन्त्रित करता है। अतः कबीर यूँ ही लाठी लेकर बाजार में खड़े नहीं हुए थे,
बल्कि वह उनका
बाजार की इन्हीं परिवर्तन-विरोधी शक्तियों का प्रतिरोध था।
भीष्म साहनी के कबीर
(कॅंवल भारती)
चित्रांकन-मुकेश बिजोले(मो-09826635625) |
‘कबिरा खड़ा बजार में’ नाटक में तीन अंक हैं।
उसकी पृष्ठभूमि को रेखांकित करते हुए भीष्म साहनी अपने ‘दो शब्द’ में लिखते हैं कि गाँधी जी की
तरह कबीर को भी देश और काल से काटकर ब्रह्म में लीन अध्यात्म के गायक के रूप में
दिखाना कबीर के साथ अन्याय करना ही है। लेखक मानता है कि कबीर के अध्यात्म-पक्ष की
आधार-भूमि में ही उनके विराट व्यक्तित्व का विकास हुआ था। इस नाटक में उन्होंने कबीर के इसी पक्ष को
दिखाने का प्रयास किया है। क्या उनका यह प्रयास इस नाटक में सफल हुआ है?
नाटक के पहले अंक में कबीर
बाजार में कपड़े के थान लेकर बेचने गए हैं मन्दी होने की वजह से थान वह बस्ती के
करमदीन जुलाहे के हाथ अपने घर भिजवा देते हैं और स्वयं बाजार में ही रुक जाते हैं।
कबीर के माता पिता नीमा और नूरा चिन्तित होकर करमदीन से पूछते हैं, तो वह बताता है- ‘आज बड़े महन्त की सवारी
निकल रही थी। वहाँ महन्त के आदमियों ने किसी लौंडे को बेंत मारे। कबीर बीच में कूद
पड़ा। वे बच्चे को तो छोड़ दिए, उल्टे कबीर पर टूट पड़े। उससे पहले एक मौलवी से भी उलझ रहा
था।‘
यह संक्षेप में कबीर के ‘सामाजिक अध्यात्म’
का दिग्दर्शन है।
इसे हम कबीर की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि भी कह सकते हैं, जिसे भीष्म साहनी ने भी रेखांकित
किया है। जिन अध्यात्मवादियों में सम्वेदना ही न हो, उनका अध्यात्म भी मिथ्या ही है।
और शायद यही असम्वेदना मौलवी से उलझना के मूल में भी अवश्य रही होगी।
चलिए, नाटक में प्रवेश करते हैं। पहले ही दृश्य में कबीर के जन्म पर चर्चा है,
जो होनी भी चाहिए।
कबीर के झगड़ों से तंग नूरा और नीमा के बीच संवाद में नूरा कहता है, ‘न जाने किसको उठा लाई।
तब तो बड़ी मोहगर बनी थी, अब किए को भुगतो। यह तो सांप पालते रहे। न दीन के रहे,
न जहान के।‘
नूरा और भी कहता
है, ‘उस
वक्त भी मेरी बाईं आँख फड़की थी जिस वक्त तू उसे उठा लाई थी। अन्दर से मेरे दिल ने
कहा था कि नूरा, भूल कर रहे हो, पर तू मेरे सिर पर सवार हो गई, मै। क्या करता!’ आगे नूरा का एक और भी ताना मारता है, ‘इसे न उठा लाती’ तो क्या मालूम, मैं दूसरा निकाह कर
लेता। घर में अपना बच्चा तो होता। इसे पाल-पोसकर बड़ा किया तो यह फल भोग रहे हैं।‘ ये शब्द कबीर के कानों में भी पड़ते हैं। वह अपनी माँ नीमा
से उस पूरे वृतान्त को सुनना चाहते हैं। वह बार-बार जिद करते हैं, तो नीमा कबीर को बताती है,
‘जिस दिन तू मुझे
मिला, उस
दिन मैं ब्याहकर तेरे बाप के घर आई थी। यह मुझे ब्याहकर पालकी में ला रहा था। हम
गंगा पार कर जुलाहों की बस्ती की तरफ जा रहे थे, तभी मैं पानी पीने के लिए एक
तालाब के पास उतरी। तू मुझे वहीं पड़ा मिला। तेरे ओठों पर अभी भी तेरी माँ का दूध
लगा था। तेरा बाप और मैं तुझे निहारते ही रह गए। मेरी गोद तो अल्लाह-ताला ने मेरे
ब्याह के पहले दिन ही भर दी थी।‘ यह वृतान्त जानने के बाद कबीर की जिज्ञासा स्वाभाविक रूप से
उस स्त्री के बारे में जानने की होती है, जो उसे फेंककर गई थी। कबीर पूछते हैं, ‘कौन थी वह ?’ नीमा बताती है, ‘कोइ बेवा बामनी थी।‘
कबीर प्रतिक्रिया
में कहते हैं, ‘तब तो मैं बड़ी ऊॅंची जात का हूँ, माँ ! ब्राह्मणी का हरामी बेटा।‘
नाटक में कबीर के जन्म के ये प्रसंग
आकस्मिक नहीं हैं। यह जानते हुए कि कबीर के जन्म की इस किंवदन्ती का कोई ऐतिहासिक
और वैज्ञानिक आधार नहीं है, ये प्रसंग अगर नाटक में आए हैं, तो स्पष्ट है कि नाटककार की
वैचारिकी से इसका टकराव नहीं है। अगर होता, तो ये प्रसंग दूसरी तरह से नाटक
में आते। नाटककार के रूप में भीष्म साहनी इस किंवदन्ती की तह में नहीं गए और जिस
प्रकार इस किंवदन्ती को गढ़ने वाले ने गलती की है, उसकी स्वीकृति में नाटककार ने
उससे भी बड़ी गलती कर दी है। किंवदन्ती गढ़ने वाले वैष्णवी ब्राह्मण के लिए एक
ब्राह्मण स्त्री का चरित्र-हनन मायने नहीं रखता था, वह होता था, तो हो; पर उसके लिए कबीर को
जन्मना ब्राह्मण बनाना ज्यादा जरूरी था। इसके पीछे उसका मकसद था यह साबित करना कि
उपदेशक सिर्फ ब्राह्मण ही हो सकता है और कबीर जन्मना ब्राह्मण होने से ही इतने
बड़े सन्त बन सके। भीष्म साहनी इस किंवदन्ती का खण्डन बहुत आसानी से कर सकते थे,
अगर वह कबीर को
नूरा और नीमा का ही औरस पुत्र मानकर चलते। पर, उन्होंने भी जिस तरह कबीर के
मुंह से ही कबीर को ‘ब्राह्मणी का हरामी बेटा, कहलवाया है, वह घोर आपत्तिजनक है। लेकिन इस प्रसंग में भी वह एक बड़ी
गलती कर बैठे हैं। वह दिखाते हैं कि कबीर नीमा को उसके विवाह के पहले दिन ही पड़ा
मिला था। मतलब उनकी अभी सुहागरात भी नहीं हुई थी। कायदे से तो उस दिन से नूरा और
नीमा के वैवाहिक जीवन का आरम्भ हो रहा था। यह उनकी खुद की सन्तान के लिए भी समय की
शुरुआत थी। फिर नाटककार नूरा के मुंह से यह किस आधार पर कहलवाता है कि ‘मैं दूसरा निकाह कर
लेता। घर में अपना बच्चा तो होता?’ क्या नूरा बाँझ को ब्याहकर लाया था? अगर विवाह के कुछ साल बीतने के
बाद यह बात वह कहता, तो उसका कहना तर्कसंगत भी होता।
कबीर बाजार से घर वापस आते हैं,
तो उनकी कमर पर
खून देखकर उनकी माँ नीमा जान जाती है कि वह आज फिर कोड़े खाकर आया है। कबीर को
कोड़े एक साधु ने मारे हैं। आगे के दृश्यों में यही सब दिखाया गया है कि किस तरह
कबीर पंडित-मुल्ला का विरोध करते हुए उनके क्रोध के शिकार होते हैं। इस पर पहले ही
दृश्य में नीमा और नूरा का संवाद है। नूरा कहता है, ‘सास्तरार्थ करता फिरता है। लट्ठ
लिए लोग इसके पीछे घूमते रहते हैं।‘ नीमा कहती है, ‘सास्तरार्थ करता है न, भांग-धतूरा तो नहीं
पीता।‘ इस
पर नूरा का कथन गौरतलब है। वह कहता है, ‘मुझसे पूछ, भांग-धतूरा इतना बुरा नहीं है जितना यह सास्तरार्थ।
यह तो कभी छूटता ही नहीं, घरों के घर तबाह हो जाते हैं। सिर-फुटौवल अलग होती है।‘
कबीर शास्त्रार्थ
करता है, जिसे
नाटककार ने अशिक्षित दिखाया है। लेकिन पूरे नाटक में कबीर कहीं भी शास्त्रार्थ
करते नजर नहीं आते हैं। अगर वह शास्त्रार्थ करने के दौरान विरोधियों द्वारा पीटे
जाते, तो
कबीर का अध्यात्म ज्यादा सार्थक रूप में सामने आता। पर नाटक में कबीर का यह पक्ष
अनुपस्थित है। भीष्म साहनी के कबीर नाली के किनारे बैठकर, सत्संग करते हैं, जो उपहास पैदा करता है।
कबीर जैसा व्यक्ति नाली के किनारे सत्संग करेगा या जनता के बीच जाएगा? क्या चमार, पासी, डोम और जुलाहों की दलित
बस्तियां उनके लिए मुफीद जगह नहीं थीं?
दलित सन्तों को
नाली पर बैठाकर लेखक ने उनकी तेजस्विता और गरिमा दोनों को खत्म कर दिया है। लेखक
ने पंडित, मुल्ला और सत्ता के व्यूह में कबीर को सिर्फ एक जाति-विरोधी फकीर बनाने की ही
कोशिश की है, लेकिन उस कबीर की भी पंडित, मुल्ला और सत्ता पर छाप नहीं पड़ती है। बाजार में मन्दी की
जिस अवधारणा को लेकर नाटक आरम्भ होता है, वह बाजार भी नाटक में कहीं नजर नहीं आता है। उस समय
के श्रमिक और उत्पादक वर्ग के आर्थिक शोषण का चित्रण भी नाटक में नही है, जिसके प्रतिरोध में कबीर
खड़े हुए थे। इस तरह भीष्म साहनी के कबीर कमजोर और विफल कबीर हैं, जो बिल्कुल भी प्रभावित
नहीं करते हैं।
चौथे और पाँचवे दृश्य में भीष्म साहनी ने कबीर के गुरु को भी खोल दिया है,
गोया उसके उल्लेख
के बिना हिन्दी के किसी भी लेखक का हाजमा ठीक नहीं होता है, पर यह गनीमत है कि उन्होंने
रामानन्द का नाम नहीं दिया है, सिर्फ इशारा किया है। पृष्ठ 55 पर, रैदास पूछते हैं, ‘कल तुम किससे मिलने गए
थे, कबीर?’
कबीर बताते हैं,
‘इधर एक महात्मा
बैठते हैं, दच्छिन से आए हैं। पहले तो मैं छिप-लुककर उनके प्रवचन सुनता था। वह मेरे दिल
की बात कहते हैं। उनकी बातें सुनता हूँ तो लगता है, मेरे अन्दर की गाँठें खुल रही
हैं। मेरे संशय दूर हो रहे हैं। वह प्रेम की बात कहते हैं, ऐसा प्रेम, जिसमें न व्रत-उपवास है,
न पूजा-पाठ है,
न ऊॅंच-नीच
है।....तभी मुझे लगा, जैसे अंधेरे में प्रकाश की किरन फूटी है। मन ने कहा, कबीरदास, तुम अनपढ़ हो तो क्या, तुमने बात तो समझ ली।
जीवन का महामन्त्र तो पा लिया। मनुष्य से प्रेम करना ही सच्ची आराधना करना है। तभी
मेरे मुंह से निकला- ‘पोथी पढि़ पढि़ जग मुआ, पंडित भया न कोय, अढ़ाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।‘ लगता है, जैसे मुझे गुरु मिल गया
है; रैदास
जी, उसने
मेरे दिल की थाह पा ली है।‘
यह संवाद इससे भी लम्बा है। इतना लम्बा संवाद नाटककार ने कबीर के मुंह से उनके
अध्यात्म पर भी नहीं कहलवाया है, जितना कबीर में रामानन्द को घुसेड़ने के लिए यह गढ़ा है।
कबीर की सारी आग को यह संवाद ठण्डी कर देता है। अगर ऐसा ही था, तो कबीर फिर क्यों पीटे
जा रहे थे, जब वह रामानन्द का ही ज्ञान बखान रहे थे, कबीर दच्छिन के उस महात्मा को
स्मरण कर गा रहे हैं, ‘जब मैं भूला रे भाई, मेरे सतगुरु जुगत लखाई,’ तब काशी में कबीर का
विरोध क्यों हो रहा था, जब वह प्रेम का ही सन्देश फैला रहे थे, घृणा नहीं फैला रहे थे?
क्या कबीर के लिए
इतना आसान था किसी को गुरु बनाना। सम्भवतः नाटककार रामानन्द पर दलित लेखकों के
दृष्टिकोण से परिचित थे। इसीलिए उन्होंने विवाद से बचने के लिए दक्षिण के अनाम
महात्मा का जिक्र किया है। अब यह अनाम महात्मा रामानन्द भी हो सकते हैं, कोई और भी। पर गुरु जरूर
रहे होंगे, बिना गुरु के कोई दलित सन्त कैसे बन सकता है, ज्ञानी कैसे बन सकता है? वे तुलसी और सूर के गुरु
का जिक्र नहीं करेंगे, उस पर चर्चा भी नहीं करेंगे, पर उनके लिए कबीर के गुरु पर
चर्चा जरूरी हो जाती है, क्योंकि उसके द्वारा वे ब्राह्मण को कबीर के विचार के
केन्द्र में लाना चाहते हैं। पृष्ठ 67 पर साहनी जी कबीर के मुंह से ही कहलवा देते हैं कि
उन्हें इसी पंचगंगा घाट पर गुरु-दीक्षा मिली थी। उन्होंने यहाँ उसी किंवदन्ती को
दुहराया है, जिसमें कबीर पौ फटने से पहले पंचगंगा घाट की सीढ़ी पर लेट जाते हैं और
रामानन्द के चरण से कबीर छू जाते हैं। इस गुरु-दीक्षा को कबीर बड़े दीनता भाव से
सेना और रैदास को इस तरह सुनाते हैं- ‘बस वही हुआ। पास से गुजरे तो उनका पाँव हम पर पड़
गया। वह स्वयं तो जानते भी नहीं कि कबीर नाम का कोई जुलाहा है, जिसे उन्होंने दीक्षा दी
है, हम तो
उन्हें दूर से ही पहले भी निहारा करते थे और अब भी निहारा करेंगे। उनके चेहरे का
नूर देखके ही हमने कहा: ‘लाली मेरे लाल की जित देखूं तित लाल, लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल।‘
कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा लेकर
खूब भानमति का बेमेल कुनबा जोड़ा है साहनी जी ने। कहाँ का पद कहाँ दे मारा?
इसे कहते हैं अक्ल
के पीछे लट्ठ लेकर दौड़ना। किंवदन्ती गढ़ने वाले तो अक्ल के पीछे लट्ठ लेकर दौड़
ही रहे थे, उसका अनुसरण करने वाले भी वही कर रहे हैं। गुरु को यह नहीं मालूम कि कबीर उनका
चेला है और चेला है कि वह ब्राह्मण की लात पड़ने को ही गुरु दीक्षा समझ रहा है.
क्या भीष्म साहनी को मालूम नहीं था कि कबीर की वैचारिक लड़ाई ब्राह्मण से ही थी.
जिस ब्राह्मण के बारे वह यह कह रहे थे कि ‘ब्राह्मण गुरु जगत का, साधु का गुरु नाहीं. उरझ-पुरझ
करि मर रह्या चारो वेदा माहीं,’ वह ब्राह्मण की लात खाकर दीक्षा लेने के लिए गंगा घाट की
सीढ़ियों पर जाकर लेटेंगे? साहनी जी इतना ही समझे थे कबीर को?
सत्संग का दृश्य भी देख लिया जाए, जिसने कबीर और रैदास का ही तमाशा बना दिया है। सड़क के किनारे कबीर, रैदास, सेना, बशीरा और भक्तों का जमावड़ा होता
है। कबीर रैदास से शुरु करने को कहते हैं- ‘चलो, रैदासजी, आप शुरु करो। कोई नया पद कहा है?
रैदास पद गाते
हैं- ‘जात
भी ओछी, करम
भी ओछा, ओछा
कसब हमारा, नीचे से प्रभु ऊॅच कियो है, कहै रैदास चमारा।‘ यहाँ साहनी जी ने रैदासजी के मुंह से ही उनकी जाति
और कर्म को नीच कहलवा दिया है, बगैर यह सोचे कि रैदास ऐसा कैसे कह सकते थे? जिनकी सारी लड़ाई ही
ऊॅंच-नीच और कर्मफल के खिलाफ थी, वह अपनी जाति और अपने कर्म को नीच कहेंगे? यह कैसा लेखक था,
जिसने न कबीर को
समझा और न रैदास को, और नाटक लिख मारा। ऐसा प्रतीत होता है कि कबीर को ठिकाने लगाने के लिए भीष्म साहनी
ने किया था।
सत्संग में, रैदासजी के बाद सुनाने की बारी कबीर की आती है। वह गाते हैं- ‘मोको कहाँ ढॅूंढ़े बन्दे,
मैं तो तेरे पास
में, ना
मैं देवल, ना मैं मस्जिद, ना काबे कैलास में।‘ इसी बीच कोई लड़का आकर कबीर क झोंपड़े में आग लगने की खबर
देता है, और
सत्संग खत्म हो जाता है।क्या कबीर इतना भौंडा सत्संग करेंगे, एक फूहड़ कविगोष्ठी की
तरह, और वह
भी नाली के किनारे बैठकर, क्या इसी तरह के भौंडे सत्संगों से कबीर विचारों की आँधी
लाए थे? कबीर
जैसा व्यक्ति हजारों की भीड़ में दहाड़ता और आग बरसाता.
नाटककार ने कबीर से भण्डारा भी करवा दिया है, जिसमें सभी जातियों के लोग साथ
बैठकर भोजन करेंगे। यह एक ऐसी घटना है, जिसकी अवधारणा ही कबीर के काल में पैदा नहीं हुई थी।
यह वस्तुतः 18वीं या 19वीं सदी में अस्तित्व में आया था।
नाटक के दूसरे अंक में कबीर को प्रतिक्रियावादी दिखाया गया है। वह धर्मशास्त्र,
अर्थशास्त्र और
दर्शनशास्त्र के आलोचक के रूप में कहीं भी नजर नहीं आते हैं। उनके इस प्रयास में
कबीर कब ज्ञानी से अज्ञानी हो जाते हैं, लेखक ने इसकी भी परवाह नहीं की है। ऐसा ही एक प्रसंग
अजान का है। दूर मस्जिद में अजान होती है, तो कबीर अपनी प्रतिक्रिया देते हैं- ‘अल्लाह ताला भी बहुत
ऊॅंचे सुनने लगे हैं क्या? वाह, वाह मुल्लाजी, जरा और ऊॅंचा। और यह गाते हैं: ‘कांकर पाथर जोर करि,
मस्जिद लई चुनाय,
ता चढ़ मुल्ला
बांग दे, क्या
बहरो भयो खुदाय’.
अगर भीष्म साहनी जैसा विद्वान यह नहीं जानता था कि बांग देने का मतलब खुदा को
पुकारना नहीं है, बल्कि मस्जिद में नमाज के लिए मुसलमानों को बुलाना है, तो वह सचमुच कबीर के प्रक्षिप्त
पदों की पहिचान नहीं कर सकते थे। जिस कबीर की सारी परवरिश मुस्लिम परिवार में हुई
थी, वह
अजान पर ऐसी भौंडी टिप्पणी क्यों करेंगे? यह सच है कि कबीर स्वयं नमाज नहीं पढ़ते थे, और यह भी सच है कि वह
काजी-मुल्ला के सबसे कटु आलोचक थे, पर वह उनके आलोचक इस्लाम की वजह से नहीं थे, बल्कि इसलिए थे, क्योंकि उनका आचरण
इस्लाम के विरुद्ध था। उन्होंने कहीं भी कुरान और इस्लाम की आलोचना नहीं की है,
क्योंकि उसमें
ऊॅंच-नीच और छुआछूत नहीं थी, जबकि वह मुसलमानों में थी जिसका काजी-मुल्ला समर्थन करते
थे। यह ऊॅंच-नीच और छुआछूत मुसलमानों में हिन्दुओं से आई थी, जिसकी शिक्षा उनका धर्म
उन्हें देता था। इसलिए कबीर हिन्दूधर्म वेद-शास्त्रों और वर्णव्यवस्था का खण्डन
करते थे, जिसे
रामानन्द सम्प्रदाय के सभी सन्त मानते थे। कबीर की इस वैचारिकी को समझे बिना उनके
साथ न्याय नहीं किया जा सकता, जो इस नाटक में किया गया है।
नाटक के अन्तिम अंक में साहनी जी ने सिकन्दर लोदी के साथ कबीर का संवाद दिखाया
है। विचार की दृष्टि से यह संवाद महत्वपूर्ण है, पर ऐतिहासिक नहीं है। इतिहास के
अनुसार, सिकन्दर
लोदी के राज्यारोहण की तिथि 16 जुलाई 1489 है तथा मृत्यु की तिथि 21 नवम्बर 1517 है। अतः सिकन्दर लोदी
को कबीर का समकालीन सिद्ध करने का प्रयास अत्यन्त हास्यास्पद प्रतीत होता है।
वास्तव में कबीर सिकन्दर लोदी के पिता बहलोल लोदी के समकालीन थे। सोलहवीं और
सत्रहवीं सदी में कबीर को रामानन्द का शिष्य सिद्ध करने के उद्देश्य से गढ़ी गई
वैष्णव कहानियों में कबीर के जन्म को 1398 ई. और मृत्यु को 1518 ई. संस्थापित किया गया था, जो इतिहास से जरा भी मेल नहीं खाता है। कबीर की भेंट बहलोल
लोदी से भी कभी नहीं हुई थी। कबीर के जिस पद में उन्हें हाथी से मरवाने के प्रयास
का जिक्र मिलता है, उस में सुलतान का नहीं, काजी का नाम आता है- ‘काजी बकिवा हस्ती तौर’ और ‘अजहूँ न सूझे काजी
अॅंधेरे।‘ अस्तु
भीष्म साहनी ने सिकन्दर और कबीर के संवाद में, कल्पना से ही सही, एक ऐसे कबीर को दिखाने
की कोशिश की है, जो न हिन्दू-न मुसलमान है। और नाटक का यही तीसरा अंक कायदे से कबीर को स्थापित
करता है। पर समग्र रूप से नाटक में कबीर
को इतिहास से परे, किंवदन्तियों और प्रक्षिप्त पदो के सहारे ही चित्रित किया गया है.
कँवल भारती,चर्चित दलित चिन्तक ,रामपुर,उत्तर प्रदेश
Bht achhi samiksha kiya h sir aapne
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