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गिरीश कर्नाड की नाट्य कृति 'अग्नि और बरखा' में अभिव्यक्त समकालीन
प्रश्न
चित्रांकन-मुकेश बिजोले |
भारत के समकालीन लेखक, अभिनेता, फिल्म निर्देशक
और नाटकाकार गिरीश कर्नाड का जन्म 19 मई 1938 को महाराष्ट्र
के माथेरान नामक स्थान पर हुआ। उनका पूरा नाम गिरीश रघुनाथ कर्नाड है। इनके पिता
जी पेशे से एक डॉक्टर होने हुए भी नाटक देखने में रुचि लेने वाले थे। कर्नाड की
मातृभाषा कोंकणी है किन्तु मराठी भाषा में निपुणता के कारण इनके जीवन पर मराठी
साहित्य का गहरा प्रभाव पड़ा । इनके पिता जी के स्थानांतरण के कारण सपरिवार कर्नाटक
के सिरसी, जो कारवार जिले का छोटा सा शहर था, रहने लगे। इनकी
प्रारम्भिक शिक्षा सिरसी में ही हुई तथा साथ में कन्नड़ भाषा में भी निपुणता हासिल
की। सिरसी छोटा सा शहर होने के कारण वहाँ पर कोई थिएटर नहीं था; किन्तु कुछ नाटक
मंडलियाँ वहाँ से गुजरती तो अपना अभिनय दिखाती थी। उनका सारा परिवार नाटकों में
रुचि लेता था तथा हमेशा अभिनय के विषय में वार्तालाप होता रहता था। यद्यपि कर्नाड
बचपन से ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कवि या उपन्यासकार बनना चाहते थे; किन्तु सिरसी
में बिताए हुए दिनों का उनके जीवन पर काफी प्रभाव पड़ा तथा भविष्य में उनकी रुचि
नाटकों में बनने लगी। यही कारण था कि उन्होंने एम. ए. की पढ़ाई के दौरान अपने नाटक
की पृष्ठभूमि तैयार कर ली। आगामी शिक्षा के लिए विदेश चले गए। वहाँ पर भी उन्होनें ’यायति’ और मिथक पर काम
किया। कर्नाड का मानना है कि आधुनिक जीवन की विसंगतियों को आधुनिक परिस्थितियों
में नहीं समझाया जा सकता; जिस तरह से भूतकाल (मिथक) के द्वारा
भविष्य को दर्शाया जा सकता है। यही कारण है कि कर्नाड अपने नाटकों की पृष्ठभूमि
भूतकाल यानि मिथक से ग्रहण करके अपनी अंत:दृष्टि से वर्तमान में लाकर भविष्य को
उद्घाटित किया हैं। कर्नाड ने अपनी ज्ञान षक्ति के द्वारा भारतीय परंपरा को
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विख्यात किया। कर्नाड अपने नाटकों का पाठक/दर्शक वर्ग पर
सशक्त वास्तविक, चिंतनशीलता का व्यापक रुप में प्रभाव छोड़
जाते हैं। किसी भी महान नाटककार के लिए दो बातें महत्वपूर्ण होती हैं कि वह किस
तरह नीतियों का उपयोग परिस्थितियों के अनुकूल करता है। यह उसके प्रतिभाशाली
व्यक्तित्व पर निर्भर करता है। उन्होंने अपने नाटकों में मिथक, लोकगाथा, इतिहास और
समसामयिकता को सामाजिक, सांस्कृतिक, दार्शनिक राजनीतिक धरातल
पर विशिष्ट अनुभव के साथ प्रस्तुत किया है। जिसका उदाहरण उनके नाटकों में यायति(1961), तुगलक(1964), हयवदन(1972), नागमण्डल(1980), रक्तकल्याण(1990), अग्नि और बरखा(1995) में मिलता है।
यद्यपि कर्नाड जी ने 13 नाटक लिखे। जो
कन्नड तथा अंग्रेजी भाषा में हैं; केवल उनके छः नाटक ही हिन्दी भाषा में
उपलब्ध हैं। कर्नाड को फिल्म निर्देशन तथा अभिनय के लिए समय समय पर पुरस्कृत किया
गया। उनके लेखन के लिए उन्हें भारत सरकार ने पद्मश्री (1974),पद्मभूषण (1992), साहित्य अकादमी
पुरस्कार (1994), ज्ञानपीठ पुरस्कार (1998) दिया गया। जिस समय कर्नाड
ने कन्नड भाषा में लिखना शुरू किया; उस समय कन्नड
लेखकों पर पश्चिमी साहित्य पुनर्जागरण का गहरा प्रभाव था। इस समय लेखकों के बीच
कुछ ऐसा लिखने की होड़ थी; जो सामान्य जनता के लिए बिल्कुल नया होए
यही कारण था कि कर्नाड ने ऐतिहासिक तथा पौराणिक पात्रों से तत्कालीन व्यवस्था को
दर्शाने का तरीका अपनाया जो आगे चलकर काफी लोकप्रिय हुआ। ऐसे नाटक लिखना आसान काम
नहीं है इसके लिए लेखन में अंतर्दृष्टि, सामाजिक
सरोकारों से लगाव, ईमानदारी और प्रतिभा सभी की जरुरत होती है
अर्थात् कोई भी नाटक दर्शकों में तभी प्रभावी होता है जब उसमें सचमुच के जीवित
इंसानों की ही जिन्दगी की सच्ची और विश्वसनीय हो जिसका आभास कर्नाड के नाटकों
में होता है।
अग्नि
और बरखा’ कर्नाड द्वारा(1995) में कन्नड भाषा
में ’अग्नि मतु मले’ नामकर शीर्षक से
लिखा गया, तत्पश्च्यात नाटककार ने ही अंग्रेजी में
अनुवाद किया तथा अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद रामगोपाल बजाज ने किया। यद्यपि
नाटक की भूमिका में ही कर्नाड जी ने यह दर्शाया है कि नाटक के कथा-बीज स्त्रोत
महाभारत के अध्याय(135से198) के वन पर्व से
लिए हैं जिसमें यवक्री का वृतांत आता है और यह कथा संत लोमश द्वारा पांडवों को
उनके वनवास काल में सुनाई जाती है अतः स्पष्ट है कि उन्होंनें अपने नाटक की
पृष्ठभूमि मिथक से ली है, मिथक जिसको प्राचीन/आदिम युग में व्याप्त
परम्परा, अनुष्ठानों तथा मान्यताओं की व्याख्या
करना कहते है या प्राचीन विश्वासों , संस्कारों को
मान्यता प्रदान करना। अतः संक्षेप में मिथक मानव जाति के सामूहिक विश्वासों और
भावनाओं की मौलिक अभिव्यक्ति है, इसी मौलिक अभिव्यक्ति को आधार बनाकर कर्नाड
ने नाटक की रचना की है तथा समसामायिक परिस्थितियों को दृष्टिगोचर कराया है। नाटक
के प्रांरभ में ही कर्नाड ने यज्ञ का वर्णन किया जो भगवान इन्द्र को खुश रखने के
लिए किया जाता जिससे वर्षों के आकाल की समाप्ति हो जिसके कारण लोग अपने घरों को
छोड़कर दूसरे स्थानों में शरण ले रहे हैं। इसी बीच नाटक मंडली का आगमन तथा अध्वर्यु
(परावसु) महाराज तथा पुरोहितों का वार्तालाप तथा नाटक मंडली को अभिनय की अनुमति के
बीच से ही नाटक की वास्तविक कहानी को शुरू करना तथा एक गतिशीलता से उसकों आगे
प्रभावित करना, जिसमें अंत तक शिथिलतानहीं आती नाटककार की
प्रतिभा का ही परिणाम है। नितिलाई (एक निशाद कन्या) अरवसु(ब्राह्मण ऋशि रैभ्य का
पुत्र) दोनों की करुणामयी प्रेम कहानी से नाटक का आरंभ होता है। किन्तु बीच में ही
जातिवाद भी समस्या को कर्नाड ने उठाया है परन्तु दोनों(अरवसु-नितिलाई) जाति-भेदभाव
नहीं रखते। किन्तु नितिलाई के पिता हमेशा इस रिश्ते के प्रति संवेदनशील थे। अतः वह
नितिलाई और अरवसु की शादी तय करने के लिए पंचायत बुला लेते हैं क्योंकि यह एक पिता
की बिडम्वना है कि वह अपनी बेटी के विवाह के प्रति चिंतित हैं उनका मानना है कि ’’ऊँची जाति वाले मरदों को हमारी औरतों के
संग सोना तो अच्छा लगता है, किन्तु ब्याहने में जाति आ जाती है बीच
में’’1 अरवसु समय पर पंचायत में नहीं पंहुचता तथा
नितिलाई का ब्याह उन्हीं की जाति के एक युवक से हो जाता है अतः नितिलाई अपने पिता
के सम्मान के लिए जातिवाद की बलि पर चढ़ जाती है।
’
स्वार्थपरता की भावना मनुष्य को इतना गिरा
देती है कि अपने स्वार्थ के लिए अपनों से भी विश्वास करने से नहीं हिचकिचाता।
परावसु द्वारा अपने पिता रैभ्य की हत्या करके उसका दोषी अपने छोटे भाई अरवसु को
ठहरा कर तथा राक्षस कहकर यज्ञ मंडप से बाहर निकाल देना, जिस भाई के लिए
अरवसु के मन में इतनी श्रद्धा है कि ’कठोर! नहीं मेरे साथ तो नहीं। मेरे लिए तो
वही मेरी माँ वही मेरे पिता-बधुं, धात्री और गुरु-सखा। सब कुछ अकेले वही है
मेरे लिए। माँ ने मुझे जन्म भी दिया और मर गई। पिता ने आँख भर देखा नहीं। मेरा तो
सब कुछ उन्हीं का दिया है।’’2 किन्तु वही भाई अरवसु को जीवन से वहिष्कृत
कर देता है क्योंकि अगर पितृहत्या का दोष परावसु अपने सिर पर ले लेता तो वह
महायज्ञ से बाहर निकाल दिया जाएगा जिसका वह अध्वर्यु है, यह एक भाई का, भाई के प्रति
स्वार्थी होकर विश्वासघात करना है। समसामयिक जीवन की यह विडंबना आम बात बन
गई है।
गिरीश कर्नाड |
मनुष्य में प्रतिशोध , इर्ष्या उसमें
अपनत्व की भावना को अति संकीर्ण बना देती है यवक्री अपने पिता की मृत्यु को हत्या
मानता है और उसका प्रतिशोध वह रैभ्य के परिवार से लेना चाहता है। इसी कारण यवक्री, घृणा, प्रतिशोध, इर्ष्या की आग मे जलते हुए दस वर्षों तक
जंगल में घोर तपस्या कर आलौकिक शक्तियों प्राप्त करता है लेकिन यह ज्ञान उसके
प्रतिशोध का समाप्त नहीं कर पाता क्योंकि वह मानता है कि, ‘‘ये जो मेरी ग्रन्थि है, यह जो मेरी घृणा
है, यह जो विष है मुझमें यही सब तो मैं हूँ।
मुझमें जो भी कुछ मेरा है उसमें से कुछ भी तो अस्वीकार नहीं कंरुगा मैं। मुझे
चाहिए सारा ज्ञान और विज्ञान कि जो मेरी सारी भयानकता दुष्टता के साथ मुझे स्वीकार
कर सके।’’3 अपने इसी प्रतिशोध का बदला लेने के लिए वह
(यवक्री) अपनी पूर्व प्रेमिका विशाखा (रैभ्य की पुत्रवधु और परावसु की पत्नी) को
अपनी बातों के षड़यंत्र में फँसा कर उसे समर्पण के लिए बाध्य करता है। यवक्री के इस
षड़यंत्र का खुलासा तब होता है जब वह कहता है कि ’’सौभाग्य की बात है कि तुमने समर्पण कर
दिया। न करती तो बलात्कार करता मैं’’4 किस तरह से
मनुष्य प्रतिशोध की भावना से ग्रस्त होकर रिश्तों का हनन कर रहा हैं। उसकी नजर में
केवल इर्ष्या , घृणा, प्रतिशोध ही
प्रमुख है जिसका बदला लेकर ही उसे शांति प्राप्त होगी।
कर्नाड ने पारिवारिक इर्ष्या को भी अनेक
नाटकीय घटनाओं के सूत्र में पिरोकर प्रस्तुत किया है। एक पिता और पुत्र के मध्य
इर्ष्या को रैभ्य और परावसु के माध्यम से व्यक्त किया है, पिता रैभ्य अपने
पुत्र से कुंठित है क्योंकि उसकी आयु अधिक होने के कारण उनके पुत्र को महायज्ञ का
मुख्य पुरोहित नियुक्त किया जाता है क्योंकि यह अनुष्ठान सात वर्षों तक चलता है।
इस विषय पर रैभ्य की अभिव्यक्ति “समझा! तो तुम मेरी आयु कितनी है, यह नाप रहे थे!
हैं न? तुम और तुम्हारे सम्राट। अब मेरी जीवन
शक्ति का भान हुआ। तुम्हारा सत्र पूरा होने को है और मैं अब तक जीवित हूँ । अब तक
हूँ जीवित और प्रफुल्लित। अपने सम्राट से कहो, मैं अपने बेटों
के बाद मरुंगा। मैं जीवित रहूँगा अपने बेटों का श्राद्ध करने तक। उनकी आत्माओं का
तर्पण मैं ही करूँगा।’’5
स्त्री जाति पर होने वाले अन्याय, अत्याचार और
शोषण आदि समसामयिक घटनाएँ रोजमर्रा की जिंदगी में आए दिन सुनने को मिलती हैं।
बिशाखा की परिस्थितियाँ औरत पर होने वाले अन्याय, अत्याचार को
दर्शक/पाठक वर्ग के समक्ष प्रस्तुत करती हैं जिसमें नैतिक मूल्यों का कोई महत्व
नहीं, हर तरफ स्वार्थ ही स्वार्थ व्याप्त है
चाहे व बाप या भाई क्यों न हो, औरत का वासना का साधन मानता है। नाटक में
रैभ्य द्वारा अपनी पुत्रवधु को प्रताड़ित करके उसका बलात्कार करना। यवक्री द्वारा
षड़यंत्र करके बिशाखा को समर्पण के लिए बाध्य करना, परावसु का अपनी
पत्नी की देह को मात्र एक साधन मात्र समझना तथा उसे अकेला छोड़कर जाना आदि घटनाएँ
वर्तमान परिस्थितियों को उद्दघाटित करती हैं क्योंकि नाटककार ने विशाखा के माध्यम
से जिस परिस्थिति की कल्पना की थी यह वर्तमान समय में उजागर हो रही हैं।
परन्तु इर्ष्या , घृणा, प्रतिशोध के
अतिरिक्त कुछ नैतिक मूल्य ऐसे हैं जो समाज को एकता के सूत्र में बांध कर रखे हुए
हैं, जैसे कि नाटक में अरवसु और नितिलाई, निस्वार्थ, त्याग, प्रेमभाव से
परिपूर्ण, उनको किसी से कुछ भी नहीं चाहिए। वह
दूसरों के लिए त्याग करते हैं उसी में उन्हें संतुष्टि मिलती है। यह दो पात्र निश्छल , निर्मल, त्यागमय प्रेम, मानवमूल्यों का
प्रतीक हैं। नितिलाई पिता और परिवार के सम्मान तथा समाज की मर्यादा बनाए रखने के
लिए अपने प्रेम को भुलाकर निषाद युवक से शादी कर लेती है। वह निस्वार्थ कर्तानट
परिवार की सहायता करती है, जिन्होंने उसे आश्रय दिया था। अरवसु अपने
भाई परावसु द्वारा किए गए विश्वासघात का बदला लेना चाहता है तो वह असवसु को
समाझाती है कि ’’ बदला! तुम अपने
परिवार को देखो। यवक्री अपने पिता के अपमान का बदला लेता है तुम्हारी भाभी से।
तुम्हारे पिता उसका बदला लेते है यवक्री की हत्या करके। तुम्हारा भैय्या हत्या
करता है तुम्हारे पिता की। और अब तुम भी बदला ही लेना चाहते हो। इस चक्र का अंत
कहाँ होगा अरवसु?’’6वह अरवसु को
समझाती है कि बदला, प्रतिशोध लेना ही जिंदगी का ध्येय नहीं
है। नितिलाई अपने प्राणों की परवाह न करती हुई। अरवसु को यज्ञ मंडप र्की अग्नि से
बाहर निकालती है किन्तु उसके पति द्वारा उसकी हत्या कर दी जाती है। वह अपने
प्राणों को न्यौछावर कर देती है दूसरो की भलाई और रक्षा के लिए। दूसरी तरफ अरवसु इन्द्र से वरदान
मांगते समय नितिलाई के जीवन के स्थान पर ब्रह्मराक्षस की मुक्ति का वरदान मांगता
है। अतः अरवसु अपने व्यक्तिगत सुख की अपेक्षा जनकल्याण और मानवमूल्यों की भावना को
सर्वोपरि मानता है, यही कारण है कि नितिलाई अरवसु के त्याग
बलिदान के कारण देवता भी प्रसन्न होते है और वर्षा होती है तथा वर्षों से चले आ
रहे दुखों का अंत होता है। अतः कर्नाड ने नाटक के पात्रों के माध्यम से मनुष्य को
यह सोचने पर विवश कर दिया है कि मनुष्य में जब तक मनुष्यता जीवित है तब तक समाज का
अस्तित्व है, नहीं! तो यह समाज एक भीड़ से बढ़कर कुछ नहीं
है।
एक प्राचीन कथा के माध्यम से कर्नाड ने
अपनी कल्पना शक्ति से नाटक के पात्रों के माध्यम से 15 वर्श बाद की
स्थिति को इंगित किया है जो समकालीन समाज की गाथा है। जिसमें व्यक्ति, पारिवारिक
संबधों की दृष्टि मध्यवर्गीय परिवार और
समाज के बदले अथवा निरंतर बदल रहे मूल्यों जैसे कि पति-पत्नी केवल स्त्री-पुरूष रह
गए हैं, प्रेम का स्थान प्रायः सेक्स ने लिया है, घर परिवार की
बुनियाद हिल गर्इ् , सयुंक्त
परिवारों का विघटन, एक दूसरे के प्रति आशंका की दृष्टि आदि
घटनाओं को दर्शाता है, कहने का अभिप्राय यह है कि व्यक्तिगत, परिवारिक जीवन
तथा रिश्ते दिनों दिन कठिन होते जा रहे हैं। भौतिकवादी जीवन ही सर्वोपरि बन गया
तथा पांरपरिक नैतिकता और देह की पवित्रता पुराने जमाने की बातें बन कर रह गई है।
अतः यह नाटककार की सूक्ष्मदृष्टि का ही परिणाम है कि जिसने वर्तमान में भूतकाल की
भूमि पर भविष्य का आभास कराया जो आज हमारे समक्ष उद्दघाटित हो रहा है।
संदर्भ सूचीः-
1 'अग्नि और बरखा’, गिरीश कर्नाड, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण 2010 (पहली आवृति) पृष्ठ 24
2 वही पृष्ठ -23
3 वही पृष्ठ -45
4 वही पृष्ठ -46
5 वही पृष्ठ -43
6 वही पृष्ठ -73
सुनैना देवी,शोधार्थी,असम विश्वविद्यालय,सिलचर,असम,संपर्क सूत्र: 09857008610
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